आरसी चौहान
आज हिन्दी साहित्य उस चौराहे पर खड़ा है जहां से सड़कें चकाचौंध कर देने वाली
बहुराष्टीªय कम्पनियों , सिनेमा , बाजार और सच्चे-झूठे दावा करने वाले विज्ञापनों
की ओर जाता है और इन सड़कों पर आम आदमी आतंकवाद , उग्रवाद , भ्रष्टाचार और बलात्कार जैसे घिनौने पहियों
के निचे कुचला जाता है। ऐसे में दूर-दराज क्षेत्रों में रचनारत रचनाकारों की आवाज की
अवहेलना बहुत दिनों तक नहीं की जा सकती। इनकी आवाज को सार्थक दिशा देने के लिए राष्टीªय स्तर की तमाम पत्र-पत्रिकाओं
ने एक बड़ा मंच प्रदान किया है।
वागर्थ , नया ज्ञानोदय , हंस , कथादेश , युद्धरत आम आदमी , समसामयिक सृजन , परिकथा , युवा संवाद , संवदिया , कृतिओर , जनपथ और इसी कड़ी को एक
कदम आगे बढा़ते हुए “अंतर्राष्टीªय हिन्दी साहित्त्य विशेषांक ’’ प्रकाशित करने वाली हिमालयी
पत्रिका -हिमतरू का जुलाई-2014 अंक शीतल पवन के झोंके
की तरह आया है। यह शोधार्थियों के लिए महत्वपूर्ण दस्तावेज तो है ही , खासकर दूर-दराज क्षेत्रों
में रचनारत युवा रचनाकारों को चिह्नित कर उन्हें उत्प्रेरित करने का एक महायज्ञ भी
है। जिसकी खुशबू और आंच देर-सबेर हिन्दी साहित्य के गलियारों में बड़े धमक के साथ सुंघी
व महसूस की जाएगी। ऐसा मुझे विश्वास है।
हिमतरू का यह
अंक अपनी विशिष्टताओं के लिए जाना जाएगा । कुल्लू जैसी विषम परिस्थियां , जहां का धरातल करैले
की तरह उबड़-खाबड़ तो है ही अगर कुछ रचनाओं के स्वाद में कड़वापन लगे तो मुंह बिचकाने
की जरूरत नहीं है। हिमतरू के इस “अंतर्राष्टीªय हिन्दी साहित्य विशेषांक
’’ में
देश-विदेश के लगभग अड़सठ रचनाकारों की उनकी विभिन्न रचनाओं को प्रकाशित किया
है। किशन श्रीमान के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका के इस अंक का अतिथि सम्पादन युवा
कवि गणेश गनी ने किया है। इस अंक में रचनाकारों की वरिष्ठता क्रम को ध्यान में न रखकर
उनकी रचनाओं को किसी भी पेज में स्थान दिया गया है।
इस समीक्ष्य लेख को लिखते हुए मैंने भी किसी क्रम को प्राथमिकता नहीं दी है।
‘मैं और मेरा गांव ’ संस्मरण में हरिपाल त्यागी ने जिस सुल्ताना
डाकू को आत्मियता से याद किया है , उसका केवल किस्से-कहानियां ही सुना था । बिजनौर
से गुजरती हुई टेªन की भागमदौड़ में सुने
गये किस्सों को यहां साक्षात देखने जैसा अनुभव हो रहा है। विजय गौड़ की कहानी ‘एंटिला’ धड़कनों को स्थिर कर पूरे
वातावरण को सजीव कर देती है और पाठक कहानी की वेगवती धारा में बहने से अपने आप को रोक
नहीं पाता है। विजय जी ने अनेक को अनेकों लिखकर भ्रमित कर दिया है। जबकि जितेन्द्र
भारती की कहानी ‘एंटिला’
ठीक से खुल नहीं पाई है।सैनी अशेष और तथा कथित
स्नोवा बार्नो की कहानियों में पहाड़ी नदियों की तरह हरहराती हुई रवानी है जिसमें डूबकी
लगाए बिना इस अंक का साहित्यिक स्नान पूर्ण नहीं होता।
इन्दू पटियाल का आलेख ‘ऋषि श्रृग: लोक मान्यताएं
’ रोचक शैली में मनभावन लगा लेकिन यह आलेख वैज्ञानिक तरीके से
विवेचन करने की गहरी जांच पड़ताल की मांग करता है। जयश्री राय की कहानी ‘औरत जो नदी है’ में कहीं- कहीं शब्दों की दुरूहता कहानी प्रवाह
में खलल डालते हैं। भीतर तक झकझोर तक रख देने वाली कहानी ‘पत्थरों में आग’ मुरारी शर्मा ने बहुत ही सधे हुए लहजे में चिंगारी
को हवा दी है। जो कभी न कभी तो भ्रष्टाचार को जलाएगी ही। अगर लोकधर्मिता की बात हो
तो महेश चन्द्र पुनेठा का आलेख ‘सीमित जीवनानुभव के कवि
आलोचकों द्वारा फैलाया गया भ्रम’ पठनीय ही नहीं अपितु विचारणीय भी है। यहां लोक
की अवधारणा को बहुत ही सलिके से प्रस्तुत किया है। हो हल्ला करने वाले तो हल्ला करते
ही रहेंगे। आप ऐसे ही पहाड़ से अलख जगाते रहिए।
अग्नीशेखर की छोटी किन्तु गम्भीर कविताएं हैं वहीं शिरीष कुमार मौर्य की ‘स्थाई होती है नदियों की याददास्त ’ सजीवता का अच्छा बिम्ब रचती हैं।दूसरों पर दोषारोपड़
करने की मानवीय प्रवृति को बखूबी उजागर करती है यह कविता। स्वपनील श्रीवास्तव का संस्मरण‘ पुरू की बगिया’ और विस्तार की मांग करता
है। बहुत कम में समेटना काफी खटकता है। आग्नेय की ‘प्रायश्चित‘ कविता में कवि की बेचैनी और उद्विग्नता को स्पष्ट महसूसा जा
सकता है। यहां कवि यादों के पीछे अवसाद सी स्थिति में चला जाता है और उसे बर्रों के
छत्ते का ध्यान ही नहीं रहता। विदग्ध कर देने वाली कविता। जितेन्द्र श्रीवास्तव
की कविताएं भूत को वर्तमान
के पुल द्वारा भविष्य से जोड़ कर हिन्दी कविता का नया वितान तो रचती ही हैं वर्तमान व्यवस्था
पर करारा तंज भी कसती हैं। इनकी कविता ‘ साहब लोग रेनकोट ढ़ूढ़ रहे हैं ’ में बखूबी देखा जा सकता है।
लोक की कविता रचने वाले केशव तिवारी की ‘मेरी बुंदेली जन , खड़ा हूं निधाह’ और ‘शिवकली के लिए ’
जैसी
कविताओं की आग मई-जून की तपती दोपहरी में पठार पर बवंडर की तरह चिलचिलाते गर्म भभूका
की तरह है जिसकी आंच से बचना नामुमकीन नहीं तो मुश्किल जरूर है। रोहित जी रूसिया की
‘धरोहर’
कविता अपनी जड़ से कट रहे लोगों के लिए एक सीख
भी है और चेतावनी भी। प्रेम पगी कविताएं भी खुबसूरत हैं। युवा रचनाकार शिवेन्द्र की
कहानी और डायरी अंश की सोंधी महक बहुत देर तक जेहन में बनी रहती है। स्थानीय बोली-भाषा
के शब्दों का बड़ा वितान रचा है जो इनकी डायरी और कहानी को जीवंतता प्रदान करती है।
वर्तमान समय में मानवता की हत्या , पैसे की भूख , हृदयहिनता जैसी विकृतियां
तेजी से पनप रही हैं। कुलराजीव पंत की लघु कथा ‘जुगाड़’ में बखूबी देखा जा सकता है।अतुल पोखरेल ने ‘पहुंच’ लघुकथा में अपने हूनर को न पहचानने वालों पर
अच्छा तंज कसा है साहित्य का चरवाहा बनकर। संतोष कुमार चतुर्वेदी की कविता ‘चिकनाई ’ हमारे शरीर ही नहीं हमारे
समाज में भी मुखौटा लगाकर जाल फरेबी लोगों के रूप में चहल कदमी कर रही है।सावधानी हटी , दुर्घटना घटी , वाली बात है भई। युवा कवि हरे प्रकाश उपाध्याय
की कविता जीवन की आपाधापी में अपना रास्ता भटक-सी गयी है। हूकम ठाकुर की कविताओं में
जंगल-पहाड़ में संघर्षरत जीवन में भी आशा की नई किरणें अंगड़ाई ले रही हैं। फिर भी पहाड़
एवं पहाड़ी जीवन के दुख-दर्द को विस्मृत नहीं किया जा सकता । अविनाश मिश्र ने अपने लेख
में भोजपुरी में आई नग्नता , अभद्रता एवं फूहड़ता को बेबाक तरीके से उजागर
किया है।
आज भागमदौड़ की जिंदगी में खासकर आधी आबादी उस भीड़ में कुचल जाती है जो सुबह
से शाम तक कामों का रेला जो उनके ऊपर से गुजरता रहता है । जब तक वो उठती हैं सम्हलती
हैं उनके जीवन का बसंत जा चुका होता है। हृदय को गहरे तक वेध देने वाली पीड़ा के तीर
मन को आहत कर दिये। ‘स्त्रियों का बसंत ’ मिनाक्षी जिजीविषा की कविता पढ़ने लायक है। भरत
प्रसाद की बिल्कुल सधी हुई कविता ‘मैं कृतज्ञ हूं ’ जिसकी भाषा सुगठित , शिल्प गठा हुआ और धारा प्रवाह शब्दों की लहरें
कविता का नया वितान रचती हैं । संजु पाल की कविता पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे किसी अवसाद
की स्थिति में लिखी गई होगी यह कविता। निराशा के भाव इतने गहरे हैं कि कविता के कपाट
ठीक से खुल नहीं पाये हैं। वहीं शाहनाज इमरानी की कविताएं ‘एक दिन ’ और ‘ सड़क पर रोटी पकाती औरत
’ मानवता की कलई खोलने में कोई कोताही नहीं बरतती हैं। पहाड़ पर
लिखी कई रचनाकारों की कविताएं पढ़ने को मिली लेकिन‘ मैं पहाड़ों में रहता हूं ’ अंतर्मन को छू लेने वाली
कविता है। यहॉं चकाचौंध रोशनी में विकास के नाम पर केवल विनाश ही हो रहा है । हमारी
फितरत बन चुकी है तत्काल लाभ की , जबकि दीर्घ कालिक दुष्परिणामों
से बेखबर प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट करने पर तूले हुए हैं हम। जब कोई कहता है पहाड़ी
होते हैं भोले- भाले , कवि दीनू कश्यप की नाराजगी नाजायद नहीं मानी
जा सकती। युवा कवि विक्रम नेगी की कविता ‘उदास है कमला ’
में
शराब की वजह से बरबाद होते परिवारों की मार्मिक वेदना को अपनी भाषा , नये शिल्प व बिंब-प्रतीकों के माध्यम से कई परतों को खोलने
का प्रयास किया है । ‘जंग छिड़ी हुई थी ’
में
कवि ने कई नये प्रयोग किए हैं लेकिन नास्टेल्जिया से बचने की जरूरत है।
आरसी चौहान की कविता ‘ जूता ’
पैरों तले दबे होने के बावजूद भी समय आने पर
सच्चाई के साथ खड़े होकर तानाशाहों के थोबड़ों पर प्रहार करने से चूकता नहीं। ‘ शामिल नहीं एक भी शहीद ’ और ‘बकरा ’ जैसी कविताओं में नित्यानन्द
गायेन ने समाज के दबे-कूचले लोगों की पीड़ा को अभिव्यक्ति दी है। सुशान्त सुप्रिय भी
मानवीय क्षरण और आम जन की पीड़ा को अपनी कविताओं में उद्घाटित किया है। हंसराज भारती
का ‘ चुप का साथ ’ एवं बुद्धिलाल पाल की
कविता‘ हंसी ’
रेखांकन योग्य है जिसमें गहरे अर्थ देने की
अद्भूत क्षमता छिपी है।
मेरे प्रिय कवियों में से एक अनवर सुहैल की कविता ‘ अल्पसंख्यक या स्त्री ’ कैसी माफी’
या ‘कैसे छुपाऊं अपना वजूद ’ भावनाओं में बहकर लिखी
गई कविताएं हैं।इन्हें और कसने की जरूरत थी। अहिन्दी भाषी कवि संतोष अलेक्स की कविताएं
भी वर्णनात्मक ज्यादा हो गई हैं। अरूण शीतांश की ‘ पेड़ और लड़की ’ अंतर्मन को छू लेने वाली
कविता है जिसमें गवाह के रूप में पेड़ मौन खड़ा है और बेटियां गायब हो रही हैं। कितनी
बड़ी त्रासदी है हमारे समाज की। ‘जिन्दगी की दिशा ’
राजीव
कुमार त्रिगर्ती की छोटी किन्तु उम्मीद जगाती कविता है। कविता विकास की ‘याद आते हैं ’ प्रतिभा गोटीवाले की
‘प्रवासी पक्षी ’
में स्त्रियों के प्रति चिंता वाजीब है।
आलोचना व समीक्षा के क्षेत्र में तेजी से अपनी पहचान बना रहे युवा लेखक उमाशंकर सिंह परमार की ‘एडवांस स्टडी-नव उदारवाद-प्रतिरोध और प्रयोग
’ पढ़ने के बाद राजकुमार राकेश की पुस्तक को पढ़ने
की जिज्ञासा बलवती हो गई है। और अंत में जिन रचनाकारों की रचनाओं ने प्रभावित किया
उनमें एस. आर. हरनोट , कुंअर रवीन्द्र , शम्भू यादव , अरूण कुमार शर्मा , विक्रम मुसाफिर , कृश्ण चन्द्र महादेविया , हनुमंत किशोर के अलावा
सतीश रत्न , नवनीत शर्मा , मुसव्विर फिरोजपुरी , सुरेन्द्र कुमार , प्रखर मालवीय , नवीन नीर , शेर सिंह की गज़लें तथा डा0 ओम कुमार शर्मा की लोकधर्मिता
की परतें , डा0 उरसेम लता का यात्रा
वृतांत , कविता गुप्ता की डायरी , दीप्ति कुशवाह , मंजुषा पांडे , अंकित बेरी , केशब भट्टराई , सरोज परमार की कविताएं भी अलग-अलग भाव-भूमियों
में रची आशा की नई किरणें दिखाती हैं। ऐसे विलक्षण अंक के अतिथि सम्पादक-गनेश ग़नी और
इस अंक में सम्मलित समस्त रचनाकारों को कोटिश बधाई और शुभकामनाएं।
हिमतरू (मासिक) जुलाई-2014 , अंतर्राष्टीªय हिन्दी साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक-गनेश ग़नी
प्रधान सम्पादक-इन्दू पटियाल
इस अकं का मूल्य-101 रूपये
संपर्क सूत्र- 201 , कचोट भवन , नजदीक मुख्यडाक घर , ढालपुर , कुल्लू हि0प्र0
मोबा0-09736500069 , 09418063231
लेखक संपर्क - आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख,
टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121
मोबा0-08858229760 ईमेल- chauhanarsi123@gmail.com
जनवरी 2015 अंक ‘हिमतरू ’से साभार
जनवरी 2015 अंक ‘हिमतरू ’से साभार
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें