विक्रम सिंह 1 जनवरी 1981
समकालीन रचनाकारों में तेजी से अपनी जगह बनाते जा रहे युवा लेखक विक्रम सिंह की
कहानियां हर महिने किसी न किसी पत्रिका में आपको पढ़ने को मिल जाएंगी। इनकी कहानियां राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं
यथा – समरलोक , सम्बोधन , किस्सा , अलाव , देशबन्धु , प्रभात खबर ,जनपथ ,सर्वनाम , वर्तमान साहित्य , परिकथा , आधरशिला , साहित्य परिक्रमा , सेतु , जाहन्वी , परिंदे इत्यादि में प्रकाशित। एक कहानी परिकथा 2015 के जनवरी नव लेखन अंक में प्रकाशित एवं बहु चर्चित तथा एक-एक कहानी कथाबिंब ,
निकट , प्रगतिशील वसुधा व माटी पत्रिका में स्वीकृत । अब विभिन्न ब्लागों में
आवाजाही । परिंदे में प्रकाशित इस कहानी को
पढ़िए आज इस ब्लाग पर । आपके विचारों की हमें प्रतीक्षा रहेगी।
पुस्तक - वारिस ;कहानी संग्रह-2013
सम्प्रति- मुंजाल शोवा लि.कम्पनी में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत
कहानी
गुल्लू उर्फ उल्लू
विक्रम
सिंह
अब
जहाँ ई.सी.एल कम्पनी का क्वार्टर हैं, पहले
कभी यहाँ जंगल हुआ करता था। कहते हैं कि जब नया-नया
क्वार्टर बनने की योजना बनी तब ई.सी.एल ने जंगल को अपने बड़े-बडे बुलडोजर चला कर जंगल को साफ कर दिया। वहाँ एक साफ सुथरा मैदान
बना दिया गया था। फिर वहाँ दो रूम, एक
हाल रसोई, लेट्रिन-बाथरूम अर्थात टू बैडरूम वाले क्वार्टर
तैयार किये गये थे। और उस क्वार्टर में आने के लिए हर एक कर्मचारी कोशिश करने लगा था। उन्हीं दिनों एक परिवार मनराज चौधरी का
रहने आया था। उसके साथ एक बेटी और एक बेटा साथ आया
था। यूँ तो उसके तीन लड़के और दो लड़कियाँ थी।
मगर मंनराज और उसकी पत्नी के साथ सिर्फ उसका सबसे छोटा लड़का और बेटी ही आई थी। बाकी का परिवार गाँव में रह रहा था।
करीब
सप्ताह भर बाद एक दिन मैं सुबह-सुबह उठकर पढ़ने
बैठ गया था। सिर्फ मैं ही नहीं करीब कालोनी में
हर एक विद्यार्थी सुबह पढ़ने बैठ जाया करते थे। उन दिनों हम सब कालोनी के सब विद्यार्थी जोर-जोर से चिल्ला-चिल्ला कर पढ़ा
करते थे। कोई एक आद ही होगा जो मौन पढ़ता होगा।
कालोनी में सब की आवाज गूँजती रहती थी। उस दिन
सुबह अचानक कानों में गानों की आवाज आने लगी थी। गाना किशोर कुमार का था। मेरे सामने वाली खिड़की में एक चाँद का टुकड़ा रहता
है...........। मैं गाने सुनने में मस्त हो गया था।
करीब पन्द्रह मिनट तक एक के बाद एक सदाबहार गाने
बजते रहे। अचानक से किसी की चिल्लाने की आवाज आने लगी,'' कौन पागल सुबह-सुबह टेपरिकाँर्डर बजा रहा है। मैं घर से बाहर दरवाजे के
पास आकर खड़ा होकर देखा,तो प़ड़ोस के
ही शमसुद्दी्न मियाँ थे। और शायद नाइट शिफ्ट डयूटी कर
के आये थे। इस तरह से ऊँची आवाज में गाने बजने की वजह से उसकी नींद टूट गई थी। गाने की आवाज मनराज चौधरी के घर से आ रही थी। मुझे लगा
की मनराज को गाने सुनने का शौक होगा। मगर जब मियाँ
शमसुद्दीन लगातार गरियाते जा रहा था। मनराज का
लड़का रनजीत सिंह उर्फ गुल्लू निकला था। यूँ तो उसका नाम रनजीत सिंह था। पर उसको सब घर में गुल्लू कह कर बुलाते थे। गुल्लू
नाम पड़ने के पीछे भी कुछ कारण था क्योंकि कहानी तो मुझे
भी नहीं पता थी। बस इतना सुना था कि रनजीत
का दिमाग कुछ ऐसा था कि उसके पिता मनराज उसे हर बात पर उल्लू
कह
कर पुकारने लगे थे। रनजीत जब रुठ जाता खाना नहीं खाता तो माँ उसे बडे प्यार से मनाती थी। हमार रनजीत उल्लू थोड़े हवे हमार गोलू,
हवे
हमार सलू, हवे हमार गुल्लू हवे। बस यही से रनजीत का नाम गुल्लू पड़ गया
था। गुल्लू ने कच्छा पहन रखा था। कच्छे का नाड़ा
जूते के फीते का था। बदन पूरा नंगा था। ऐसा
लगा जैसे वह घर का काम कर रहा हो। हाँ यह सच भी था कि गुल्लू घर का काम किया करता था। वह अपने माँ के साथ घर के बर्तन, झाडू
पोंछा, कपड़े धोने तक के काम
करवाया करता था। जब वह माँ को काम करते देखता तो माँ से कहता,''माई तू कितना काम करे ली थक जात होई।. बहनी रीना भी तोहार संग काम
ना करेली।''
''बेटा
तोहार बहनी अभी छोट हई ना। बड़ हो जाई त अपने करे लगी।''
''तेा
ठीक बा माई जब ले बहनी छोट बा हम तूहार संग काम कराईब।''
बस
तब से गुल्लू माँ के हर काम में हाथ बंटाने लगा था। गुल्लू ने समसुद्दीन से कहा,''जी
क्या बात हो गई।''
''इतनी
आवाज कर के गाने क्यो सुन रहे हो।''
''जी ठीक है, आवाज कम कर देता हूँ।'' इतना
कह जैसे ही गुल्लू घर के अंदर जाने लगा कि
शमसुद्दीन ने कहा,'' उल्लू का पट्ठा कही का।'' बंदूक की
गोली की तरह हवा को चीरती हुई। शब्द गुल्लू के कानों
में ठांय से लगी। गुल्लू ने अपनी गर्दन घुमा
कर शमसुद्दीन को देखा और कहा,''उल्लू होगा तू।'' फिर एक से एक गालियाँ गुल्लू ने उसको दे दी और घर के अंदर चला गया। यह सब
देख हम सब हैरान रह गये। मगर खूब मजा आया था।
क्योंकि शमसुद्दीन की आदत थी। सुबह हो या शाम वह
अक्सर हम सब को खेलते देख हल्ला मत करो कह भगा दिया करता था। हाँ तो वह हम लोगों से गुल्लू की पहली मुलाकात थी।
उन
दिनों गुल्लू की सदाबहार गानों से उसके पास की
लड़की गुल्लू को दिल दे बैठी थी। गुल्लू भी उसे
चाहने लगा था। शायद गुल्लू से वह दिन में मिलने से डरती थी कि कही किसी ने देख लिया तो माँ बाबू जी को पता चल जायेगा। उसने गुल्लू को
पत्र में लिख के दिया था। मैं खिड़की के पास में
सोती हूँ तुम मुझसे रात को खिड़की के पास आकर
इशारा करना तो मैं जाग जाउँगी। खिड़की में आ जाउँगी। उन दिनों हमारे कालोनी में एक चोर की चर्चा थी कि वह लम्बी लकडी के आगे हुक
लगाकर रखता था। जिसकी भी खिड़की खुली देखता था। हुक
से उसके घर का सामान खींच कर भाग जाता था।
कालोनी के लोग उससे काफी परेशान थे। एक रात गुल्लू जब उसके घर में सारे गहरी नींद सो गये तो गुल्लू धीरे से दरवाजा खोल कर बाहर आ
गया और अपनी प्रेमिका के खिड़की के पास इशारा कर
उसे खिड़की के पास बुला लिया। वह आपस में बात
करने लगे। तभी अचानक एक आदमी जोर-जोर से चिल्लाने लगा,चोर....चोर।
यह सुन प्रेमिका ने गुल्लू से कहा,तुम जल्दी यहाँ से चले जाओ। गुल्लू वहाँ से जैसे ही हट कर रास्ते में आया तो गुल्लू
के सामने से चोर भाग रहा था कि गुल्लू ने उसे पकड़ कर
अपनी बाहों में जकड़ लिया। गुल्लू के पापा की
नींद हल्ले से खुल गई देखा तो दरवाजा खुला हुआ था गुल्लू घर पर नहीं है। बाहर निकल कर देखा तो गुल्लू कुछ लोगों के बीच खड़ा
था। वह सब गुल्लू को पीठ थप थपा रहे थे। गुल्लू ने
शातिर चोर को पकड़ लिया है। मनराज चौधरी की तो
होश उड़ गये इसलिये नहीं कि उसने चोर को पक़ड़ लिया वह यह कि वह
रात
को बाहर क्या कर रहा था? उस दिन गुल्लू को इनाम में खूब पिटाई
हुई थी।
गर्मियों
की छुट्टी के बाद जब स्कूल खुले तो मैंने गुल्लू को स्कूल में
अपने ही क्लास में देखा। वह पीछे की बेंच पर बैठा था। मैंने उसे आगे को बुला लिया था। वह आगे नहीं आना चाहता था मगर मेरे कहने पर आ
गया था। बाद में पता जो चला वह यह की गुल्लू किसी
दूसरे स्कूल में पाँचवीं में तीन साल फेल हो गया
था। मनराज ने हमारे इस सरकारी स्कूल में पैसे देकर सीधा आठवीं में दाखिला करवा दिया था।
क्लास
में जे.एन.यू सर आये थे। जिनकी एक अजीब आदत थी
कि वह किताब से कुछ ना कुछ ऊटपटांग सवाल पूछ लेता था। उस दिन
भी
उसने पहला सवाल गुल्लू से ही किया था। ''बता कुत्ते कितने प्रकार के होते है?''
गुल्लू
ने फट से जवाब दिया,''सर कुत्ते तीन प्रकार के होते
है।'' इतना कहने की देर थी की पूरे क्लास में जोर का ठहाका लगा था।
सर ने जोर से चिल्ला कर कहा,चुप।''
क्लास
मैं एकाएक शान्ति पसर गयी थी। ऐसा लग ही नहीं
रहा था कि क्लास में अभी-अभी जोर का ठहाका लगा हो। मास्टर साहब ने गुल्लू से कहा',''कुत्ते की तीसरी प्रजाति तूने
कहां से पैदा कर दी। जरा बताना कुत्ते
तीन प्रकार के कैसे हुए।''
''सर
एक हुआ जंगली दूसरा हुआ पालतू और तीसरा हुआ फालतू जो
गली नुक्कड़ में घूमते हैं। जहाँ मन किया हग
देते हैं।'' एक बार फिर जोर का ठहाका लगा था। मास्टर जी ने फिर से अपने तेवर से सब को चुप करा दिया था। दांत पीसते हुए गुल्लू पर डंडे
बरसाने लगे थे। डंडे बरसाने के बाद उसने गुल्लू को
उल्लू का पट्ठा कहा था। मैं डर गया कि कही
गुल्लू मास्टर जी को गाली ना दे बैठे। मन ही मन गुल्लू ने मास्टर जी की खूब माँ बहन एक की थी। मगर मैं उस दिन सोच रहा था कि गुल्लू
अपनी जगह सही है। आखिर उसने प्रेक्टिकल देख जवाब
दिया था। सही मायने में गुल्लू की वहाँ नजर
जाती थी जहाँ इंसान सोचता नहीं है।
क्योंकि
हमारे उसी स्कूल में एक बी.एच.यू सर हुआ करते थे
उनकी एक बहुत ही गंदी आदत थी। वह आकर क्लास में
बैठ जाया करते थे। और वह खंखार कर अपने बलगम को मुँह में ले आया करते थे। फिर उसे चबाते रहते थे। उस वक्त पूरे क्लास के लड़के
घृणा से भर जाते थे। अपना सर नीचे की तरफ रखते थे।
कोई भी उसे देखना नहीं चाहता था। मगर गुल्लू
उसे ध्यान से देखता रहता था। मैंने एक दिन गुल्लू से पूछा,''यार तुझे घृणा नहीं आती इस तरह उसे देखकर।''
''नहीं
दोस्त! घृणा करने वाली बात नहीं है। सोचने वाली
बात है साला यह मास्टर चालाक है। बाहर से बबलगम
खरीदने की बजाये, अच्छा है अपने अंदर से ही बबलगम निकाल कर जुगाली की जाये।''
इसका
मन रखने के लिये मैंने इतना कहा,''क्या बात की दोस्त।'
लेकिन
बाद मैं काफी देर तक इस बात को सोचता रहा कि इस तरह का किसी ने
भी क्यों नहीं सोचा।
'क्या
सचमुच बी.एच.यू सर ऐसा ही सोचकर खंखार कर
बबलगम चबाते रहते थे। शायद यह एक मनोवैज्ञानिक
प्रश्न था। लेकिन कुछ दिनों बाद हमने देखा था कि बी.एच.यू सर
ने
खंखारना छोड़ दिया था। और उसके मुँह में असली का कुछ होता था जिसे वह चबाते रहते थे।
मैंने
देखा कुछ दिनों बाद जे.एन.यू सर भी गुल्लू से खुश
हो गये थे। और गुल्लू की तीन कुत्तों वाली बात को सही ठहराने की कोशिश करने लगे थे। ''देखो बाहर के गलियों में घूमने वाले
कुत्ते जो होते है इन्हें विदेशों में स्टीट डाग
बोलते हैं। गुल्लू की बात ठीक ही थी मगर कहने का
तरीका गलत था।''
मुझे
यह सब सुन कर अद्भुत लगा था। इस रहस्य को जानने
की मुझमें प्रबल इच्छा जाग गई थी। चूकि ठण्ड का समय था और हम सब टिफिन के समय अर्थात लन्च के समय छत पर खाना खाने जाते थे।
गुल्लू ने एक दिन मुझे कहा यार चल आज हाफ डे चलते है।
उस दिन मुझे एक जंगल के बीच मैदान में ले गया
और एक हरी घास के मैदान में जाकर लेट गया। अपने बैग से मीठे बेर का आचार निकाल कर रख दिया। उस दिन खूब अच्छा लग रहा था।
हल्की-हल्की ठण्ड में सूर्य की रोशनी हमारे बदन को
गर्म कर रही थी जैसे माँ शिशु की मालिश कर रही
हो। उस पर जब मीठे बेर के आचार को मुँह में लेते थे। अजब सुखद का एहसास हो रहा था। मैंने गुल्लू से कहा,''यार गजब का
मजा आ रहा है।''
गुल्लू ने कहा,''ठण्ड में दिन में मजा खुले आसमान के
नीचे लेट कर आसमान को देखकर सभी किताब
काँपी से दूर रह कर जो मजा है ना वह और कही नहीं मेरे दोस्त। और गर्मियों में रात में छत में लेट कर आसमान के तारे देखकर सोने
में मजा है। इसलिए तो यहाँ आया हूँ। नहीं तो अभी चार
दीवारी के अंदर इन पागल टीचरों के चेहरा देख कर
पक रहे होते।''
सही
तो यह था गुल्लू के चेहरे में भविष्य को
लेकर कोई चिंता कभी नहीं रहती थी। एक दिन इसी तरह हम धूप में
बैठकर
बेर का अचार खा रहे थे। मैंने पूछा,क्या तुम्हें अपने भविष्य को लेकर कोई चिंता नहीं होती।''
वह
हसा,हा......हा......हा...!
यार तुम्हारे होते हुए मुझे क्या चिंता है।''
''वह
कैसे?''
क्योंकि
यार जब तुम पढ लिखकर बड़े ऑफिसर बनोगे। तो तुम मुझे अपना चपरासी रख लेना।''
फिर ना जाने उसने यह बात मुझसे कितनी बार कही थी। मगर गुल्लू की यह
बात सुन कर मैं मन ही मन उसे उल्लू ही समझता था।''
मैं
कहता चपरासी बनने के लिए भी कम से कम आठवीं
पास होना पड़ता है।''
खैर
मेरे अंदर जो एक रहस्य छिपा था। वह दसवीं
के रिजल्ट आने के बाद खुला था। दरअसल गुल्लू दसवीं में बडे खराब
नम्बरों से फैल हो गया था अर्थात वह प्रत्येक विषय में फेल हो गया था। मगर गुल्लू ने नवीं तक तो इस तरह के नम्बर नहीं आये थे। मैं
गुल्लू से एक दिन पूछा,''यार रनजीत तो
नवीं तक तो ठीक ठाक पास हो गया। मगर यह क्या दसवीं में
तू सारे विषयों में फेल हो गया।''
गुल्लू
दुखी होने की बजाये जोर-जोर से हंसा। वह तो मेरी
खट्टी दही और बबलगम का कमाल था। दरअसल गुल्लू ने
मुझे जो बताया था। वह यह था कि वह जे.एन.यू सर के पास टयूश्न पढ़ने लगा था। चूकि जे.एन.यू सर को डायबिटीज थी। इस वजह से गुल्लू उन्हें
हर रोज दही दिया करता था। जिससे वह बहुत खुश हो गया
था। गुल्लू हमेशा स्कूल से आने के बाद रात आठ
से नौ साइकिल लेकर जे.एन.यू सर के घर टयूश्न पढ़ने जाया करता
था।
उस समय हम सब घर पर पढा करते थे। इस वजह से हमें यह बात पता नहीं चली थी। उसने ही मुझे बताया था कि बी.एच.चू सर को बचपन में बबलगम
खाने की आदत थी मगर उसके बाबू जी कभी उसे पैसे नहीं
देते थे। उसी समय गाँव में बी.यच.चू सर को किसी
ने कह दिया था कि ''बबलगम तो तुहार बितरे बा रे बस जब मन करी
तब
खगार ला उके जीबा लिया कर।'' यह बात गुल्लू को जे.एन.यू सर ने बताई
थी। बस फिर क्या था गुल्लू ने एक दिन जो की
टीचर डे का दिन था बी.यच.यू सर को एक कलम के
साथ बड़ा पैकिट बबलगम का खरीद कर दे दिया था। और यह क्रम चलता रहा लगातार कम से कम नवी पास होने तक। लेकिन सही मायने में दोनों
सर यह अच्छी तरह जानते थे कि गुल्लू पढ़ने लिखने में
एकदम गधा है। इसलिये उसे हमेशा अच्छी तरह
पढ़ने के लिये कहते थे। बोर्ड के परीक्षा का पेपर उनके हाथों में नहीं था इसलिये वह फैल हो गया था। उस दिन मुझे समझ में आया था
क्यों गुल्लू मुझे यह कहता था कि तुम मुझे अपना
चपरासी रख लेना।
इसके
बाद गुल्लू लगातार फेल होता गया। हम सब क्लास दर
क्लास ऊपर उठते गये। अंत तक गुल्लू ने पढाई छोड़
दी थी। चूकि गुल्लू को गाने सुनने का शौक था इसी शौक ने उसे टेपरिकाँर्डर
की मरम्मत करने का मिस्त्री भी बना दिया था। सो वह धीरे-धोरे
बिजली
मिस्त्री बन गया और कई लोग अपने टेपरिकाँर्डर उसे सही कराने लगे थे। और यह वह समय था जब लोगों के पास मोबाईल डीवीडी नहीं हुआ करता
था। एक दिन गुल्लू शायद टेपरिकाँर्डर का समान लेकर
बाजार से वापस आ रहा था। तो रास्ते में उसने
देखा कि एक घर धू-धू कर के जल रहा था। अंदर से कुछ लोगो की जिसमें बच्चे और स्त्री की रोने की आवाज आ रही थी। आस-पास सभी खड़े
तमाशा देख रहे थे। गुल्लू ने आव देखा ना ताव
उसने अपनी साइकिल वही फेंक दी। किसी सुपर मैन की
तरह वह आग को चीरता हुआ अंदर छलांग लगा दिया। पलक झपकाते ही वह वापस किसी को गोद में लिए छलांग लगा कर बाहर आ गया। उसे जमीन पर
लेटा दोबारा अंदर घुस गया। लोग झट से बाहर लाये
बच्चे जिसकी उम्र मात्र सात साल की थी उसे देखने
लगी। और चिल्लाने लगे, भाई डाक्टर के पास इसे ले चलो। गुल्लू छलांग लगाकर दोबारा वापस आ गया। फिर किसी को गोद में उठा कर
लाया और उसे जमीन पर लेटा कर एक बार फिर अंदर घुस
गया। मगर इस बार गुल्लू नहीं निकला था। सब यही
सोच रहे थे फिर दोबारा गुल्लू वापस आयेगा। करीब पंद्रह मिनट तक गुल्लू नहीं निकला था। फायर दमकल आ गई उसने आग को करीब दस मिनट
में बुझा लिया था। आग बुझने के बाद गुल्लू और एक
स्त्री मृत अवस्था में मिली थी। गुल्लू को
उठा कर वही पास के एक रूम में लेटा दिया गया था। वहाँ अच्छी खासी भीड़ लग गई थी। लोग आपस में खुसुर पुसुर करने लगे थे। कोई कह
रहा,''लड़का अब जिन्दा नहीं
है। हाँ अपने जान पर खेल कर दो बच्चों की जान बचा ली है। आज कल
ऐसे बच्चे मिलना बड़ा मुश्किल है। जो दूसरों के लिए अपनी जान गवा दे। कुछ ऐसे भी लोग थे जो गुल्लू को जानते थे। वह कह रहे थे यह तो
मनराज चौधरी का लड़का है। एक सज्जन ने पास खड़े एक
व्यक्ति के कान में धीरे से कहा,''भाई अपनी
जान दाव पर लगा कर आग में इस तरह घुस जाना भी कोई समझदारी है क्या? एक नम्बर का उल्लू था यह लड़का।'' अचानक से
गुल्लू उठ कर बैठ गया किस मादर जात ने मुझे
उल्लू कहा। उल्लू होगा तू तेरा खानदान। अचानक से सारे लोग वहां से छिटक गये। कुछ पीछे को गिर गये। वह व्यक्ति जिसने यह बात कही
थी वहाँ से भाग लिया। उसके होश उड़ गये। उसके समझ
में नहीं आया गुल्लू ने यह बात कैसे सुन ली। उस
वक्त गुल्लू का चेहरा कुछ जला हुआ सा था जिससे वह और भयानक लग रहा था। लेकिन तब तक गुल्लू के माता पिता आ गये गुल्लू को
अस्पताल लेकर चले गये।
कुछ
दिनों तक कालोनी में शान्ति रही क्योंकि गुल्लू का टेपरिकार्डर
नहीं बज रहा था। कितनों के टेपरिकाँर्डर गुल्लू के पास खराब बनने
के लिये पड़े थे।
करीब
पन्र्दह दिनों बाद एक दिन सुबह-सुबह कुछ लोगों
को अखबार लेकर भागते हुए देखा। मैं समझ नहीं पाया की आज लोग बाग इस तरह अखबार लेकर क्यों भाग रहे हैं? अखबार तो
मेरे घर भी आता था। मगर अभी तक मैंने अखबार
देखा नहीं था। लेकिन इस तरह लोगों को देख मैंने भी अखबार उठा
लिया
था। उस दिन गुल्लू के बारे में अखबार में छपा था। गुल्लू को राज्य सरकार वीरता का सम्मान देने की खबर छपी थी। इस खबर से गुल्लू
की चारों तरफ चर्चा होनी शुरू हो गई थी। जिससे सबके
होश उड़ गये थे। मैंने भी गुल्लू को इसकी बधाई दी
थी। लेकिन गुल्लू के पापा तो गुल्लू के इस तरह के किये काम से खासे नाराज थे। उनको लग रहा था कि जो मैं गुल्लू के बारे में
सोचता था वह सही सोचता था गुल्लू सही में एक नम्बर
का उल्लू का पट्ठा है। अपनी जान को इस तरह जोखिम
में डाल दिया था। अगर उस दिन कुछ हो जाता तो क्या होता? उन्होंने
गुल्लू को गाँव में भेजने की योजना बना ली थी।
आखिरी
समय में गुल्लू मुझे इतना कह कर गया था,''यार मुझे याद रखना अगर ऑफिसर बन
गये तो मुझे अपना चपरासी जरूर रख लेना।''
मैंने हँस कर गुल्लू से बस इतना कहा था,'' अरे यार इतना
नाम कमाया तुमने सरकार ने तुम्हें
वीरता का सम्मान दिया है नौकरी भी तुम्हें देगी।''
गुल्लू गाँव चला गया। आगे जो मुझे गुल्लू के बारे पता चला था। वह यह
की गुल्लू का गाँव में मन नहीं लगा था। इस वजह से वह
अपने गाँव के लड़के के साथ करीब गाँव से सौ
किलोमीटर दूर एक प्राइवेट कम्पनी में इलैक्ट्रीशियन लग गया था। करीब साल भर बाद कम्पनी कर्मचारियों की छंटाई कर नई बहाली करने
लगी थी। वह इस वजह से की वह पुराने कर्मचारियों को
परमानेन्ट नहीं करना चाहती थी। और आगे चल कर
कर्मचारी परमानेन्ट करने की डिमान्ड ना कर दे। इस पर सभी कर्मचारी
एक जुट हो गये थे। गुल्लू कर्मचारियों का लीडर बन गया। कर्मचारियों
के निकाले जाने पर वह बीच सड़क के चौराहे पर आमरण अनशन पर बैठ
गया।
करीब गुल्लू सप्ताह भर अनशन पर बैठा रहा। हर दिन अखबार में गुल्लू की खबर छपने लगी। अब गुल्लू की हेल्थ चेकअप के लिए स्वास्थ्य
विभाग वाले आते और गुल्लू का स्वास्थ्य का चेकअप
कर के चले जाते थे। अगले दिन गुल्लू की स्वास्थ्य
की खबर भी छप जाती थी। कहते है उन दिनों कड़ाके की ठण्ड थी। मगर गुल्लू को ठण्ड की भी कोई परवाह नहीं थी। कर्मचारियों ने पैसे
इक्टठे कर वहाँ टेन्ट लगा दिया । कम्बल बिछा दिये
गये। कुछ लोग यह भी कह रहे थे। गुल्लू अनशन
कर के शहीद हो जायेगा। कम्पनी के मालिक तो पैसा देकर प्रशासन
तक
को खरीद लेगा। मगर गुल्लू का अनशन जारी रहा। अब कुछ नेता भी अपनी राजनैतिक रोटी सेंकने के लिए गुल्लू से मिलने आ गये। उन्होंने
साफ-साफ कहा हम इस तरह कर्मचारियों का शोषण नहीं
होने देंगे। और देखते ही देखते एक युवा नेता
भी अनशन में बैठ गया था। फिर मैनेजमेन्ट के ऑफिसरों के पुतले फूंके जाने लगे थे। मैनेजमेन्ट भी धमकी देने लगी थी कि अगर यह मामला
शांत नहीं हुआ तो हम अपना प्लान्ट उठा लेंगे।
गुल्लू ने भी साफ कहा,''हम ऐसी धमकियों से
नहीं डरेंगे।
अंत
तक श्रम अधिकारी ने कम्पनी से बात कर के मामले को शांत किया ओर धीरे-धीरे कर के
सभी कर्मचारियों को वापस ले लिया गया।
कहते हैं यही से गुल्लू की दोस्ती नेताओं से हो गर्इ्र थी। उसने पार्टी
ज्वाइन कर ली थी। पार्टी की रैलियों जुलूसों
में भी जाने लगा था। कही तो भाषण भी देने लगा था।
गुल्लू की भाषण सुन पब्लिक खूब हंसती थी।
बस
मुझे गुल्लू के बारे में यही तक पता चला था। उसके बाद मुझे गुल्लू के बारे में कुछ
नहीं पता चला था।
काफी लम्बा समय बीत गया था। मैं एक रेलवे विभाग में अधिकारी के पद
पर नौकरी कर रहा था। करीब पैंतालीस की मेरी उम्र हो
गई थी। शायद मैं गुल्लू को भूल भी गया था।
क्योंकि नौकरी के प्रेशर ने मुझे सब कुछ भुला सा दिया था। काम से आने के बाद में इतना थक जाता था कि मुझे कुछ होश नहीं रहता।
दूसरा मेरे परिवार की परेशानी अलग से जो थी।
एक
दिन जब मैं काम से घर वापस आया तो पत्नी ने
कहा,'' आप का कोई खत आया है। चाय पीते समय मैंने खत को देखा, आश्चर्य
की बात है यह खत और किसी का नहीं गुल्लू का था।
पत्र
में लिखा था। कैसे हो मेरे दोस्त। ऑफिसर बन
गये मुझे याद नहीं किया तुमने। खैर मैंने भी तो
कोई पत्र तुम्हें नहीं लिखा। लेकिन अब तुम्हारी याद मुझे बहुत आ रही है। तुम्हारे साथ कुछ पल बिताना चाहता हूँ। कही दूर
गुनगुनी धूप में बैठ कर बेर का आचार खाना चाहता
हूँ।
हाँ
एक खास बात मैं लोकसभा में आ गया हूँ।
मैं तुम्हारा दोस्त गुल्लू सांसद हो गया हूँ। मैं चाहता हूँ।
जीवन
के आखिरी समय तक साथ मिलकर काम करे। क्या तुम मेरे साथ सेक्रेटरी के तौर पर काम कर सकते हो।
आशा
है तुम मुझे ना नहीं करोगे। तुम्हारे इंतजार में तुम्हारा दोस्त।
पढ़कर एकबारगी मैं खुशी से भर गया था। मगर अगले पल मैं सोचने लगा अब
गुल्लू बड़ा आदमी हो गया है। जब लोग बडे हो जाते तो
उनके चेहरे में पट्टी बंध जाती है। हो सकता है
उसने मुझे पत्र अपने बारे में बस बताने भर के लिए ही भेजा हो। मगर गुल्लू ने मुझे पत्र भेजा है। तो मैं उसे निराश नहीं करना
चाहता था। सो में गिरते पड़ते गुल्लू के पास चला गया।
जब में गुल्लू के ऑफिस के पास पहुँचा तो
मुझे उसके दरबान ने रोक लिया था। मैं ने एक कागज की पर्ची दरबान को पकड़ा दी थी। दरबान पर्ची लेकर अंदर चला गया। मेरी सोच के
विपरीत गुल्लू बाहर आया और मुझे गले लगाते हुए
बोला' कहाँ थे मेरे दोस्त इतने दिन। और फिर उसने
मुझसे कहा 'आज सब काम काज बंद आज हम सारा दिन तुम्हारे साथ बिताएंगे।
एक
जगह जब हम दोनों बैठे हुए थे तो मैंने गुल्लू से पूछा यह सब कैसे
हो गया गुल्लू। उसने मुझे कहा,''राजनीति में नहीं आता तो तुम्हारा दोस्त मारा गया होता। क्योंकि मेरे जान के कई लोग दुश्मन बन
गये थे। इसलिये मुझे अपनी रक्षा के लिये राजनीति
में आना बहुत जरूरी था।
मैं
मन ही मन सोच रहा था। कहा गुल्लू हमेशा मुझे
चपरासी की नौकरी के लिए कहता था। और आज वह मुझे
अपना सेक्रेटरी बनने के लिए बुलाया है। ऐसा लग रहा था कि गुल्लू
हर साल इम्तहान में पास होता गया था। मैं हर साल फेल होता गया था।
परिंदे से साभार
सम्पर्क-विक्रम सिंह
बी
ब्लॉक-11, टिहरी विस्थापित कालोनी,
ज्वालापुर,न्यू शिवालिक
नगर, हरिद्वार,उत्तराखण्ड,249407
मो.9012275039
ई-मेलः bikram007.2008@rediffmail.com
बहुत बढ़िया पुस्तक समीक्षा प्रस्तुति हेतु धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंkahani hai maidam jee..
हटाएंउमेश चन्द्र पन्त tagged you in a post.
जवाब देंहटाएंउमेश wrote: "विक्रम सिंह जी की यह कहानी जरूर पढ़ें- http://l.facebook.com/puravai.blogspot.in
मैं मन ही मन सोच रहा था। कहा गुल्लू हमेशा मुझे चपरासी की नौकरी के लिए कहता था। और आज वह मुझे अपना सेक्रेटरी बनने के लिए बुलाया है। ऐसा लग रहा था कि गुल्लू हर साल इम्तहान में पास होता गया था। मैं हर साल फेल होता गया था।
जवाब देंहटाएंbahut hi sundar..kahani...
bahut achchi kahani ...
जवाब देंहटाएंPawan Kumar
बेहतरीन कहानी ...पर अंतिम पंक्ति में अटक गया हूँ
जवाब देंहटाएंमेरा मन भी गुनगुनी धूप में बैठ बचपन की किसी सहेली के साथ बेर का मीठा अचार खाने का करने लगा. कितने निस्वार्थ प्रेम में पगे होते हैं ये रिश्ते. बहुत कुछ भा गया इस कहानी में......अंदाजे बयां भी और गुल्लू भी.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कहानी ..
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ भा गया इस कहानी में...बेहतरीन..
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