जब तक हम फैसला कर पाते, दक्षिण भारतीय अफसर उन स्थानीय लड़कों के साथ ही चम्बा के लिए
निकल गए। अब साथ देने के लिए बच गया था नौजवान मैकेनिकल इंजीनियर फहीम इकबाल। हमने
एक-दूसरे को देखा, मन में चम्बा चलने का संकल्प किया और निकल
पड़े। प्रातः के आठ बजे थे। भरमौर के उस मार्ग में उस दिन चार-चार फुट ऊँची बर्फ गिरी
हुई थी। थोड़ी देर के लिए बर्फ बारी बन्द थी। मैंने जो जूते पहने थे वे चमड़े के जूते
थे, दफ्तर जाने वाले। दो-तीन किलोमीटर पैदल चलने पर ही मेरे जूतों
में बर्फ घुस गई तथा मोजे भीग गए। हमें विश्वास था कि भरमौर से खड़ामुख तक पैदल चल कर
हमें कोई टैक्सी मिल जाएगी। खड़ामुख की समुद्र तल से ऊँचाई तकरीबन 1200 मीटर है अर्थात् भरमौर की अपेक्षा आधी। इस ऊँचाई पर भारी बर्फबारी
की संभावना नहीं थी। लगभग अढ़ाई घण्टे पैदल चल कर सावधानी पूर्वक ’चलैड़ धार’ पार करते हुए हम खड़ामुख
पहँुचे। अब तक मेरे जूते पूरी तरह से भीग चुके थे।
खड़ामुख में बर्फ की परत उतनी मोटी नहीं थी।
वहाँ लगभग आधा फुट बर्फ रही होगी। पर खड़ामुख में हमें वह अपेक्षित नहीं मिला जिसका
हमें भरोसा था। वहाँ कोई भी टैक्सी नहीं थी जो कि हमें चम्बा पहुँचाती। बर्फ जो हमारे
कंधो से होते हुए रुई के फाहों की तरह हमारे ऊपर गिरी थी, उसने देह की गर्मी से पिघल कर अब तक हमें भिगोना आरंभ कर दिया था। यद्यपि हमने
जैकेट पहन रखी थीं, परंतु धीरे-धीरे जैकेट की बाहरी तह पानी से
भीग रही थी। पिछले तेरह किलोमीटर तक चार फुट से लेकर कम-से-कम घुटनों तक ऊँची बर्फ
में चलने के कारण हमें थकान महसूस होने लगी थी। परंतु अभी हमें आगे आने वाली कठिनाइयों
का आभास नहीं था। आने वाले चौबीस घण्टों में हमारे साथ जो होने वाला था, उसका हमें अभास होता, तो इस समय हम अपने आपको पूर्ण स्वस्थ्य महसूस कर रहे होते।
टैक्सी न मिलने के कारण हम दुविधा में थे।
खड़ामुख से उत्तर की ओर होली-बिजौली ग्राम जाने वाले रास्ते पर कोई तीन किलो मीटर आगे
हमारी कम्पनी का एक होस्टल था। चाहते तो हम वहाँ रुक सकते थे। पर मेरा साथी फहीम हिम्मती
था। वह आगे चलने को तैयार था। मेरे उपर तो विपदा ही थी। अतः हमने धीरे-धीरे आगे चलने
का निश्चय किया। भरोसा एक ही था, आगे कहीं-न-कहीं हमें
टैक्सी मिल जाएगी।
अब हम भरमौर के ऊँचे पहाड़ों से लगभग 1200 मीटर नीचे उतर कर रावी के किनारे पर थे। भरमौर की ओर से बहकर
आने वाला बुधिल नाला रावी नदी के साथ खड़ामुख में मिलता है। खड़ामुख पर रावी नदी के उपर
बने पुल से दाहिने हाथ को एक रास्ता चम्बे को निकलता है तथा एक रास्ता बाँए हाथ को
होली-बिजौली को चला जाता है। इस संगम से अब हमें चम्बा की ओर पैदल चलना था। रावी के
बाँए तट के साथ-साथ। यहाँ सड़क रावी नदी से कुछ ही ऊपर स्थित है, जबकि कृशकाय बुधिल नाला तो भरमौर-खड़ामुख मार्ग से एक पतली चाँदी
की रेखा जैसा ही दिखाई देता है। चम्बा से भरमौर की कुल दूरी साठ किलोमीटर से कुछ अधिक
है जिसमें से तेरह किलोमीटर की दूरी हम अब तक तय कर चुके थे। अभी लगभग सैंतालीस किलोमीटर
की दूरी और तय की जानी थी और मन में यह संकल्प था कि शाम तक हमें हर हाल में चम्बा
पहुचना है।
इस समय सुबह के साढ़े दस बज रहे थे,
परंतु सूर्य बादलों की या कह लीजिए धुंध की ओट में था। हमने
धीरे-धीरे चलना आरम्भ कर दिया। भरमौर से चम्बा के मध्य औसतन हर पाँच किलोमीटर पर एक
गाँव पड़ता है। हमने तय किया कि एक-एक गाँव को हम अपना लक्ष्य बनाकर धीरे-धीरे पैदल
चलेंगे। पहाड़ों पर लम्बी यात्रा करना हो तो धीरे-धीरे बिना रूके चलते जाना सबसे अच्छा
तरीका है। यदि आप जल्दी से रास्ता तय करने के फेर में पड़ गए तो कुछ समय के पश्चात्
थकान घेर लेगी जिससे उबर पाना मुश्किल है। हमें उम्मीद थी कि इस बीच कोई न कोई सवारी
गाड़ी हमें मिल ही जाएगी जो हमें चम्बा पहुँचा देगी। इस भरोसे पर पैदल चलते हुए हम अपने
पहले पड़ाव दुर्गेठी गाँव पहुँचे। दिन के बारह बज रहे थे। भूख लगने लगी थी। वैसे सुबह
हमने थोड़ा नाश्ता किया था, किंतु अब तक ठण्ड और
थकान से वह पूरी तरह पच गया था। गाँव की समस्त दुकानें बन्द थीं। बर्फ दोबारा गिरने
लगी थी। चम्बा से सारा आवागमन अवरुद्ध हो गया था। कुछ आगे चलने पर हमें एक चाय की गुमटी
खुली मिली। गुमटी वाले के पास चाय थी और साथ में कचौरी। वैसी कचौरी नहीं जैसी राजस्थान
में या बनारस में मिलती है, अपितु बेकरी में पकी
एक उत्तर प्रदेशीय खस्ते के जैसी चीज। मैदे की बनी यह कचौरी चाय में डालते ही घुल जाती
है तथा मुँह में पहुँचते तक लुगदी बन जाती है। ठण्ड और भूख से हम निढाल हो रहे थे।
हम कई कप चाय पी गए तथा ढेर सारी कचौरियाँ खा लीं। यह लगभग दोपहर के खाने जैसा ही था।
कुछ देर तक हम दुकान की भट्टी के सामने पसरे रहे, लकड़ी की गर्मी ने हमें सुस्त कर दिया था। जी चाहता था कि वहीं आराम से पड़े रहें।
हम अभी ताजा-ताजा याद किया सिद्धांत भूल गए थे कि लम्बी पहाड़ी यात्रा में रुकने से
थकान हावी हो जाती है। अभी तक तो हमने केवल अठारह किलोमीटर का मार्ग ही तय किया था।
हमें और आगे जाना था। मरता क्या न करता, हम न चाहते
हुए भी उठे तथा पैदल चलने लगे।
दुर्गेठी का पहला पड़ाव पार कर अब हमारा लक्ष्य
था लूणा गाँव। हमने सोचा था कि 1200 मीटर की ऊँचाई पर
बर्फबारी होने का प्रश्न नहीं उठता, पर आश्चर्यजनक
रूप से हल्की-हल्की बर्फ गिरती रही। तथापि यहाँ पर बर्फ की परत उतनी मोटी नहीं थी।
लगभग एक बजे हम लूणा पहुँचे। अपेक्षित रूप से गाँव की एक भी दुकान नहीं खुली थी। समय
तेजी से गुजर रहा था। चूँकि सूर्य निकला नहीं था, अतः प्रतीत हो रहा था कि दिन अभी बाकी है। अभी हमने आधा मार्ग भी पार नहीं किया
था और दिन आधे से अधिक निकल गया था। परिस्थितियाँ पूरी तरह से विपरीत थीं। हमने सोचा
था कि हमें मार्ग खुला मिलेगा, परंतु मार्ग अब तक
खुला नहीं था। अब ठण्ड भी बढ़ रही थी। तभी हमें पीछे से आशा की एक जोत दिखाई दी।
वह आशा की जोत थी एक मारुति जिप्सी गाड़ी।
हमारे चेहरे खिल उठे। हमने बेसब्री के साथ उस गाड़ी को रुकने का इशारा किया। अगली सीट
पर बैठे रोबदार टीकाधारी सज्जन के इशारे पर चालक ने गाड़ी रोक ली। हमने उन्हें बताया
कि हम प्रातःकाल भरमौर से पैदल चले हैं तथा हमें चम्बा जाना है। गाड़ी की पिछली सीट
खाली थी, किंतु उन सज्जन ने असमर्थता दिखाते हुए कहा
कि आगे उनके और आदमी है, जिन्हें उनके साथ गाड़ी
में जाना है। हमारे अनुनय करने पर भी उन्होंने असमर्थता दिखाते हुए गाड़ी आगे बढ़वा दी।
इस तरह वह आशा की पहली किरण धूमिल होते होती क्षितिज में विलीन हो गई। हम असहाय उसे
जाता देखते रहे। आखिरकार हम दोबारा आगे चल पड़े तथा अगले गाँव दुनाली पहुँचे। अपरान्ह
के अढ़ाई बज रहे थे। हम लगभग 23 किलोमीटर पैदल चल
चुके थे। दुनाली में भी सारी दुकानें बन्द थीं। अब मेरी देह थकान से टूट रही थे। पर
अपने आप को थका हुआ मान लेना पराजय थी। दुनाली में कुछ लोग सड़क के साथ लगी एक दुकान
के सामने बैठे आग ताप रहे थे। हमने कुछ देर तक हाथ-पैर सेंके तथा जूते और कपड़े सुखाने
प्रयास किया। कुछ आराम करके हम फिर से आगे चलने के लिए तैयार हो गए। आज हम चम्बा पहुँच
पाएँगे या नहीं, पहली बार मन में यह शंका हुई। हमें अब तक
कोई गाड़ी नहीं मिली थी।
दुनाली में किस्मत ने हमारा साथ दिया तथा
हमें पहाड़ी रास्ते से आता एक कैम्पर दिख गया। हमारी बाँछे खिल गईं। हमने उस कैम्पर
वाले से अनुनय की तो वह हमें अपने कैम्पर के डाले में बिठाने को तैयार हो गया। उसे
चम्बा जाना था। चम्बा का नाम सुनकर हम झूम उठे- अब से दो घण्टे में हम किसी होटल में
आराम कर रहे होंगे यह सोचकर। वह एक सिंगल केबिन कैम्पर था, जिसका केबिन भरा हुआ था। हमें उसके डाले पर बैठना था। पर वह डाला हमें पुष्पक-विमान
से कम नहीं लग रहा था। अब तक केवल हमारे कपड़े ही नहीं भीगे थे, अपितु अब ठण्ड से हमारी चमड़ी भी सिकुड़ना आरम्भ हो गई थी। अब
बर्फ नहीं गिर रही। अब यह वर्षा थी। बूंदा-बांदी ने हमें तर कर दिया था। पर हमें तो
किसी तरह से एक बार चम्बा पहुँचना था, बस। फिर तो
सब ठीक हो जाना था।
पर अभी सब कुछ ठीक नहीं था। जब हम दुनाली
से आगे गैहरा गाँव पहुँचे, तो उस कैम्पर वाले
को किसी ने खबर दी कि आगे रास्ता बन्द है। उसने आगे जाने से मना कर दिया। कोई दूसरा
चारा नहीं, अब हमें फिर से पैदल चलना था। हम कुल पाँच
किलो मीटर ही उस कैम्पर में जा पाए। चम्बा तक लगभग तीस किलो मीटर का मार्ग अब भी बाकी
था। हमारे पैर ठिठुर कर सुन्न हो रहे थे। पर अब आगे बढ़ने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं
था। गाँव में रुकने की सुविधा नहीं थी। यदि होती भी, तो दिन रहते रुकना हमारी पराजय थी।
जब हम गैहरा से धरवाला के लिए पैदल चले तो
निढाल थे। पर घिसटते ही सही, चलना हमारी मजबूरी
थी। तीन किलोमीटर आगे पहुँचने पर देखा कि सड़क भूस्खलन के कारण पूरी तौर पर कट चुकी
थी। लगभग तीस मीटर का मार्ग कोई पैंतालीस अंश के कोण से कट कर नीचे बीस मीटर तक फैला
हुआ था। उस पर कोई फुटपाथ भी नहीं था। ग्रेफ की रोड मेंन्टेनेन्स टीम के आने का तो
प्रश्न ही नहीं था। ढलान के पूर्व ही वह जिप्सी खड़ी थी, जिसमें वह टीका धारी सज्जन बैठ कर गए थे। जिप्सी में केवल ड्राईवर था। पूछने पर
पता चला कि वह जनाब भरमौर के ए.डी.एम. लठ्ठ साहब थे जो रास्ता बन्द होने के कारण निकल
आए थे तथा उन्हें लेने के लिए भूस्खलन के पार दूसरी गाड़ी आई थी। तो वो उस जहाज के कप्तान
थे, जिसे हम भी अभी छोड़ कर आ रहे थे। यात्रियों से पूर्व कप्तान
ने जहाज छोड़ दिया था।
अब हमें मजबूरन उस भूस्खलन से बने ढलान को
पार कर आगे जाना था। फिसलने पर सीधे रावी में जाकर गिरते। ढलान पूरी तरह से फिसलन भरी
थी। भय से हमारी जान निकल रही थी। किसी प्रकार से उकड़ूँ बैठ कर हमने वह रास्ता पार
किया। भय से मैंने ईश्वर को याद करना आरंभ कर दिया, वहीं फहीम इकबाल कुरान की आयतें पढ़ने लगा। लगभग 30 मीटर का वह स्खलन हमने मौत से खेलते हुए पार किया।
जब
मैं भूस्खलन से कटी जमीन को किसी तरह पार कर के दूसरी ओर पहुँचा तब मुझे बड़ी जोर से
गड़गड़ाहट की आवाज सुनाई दी। मैंने पीछे मुड़ करे देखा तो तेज गति से एक बड़ा सा पत्थर
ऊपर से धड़धड़ाता हुआ नीचे रावी नदी में जा कर गिरा। चंद सेकण्डों पहले मैं उस स्थान
पर था, जहाँ से वह पत्थर लुढ़का था; उसका आयतन दो-तीन घनमीटर से कम न रहा होगा। यदि मैंने थोड़ी भी
देर की होती, तो वह पत्थर मुझे सीधी रावी नदी में ले जाकर
पटकता, और तब ऐसी कोई संभावना नहीं थी कि मैं जीवित
बच पाता।
बहरहाल महामृत्युंजय मंत्र व आयत-उल-कुर्सी
पढ़ते हम धरवाला गाँव पहुँचे। दुर्भाग्य कि धरवाला में भी एक भी दुकान नहीं खुली थी,
जहाँ हम चाय इत्यादि पी सकते। शाम के साढ़े चार बज रहे थे। इसके
पश्चात् हमारे पास बस एक-डेढ़ घण्टों का ही दिन बचा था तथा हम अभी राख गाँव भी नहीं
पहुंचे थे। चम्बा राख से बीस किलोमीटर दूर है। मतलब साफ था कि आज हम चम्बा नहीं पहुँच
पाएंगे। वह एक सूरत में ही सम्भव था, जब कि हमे राख
से कोई साधन मिल पाता। पर अब हमारा यह विश्वास टूटने लगा था कि कोई गाड़ी हमें चम्बा
पहुँचाएगी।
समय कम था अतः हमने धरवाला में रुक कर समय
बिताना ठीक नहीं समझा। अब हम फिर से चलने लगे थे। इस बार बर्फ ने वास्तव में कीर्तिमान
बनाया था। धरवाला तक बर्फ पसरी हुई थी। अर्थात् भरमौर से लगभग पैंतीस किलोमीटर दूर
तक। और उस बर्फ में हम भीगते हुए काँपते बदन वे पैंतीस किलोमीटर चल चुके थे। राख पहँुचकर
यदि कोई साधन नहीं मिला तब। प्रश्न बड़ा था। उससे बड़ा सवाल यह था कि हम रुकेंगे कहाँ
पर। यदि इन भीगे कपड़ों व जूतों को सुखाने का मौका नहीं मिला तो उस बर्फानी रात में
हमारा जाने क्या होने वाला था।
क्रमशः.......
पद्मनाभ गौतम
सहायक महाप्रबंधक
भूविज्ञान व यांत्रिकी
तीस्ता चरण-टप् जल विद्युत परियोजना
पूर्वी सिक्किम, सिक्किम
737134
संपर्क -
द्वारा श्रीमती इन्द्रावती मिश्रा
स्कूल पारा, बैकुण्ठपुर
जिला-कोरिया (छ.ग.)
पिन - 497335.
मो. 9425580020
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद आरसी भाई।
जवाब देंहटाएंरोचक संस्मरण ...बधाई ...
जवाब देंहटाएंMahesh Punetha- रोचक.......बहुत अच्छा लिखा है पूरा जीया आँखों के सामने आ जाता है.
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक !
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक !
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