समकालीन युवा रचनाकारों में प्रेम नंदन के
नाम को अब बहुत दिनों तक विस्मृत नहीं किया जा सकता है। इधर इनकी रचनाओं में जो पैनी
धार देखने को मिल रही है वह इनकी सक्रियता को उजागर तो कर ही रही है, समाज में हाशिए पर खड़े लोगों की मुखर आवाज बनकर भी उभर रही है
। प्रेम नंदन किसानों ,कामगारों व आम जनता की आवाज को बहुत सिद्दत से महसूस करते हैं
और प्रकृत के विभिन्न उपादानों के माध्यम से हुक्मरानों को सचेत भी करते हैं। इस कवि
से भविष्य में काफी सम्भावनाओं की उम्मीद तो की ही जा सकती है।
1-आग से इश्क हो जाए तो फिर...
पनीली हथेलियों में फंसे
अपने ढुलमुल सिर को मसलकर
उछाल देना चाहता हूँ मैं
आकाश कि अतल गहराइयों में
ताकि भर सकें
पूरी धरती के जख्म ,
बिखेर देना चाहता हूँ
रक्त का एक-एक कतरा
शुष्क , जहरीली हवाओं में
ताकि बची रह सके
हवाओं कि नमी और कोमलता
होंठो को पूरी ताकत से भींचकर
चाहता हूँ चीखना
मैं जोर-जोर से
ताकि पिघल सके
सत्ता के कानों में घुला हुआ सीसा
इन दिनों बहुत कुछ
करना चाहता हूँ मैं
ये छोटी –सी चिंगारी
बदलेगी एक दिन जरूर
धधकती हुई आग में
आग से इश्क हो जाए तो फिर
कुछ भी असंभव नहीं !
2-सवालों के रंग
जब आदमी कि जिंदगी से जुड़े
अलग-अलग रंग के सवाल
हो जाते हैं गड्डमड्ड आपस में
तब उनका जवाब मिलता है
एक ही रंग में ,
आगे आप पर निर्भर है
कि आप उसे जोड़ते हैं
बहते हुए खून से
या उगते हुए सूर्य से !
3-प्रयोग
अपने खतरनाक विचारों को
शातिर हथियारों की तरह
प्रयोग करते हुए
जीत जाते हैं वे हमेशा
और तुम समझ लिए जाते हो कायर
सदियों से हो रहा है
इनका प्रयोग
तुम जैसे लोगों पर
वे खुश हैं बहुत
कि आज भी
पहले जितने ही कारगर हैं ये
तुम्हे कायर
और हत्यारों को
महान साबित करने में |
4- कैसा बसंत-किसका बसंत
नहीं गा सकता मैं
बसंत के गीत
ऐसे समय में
जब तड़प रहे हों खेत
मर रहे हों किसान
गाँव हो रहे हों खाली
छाई हो तंगहाली
अन्नदाता के घर ...
बसंत के गीत
ऐसे समय में
जब तड़प रहे हों खेत
मर रहे हों किसान
गाँव हो रहे हों खाली
छाई हो तंगहाली
अन्नदाता के घर ...
ये किसका बसंत?
और कैसा बसंत?
और कैसा बसंत?
5-कभी तो टूटेगी उनकी ख़ामोशी
आशान्वित हैं अब भी
उदासी के शून्य में टँगी
हजारों हजार आँखें
उदासी के शून्य में टँगी
हजारों हजार आँखें
सुनती हैं सब कुछ
देखती नहीं कुछ भी
बोलती तो कतई नहीं !
देखती नहीं कुछ भी
बोलती तो कतई नहीं !
उन आँखों को
नहीं पता
कि दुनिया की सारी आवाजें
रोशन हैं
उनकी ख़ामोशी से ।
नहीं पता
कि दुनिया की सारी आवाजें
रोशन हैं
उनकी ख़ामोशी से ।
वे नहीं जानती
कि उनकी ये ख़ामोशी
जब भी बदलेगी
आवाजों में
बहरी हो जाएंगी सत्ताएँ ।
कि उनकी ये ख़ामोशी
जब भी बदलेगी
आवाजों में
बहरी हो जाएंगी सत्ताएँ ।
उन्हें नहीं मालूम
कि जिधर भी देखेंगी वे
निर्जीव हो जाएँगे अँधेरे
कि जिधर भी देखेंगी वे
निर्जीव हो जाएँगे अँधेरे
इससे अनजान हैं वे
कि जब भी उठेंगे उनके हाथ
उनके कंधों पर उग आएंगे
करोड़ों हाथ
कि जब भी उठेंगे उनके हाथ
उनके कंधों पर उग आएंगे
करोड़ों हाथ
आखिरकार
कभी तो टूटेगी ही
उनकी ख़ामोशी
जब पता चलेगा उन्हें
कि सिर के ऊपर होने वाला है पानी !
कभी तो टूटेगी ही
उनकी ख़ामोशी
जब पता चलेगा उन्हें
कि सिर के ऊपर होने वाला है पानी !
संपर्क-
उत्तरी शकुननगर,
सिविल लाइन्स ,फतेहपुर,उ0प्र0
मो0 & 9336453835
उत्तरी शकुननगर,
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bZesy&premnandan@yahoo.in
अपने प्रतिष्ठित ब्लॉग पुरवाई में मेरी कविताओं को स्थान देने के लिए बहुत बहुत आभार मित्र
जवाब देंहटाएंअपने प्रतिष्ठित ब्लॉग पुरवाई में मेरी कविताओं को स्थान देने के लिए बहुत बहुत आभार मित्र
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविताएं बधाई
जवाब देंहटाएंजमीन से जुड़ी कविताएं बधाई।
जवाब देंहटाएं