1- मतभेद हुआ है
मेरे घर की
दीवारों में छेद
हुआ है।
चूल्हे-चौके में
शायद मतभेद हुआ
है।
धूप सुनहरी बाहर बैठी
भीतर धुआं धुआं
है।
हवा ताकती खिड़की-रोशनदानों
में कुछ ऊ
आं है।
द्वारे छपी रंगोली
रंगों से ही
कन्नी काट रही।
ठाकुर जी की
पूजा कितने दिन
से सुन्न-सपाट
रही।
शिकनों से तर
माथे सबके शुष्क
स्वेद हुआ है।
रोटी की गोलाई
बताती चूड़ी हुई
उदास है।
तरकारी की मिरच
नमक को खटपट
का अहसास है।
जलते दूध मलाई
में, चिकनी हुई
कढ़ाई में।
भाँप रहा है
कच्चा भात, रिश्ते
पड़े खटाई में।
खुसुर-पुसुर बतियाते बर्तन
कुछ तो भेद
हुआ है।
बड़ी बहू की
पाबंदी पल्लू से छूट
रही।
छोटी की मनमर्जी
से छन देहरी
टूट रही।
मंझली,संझली की पायल
के घुंघरू ठसे-ठसे हैं।
करवाचौथ के धूप
नारियल फीकी हँसी
हँसे हैं।
मुन्नी को पीहर
में आकर अबकी
खेद हुआ है।
खीझ, घुड़कियां, डांट, उलाहनों
से बच्चे हैरान
हैं।
तीखी तीखी सी
चुप्पी है बातें
तीर कमान हैं।
आधी से थोड़ा
सी ऊपर सांझी
गुल्लक अटक गई।
एक अठन्नी डाली गुड्डो
ने मम्मी क्यों
चटक गई।
इसके उसके कमरे
में प्रवेश निषेध हुआ
है।
दरी-चटाई का
आँगन में बिछना
बंद हुआ।
साँझ सुहानी का छत
पर आ हँसना
मंद हुआ।
तुलसी जी के
पत्तों में बेचैनी
दीख रही।
बरसों पहले भूल
गई जो माँ
वो सीख रही।
आपस में कुछ
काला पीला और
सफेद हुआ है।
2- खींचा-तानी है
टोका-टाकी, तीख-तल्खियां,
नीम-जुबानी है।
लगता है हल-बख्खर में कुछ
खींचा-तानी है।
प्यासी गाय रंभाती
भैंसे खूंटा तोड़
रहीं हैं।
टुकड़े-टुकड़े रस्सी को
बस गाठें जोड़
रहीं हैं।
रही लाड़ली बछिया भूखी
चाटे रोज खनौटे।
कोस-कोस कर
भारमुक्त हैं चिन्ता
जड़े मुखौटे।
बूढ़े बैलों की आँखों
मे टप-टप
पानी है।
बिना बखरनी गया पलेवा
मिट्टी सूख कराही।
टूट परेहना और नुकीली
करने लगे तबाही।
मूंछ मरोड़े चारा चमका
फसलें हुई रुआंसी।
मेढ़-मेढ़ पर
कदम छपे हैं
जैसे चाल सियासी।
भारी बांट तराजू
उतरे हल्की हुई
किसानी है।
पगड़ी को परवाह
नहीं है बढ़ने
लगे तकादे।
झक्क सफेदी कुर्ते पर
है मैले हुए
इरादे।
हंसिया और कुदाली
खुरपी टंगिया हुए
अछूत।
बिना बोहनी आधे खेतों
उड़ने लगी भभूत।
बागड़ की रखवाली
के प्रति आनाकानी
है।
चौखट बहरी हुई
हमारी खी खी
मची मुहल्लों में।
गीले आटे की
आहट पर शर्तें
लगी निठल्लों में।
सभी पुछल्ले बात बनाते
टल्ली बैठ कलाली
में।
खा-खा लिए
डकारें फोड़े छेद
समूची थाली में।
दरवाजा है नमक-हरामी देहरीया बेगानी
है।
घर-घर कानाफूसी
करती धूल उड़ी
दालान की।
परकोटे पर पीक
पड़ी है पनवाड़ी
के पान की।
पंसारी की पुड़िया
तक में चर्चा
बंधी तनाव की।
महरी राख बांटती
फिरती जलते हुए
अलाव की।
खुले किवाड़ो आती-जाती
मगरुरी मनमानी है।
- संपर्क-
- मदन मोहन 'समर'
- भोपाल, मध्य प्रदेश, India
- MO-.09425382012
- e-mail-samarkavi@rediffmail.com
अपनेपन का आज के संदर्भ में यही हाल है
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कवितायें
बधाई
बेहतरीन रचना बधाई...
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