शनिवार, 12 मई 2018

विस्थापन का दर्द आज भी सालता है : साक्षात्कार





         बाएं से श्री रामदेव धुरंधर जी दाएं गोवर्धन यादव

     मारीशस के प्रख्यात साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी को श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफ़को साहित्य सम्मान जिसमें उन्हें ग्यारह लाख  रुपये एवं प्रश्स्ति पत्र देकर 31 जनवरी 2018 को दिल्ली में सम्मानित किया गया।
उनका साक्षात्कार इंटरनेट के माध्यम से लिया है गोवर्धन यादव ने । प्रस्तुत है साक्षात्कार की कड़ियां

गोवर्धन यादव - हिन्दी के प्रचार-प्रसार करने के लिए आपको यात्राएं भी करनी होती होगीआने-जाने का खर्च भी आपको उठाना पड़ता होगा. यह सब आप कैसे कर पाते थेक्या विध्यार्थियो से कोई शुल्क वसूल करते थे?
धुरंधर जी . मैं रेडियो में प्रोग्राम करता था तो मुझे पैसा मिलता था। बाकी मैंने निशुल्क ही पढ़ाया है। साल के अंत में हम विदाई का समारोह आयोजित करते थे। हम सभी पैसे लगा कर पेय और मिठाई खरीदते थे। उस अवसर पर विद्यार्थी उपहारों से मुझे लाद देते थे। एक महिला पढ़ने आती थी। वे लोग प्याज की खेती करते थे। अपने पति के साथ वह अकसर प्याज ले कर मेरे घर पहुँचती थी। हिन्दी और हिन्दी लेखन का ऐसा भी संसार मैंने बनाया था। विद्यार्थी तो हर साल बदलते रहते थेलेकिन पुराने लोगों से मेरा नाता बना रहता था। इस तरह से दो सौ तक लोगों को मैंने हिन्दी की गरिमा के लिए तैयार कर लिया था।
     रही यह बात कि विदेश गमन के लिए मेरा खर्च कैसे पूरा होता है। बड़ी विनम्रता के साथ कहना चाहूँगा हिन्दी ने अनेकों बार स्वयं मेरा खर्च वहन किया है। 1970 में मैं पहली बार विश्व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर भारत गया था। मेरी कहानियाँ धर्मयुग आजकल सारिका आदि में प्रकाशित होती थीं। इसी के बल पर मुझे नागपुर के लिए सरकार की ओर से हवाई टिकट मिला था। सूरीनाम जाना हुआ तो इस का खर्च भी भारत सरकार ने पूरा किया। साहित्य आकादेमी, नेहरू संग्रहालय तथा इस तरह से और भी अनेक जगहों से मुझे टिकट मिलते रहे हैं। पर साथ ही मैंने अपना भी खर्च किया है।  


गोवर्धन यादव - उन दिनों आपकी कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थी. हिन्दी सीखने वालों के मन में हिन्दी के प्रति ललक जगाने के लिए  आप पत्रिकाऒं का जिक्र भी जरुर करते रहे होंगे?
धुरंधर जी - बेशक, मैं बहुत जिक्र करता था। ईश्वर की कृपा से रुचि जगाने का कौशल मुझे आता था। मेरा प्रभाव अपने विद्यार्थियों पर इसलिए तो निश्चित ही पड़ता था क्योंकि मैं साहित्य जगत में जाना जाता था। धर्मयुगसारिकाआजकल जैसी उत्कृष्ट पत्रिकाओं में मेरी कहानियाँ छपने पर मैं अपने विद्यार्थियों को प्रति दिखा कर कहता था मेरी कहानी छपी। मैं प्रकाशित कहानी किसी विद्यार्थी से पढ़वा कर मंच को खुला छोड़ता था कि जिसे उस कहानी पर कुछ बोलना हो खुल कर बोले।     मैं उन दिनों की अपनी एक खास उपलब्धि यह भी मानता हूँ कि मैंने लिखने की चाह पैदा करने में ही अपने कार्य की इतिश्री नहीं मानी थी। मैंने विद्यार्थियों से कहा था चलें एक पत्रिका का प्रकाशन शुरु करते हैं। लिखने वाले तुम लोग तो होगें ही। देश के रचनाकारों से भी रचना मांग कर पत्रिका में चार चांद लगाएँगे। पत्रिका प्रकाशित करने के लिए पैसा लगता और मेरे विद्यार्थी पैसा लगाने के लिए तैयार थे। मैंने पत्रिका का नाम रखा था -- निर्माण। पर दुर्भाग्य इस का एक ही अंक निकल पाया था। एक तो अगले साल विद्यार्थी बदल गए। रही मेरी बात, अब वक्त कम पड़ते जाने से मैं पढाने से विमुख हो जाना चाहता था।    
गोवर्धन यादव - कहानीकार होने के साथ ही आपका नाट्य लेखन भी निरन्तर जारी था. निश्चित ही आपके नाटक के किरदार आपके विद्यार्थी ही रहे होंगे. क्या आपने भी कभी इसमे अपनी अहम भूमिका का निर्वहन किया होगा?
धुरंधर जी  - सच कहूँ तो अब वह ज़माना एक सपना लगता है। मैं अपने विद्यार्थियों के साथ मिल कर नाटक तैयार करता था। नाटक मेरे लिखे होते थे और कलाकार मेरे विद्यार्थी होते थे। रेडियो और टी. वी. पर हमारे नाटक उन दिनों खूब आते थे। राष्ट्रीय स्तर पर मंत्रालय की ओर से नाटक प्रतियोगिता का आयोजन होता था जिस में हमारे नाटक अकसर फाइनिल के लिए चुने जाते थे। नाट्य लेखक के रूप में मुझे पुरस्कार मिलते थे और मेरे कलाकार भी पुरस्कृत होते थे। मेरी चर्चा तो भारतीय पत्रिका धर्मयुग तक में हुई थी। नाटक की मुख्य धारा में होने से ही ‘मुझे अंधा’ युग नाटक से जुड़ने का अवसर मिला था। जैसा कि मैं कहता हूँ श्रद्धेय धर्मवीर भारती का नाटक अंधा युग होने से और उन की धर्मयुग पत्रिका में मेरी कहानियाँ छपने से मेरे द्वार खुलते गए थे। प्रथम विश्व सम्मेलन नागपुर में हमारी ओर से यह नाटक मंचित हुआ था। निर्देशक भारतीय रंगकर्मी मोहन महर्षि थे और मैं सह निर्देशक था। पर मैंने किसी नाटक में कलाकार की हैसियत से कभी भाग नहीं लिया। यह मेरी रुचि का हिस्सा बनता नहीं था।
गोवर्धन यादव-. हिन्दी से संबंधित आप के जीवन में कोई विस्मयकारी घटना घटी होगी?
धुरंधर जी - आप ने इस प्रश्न से मेरी रगों को बहुत गहरे छुआ। मैं 1970 में जब सरकारी अध्यापक बनने के लिए इन्टरव्यू देने गया था तो यहाँ मेरे साथ एक बहुत ही विस्मयकारी घटना घटी थी। पूरे मॉरिशस से सरकारी स्कूलों में हिन्दी पढ़ाने के लिए पूरे साल में तीस तक लोगों को लिया जाता था। इस में बड़े - बड़े प्रमाण पत्र वाले होते थे। मेरे पास केवल उतने ही प्रमाण पत्र थे जिन के बल पर मैंने आवेदन की खानापूर्ति की थी। मुझे जब भीतर बुलाया गया था तो प्रोफेसर रामप्रकाश ने मेरा नाम पूछा था। वे भारतीय थे। यहाँ के शिक्षा मंत्रालय के बुलाने पर वे प्रशिक्षण देने आए थे। उन के पूछने पर मैंने नाम तो कहा था और लगे हाथ मेरी नज़र ‘अनुराग’ पत्रिका पर चली गई थी जो चार - पाँच दिन पहले प्रकाशित हुई थी। उस में मेरी लिखी पहली कहानी ‘प्रतिज्ञा’ प्रकाशित हुई थी। इन्टरव्यू के लिए प्रश्नकर्ता तीन सज्जन थे। एक मंत्रालय का प्रतिनिधि थाएक अंग्रेज़ी - फ़ेंच में पूछता और प्रोफ़ेसर रामप्रकाश हिन्दी में। मैंने हिम्मत की थी और सीधे प्रोफेसर रामप्रकाश से कहा था इस पत्रिका में मेरी एक कहानी छपी है। वे खुश हो गए थे। उन्होंने खोल कर कहानी देखने पर मुझे बधाई दी थी। आश्चर्यइतने में ही मेरा इन्टरव्यू पूरा हो गया था और दो दिन बाद मेरी भर्ती के लिए टेलिग्राम मेरे घर पहुँच गया था।
                                                                                                                            
गोवर्धन यादव . मॉरिशस में हिन्दी की क्या स्थिति है- ?
धुरंधर जी - आज मॉरिशस में हिन्दी का तो बहुत ही व्यापकता से बोलबाला हो चला है। सर्वत्र हिन्दी की पढ़ाई का शोर मचा हुआ है। परंतु हिन्दी में लेखन की बात होने से हमें दिल पर हाथ रख कर सोचना पड़ जाता है एक यही कोना क्यों सूना - सूना प्रतीत होता है। इस पर मैं अधिक बोलने से अपने को बचा लेना यथेष्ट मान रहा हूँ क्योंकि एक यही मैदान होता है जहाँ अनदेखी तलवार की झनझनाहट बहुत होती है। परंतु हाँमैं आज की युवा पीढ़ी पर बहुत भरोसा करता हूँ। आज नौकरी से रिटायर हो जाने के बाद मुझे बाहरी हवा का कुछ खास ज्ञान नहीं रहता। पर साहित्यिक गोष्ठियों में इन लोगो से मुलाकात हो जाया करती है। मुझे लगता है कक्षागत पढ़ाई में ही ये लोग आ कर ठहर जाते हैं। लिखने वाले दो तीन ही दिखते हैं और इस के आगे अंधेरे का आभास होता रहता है। किसी से उस का प्रिय लेखक पूछ लें तो शायद उस के पास जवाब न हो। तो इस तरह से छोटी - छोटी बातें हैं जो चट्टान जैसे भारीपन से हमारे सिर पर लदे होते हैं। ऐसा नहीं कि इस का निराकरण हो नहीं सकता। निराकरण कोई त्याग तपस्या नहीं मांगता। वह लगन और निष्ठा मांगता है। अब तो मॉरिशस में पढ़ाई पूरी करने में पूरी सुविधा होती है। सरकार ने अन्य भाषाओं की तरह हिन्दी के पठन पाठन के लिए निशुल्कता का प्रावधान कर रखा है। आओ और हिन्दी ले जाओ। ऐसे में मुझे नहीं लगता हिन्दी में लेखन का कोई अमावस चलना चाहिए।
गोवर्धन यादव . उम्र के सत्तरवें पड़ाव में आने से पहले तक आपका एक कहानी संग्रह –विष मंथनदो लघुकथा संग्रह- चेहरे मेरे-तुम्हारेयात्रा साथ-साथ ( प्रत्येक में लगभग ३०० लघुकथाएं हैं.)छः उपन्यास-छॊटी मछली बड़ी मछलीचेहरों का आदमीपूछॊ इस माटी से,बनते बिगड़ते रिश्तेसहमें हुए सच और अभी हाल ही में प्रकाशित उपन्यास पथरीला सोना ( छः खण्डॊ मेंजिसमे हर एक खण्ड ४००-५०० पेज के हैं.) और सौ से अधिक कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है. इस सीमा पर पहुंचकर और आगे क्या करने का मानस बना है आपका?

धुरंधर जी - अब केवल लिखना मेरा काम होता है और अपने इस काम से मुझे बहुत प्रेम है। इनदिनों मैं एक उपन्यास पर काम कर रहा हूँ। इस के बाद मेरा विचार केवल कहानियाँ लिखने का है। मेरी प्रतिनिधि कहानियों का एक संग्रह इसी महीने प्रकाशित हुआ है। 
गोवर्धन यादव - आपकी निरन्तरतासक्रियता और श्रम-साध्य लेखनी के चलते आपको अनेकानेक संस्थाओं ने सम्मानित किया है. आप अपने सम्मानों का एक ब्योरा देते तो बहुत ठीक होता।
धुरंधर जी - 2003 में सूरीनाम में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन में मुझे विश्व हिन्दी सम्मान से विभूषित किया गया था। लेखन में बराबर निष्ठा बनाये रखने से तब से सम्मानित होता आया हूँ। 2017 में मेरे दो सम्मान विशेष रुप में चर्चा में आए। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ से मुझे विश्व हिन्दी प्रसार सम्मान मिला और इस के साथ मुझे एक लाख रूपए प्राप्त हुए थे। कुछ महीनों बाद मुझे देवरिया बुला कर विश्व नागरी रत्न सम्मान प्रदान किया गया। सम्मानों की इस कड़ी में अब मेरे साथ एक और महत्पूर्ण अध्याय जुड़ गया है। मुझे श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफको सम्मान, जिस में ग्यारह लाख रूपए जुड़े हुए थे, प्राप्त होना मुझे इस सोच में ले जाता है हिन्दी के रास्ते चलते मैंने अपनी जेब की पूँजी गँवायी हो तो वह मुझे वापस मिल गई है। मुझे हिन्दी का भोला बालक मान कर किसी ने ठगी से मेरा पैसा मारा हो वह मुझे वापस वसूल हो गया है। पर इस राशि का मतलब मेरे लिए इतना ही नहीं है। मेरा देश याद रखेगा हिन्दी के लेखक रामदेव धुरंधर का महत्व विश्व हिन्दी में आँका गया था। इतनी बड़ी राशि के अक्स में मेरी परछाईं की कल्पना करने वाले लोग ज़रूर कहेंगे मैंने अपने को तपाया था और नष्ट न हो कर कुंदन बने बाहर निकला था।



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