’’बेवकूफ लोग घर बनाते हैं समझदार लोग उसमें रहते हैं ’’
(एक पुरानी कहावत)
दादा जी का बंगला उर्फ फैमिली ट्री -विक्रम सिंह
इस दुनिया में हर एक मध्यवर्गीय परिवार अपने
जीवन की आधी से ज्यादा कमाई एक सपनों का घर बनाने में लगा देता है या अपनी सारी उम्र
एक घर का लोन चुकता करने में बीता देता है। खास कर हमारे मघ्यवर्गीय परिवार अपनी आधी
जिंदगी घर बनाने के लिए पैसे जोड़ने में बीता देते है और आधी यह सोचने में कि हम अपने
पैसों से सही जगह सही घर नहीं बना पाए। ना जाने कितने तो एक घर के लिए जीवन भर कोर्ट
में केस लड़ते फिरते हैं। ऐसी ही एक कहानी हमारे भी परिवार की है।
पर
यह एक ऐसे मध्यवर्गीय परिवार की कहानी है जहाँ एक घर नहीं कुल चार घर थे। नहीं-नहीं....नहीं,
पाँच घर थे। नहीं, अभी भी गलत
बोल रहा हूं। पाँचवा घर नहीं आलीशान बंगला
था। पाँचवा घर शिमला में था। जो 11 एकड़ में फैला था।
उसके अंदर रखे कई सामान कई राजा महाराजाओं के समय के थे। उसके चारों तरफ खूबसूरत बगीचा
था। हाँ फिलहाल पाँचवे को घर ही मान कर चलते
हैं, क्योंकि मेरा मानना है की एक गरीब की झोपड़ी,कुटिया, या मध्यवर्गीय व्यक्ति
का फ्लैट,या फिर किसी अमीरजादे का बंगला,हवेली या फिर महल हो आखिर सबकी अपनी‘-अपनी नजर में घर ही होता है। हाँ तो मालिक मेरे दादा जी थे। जो 1962 में इस दुनिया को छोड़ कर चले गये थे। फिलहाल अब इस बंगले का
कौन मालिक है या भविष्य में इसका मालिक अर्थात कौन वारिस होगा? यह एक रहस्य की तरह हो गया है। यहाँ से मेरी कहानी षुरू होती
है।
चलिए तो अब पाँच घरों की कहानी पर विस्तार
से जाते हैं। मेरे दादा जी की मृत्यु के बारे में तो मुझे पता है जो मैं पहले ही बता
चुका हूँ। मगर जन्म की तारीख का मुझे पता नहीं है। हाँ घर में फिलहाल जो तस्वीर टंगी
हुई है, उस तस्वीर को देख कर मैं यह अनुमान लगा सकता
हूँ कि दादा जी जब इस दुनिया को छोड़कर मेरा मतलब जब उनका स्वर्गवास हुआ होगा,
75 से 80 साल के रहे होंगे।
कद काठी से लम्बे चौड़े दिखते होंगें। मैं दादा जी के जन्म के बारे में भी बता देता,
अगर पापा जिंदा होते तो। अब वह भी इस दुनिया में नहीं रहे,
मगर कहानी दादा जी के मरने के बाद से ही शुरू हुई थी। दादा जी
के जाने के बाद अपने पीछे छोड़ गये थे 11 एकड़ में बना बंगला। अपने पीछे अपने सात सन्तान और
पोते पोती। जिसमें दादा जी के पाँच बेटे और दो बेटियाँ हैं।
कहानी दादा जी की
बंगले की कहानी के विस्तार में जाने से पहले हम दादा जी के जीवन
के बारे में कुछ जान लेते हैं, क्योंकि दादा जी ना
होते तो यह बंगला भी ना होता। यूँ तो किसी के जीवन के बारे में किसी कहानी और उपन्यास
में समेटना आसान नहीं, नामुमकिन है,
क्योंकि इंसान अपने जीवन में अपने मन और अंतरात्मा में बहुत
कुछ समेटे रहता है। क्या सब कुछ बाहर आ पाता है? क्या वाकई किसी के जीवन को कुछ कागजी पन्नो में उतारा जा सकता है? हाँ ऐसा सम्भव है। फिर मेरी भी इस कहानी को दादाजी का जीवन ही
समझ लीजिए। दादा जी का जन्म लाहौर में हुआ था। दादा जी के पिता अर्थात मेरे परदादा
एक मामूली से किसान थे। दादा जी का नाम जीत सिंह था, पर प्यार से उन्हे गाँव में जीतू भी बुलाते थे। दादाजी बचपन से ही पढने-लिखने में
काफी होशियार थे। यूँ तो दादा जी की पढाई गाँव के एक छोटे से स्कूल से षुरू हुई थी। फिर गाँव के स्कूल से होते हुए शहर के बड़े कॉलेज
में खत्म हुई। अर्थात दादा जी जीत सिंह से ग्रेजुएट जीत सिंह हो गये। यह वह समय था,
जब देश गुलाम था।
हर इंसान गुलाम था हिंन्दू,सिख,मुस्लिम,ईसाई। तब हिन्दुस्तान
पाकिस्तान नाम के दो देश नहीं थे। सिर्फ एक
देश था हिन्दुस्तान। हर एक का यही नारा था आजादी चाहिये। हाँ,दादा जी ने
पढाई खत्म करते ही अंग्रेज सरकार के अंडर लैंड रेवन्यू की नौकरी मिल गई थी। मैं दादा
जी के बारे में यह झूठ नहीं कहूंगा कि वह देश की आजादी के लिए क्रांतिकारी बन गये थे,
मगर देश की आजादी वह भी चाहते थे, क्योंकि गुलाम तो वह भी अपने आपको समझते थे। दादा जी ने नौकरी के दौरान लाहौर मैं
कई जगह घर हो गये थे। और देश आजाद होते‘-होते दादा जी
ने लाहौर में करीब बारह घर खरीद लिए थे। अंत
समय जब देश की आजादी की माँग पूरे जोर-षोर से की थी, अंग्रेज यह समझ गए थे कि उन्हें भारत छोड़ना पड़ेगा। मगर दादा जी ने यह पहले ही भांप लिया था कि देश का बंटवारा निष्चित
है। सो वे पहले ही लाहौर छोड़ कर चले आये। वे हिमाचल के एक राजा के यहाँ लैंड रेवन्यू
(भूमि प्रबंन्घक) के तौर पर लग गए, मगर उनके बीवी‘बच्चे और उनकी बीवी
लाहौर में ही रह गये। क्योंकि दादा जी के बच्चे पढ़ रहे थे। राजा ने दादाजी को रहने के लिए एक आलीशान बंगला
दे दिया था । राजा दादा जी के काम से बहुत खुश थे। फिर दादा जी को राजा ने बड़े कम दाम
में वह बंगला बेच दिया था।
दादा जी ने जो सोचा था वही हुआ। देश का बंटवारा
पहले हुआ और आजादी बाद में मिली। बंटवारे के बाद भारत में रिफ्यूजी कैंम्प लगा कर वहाँ
से आये हिन्दुओं को उसमें रखा गया। अच्छे-खासे
लोग बेघर हो गये थे। उसी समय सरकार ने फैसला किया कि बेघर हुए लोगों को घर दिया जाए।
सरकार ने लोगों से पाकिस्तान के प्रॉपर्टी के कागजात मांगे। बंटवारे के बाद पाकिस्तान
में दादा जी के बारह घर के बदले भारत में उन्हें चार ही घर मिले। दादा जी चाहते थे
कि सात घर सात औलाद के नाम से अलग‘-अलग हो जाये,
मगर सरकार का कहना था कि जिस बच्चे की उम्र 21 साल है उसी के नाम घर हो सकता है। तो बस दादा जी के तीन लड़कों
को छोड़ कर सब छोटे थे जिसमें मेरे पापा भी शामिल थे। मेरे पापा भी उस वक्त 21 साल के नहीं हुए थे।
इस वजह से एक घर दादा जी को और उनके तीन बेटों को भारत में घर मिला। हाँ,
एक सबसे बड़ी बात यह थी कि दादा जी की दो बेटियाँ थी अगर वह 21 की होतीं भी तो उन्हें कोई पॉ्रपर्टी नहीं मिलती, क्योंकि उस वक्त ऐसा कोई प्रावधान नहीं था कि स्त्रियों को जायदाद
में हिस्सा दिया जाये। खैर बंटवारे के बाद उन घरों में ताला लग गया, क्योंकि अभी उस वक्त दादा जी के सभी बच्चे पढ़ रहे थे। पूरा परिवार
शिमला चला गया।
दादा जी के जाने के बाद की कहानी
दादा
जी के सभी लड़के पढ लिखकर अच्छे पदों पर लग गये। मगर घर से दूर-दूर.....। मगर दादी सबसे
कहती,चाहे तुम सब जहाँ भी काम काज करो मगर साल में सारे त्यौहारो
में एक साथ घर में आया करो। इसी दौरान दादा जी का र्स्वगवास हो गया। मगर दादी के रहने
तक शिमला के घर में सभी होली, दिवाली में आया करते
थे। एक दिन दादी भी चली गई और फिर सबका आना
जाना बंद हो गया। उसके पष्चात शिमला वाले घर में बस घर का एक नौकर ही रह गया। अब वह
हम सबकी नजर में नौकर था। पर शिमला के लोगों की नजर में वह मालिक था। अब बंगला उसके
हवाले था। बाकी दिल्ली में मिले दादा जी के घर को किराये पर चढ़ा दिया गया था। दादी के जाने के बाद किरायेदारो ने किराया देना
बंद कर दिया। दरअसल दादा और दादी के जाने के
बाद उन घरो का मालिक कौन है यह अभी विचाराधीन था। चूंकि उन दिनों पापा से लेकर ताऊ
तक सभी अच्छे पदो पर थे। उन्हें घर की जरूरत नहीं थी। क्योंकि सरकार की तरफ से उन्हें
भी बंगले मिले थे, और हम सब भी पढ लिख रहे थे। अंततः हम सब भी
पढ़ लिख कर नौकरियों पर लग गये थे। खैर दादा
जी के एक एक बेटा और दोनो बेटियों को छोड़ कर सब स्वर्ग सिधार गए, जिसमें मेरे पापा भी थे। हाँ मैं यह बता दूँ कि चाचा जी दादा
जी के सबसे छोटे पुत्र थे। दो फूफी उनसे भी छोटी। चाचा के भी पाँच संताने थी। जिसमें
उनके चार लड़के एक लड़की। वह सब भी अच्छे पदो पर विराजमान थे। हम सब भी दो भाई बहन थे।
हम दोनो भाई बहन भी सरकार के अच्छे पदो पर थे। वैसे और सब भी नौकरी में थे। परिवार के एक दो विदेश नौकरी में निकल गये थे।
खैर्!
मैं और मेरी बहन भी सेटल थे। माँ दिल्ली के फ्लैट में रह रही थी, जो पापा ने खरीदा था। हम सब अपने‘-अपने जीवन में व्यस्थ्त थे।
आपको यह जान कर आष्चर्य होगा हो सकता है विश्वास
भी ना हो। हम सब जब अपने‘-अपने जीवन में व्यस्थ
थे, उन्ही दिनो मेरे एक चाचा जी जिनकी उम्र 60 पार हो चुकी थी। वह रिटायरमेंट के बाद वकालत पढ़ने चले गये।
दरअसल वह शौकिया वकालत पढने गये थे। उनको जवानी में वकील बनने का शौक नहीं चढ़ा। यह
शौक उन्हें बैंक में नौकरी करते‘-करते अचानक चढ़ गया।
खैर्! यह तो उनके खुद के परिवार को भी नहीं पता चला कि उन्हें वकील बनने का भूत कब
चढा। बस मैं अनुमान लगा रहा हूँ। अब आप सब सोच रहे होगे इसका कहानी से क्या लेना देना।
मगर है उसके लिए आप को धैर्य रखना होगा, क्योंकि किसी
भी बात की तह तक पहुंचने के लिए धैर्य रखना जरूरी है। हाँ तो जब चाचा जी 60 के बाद वकालत पढने गये तो कुछ मित्र तो हंसे’’यार्! यह पोते‘-पोती खिलाने
के समय तुम्हें पढ़ाई का शौक कैसे चढ़ गया?
कुछ माँ‘-बाप तो चाचा जी को
आदर्ष मान अपने बच्चे को चाचा जी का उदाहरण देती। ’’देखो इस उम्र में भी वह पढ़ रहा है।’’ खैर जब उन्होंने
वकालत की पढ़ाई पूरी कर ली तो हर तरफ उनकी तारीफ ही हुई।
वकालत करने के बाद एक दिन उन्होंने परिवार
के लोगों को अपने घर बुलाया। हम सब तो बस यही सोचकर गये थे कि अपनी वकालत की पढ़ाई पूरी
करने की खुषी में कुछ पार्टी वार्टी देंगे। मगर जब हम सब घर पहूँचे तो ऐसा कुछ नहीं
था। घर का माहौल साधराण था। बस उनके आस पास टेबल पर कानून की किताबे रखी हुई थी।
’’देखिए मेरे कुछ भाई तो गुजर गये और अब बचे
मैं और मेरी दो छोटी बहनें। और आप सब हैं।’’ उन्होंने आगे की बात जारी रखते हुए कहा‘-’’देखिए पिता जी का शिमला वाला बंगला ऐसे ही पड़ा हुआ है। साथ ही दिल्ली वाला मकान
भी। अब हम सबको मिल जुलकर बंटवारा कर लेना चाहिए’’। हम सब एक दूसरे का चेहरा देखने लग गए। खैर, फिर दोनों फूफी ने पूछा,’’फिर आप ही बतायें कैसे
क्या करना है’’ फिर उन्होने कई साल पुरानी बंटवारे के बाद
की कहानी सुनाई। जो मैं आप सब को पहले ही बता चुका हूँ। उन्होंने पूरी कहानी बताने
के बाद कहा कि देखिए बटवारे के बाद पापा और मेरे तीन भाइयों को सरकार ने घर दे दिया
था। बचा मैं और मेरे स्वर्गीय भाई (अर्थात मेरे पिता)। उन्होंने जैसे ही मेरे पिता
का नाम लिया तो मैं खुश हो गया। और मेरी दोनों बहनें अब चूंकि संविधान में आए बदलाव
के हिसाब से अब स्त्री भी जायदाद के हिस्से की दावेदार है, हम यही चाहते हैं कि अब दादा जी के घर को हम चारों के हिस्से बांट दिया जाये।’’
अपनी बात को उन्होंने वही विराम दे दिया। सब एक दूसरे का मुँह
देखने लगे। न कोई हंसा न रोयां। न ही किसी ने कोई प्रतिक्रिया दी। कुछ देर में ही सब
अपने‘-अपने घर चले गए।
उस दिन बंटवारे की बात को चिंगारी मिली। सप्ताह
भर होते‘-होते हर एक का फोन चाचा जी को आना शुरू हो
गया। सबने यही कहा,’’यह दादा जी की सम्पत्ति है। इसका सबके साथ
बराबर‘-बराबर
हिस्सा सबको मिलना चाहिए।’’
लेकिन हिस्सा भी कैसे हों? किसी ने कहा मैं ऊपर नहीं लूंगा,किसी ने कहा मैं नीचे नहीं लूंगा। किसी ने कहा मैं पीछे वाला हिस्सा नहीं लूंगा।
किसी ने कहा,मैं आगे वाला हिस्सा नहीं लूंगा। वगैरा.....वगैरा।
बटवारे की योजना धरी की धरी रह गई। बात हुई इसे बेच देते हैं। मगर उसमें बात नहीं बन
पाई क्योंकि हमारे ही परिवार का एक पाँपर्टी डीलर भी था, जिसने इसका जिम्मा लिया। मगर कुछ को यह बात पची नहीं। उनका यह सोचना था कि उसमें
यह खुद बहुत पैसे कमा लेगा। फिर कुछ ने तो बेचनेे में ही अपनी रजामंदी नहीं दी। बंगले
को लेकर सबने अपने‘-अपने सपने सजा लिए थे। कोई चाहता था इसे फिल्म शूटिंग का बंगला बना दिया जाए। कुछ इसे अस्पताल बनाना चाहता था। जो जिस पेशे से था
वह उसी तरह उसे इस्तेमाल करना चाहता था। फिर मामला इस तरह बिगड़ा कि रिश्तेदारों ने एक एक कर अपना‘-अपना वकील रख लिया। हमने भी अपना एक वकील रख लिया। हमारे वकील
ने सर्वथप्रथम हमारे पूरे खानदान का फैमिली ट्री बनाया। फैमिली ट्री बनने के बाद मैं, मेरी बहन,माँ
और रिश्तेदारों को मिलाकर पूरे 29 लोग उस घर
के दावेदार निकले। वकील ने कहा कि अगर दादा जी कोई वसीयत लिख कर गये होगे फिर तो झमेले
की कोई बात ही नहीं है। जिसके नाम उन्होंने यह वसीयत लिखी होगी उस प्रॉपर्टी का मालिक
वही होगा। मगर पूरी खोज बीन के बाद पता चला दादा जी ने कोई वसीयत ही नहीं लिखी थी।
खैर, हम सब केस लड़ते रह गये। बंगले का नौकर
मालिक बन कर रहता रहा।, हमने उस पुरानी कहावत
को सही सिद्ध कर दिया‘-’’बेवकूफ लोग घर बनाते
हैं समझदार लोग उसमें रहते हैं’
लेकिन केस लड़ते हुए मैने यह जाना कि बेवकूफ
वह होता है जो पॉपट्री/घर‘-मकान बनाने के बाद
वसीयत लिख कर नहीं जाता है। और जिन्हें विरासत में मुफ्त की जायदाद मिलती है वो बिल्लियों
की तरह आपस में लड़कर बाहरी बंदर को अपने‘-अपने हिस्से
की रोटी सौंप देते हैं।
सम्पर्कः बी-11,टिहरी विस्थापित कॉलोनी,ज्वालापुर,हरिव्दार,उत्तराखंड,249407
मो-9012275039
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