गुरुवार, 17 दिसंबर 2015
संस्मरण - लौट के बुद्धू घर को आए (भाग-दो)-पद्मनाभ गौतम
कवि मित्र पद्मनाभ गौतम के पहाड़ी अनुभवों को उनके संस्मरण - ‘ लौट के बुद्धू घर को आए ’ की चौथी किस्त-- । आपके विचारों की प्रतीक्षा में-
शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015
कहानी - बद्दू : विक्रम सिंह
हमारे समय के महत्वपूर्ण युवा कहानीकार विक्रम सिंह
की कई कहानियों को इस ब्लाग में पढ़ चुके हैं। इनकी चर्चित लम्बी कहानी बद्दू की आज दूसरी किस्त। यह कहानी मंतव्य में प्रकाशित हो
चुकी है।
तारकेश्वर का गणित
दरअसल सिर्फ पलटन की ही नहीं गाँव में
और भी कई लोगो से तारकेश्वर ने खेत खरीदा
था। ऊपर वाले का गणित नहीं था यह तो तारकेश्वर
का गणित था कि जमीन अचल सम्पत्ति होती है। जब भी जायेगी ज्यादा पैसे देकर
जायेगी। यह जितनी पुरानी होगी इसका दाम बढ़ता जायेगा। जब जीवन में नौकरी चाकरी नहीं
रहेगी खेती कर खाया जायेगा। सही मायने में
अपने बेटे मृत्युंजय की उन्हे बहुत चिंता थी। क्योंकि बेटा पढ़ने लिखने में
कमजोर तो था ही साथ में एक नम्बर का खुरापाती भी था। वह किसी की जल्दी बात सुनता
नहीं था। जलते तवे की तरह वह हमेशा गुस्से में रहता था। ग्रेजुऐसन पूरी करने के
बाद कहीं नौकरी मिल नहीं रही थी। तारकेश्वर
हमेशा यही सोचते जब अनुकम्पा पर नौकरी हो रही थी तब बेटे की उम्र ही छोटी थी अब जब बेटे की नौकरी करने का वक्त आया
तो सरकार ने अनुकम्पा पर नौकरी देना बंद कर दिया था। जिस दिन भी दोबारा अनुकम्पा
पर नौकरी मिलना शुरू होगी उस दिन ही बेटे को नौकरी दे देंगे। मगर वह यह जानते थे
कि यह बस एक स्वप्न है जो कभी पूरा नहीं होगा। क्योंकि वह जानते थे आखिर उसके
जोडीदार सब भी तो इस दिन का ही इंतजार कर रहे हैं। फिर सरकार किस किस को नौकरी
देगी। कुल मिला जुलाकर नौकरी अब भेड़ और गधो को नहीं मिलती थी। नौकरी अब होनहार अर्थात लोमड़ी
की तरह चालाक लोगों को ही मिलती है। हाँ अगर कोलियरी में किसी की नौकरी हो रही थी।
वह भी उन किसान भाई की जिसकी जमीन के नीचे सरवर से कोयला मिल जा रहा था।
कुल बात की एक बात थी अब
तो हर कोई यही सोच रहा था। खेत ऊपर से चाहे उपजाऊ हो या ना हो ,सोना उगले या ना उगले मगर अंदर में काला हीरा होना चाहिये। पैसे भी मिलेगे और
नौकरी भी। कुछ तो ऐसी खण्डहर जमीन थी जहाँ कभी अंग्रेजो ने कोयला निकाला था। उस जमीन
सें भी गरीब ,माजी ,डोम ने अपने कोदाल ,फावड़ा और सबलो से उस जमीन को खुद कर
कोयला निकालना शुरू कर दिया था। देखते ही देखते यही काम गाँव के कई किसान भाईयो ने
भी अपनी जमीन को खोदना शुरू कर दिया। क्योंकि उन्हें भी पता चला कि जमीन के अंदर ही
अंदर सुरंग तैयार होने लगे है। हर तरफ बस साबल ,कोदाल ,कोयले की झुडी टोकरी दिखने लगा था।
लोग बाग बैलो की जगह ट्रैक्टर ट्राली खरीदने लगे थे। जिनके पास बैल रहे उन लोगो ने
इसे कोयले की बैल गाड़ी बना डाला था। इंट भट्टो से लेकर फैक्ट्ररियों तक फिर कई
तरफ साइकिल के डंडो के बीच कोयले के बोरो को भर कर ले जाते हुए देखा जाने लगा। हर
बेरोजगार गरीब के लिये यह एक रोजगार की तरह हो गया। सरकार इस तरह अपनी सम्पत्ति का
गबन होता देख पुलिस प्रसाशन के व्दारा रोकने की कोशिश करने लगी। जब पुलिस आई तो
देखते ही देखते कोल माफियायों की फौज तैयार हो गई। आधे से ज्यादा किसान मजदूर कोल
माफिया बन गये। अंत में सरकार भी बोट बैंक की खातिर चुप हो गई। पुलिस को बैग भर-भर
नोटो की गड्डी मिलने लगी। यहाँ के लोग कोयले से सने काले जैसे खुद कोयला हो गये
हो। अलग ही प्रजाति के दिखने लगे। तारकेश्वर
का लड़का कुछ काम ना कर इधर-उधर भटक रहा था तो उसने एक दिन यह सोचा की क्यों
ना गाँव भेज दिया जाये। अब आखिर इतनी जमीन का करेगे क्या कम से कम खेती तो करवायेगा। कहते हैं
जब तारकेश्वर गाँव से रानीगंज कोयला अंचल
आया था उस वक्त उसके पास बँटवारे के बाद सिर्फ पाँच बीघा जमीन आई थी। अब खेत
लिखवाते लिखवाते जमीन करीब पच्चीस बीघा हो गई थी। वैसे भी अब तारकेश्वर की नौकरी भी थोड़ी ही रह गई थी। इस वजह से वह
चाहते थे कि बेटा खेती में मन लगा ले। मगर जब यह बात पत्नी से साझा किया तो पत्नी
ने साफ कहा , दुनिया गाँव छोड़ शहर को भाग रही हैं। कुछ तो बाहर देश को जा रहे हैं। आप हम
सबको गाँव भेजना चाहते हैं। वैसे भी बेटे को खेती के बारे में पता ही क्या है
तारकेश्वर अपनी पत्नी की बात से पूरा चिढ़ जाते। चिढ़ने का
मुख्य कारण यह भी था कि वह सोचते , जितनी जमीन गाँव में है उतनी अगर इस
कोयला अंचल में होती तो जिंदगी कुछ और होती। अब तो पूरे गाँव के लोग भी बस यही
सोचते कि उनकी जमीन कब कोयले खद्यान के अंदर आ जाये। उन दिनों जब कोयला अंचल में
जमीन कौडी के भाव में मिल रही थी। तब तारकेश्वर
को यही लगता था इस धूल धक्कड़ वाली जगह में जमीन ले कर क्या करेंगे। तब
उन्हे बस अपने गाँव की जमीन सबसे उपजाऊ और उपयोगी लगी थी। क्या गाँव में लोग
नहीं रहते हैं। अगर अब खेती नहीं करेगा तो फिर क्या करेगा। मैंने उसे कौन सा रोका
है कुछ करने के लिये कुछ करे तो सही सारा दिन बस दोस्तो के साथ आवारा गर्दी करता
फिरता है। वैसे भी नौकरी कितने दिन बची है।
जब तक उसे खेत खलिहान के बारे में पता
नहीं होगा वह खेती कैसे कर लेगा।
अरे भाग्यवान खेत में हल चलाने को उसे
कौन कह रहा है। यह पुँजीवादी युग है कुछ करने के लिए सीखना जरूरी नहीं होता बस
पैसे की जरूरत होती है। अब अम्बानी को देखो किस चीज का व्यवसाय नहीं करता , सबके बारे उसे आता है क्या। बेटे को
बस सुपरवाइजरी करने कह रहा हूँ। बटाई का जो भी मिलता है वह भी इसके चाचा ताऊ बेच
लेते हैं। कम से कम बटाई का जो मिलता है वह तो मिल जाया करेगा।
एक तरह से तारकेश्वर ने गाँव भेजने की पूरी तैयारी कर ली थी। वैसे
भी अपने जीवन में कोलियरी की धूल धुवां से वह आजीज आ गये थे। अपने रिटायरमेंट के
बाद आखिरी समय गाँव में ही काट कर चैन की मौत मरना चाहते थे। मगर अब तो मौत भी
कम्बखत चैन से कहा आती है।
जारी.......
सम्प्रति- मुंजाल शोवा लि.कम्पनी में सहायक
अभियंता के पद पर कार्यरत
सम्पर्क- बी ब्लाँक-11,टिहरी विस्थापित कालोनी,ज्वालापुर, न्यू शिवालिकनगर,हरिव्दार,उत्तराखण्ड,249407
मोबा0- 9012275039
सम्पर्क- बी ब्लाँक-11,टिहरी विस्थापित कालोनी,ज्वालापुर, न्यू शिवालिकनगर,हरिव्दार,उत्तराखण्ड,249407
मोबा0- 9012275039
रविवार, 6 दिसंबर 2015
कहानी - बद्दू : विक्रम सिंह
हमारे समय के महत्वपूर्ण युवा कहानीकार विक्रम सिंह की कई कहानियों को इस ब्लाग में पढ़ चुके हैं। इनकी चर्चित लम्बी कहानी बद्दू को आज से किस्तों में पढ़ेंगे। इस कहानी की पहली किस्त ।यह कहानी मंतव्य में प्रकाशित हो चुकी है।
‘जो डल्हौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे ,
कमीशन दो तो हिन्दुस्तान को नीलाम कर देंगे।’ अदम गोंडवी
कोसना जब उसके दिन चर्या
में तबदील हुआ।
कोसना उसकी नित्य क्रियाक्रम
में था। जो अब दिन चर्या में तबदील हो गया था। जलन ,दर्द , और अवसाद से भरी हुई दिनचर्या थी। उसने अपने भविष्य की खुशी अपनी पत्नी और अपने
बच्चो की खुशी छीनी थी। वह उस दिन के फैसले को कोसता रहता था। जब नौकरी किलो के भाव
से मिलती थी। जो अब हीरे के भाव हो गई थी। वह दिन थे जब कोलियरी में लोडर की बहाली
भेड़ बकरियों की तरह हुई थी। उसी भीड़ का एक भेड़ पलटन भी था। मगर जब उसे सिर पर कोयले
से भरी झूड़ी लेकर ढोना पड़ा तो उसने अपने आप को किसी गधे से कम नहीं आका था। उसे लगा
था कि इसे तो कही अच्छा अपने खेत में हल चला बैल बनना ठीक है। गधे से तो बैल ही बनना
अच्छा है। आखिर इंसान को जीने के लिए दो वक्त की रोटी तो खेती से भी मिल सकती है। मगर
जमाना इस कदर बदला था कि अब तो खेती से दो वक्त की रोटी भी मुनासिव नहीं था। वह अक्सर
बचपन से ही एक जुमला सुनता आ रहा था ‘काम ना करबा तो खइबा का।’ और वह अब यह सोचता अन्न उगाने वाले को
ही भोजन क्यों नहीं मिल रहा। आखिर काम तो यह भी कर रहा है।
दरअसल लगातार दो तीन दिन
बारिश होने के बाद पूरी गेहूँ की फसल उजड़ गई थी। किसी एक गांव , शहर ,जिला होते हुए। यह मूसलाधार
बारिश जैसे पूरी पृथ्वी का भ्रमण लगा रही थी। जैसे कोई दैत्य सारे खेत खलिहान को निगलने
आया हो। कोई ऐसा ब्रह्मस्त्र नहीं था कि इस प्रकृति की मार से लड़ा जा सके। हर तरफ यही
सुनने को मिल रहा था। इस बार बारिश की वजह से फसल खराब हो गई है। हर एक कोई अपने फेसबुक
अकाउन्ट में बारिश से गिर गये बालियों के बीच किसान को सिर पर हाथ रख रोते हुए की फोटो
लगा रहे थे। दो सौ से भी ज्यादा लाईक और करीब सौ से भी ज्यादा कमेन्ट आ रहे थे। जैसे
हर एक कोई लाईक और कमेन्ट कर अपना फर्ज अदा कर रहा था। न्यूज चैनलवाले गाँव का दृष्य
दिखा अलग अलग पार्टी के नेताओ को बहस के लिये बुला लिया गया था। क्योंकि अभी हुई भूमि
अधिग्रहण बिल से किसान दुखी थे। वह अभी इसके लिये दिल्ली चलो का नारा लगा रहे थे। पूरे
भारत से किसानो की बड़ी संख्या दिल्ली में सरकार का घेराव करने आने वाली थी। बहस में
विपक्षी पार्टीयाँ पूरी तरह किसानो के साथ थी। हर एक पार्टी इस मामले को अधिक से अधिक
उछालना चाहती थी। किसानो के मामलो को ही उछाल कर ममता बैनर्जी ने सी.पी.एम पार्टी के
पच्चीस साल के सम्राज्य को धवस्थ कर दिया था। हर एक कोई अपनी-अपनी राजनीति रोटी सेकने
में लगा था। देश के प्रधानमंत्री अपने भाषण में यह कह रहे थे यह कोई पहली बार ऐसा नहीं
हुआ है इससे भी बड़ी-बड़ी विपत्तियाँ आई है।
आज पलटन सोच रहा था क्यों
वह गाँव वापस आ गया था। उस समय जब पलटन गाँव वापस आने की सोच रहा था अपने परम मित्र
तारकेश्वर से कहा था ,हमार हई नौकरी में मन ना लगत बा हम गाँव में अपन खेती करब। हइजा तो कोयला ढोह ढोह
और खाये खाये अपन जिन्दगी खत्म हो जाई। हम तो कहत हई तू हूँ वापस चल चला हमार संग।‘यह शब्द उसे आज भी कचोट रहा था। कोयले खाने वाले ही आज मुर्ग मसलम खा रहे हैं।
और जो दो वक्त की ही रोटी खा कर गुजारा करने वाला था उसके पास जैसे आज जहर खाने के
भी पैसे नहीं है।
मगर तारकेश्वर ने जाने से इंकार कर दिया था। क्योंकि वह यह अच्छी
तरह जानता था कि जैसे शादी व्याह ,मकान ,शिक्षा के लिये पैसे की जरूरत पड़ती है वैसे खेती के लिये भी पैसों की जरूरत पड़ती
है। ना की खेती से पैसे आते हैं। काश कि पलटन यह सोच पाता की खाई खातिर अन्न नहीं पैसे
होने चाहिये। काश की पलटन ने उस दिन इस लोडर वाली नौकरी का महत्व समझा होता। कहते हैं
कि जब पलटन को यह नौकरी मिली थी तब उनकी मात्र प्रतिदिन दो रूपये हाजरी मिलती थी। कुल
महीने के साठ रूपये। मगर आज उसी नौकरी को करने वाले बाबू बन गये हैं। बेतन बोर्ड से
तनख्वाह बढ़ बढ़ कर लाखों तक पहुंच गई है। फिर जो रिटायर भी हुए उन्हें भी लाखों की रकम
मिली बुढापे में पेंशन भी अलग से मिलना शुरू हो गया। पलटन को खेती कर क्या मिला कभी
चैन की रोटी नसीब नहीं हुई। ऊपर से साल दर साल खेती की और माली हालत हो गई। बेटे को
पढ़ाने और बेटी के व्याह के लिये एक बीघा खेत उल्टा बेचना पड़ गया था। तिस पर अब भी बेटा
बेरोजगार ही है।
सही मायने में पलटन जब
गाँव वापस आ गया थां। फिर उसे अपनी नौकरी बहुत याद आने लगी थी। कम से कम नौकरी में
महीने भर काम करने के बाद तनख्वाह मिलने की पूरी गारन्टी थी। यहाँ खेत में सारा दिन
काम करने के बाद भी कोई गारंटी नहीं थी कि फसल सही होगी या नहीं।अगर हो भी गई तो अंत समय में ऊपर वाले के भरोसे था। जिस दिन पलटन
ने अपनी जमीन बेची थी उसी दिन तारकेशवर ने खेत लिखवाया था। अर्थात पलटन ने अपनी जमीन
तारकेशवर को बेची थी। उस दिन पलटन ऊपर वाले का गणित नहीं समझ पाया था कि जो एक वक्त
खेती के लिये अपनी नौकरी छोड़ आया था उसके पास खेत नहीं रह पा रहे हैं। जिसने नौकरी
करने की सोची वह खेत उसके होते जा रहे हैं।क्रमश:
सम्पर्क- बी ब्लाँक-11,टिहरी विस्थापित कालोनी,ज्वालापुर,
न्यू शिवालिकनगर,हरिव्दार,उत्तराखण्ड,249407
मोबा0- 9012275039
रविवार, 29 नवंबर 2015
नया आकाश : मनीष कुमार सिंह
भारत सरकार,सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय में प्रथम श्रेणी अधिकारी। पहली कहानी 1987 में ’नैतिकता का पुजारी’ लिखी। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं यथा-हंस,कथादेश,समकालीन भारतीय साहित्य,साक्षात्कार,पाखी,दैनिक भास्कर, नयी दुनिया, नवनीत, शुभ तारिका, अक्षरपर्व,लमही, कथाक्रम, परिकथा, शब्दयोग, इत्यादि में कहानियॉ प्रकाशित। पॉच
कहानी-संग्रह ’आखिरकार’ (2009), ’धर्मसंकट’(2009), ’अतीतजीवी’ (2011), ’वामन अवतार’ (2013), और ’आत्मविश्वास’ (2014) प्रकाशित। ’ऑगन वाला घर’ शीर्षक से एक उपन्यास प्रकाशनाधीन।
समाज में फैल रही सामाजिक बुराइयों जिनमें लड़कियों के प्रति
पैशाचिक सोच वालों से सचेत रहने की जिस मार्मिक पीड़ा से एक मां गुजर रही है उसकी महीन
बुनावट इस कहानी में बखूबी देखा जा सकता है। कहानी के बारे में बहुत कुछ कहने की जरूरत
नहीं है । तो आइये पढ़ते हैं मनीष कुमार सिंह की कहानी नया आकाश ।
नया आकाश
मॉ ने आवाज देकर रिमझिम को पार्क से बुलाया,'' कितनी देर से तेरा इंतजार कर रही थी ...... दिन भर खेलती रहेगी या पढ़ाई में भी कुछ ध्यान देगी ?''
''कहॉ मम्मी, आधा घंटा पहले ही तो निकली थी। देखो ना सारे बच्चे खेल रहे हैं। अभी टाइम ही कितना हुआ है!'' उसने घड़ी में अंकित समय की बात न करके चारों ओर फैली सूरज की रोशनी की तरफ इशारा किया। दिन ढ़लने में वाकई काफी समय शेष था। मॉ ने इस पर ध्यान न देकर कहा, ''पहले घर चलो फिर बात करेंगे।''
रास्ते में मॉ ने समझाने का काम आरम्भ किया। ''देखो बेटी, पार्क में खेलने वाले सारे लोगों से हमें क्या मतलब। तुम अब बड़ी क्लास में आ गयी हो। जमाना ठीक नहीं है। अपनी पढ़ाई की तरफ देखो। पार्क में कई तरह के लोग आते हैं। परसों मैंने देखा कि एक कोने में तुम दो लड़कों के साथ पौधा रोप रही थी। रिमझिम, जमाना ठीक नहीं है।'' वाक्यांश का अर्थ व आशय वह समझ नहीं पायी, न ही कई तरह के लोगों की बात उसके पल्ले पड़ी। पर पौधा लगाने की बात पर उसने कहा, ''मम्मी, हमारे स्कूल में इन्वायरनमेंट अवेयरनेस पर मैडम सिखाती हैं कि स्टूडेंटस् को खाली जमीन पर पेड़ लगाने चाहिए। हरियाली से हमें ऑक्सीजन मिलती है। मैं वही कर रही थी। वे लड़के हमारे स्कूल के ही हैं। पास में उनका घर है।''
अब तक घर आ गया था। मॉ ने बड़े प्यार से कहा, ''देखो बेटी, वह सब ठीक है, लेकिन तुम लड़की जात हो। तुम्हें अपनी हिफाजत करना सीखनी चाहिए। तुम अभी तक बच्ची बनी हुई हो। ऐसे कैसे चलेगा?'' रिमझिम पुन: अपनी मॉ की बात का संदर्भ नहीं समझ पायी। वह कमरे में मौजूद पेंटिंग और हस्तकला के नमूने देखने लगी। इनमें से कुछ उसने बनाये थे। उसने सोचा कि मॉ पढ़ाई पर ध्यान देने की बात कह रही है। बोली, ''मम्मी, मेरे मार्क्स पिछले यूनिट टेस्ट में कितने अच्छे आये थे! पूर्णिमा और रुचि को भी पीछे छोड़ दिया था। मैं पढ़ती तो हॅू। अब क्या दिन भर घर में बैठकर बोर होऊॅ? मम्मी, आपने टी.वी. भी तो बंद करवा दिया है।''
''बेटा, तुम्हारे भले के लिए ही ना,'' मॉ वास्तम में बेहद गम्भीर थी, ''तुम अखबार नहीं पढ़ती हो? टी.वी. में खबरें नहीं देखती?'' मॉ ने अप्रत्यक्ष रुप से किसी दिशा में संकेत किया। रिमझिम अपनी धुन में खोयी हुई थी। मॉ ने समझ लिया कि उसकी तेरह साल की लड़की को न तो बात समझ में आ रही है और न ही वह ध्यान दे रही है। गुस्से को दबाकर उसने शांति से कहा, ''बेटा, यह दुनिया इतनी सीधी नहीं है, तुम अभी बच्ची हो।'' यह कहकर उसने अपनी पुत्री को और असमंजस में डाल दिया। अभी तो मॉ उसे बड़ी मान रही थीं। देर तक चले इस एकतरफा सम्बोधन में मॉ ने देखा कि रिमझिम अपनी पेंसिल से कागज पर लकीरें खींचती तो कभी हफ्ते भर पहले खरीदी गयी अपनी ब्रेसलेट को निकालती और पहनती। बात की समाप्ति मॉ ने यह कहकर किया कि अगर कुछ ऊॅच-नीच हुआ तो वह पंखे से लटक कर अपनी जान दे देगी, क्योंकि उसके लिए इज्जत जान से ज्यादा प्यारी है।
अखबारों व टी.वी. में ऐसी-वैसी खबरें आती रहती थी, पर पिछले दिनों जब मॉ को लगातार यह पढ़ने को मिला कि तीन महीने से लेकर तेरह साल की बच्चियों को अस्पताल के डॉक्टरों, कर्मचारियों, निकट सम्बन्धियों, नितांत परिचित लोगों, बड़ी उम्र के पड़ोसियों व अनजान व्यक्तियों ने अपनी हवस का शिकार बनाया तो वह कॉप उठी। किस पर यकीन करे? चौबीसों घंटे कैसे बच्ची की सुरक्षा करे? इसी रिहायशी इलाके में जब ऐसी दो घटनाऍ एक के बाद एक अल्प अंतराल पर हुई तो वह अपनी सहेलियों व पड़ोसिनों से इस पर चर्चा करने को विवश हुई। घरेलू औरतों की चर्चा कैसी होगी! सबने इस भय को किसी और घटना से जोड़कर और वृहद् किया तथा भगवान का नाम लेकर रह गयीं। कुछेक ने टी.वी.ए फिल्मों को कोसा तो कोई पुलिस की नाकामयाबी को मुख्य दोषी मानती थी। एकाध ने तो घर के संस्कारों को भी दोष दिया। यह बताया कि कैसे यहीं पर उनके जान-पहचान के घरों में लड़कियों को उनके घरवालों ने कितनी उलटी-सीधी छूट दे रखी है। सारा दोष औरों का नहीं है। कुछ घर का नियंत्रण भी होना चाहिए। इस बात पर मॉ पूर्णतया सहमत दिखी। उस महिला ने खास तौर पर एक घर का इस विषय में जिक्र किया। मॉ उस चीज को पकड़कर रखना चाहती थी जो उसके नियंत्रण में था। दुनिया-जहान को सुधारा नहीं जा सकता है, लेकिन खुद अपनी औलाद को तो समझा सकते हैं।
एक किशोर लड़की ने अपने हाल में बने मित्र के साथ घरवालों को बिना इत्तिला किये घूमना-फिरना शुरु किया। एक दिन कुछ असामाजिक तत्वों ने लड़के को मार-पीटकर अधमरा कर दिया और लड़की के सम्मान को नष्ट किया। इस बात पर दुख प्रकट करने के अलावा महिलाओं ने प्राय: एक स्वर में लड़की की अतिरिक्त स्वतंत्रता को गलत ठहराया। क्या जरुरत थी एक अनजान से लड़के के साथ घूमने की? क्या जानती थी वह उसके बारे में?
मॉ ने निश्चय किया कि वह अपने पति से इसी दम बात करेगी। लड़की के बारे में मॉ को हर बात पिता को नहीं बतानी चाहिए। पर यह सवाल ऐसा था जो माता-पिता दोनों को मिलकर हल करना था। उसकी बेटी भोली है। दुनिया से अनजान है लेकिन प्राकृतिक द्दष्टि से बड़ी हो गयी है। बड़ी होती जा रही है। शरीर के हिसाब से समझ विकसित नहीं हुई है। यह सदैव आनुपातिक हो कोई जरुरी नहीं। जमाना हाड़-मांस को देखता है। मन का भोलापन नहीं। अब देखो ना, इसी की क्लास की दूसरी लड़कियॉ कितनी तेज हैं। राह चलते वह उसी के उम्र की लड़कियों को कई लड़कों के साथ घूमते देखती हैं।
वैसे तो घरवालों ने रिमझिम को अलग से कोई मोबाइल नहीं दिया था। वह अपनी मॉ की मोबाइल पर गेम खेलती थी। इधर कुछ दिनों से उसकी एक सहेली का एस.एम.एस. आता था। एक दिन मॉ ने इनबॉक्स में देखा कि वैलेन्टाइन डे की पूर्वसंध्या पर कुछेक ऐसे एस.एम.एस. थे जो इस उम्र की लड़कियों के लिए बेहद बेहूदे कहे जाएगें। ''तुम्हारी ऐसी लड़कियों से दोस्ती है? इस तरह की बातें करते हैं।'' वह फट पड़ी। ''मैं तुम्हारे क्लास टीचर से मिलॅूगी। अपनी संगत ठीक रखो।''
''मैंने क्या किया है?'' वह बेचारी परेशान होकर पूछ बैठी। समझ नहीं पा रही थी कि आजकल उसकी मॉ इतना सब क्यों उसे सुनाती-समझाती रहती है। ''तुमने कुछ किया नहीं है...,'' मॉ ने अपने प्रारम्भिक आवेश को पीछे रखकर धैर्यपूर्वक अभिभावकीय दायित्व से आगे कहने लगी, ''पर मैं समझा रही हॅू कि आज जमाना कैसा है, लड़की को क्या-क्या सावधानी रखनी चाहिए।''
मॉ को अपनी मॉ की कही बात याद आयी। लड़की की मॉ की पीछे भी ऑखें होनी चाहिए। घर में रिमझिम के पापा से दीर्घ वार्ता के पश्चात् वे इसी निष्कर्ष पर पहॅुची कि मॉ-बाप के आर्त्त कोलाहल से द्रवित होकर भेडि़ए अपने कारनामे बंद नहीं कर देगें। अपना ध्यान खुद रखना होगा। कहीं और से नवीन आलोक विकीर्ण होने की सम्भावना क्षीण है। रिमझिम मासूम है। इस विषय में उन्हें कोई संशय नहीं था। अपनी औलाद है। उसके बारे में सब जानती है। पर घर के बाहर स्कूल है, सड़कें-पार्क हैं, सहेलियों का प्रभाव है। लम्पट लोग शिक्षक, पड़ोसी आदि के वेष में हो सकते हैं, कैसे निपटे उनसे....? एक बार रिक्शे से आते हुए एक बड़े स्कूल परिसर के बाहर मॉ ने देखा कि विद्यार्थियों का हुजूम इकठ्ठा था। छुट्टी का समय होगा। बारहवीं तक का स्कूल था। एक लड़की दो-तीन लड़कों के साथ कुछ अलग बैठकर मोबाइल पर कुछ कह रही थी। वह असहमतिपरक मुद्रा में सिर हिलाने लगी। क्या जमाना आ गया है! अभी से...।
बाहर वाले कमरे में पतिदेव अपने किसी मित्र से बात कर रहे थे। मित्र की आवाज आ रही थी-''इंसान खाने-पीने और पहनने-ओढ़ने तक में आज कंजूसी कर सकता है लेकिन सिक्यूरिटी के सवाल पर कम्प्रोमाइज नहीं कर सकता। आजकल पढ़े-लिखे तबके इसी बेसिस पर आर्गेनाइज्ड हुए हैं। नहीं तो साहब आज कौन किससे बिना किसी रिजन के बात करता है?'' मित्र के विचार पर पति सहमति दर्शा रहे थे। यहॉ बैठी मॉ ने यही अनुमान लगाया। मित्र ने आगे कहा, ''भई आजकल नौकरों, सिक्यूरिटी गार्ड्स इन सभी का पुलिस वेरिफिकेशन होता है। फिर भी क्राइम का आलम यह है कि किसी को किसी पर भरोसा नहीं रहा। जनाब ज्वाइंट फैमिली अब रही नहीं। पुराने संस्कार कौन सिखाएगा? नये जमाने के बच्चे स्कूल-कॉलेज, इंटरनेट, टी.वी., फिल्मों वगैरह से ज्यादा इंफ्लुएंस होते हैं। कई मॉ-बाप के पास टाइम नहीं है अपनी औलाद के साथ समय गुजारने का।'' थोड़े में उन्होंने समकालीन समाज का विहंगम चित्र प्रस्तुत किया।
बैठे-बैठे मॉ की कब ऑख लग गयी पता नहीं चला। उसे सहसा यह प्रतीत हुआ कि रिमझिम उसे हिलाकर उठाने का प्रयास कर रही है- मम्मी देखो मुझे नवरात्रि में किसी ने नहीं बुलाया। पहले मैं सभी आंटी के यहॉ जाती थी। मॉ की ऑख खुल नहीं रही थी। तभी उसे रिमझिम की द्रवित करने वाली पुकार दुबारा सुनाई दी। उसे ऑख बंद किये हुए ही दिखाई दिया कि चार काले भुजंग मुस्तंडे उसकी बेटी को ले जाने के लिए उद्यत हैं। वह डर के मारे टेबल के नीचे छिप गयी है। घबराहट में मॉ की नींद तुरंत टूट जाती है। वह दौड़कर उसके कमरे की तरफ भागी। वह पलंग पर आराम से सोयी हुई थी। मॉ ने नाम लेकर उसे हिलाया। लेकिन वह गहरी नींद में थी। उसने गौर किया कि रिमझिम च्युइंगम मॅुह मे लिए ही सो गयी थी। वैसे तो उसके विकास को देखकर अपनी उम्र से बड़ी दिखती थी, परंतु सोती हुई वह बेहद छोटी दिख रही थी। मॉ के मन में आया कि वह शिव की भॉति विरुपक्ष होकर बिना किसी को दिखाई दिए हमेशा उसके साथ रहे। यदि अपनी सुविधानुसार ऐसा निराकार रुप धारण करना सम्भव होता तो वह यही करती।
''कहॉ मम्मी, आधा घंटा पहले ही तो निकली थी। देखो ना सारे बच्चे खेल रहे हैं। अभी टाइम ही कितना हुआ है!'' उसने घड़ी में अंकित समय की बात न करके चारों ओर फैली सूरज की रोशनी की तरफ इशारा किया। दिन ढ़लने में वाकई काफी समय शेष था। मॉ ने इस पर ध्यान न देकर कहा, ''पहले घर चलो फिर बात करेंगे।''
रास्ते में मॉ ने समझाने का काम आरम्भ किया। ''देखो बेटी, पार्क में खेलने वाले सारे लोगों से हमें क्या मतलब। तुम अब बड़ी क्लास में आ गयी हो। जमाना ठीक नहीं है। अपनी पढ़ाई की तरफ देखो। पार्क में कई तरह के लोग आते हैं। परसों मैंने देखा कि एक कोने में तुम दो लड़कों के साथ पौधा रोप रही थी। रिमझिम, जमाना ठीक नहीं है।'' वाक्यांश का अर्थ व आशय वह समझ नहीं पायी, न ही कई तरह के लोगों की बात उसके पल्ले पड़ी। पर पौधा लगाने की बात पर उसने कहा, ''मम्मी, हमारे स्कूल में इन्वायरनमेंट अवेयरनेस पर मैडम सिखाती हैं कि स्टूडेंटस् को खाली जमीन पर पेड़ लगाने चाहिए। हरियाली से हमें ऑक्सीजन मिलती है। मैं वही कर रही थी। वे लड़के हमारे स्कूल के ही हैं। पास में उनका घर है।''
अब तक घर आ गया था। मॉ ने बड़े प्यार से कहा, ''देखो बेटी, वह सब ठीक है, लेकिन तुम लड़की जात हो। तुम्हें अपनी हिफाजत करना सीखनी चाहिए। तुम अभी तक बच्ची बनी हुई हो। ऐसे कैसे चलेगा?'' रिमझिम पुन: अपनी मॉ की बात का संदर्भ नहीं समझ पायी। वह कमरे में मौजूद पेंटिंग और हस्तकला के नमूने देखने लगी। इनमें से कुछ उसने बनाये थे। उसने सोचा कि मॉ पढ़ाई पर ध्यान देने की बात कह रही है। बोली, ''मम्मी, मेरे मार्क्स पिछले यूनिट टेस्ट में कितने अच्छे आये थे! पूर्णिमा और रुचि को भी पीछे छोड़ दिया था। मैं पढ़ती तो हॅू। अब क्या दिन भर घर में बैठकर बोर होऊॅ? मम्मी, आपने टी.वी. भी तो बंद करवा दिया है।''
''बेटा, तुम्हारे भले के लिए ही ना,'' मॉ वास्तम में बेहद गम्भीर थी, ''तुम अखबार नहीं पढ़ती हो? टी.वी. में खबरें नहीं देखती?'' मॉ ने अप्रत्यक्ष रुप से किसी दिशा में संकेत किया। रिमझिम अपनी धुन में खोयी हुई थी। मॉ ने समझ लिया कि उसकी तेरह साल की लड़की को न तो बात समझ में आ रही है और न ही वह ध्यान दे रही है। गुस्से को दबाकर उसने शांति से कहा, ''बेटा, यह दुनिया इतनी सीधी नहीं है, तुम अभी बच्ची हो।'' यह कहकर उसने अपनी पुत्री को और असमंजस में डाल दिया। अभी तो मॉ उसे बड़ी मान रही थीं। देर तक चले इस एकतरफा सम्बोधन में मॉ ने देखा कि रिमझिम अपनी पेंसिल से कागज पर लकीरें खींचती तो कभी हफ्ते भर पहले खरीदी गयी अपनी ब्रेसलेट को निकालती और पहनती। बात की समाप्ति मॉ ने यह कहकर किया कि अगर कुछ ऊॅच-नीच हुआ तो वह पंखे से लटक कर अपनी जान दे देगी, क्योंकि उसके लिए इज्जत जान से ज्यादा प्यारी है।
अखबारों व टी.वी. में ऐसी-वैसी खबरें आती रहती थी, पर पिछले दिनों जब मॉ को लगातार यह पढ़ने को मिला कि तीन महीने से लेकर तेरह साल की बच्चियों को अस्पताल के डॉक्टरों, कर्मचारियों, निकट सम्बन्धियों, नितांत परिचित लोगों, बड़ी उम्र के पड़ोसियों व अनजान व्यक्तियों ने अपनी हवस का शिकार बनाया तो वह कॉप उठी। किस पर यकीन करे? चौबीसों घंटे कैसे बच्ची की सुरक्षा करे? इसी रिहायशी इलाके में जब ऐसी दो घटनाऍ एक के बाद एक अल्प अंतराल पर हुई तो वह अपनी सहेलियों व पड़ोसिनों से इस पर चर्चा करने को विवश हुई। घरेलू औरतों की चर्चा कैसी होगी! सबने इस भय को किसी और घटना से जोड़कर और वृहद् किया तथा भगवान का नाम लेकर रह गयीं। कुछेक ने टी.वी.ए फिल्मों को कोसा तो कोई पुलिस की नाकामयाबी को मुख्य दोषी मानती थी। एकाध ने तो घर के संस्कारों को भी दोष दिया। यह बताया कि कैसे यहीं पर उनके जान-पहचान के घरों में लड़कियों को उनके घरवालों ने कितनी उलटी-सीधी छूट दे रखी है। सारा दोष औरों का नहीं है। कुछ घर का नियंत्रण भी होना चाहिए। इस बात पर मॉ पूर्णतया सहमत दिखी। उस महिला ने खास तौर पर एक घर का इस विषय में जिक्र किया। मॉ उस चीज को पकड़कर रखना चाहती थी जो उसके नियंत्रण में था। दुनिया-जहान को सुधारा नहीं जा सकता है, लेकिन खुद अपनी औलाद को तो समझा सकते हैं।
एक किशोर लड़की ने अपने हाल में बने मित्र के साथ घरवालों को बिना इत्तिला किये घूमना-फिरना शुरु किया। एक दिन कुछ असामाजिक तत्वों ने लड़के को मार-पीटकर अधमरा कर दिया और लड़की के सम्मान को नष्ट किया। इस बात पर दुख प्रकट करने के अलावा महिलाओं ने प्राय: एक स्वर में लड़की की अतिरिक्त स्वतंत्रता को गलत ठहराया। क्या जरुरत थी एक अनजान से लड़के के साथ घूमने की? क्या जानती थी वह उसके बारे में?
मॉ ने निश्चय किया कि वह अपने पति से इसी दम बात करेगी। लड़की के बारे में मॉ को हर बात पिता को नहीं बतानी चाहिए। पर यह सवाल ऐसा था जो माता-पिता दोनों को मिलकर हल करना था। उसकी बेटी भोली है। दुनिया से अनजान है लेकिन प्राकृतिक द्दष्टि से बड़ी हो गयी है। बड़ी होती जा रही है। शरीर के हिसाब से समझ विकसित नहीं हुई है। यह सदैव आनुपातिक हो कोई जरुरी नहीं। जमाना हाड़-मांस को देखता है। मन का भोलापन नहीं। अब देखो ना, इसी की क्लास की दूसरी लड़कियॉ कितनी तेज हैं। राह चलते वह उसी के उम्र की लड़कियों को कई लड़कों के साथ घूमते देखती हैं।
वैसे तो घरवालों ने रिमझिम को अलग से कोई मोबाइल नहीं दिया था। वह अपनी मॉ की मोबाइल पर गेम खेलती थी। इधर कुछ दिनों से उसकी एक सहेली का एस.एम.एस. आता था। एक दिन मॉ ने इनबॉक्स में देखा कि वैलेन्टाइन डे की पूर्वसंध्या पर कुछेक ऐसे एस.एम.एस. थे जो इस उम्र की लड़कियों के लिए बेहद बेहूदे कहे जाएगें। ''तुम्हारी ऐसी लड़कियों से दोस्ती है? इस तरह की बातें करते हैं।'' वह फट पड़ी। ''मैं तुम्हारे क्लास टीचर से मिलॅूगी। अपनी संगत ठीक रखो।''
''मैंने क्या किया है?'' वह बेचारी परेशान होकर पूछ बैठी। समझ नहीं पा रही थी कि आजकल उसकी मॉ इतना सब क्यों उसे सुनाती-समझाती रहती है। ''तुमने कुछ किया नहीं है...,'' मॉ ने अपने प्रारम्भिक आवेश को पीछे रखकर धैर्यपूर्वक अभिभावकीय दायित्व से आगे कहने लगी, ''पर मैं समझा रही हॅू कि आज जमाना कैसा है, लड़की को क्या-क्या सावधानी रखनी चाहिए।''
मॉ को अपनी मॉ की कही बात याद आयी। लड़की की मॉ की पीछे भी ऑखें होनी चाहिए। घर में रिमझिम के पापा से दीर्घ वार्ता के पश्चात् वे इसी निष्कर्ष पर पहॅुची कि मॉ-बाप के आर्त्त कोलाहल से द्रवित होकर भेडि़ए अपने कारनामे बंद नहीं कर देगें। अपना ध्यान खुद रखना होगा। कहीं और से नवीन आलोक विकीर्ण होने की सम्भावना क्षीण है। रिमझिम मासूम है। इस विषय में उन्हें कोई संशय नहीं था। अपनी औलाद है। उसके बारे में सब जानती है। पर घर के बाहर स्कूल है, सड़कें-पार्क हैं, सहेलियों का प्रभाव है। लम्पट लोग शिक्षक, पड़ोसी आदि के वेष में हो सकते हैं, कैसे निपटे उनसे....? एक बार रिक्शे से आते हुए एक बड़े स्कूल परिसर के बाहर मॉ ने देखा कि विद्यार्थियों का हुजूम इकठ्ठा था। छुट्टी का समय होगा। बारहवीं तक का स्कूल था। एक लड़की दो-तीन लड़कों के साथ कुछ अलग बैठकर मोबाइल पर कुछ कह रही थी। वह असहमतिपरक मुद्रा में सिर हिलाने लगी। क्या जमाना आ गया है! अभी से...।
बाहर वाले कमरे में पतिदेव अपने किसी मित्र से बात कर रहे थे। मित्र की आवाज आ रही थी-''इंसान खाने-पीने और पहनने-ओढ़ने तक में आज कंजूसी कर सकता है लेकिन सिक्यूरिटी के सवाल पर कम्प्रोमाइज नहीं कर सकता। आजकल पढ़े-लिखे तबके इसी बेसिस पर आर्गेनाइज्ड हुए हैं। नहीं तो साहब आज कौन किससे बिना किसी रिजन के बात करता है?'' मित्र के विचार पर पति सहमति दर्शा रहे थे। यहॉ बैठी मॉ ने यही अनुमान लगाया। मित्र ने आगे कहा, ''भई आजकल नौकरों, सिक्यूरिटी गार्ड्स इन सभी का पुलिस वेरिफिकेशन होता है। फिर भी क्राइम का आलम यह है कि किसी को किसी पर भरोसा नहीं रहा। जनाब ज्वाइंट फैमिली अब रही नहीं। पुराने संस्कार कौन सिखाएगा? नये जमाने के बच्चे स्कूल-कॉलेज, इंटरनेट, टी.वी., फिल्मों वगैरह से ज्यादा इंफ्लुएंस होते हैं। कई मॉ-बाप के पास टाइम नहीं है अपनी औलाद के साथ समय गुजारने का।'' थोड़े में उन्होंने समकालीन समाज का विहंगम चित्र प्रस्तुत किया।
बैठे-बैठे मॉ की कब ऑख लग गयी पता नहीं चला। उसे सहसा यह प्रतीत हुआ कि रिमझिम उसे हिलाकर उठाने का प्रयास कर रही है- मम्मी देखो मुझे नवरात्रि में किसी ने नहीं बुलाया। पहले मैं सभी आंटी के यहॉ जाती थी। मॉ की ऑख खुल नहीं रही थी। तभी उसे रिमझिम की द्रवित करने वाली पुकार दुबारा सुनाई दी। उसे ऑख बंद किये हुए ही दिखाई दिया कि चार काले भुजंग मुस्तंडे उसकी बेटी को ले जाने के लिए उद्यत हैं। वह डर के मारे टेबल के नीचे छिप गयी है। घबराहट में मॉ की नींद तुरंत टूट जाती है। वह दौड़कर उसके कमरे की तरफ भागी। वह पलंग पर आराम से सोयी हुई थी। मॉ ने नाम लेकर उसे हिलाया। लेकिन वह गहरी नींद में थी। उसने गौर किया कि रिमझिम च्युइंगम मॅुह मे लिए ही सो गयी थी। वैसे तो उसके विकास को देखकर अपनी उम्र से बड़ी दिखती थी, परंतु सोती हुई वह बेहद छोटी दिख रही थी। मॉ के मन में आया कि वह शिव की भॉति विरुपक्ष होकर बिना किसी को दिखाई दिए हमेशा उसके साथ रहे। यदि अपनी सुविधानुसार ऐसा निराकार रुप धारण करना सम्भव होता तो वह यही करती।
गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश
पिन-201010
मोबाइल: 09868140022
ईमेल: manishkumarsingh513@gmail.com
सोमवार, 23 नवंबर 2015
वह और मैं : डॉ. अंगद कुमार सिंह
डॉ. अंगदकुमार सिंह का जन्म 15 अक्टूबर, 1981 को गोरखपुर जिलान्तर्गत माल्हनपार गाँव में हुआ था | इन्होंने 2003 में हिन्दी साहित्य में एम. ए. किया तथा 2009 में पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की | इनकी ‘समकालीन हिन्दी पत्राकारिता और परमानन्द श्रीवास्तव’, ‘प्रतिमानों के पार’(संयुक्त लेखन), ‘शब्दपुरुष’(संयुक्त लेखन), ‘दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’(संयुक्त लेखन) पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है | इनके लेख परिकथा, नवसृष्टि, मगहर महोत्सव, आज, मुक्त विचारधारा, चौमासा, कथाक्रम, लाइट ऑफ नेशन जैसी अनेक पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित होते रहते हैं | सम्प्रति ये वीरबहादुर सिंह पी. जी. कॉलेज, हरनही, गोरखपुर में हिन्दी विभाग के प्रभारी तथा असिस्टेण्ट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं तथा पूर्वांचल हिन्दी मंच, गोरखपुर के मन्त्री के दायित्त्व का निर्वहन कर रहे हैं |
डॉ. अंगद कुमार सिंह की कविता-
वह और मैं
याद जब तेरी आती
नींद-चैन नहीं आता है
फिरता हूँ मारा-मारा
भटकता हूँ दर्रा- दर्रा
रास्ता नहीं सूझता
दीखता न किनारा
मिलता न ठाँव कहीं
ठौर न ठिकाना
आगे जो कदम बढ़ाता
पैर जाते पीछे
गिरता हूँ तेरी याद को लपेटे ।
नींद में मेरे करीब वह होती
जागने पर वह पास न होती
बूझ न पाता हुआ क्या मुझे है
कोई बताये, उपाय सुझाये
अक्ल न आये तुम्हें कैसे पाएं
कोई जगाए रास्ता दिखाये
वह जो मिल जाये
जीवन सफल हो जाये
आवागमन से उपराम हो जाये |
-डॉ. अंगद कुमार सिंह
सोमवार, 16 नवंबर 2015
संस्मरण -लौट के बुद्धू घर को आए (भाग-एक)-पद्मनाभ गौतम
कवि मित्र पद्मनाभ गौतम के पहाड़ी अनुभवों को उनके संस्मरण - ‘ लौट के बुद्धू घर को आए ’ की तीसरी किस्त-- । आपके विचारों की प्रतीक्षा में-
सम्पादक -पुरवाई
अगले दिन मार्ग खुल गया था। मैं कम्पनी
की गाड़ी में कार्यालय पहुँचा। आज मेरे शरीर का पोर-पोर दुख रहा था। वह अफसर, जिसने मुझे सीढ़ीनुमा खेतों
से होकर कार्यालय तक पहुंचाया था, अब मुझसे कुछ अजीब सा व्यवहार कर रहा था, जैसे उसका मेरे प्रति कोई पूर्वाग्रह हो।
बहुत समय पश्चात् मुझे साफ हुआ कि वह मुझे डराकर रखना चाहता था। कारण था कार्य की जिम्मेदारियों
में उस सहित कम्पनी के कुछ अफसरों की बेईमानियों का मार्ग मेरी कलम के नीचे से होकर
गुजरना। इस कारण वह आरंभ से ही मुझे अपने काबू में रखना चाहता था।
अगले तीन-चार दिन मौसम
साफ ही रहा। मैं आरंभिक व्यवस्थाओं में लगा था। इस बीच मैंने कम्पनी से मिले एक मकान
में पलंग-आलमारी इत्यादि की व्यवस्था की, जिससे कि रामपुर में प्रतीक्षा कर रहे परिवार को भरमौर ला सकूँ। वैसे भी, अभी मेरी पत्नी मानसिक
रूप से अकेले रहने के दृष्टिकोण से परिपक्व व अनुभवी नहीं थी। दूसरे, बिटिया केवल दो माह की
थी। अतः अब शीघ्रातिशीघ्र रामपुर जाकर परिवार को साथ लेकर आना था।
पर अभी यह मेरी चुनौतियों
का आरम्भ ही था। कुछ दिनों तक आसमान साफ रहने के पश्चात् एक दिन बरसात हुई और उसके
पीछे बर्फबारी होने लगी। पहले तो रुई के फाहों के समान हल्की-हल्की बर्फ गिरती रही।
लोगों ने अनुमान लगाया कि एक-दो दिन में बर्फबारी रुक जाएगी। इसके विपरीत, आरंभिक एक-दो दिनों के
पश्चात् बर्फबारी का जोर बढ़ गया। बर्फबारी से एक बार फिर मार्ग अवरुद्ध हो गया। मैं
प्रतीक्षा कर रहा था कि बर्फबारी रुके तो मार्ग खुलने पर मैं रामपुर-बुशैहर वापस जाऊँ।
परंतु बर्फ का गिरना कम ही नहीं हो रहा था। फरवरी महीने की छठवीं तारीख तक भरमौर में
चार-चार फुट बर्फ गिर चुकी थी। स्थानीय लोगों ने बताया कि पिछले एक दशक के पश्चात्
ऐसी बर्फबारी देखी गई है। आगे कई दिनों तक मार्ग खुलता नहीं दिखाई पड़ रहा था।
अब तक हमारे पास सब्जियाँ
समाप्त हो गई थीं। मार्ग अवरुद्ध होने के कारण चम्बा से सब्जियों की खेप नहीं आ पाई।
कम्पनी के मेस में केवल चावल तथा दाल ही बचा था राशन के नाम पर। सात फरवरी को प्रातः
काल बिजली भी चली गई। अब मोबाईल में बैटरी का संकट था अर्थात् घर से संवाद का साधन
भी हाथ से जाने वाला था। उधर रामपुर में परिवार पड़ोसियों के सहारे था। सात फरवरी की
शाम को घर से फोन आया। पत्नी ने बताया कि घर में चोर घुसा था। यह सुनकर मेरे तो होश
ही उड़ गए। कोढ़ में खाज इसे ही कहते हैं। अब परिवार की सुरक्षा का भी प्रश्न था। गनीमत
थी कि पत्नी की पुकार सुन कर मुहल्ले वाले दौड़े तथा रात में ही चोर को पकड़ कर पुलिस
के हवाले कर दिया गया। किंतु अब मेरे मन में शांति नहीं थी। मेस में जाने पर देखा तो
राशन का हाल खराब था। रसोइये ने सूचना दी कि गैस-सिलिंडर का स्टॉक भी समाप्त हो रहा
है। मैं किंकर्तव्यविमूढ़ था। आगे जाने का मार्ग अवरुद्ध था। मेस में राशन नहीं था।
बच्चे पराए शहर में पड़ोसियों के भरोसे। घर में चोरी की घटना। मेरा मन पूर्णतया विचलित
था।
पर यही तो पहाड़ों का असली
जीवन है। हरे-भरे पहाड़, जो दूर से इतने सुंदर और दर्शनीय लगते हैं, उन पर जीवन उतना सहज नहीं। अत्यंत मनोरम
व सुदर्शन दिखने वाले पर्वत कभी-कभी अत्यंत कठोर हो जाते है। जब आप पहाड़ पर घूमने आते
हैं तो पहले-पहल सम्मोहित रह जाते हैं। अंग्रेजी वाले वाऽव का उच्चारण करते नहीं थकते, हिन्दी वाले अद्भुत का और उर्दू वाले सुभानअल्लाह का। कुछ समय पश्चात् फिर मुँह से यह विस्मयादि बोधक व हर्ष सूचक शब्द निकलने बन्द हो जाते हैं। सानिध्य में
कुछ और दिन बीतने पर पहाड़ वैसे ही लगने लगते हैं जैसे किसी मैदानी नगर का कोई सामान्य
भौगोलिक दृश्य। फिर आप पहाड़ों से लौट चलने
का मन बना लेते हैं। यह अप्रतिम सौन्दर्य तब तक सौन्दर्य है, जब तक आप एक पर्यटक हैं।
पर्यटक, जो सुखद वातावरण में पर्यटन कर प्राकृतिक सौंदर्य को मन में बसाए लौट जाता हैं।
किंतु प्रतिकूल मौसम में पहाड़ों के असली जीवन के दर्शन मिलते हैं। जब बर्फबारी व भूस्खलन
इत्यादि से मार्ग अवरुद्ध हो जाता है, ऐसे में कोई यदि गम्भीर रूप से बीमार पड़ जाए तो उसे शीघ्रता से चिकित्सा सुविधा
मिल पाना अत्यंत कठिन होता है। हृदयाघात या स्ट्रोक इत्यादि की स्थिति में तो मृत्यु
अवश्यंभावी होती है।
सन् दो हजार आठ के फरवरी
माह के उस दूसरे सप्ताह में पहाड़ मेरे सामने अपने असल भयावह रूप मे ंसामने खड़ा था।
निराशा ने मुझे पूरी तरह से घेर लिया था। तभी आशा की एक किरण दिखी। कुछ स्थानीय कर्मचारी
अगले दिन पैदल भरमौर से निकलने का विचार कर रहे थे। अब तक की सूचना के अनुसार भरमौर
से केवल तेरह किलोमीटर आगे खड़ामुख तक मार्ग अवरुद्ध था। उसके आगे मार्ग खुला था। अतः
प्रातः खड़ामुख तक पैदल चलने के पश्चात् चम्बा हेतु कोई न कोई टैक्सी मिल जाएगी, यह उनका विचार था। यह
वे पहाड़ी लड़के थे, जो अपना एक अलग गुट बना कर चलते थे तथा मैदानी इलाकों से आए लोगों के साथ कम घुलते
मिलते थें। उनका लीडर वह अधिकारी ही था, जिसने पहले दिन मुझे परियोजना कार्यालय पहुँचाया था। जाहिर है कि उन्होंने मुझे
अपने साथ ले जाने में कोई रुचि नहीं दिखाई। परंतु मेरे लिए इतना ही पर्याप्त था।
रात के खाने के समय बातचीत करते हुए मेरे
साथ एक दक्षिण भारतीय अधिकारी तथा ललितपुर का एक नौजवान इंजीनियर साथ चलने को तैयार
हो गया। तय हुआ कि अगली सुबह हम तीनों पैदल चल पड़ेंगे। दिनांक आठ फरवरी को नाश्ता करके
हम चलने को तैयार हुए। परियोजना निदेशक भटनागर साहब ने हमें बुजुर्गाना सलाह दी कि
हम चुपचाप वहीं रहें और जो कुछ भी रूखा-सूखा है, वह खाकर अवरुद्ध मार्ग के खुलने की प्रतीक्षा
करें। परंतु मैं घर पहुँचने को व्यग्र था तथा अब मुझमें इतना संयम नहीं बचा था कि रुक
कर बर्फबारी के थमने की प्रतीक्षा करूँ। मेरी परिस्थिति अन्य थी। उधर मोबाईल की बैटरी
भी अंतिम साँसे गिन रही थी। बिजली नदारद थी तथा उसके जल्द आने का कोई कारण नहीं दिख
रहा था। अतः अब तो मुझे सारे खतरे उठाकर भी रामपुर पहुँचना था। कैसे भी, किसी भी कीमत पर।
क्रमशः
पद्मनाभ गौतम
सहायक महाप्रबंधक
भूविज्ञान व
यांत्रिकी
तीस्ता चरण-टप्
जल विद्युत परियोजना
पूर्वी सिक्किम,
सिक्किम
737134
संपर्क-
द्वारा श्रीमती इन्द्रावती मिश्रा
स्कूल पारा
बैकुण्ठपुर
जिला-कोरिया
छ.ग.
497335
शुक्रवार, 13 नवंबर 2015
किसे मानूँ : अशोक बाबू माहौर
मध्य प्रदेश के मुरैना जिला में 10 जनवरी 1985 को जन्में अशोक बाबू माहौर का इधर रचनाकर्म लगातार जारी है। अब तक इनकी रचनाएं रचनाकार, स्वर्गविभा, हिन्दीकुंज, अनहद कृति आदि में प्रकाशित हो चुकी हैं।
ई.पत्रिका
अनहद कृति की तरफ से विशेष मान्यता सम्मान 2014.2015 से अलंकृति । प्रस्तुत है इनकी एक कविता किसे मानूँ।
अशोक
बाबू माहौर की कविता
किसे मानूँ
खड़े होकर
चलना
कब सीखा
कब गिरना,फिसलना
किसने उंगली थामी थीं
मेरी नन्ही
किसने रुलाया
मुझे
किसने हँसाया,
पूछता हूँ
खुद से
रात में
घनेरी रात में
आसमान नीला
सूरज चमकता
किसने कहा था
मुझसे
ये हैं चंदा मामा
लोरियाँ सुनाकर
सुलाया किसने
किसने बालों को सँवारा,
पूछता हूँ
खुद से
रात में
घनेरी रात में
टूटकर विखरने से पहले
संभाला था मुझे
पाठ पढ़ाया था
जीवन का
किसे मानूँ
सहारा अपना
ईश या माता
या पिता को
या सहयोग सबका,
पूछता हूँ
खुद से
रात में
घनेरी रात में ।
संपर्क-
कदमन का पुरा,तहसील-अम्बाह,
जिला-मुरैना
(मध्य प्रदेश) 476111
मो-09584414669
सदस्यता लें
संदेश (Atom)