रविवार, 10 जुलाई 2016

अंजनी श्रीवास्तव की कविता : बेटियां








शिक्षा : बीएससी , पीजीडीएमएम , डीटीएम
कार्य : स्वतन्त्र पत्रकारिता एवं लेखन के सभी आयामों में देश भर में समय - समय पर प्रकाशित।
"ऑडियोग्राफी की उड़ान " , " ध्वनि के बाजीगर " एवं " दोहा संग्रह" , दोहों के दंश " , पुस्तकें प्रकाशित। 
" भोजपुरी सिनेमा : तब अब सब " प्रकाशनाधीन
कई हिंदी एवं भोजपुरी फिल्मों का संवाद एवं गीत  लेखन
संप्रति " दी साउन्ड एसोसिएशन आफ इंडिया " का  कार्यपालक सचिव

बेटियां

कल तक खन -खन  चूड़ियां बजाती  हुई ऊपले  थापने
घर के लिये भूख -प्यास पर भारी  पड़ने
नापी -जोखी  हुई जमीन  पर परिक्रमा करने
और आंसुओं  के ताल में मुस्कुराहटों  के कमल खिलाने वाली
साड़ी ,सिंदूर और चूड़ियों  तक  महदूद बेटियां  आज
  सिर्फ चला  रही  हैं ट्रैनें
बल्कि  चला रही  हैं देश  भी
सिर्फ भर नहीं  रहीं ,बैठे -बैठे सपनों  की उड़ान
बल्कि  हकीकत में उड़ाने  लगी हैं लड़ाकू विमान
विकास की परछाईयों  से बहुत  दूर
सुहागन बनकर आंगन  में  गंगा नहाती
पति के पांवों  में तीरथ धाम  तलाशती
जातकों  की निश्छल  हंसी  में मंजिलें छूती
धूप के फैलाव  में समय की सूई  टटोलती
एक जिस्म पर ओढ़कर ,रिश्तों के कई -कई  चादर
गर्दिश और गुमनामी के गर्द में नहाकर भी
जिस तरह करती है मन की सुंदरता को अभिव्यक्त
क्या कर पायेगी किसी प्रेमचंद की कलम
मकबूल की कूंची
और किसी सम्वेदनशील फिल्मकार  की सिने-कृति ?
घर की दहलीज पर
दुनिया का ग्लोब  देखती ,
चूल्हे के धुओं  में अपना अक्स निहारती
परम्पराओं  की लीक  पर
बंद आंखों  से डग भरती
इस खूंटे  से उस खूंटे तक बंधती
विपत्तियों  की बाढ़ में साहस के पतवार से
जिंदगी की नाव खेती बेटियां
तो बस बेटियां ही होती हैं -
जैसी साहूकार की वैसी चर्मकार की..



स्थाई पता : गीधा , भोजपुर (बिहार )


वर्तमान पता :
अंजनी श्रीवास्तव
ए - 223 , मौर्या हाऊस
वीरा इंडस्ट्रियल इस्टेट ऑफ ओशिवरा लिंक रोड
अंधेरी (पश्चिम ), मुम्बई - 400053
दूरभाष – 9819343822
email :- anjanisrivastav.kajaree@gmail.com


रविवार, 3 जुलाई 2016

कहानी : मजबूरी -सुशांत सुप्रिय

    श्री सुशांत सुप्रिय हिन्दी, पंजाबी और अंग्रेज़ी में लिखते हैं. हत्यारे , हे राम , दलदल  इनके कुछ कथा संग्रह हैं, अयोध्या से गुजरात तक और इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं  इनके काव्य संकलन. इनकी कई कहानियाँ और कविताएँ विभिन्न भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं. अनेक कहानियाँ  कई राज्यों के स्कूलों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित हैं, कविताएँ पूणे विश्व-विद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल हैं और विभिन्न विश्वविद्यालयों के शोधार्थी इनकी कहानियों पर शोध कर रहे हैं. भाषा विभाग ( पंजाब ) तथा प्रकाशन विभाग ( भारत सरकार ) द्वारा इनकी रचनाएँ पुरस्कृत की गई हैं. कमलेश्वर-कथाबिंब कहानी प्रतियोगिता ( मुंबई ) में लगातार दो वर्ष प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किये गए.



 कहानी  : मजबूरी  - सुशांत सुप्रिय


         
जब सुबह झुनिया वहाँ पहुँची तो बंगला रात की उमस में लिपटा हुआ गर्मी में उबल रहा था । सुबह सात बजे की धूप में तल्ख़ी थी । वह तल्ख़ी उसे मेम साहब की तल्ख़ ज़बान की याद दिला रही थी ।
         
बाहरी गेट खोल कर वह जैसे ही अहाते में आई , भीतर से कुत्ते के भौंकने की भारी-भरकम आवाज़ ने उसके कानों में जैसे पिघला सीसा डाल दिया ।  उँगलियों से कानों को मलते हुए वह बंगले के दरवाज़े पर पहुँची । घंटी बजाने से पहले ही दरवाज़ा खुल चुका था ।
          "
तुम रोज़ देर से आ रही हो । ऐसे नहीं चलेगा । " सुबह बिना मेक-अप के मेम-साहब का चेहरा उनकी चेतावनी जैसा ही भयावह लगता था ।
          "
बच्ची बीमार थी ... । " उसने अपनी विवश आवाज़ को छिपकली की कटी-पूँछ-सी तड़पते हुए देखा ।
          "
रोज़ एक नया बहाना ! " मेम साहब ने उसकी विवश आवाज़ को ठोकर मार कर परे फेंक दिया । वह वहीं किनारे पड़ी काँपती रही ।
          "
सारे बर्तन गंदे पड़े हैं । कमरों की सफ़ाई होनी है । कपड़े धुलने हैं । हम लोग क्या तुम्हारे इंतज़ार में बैठे रहें कि कब महारानी जी प्रकट होंगी और कब काम शुरू होगा ! हुँह् ! " मेम साहब की नुकीली आवाज़ ने उसके कान छलनी कर दिए ।
वह चुपचाप रसोई की ओर बढ़ी । पर वह मेम साहब की कँटीली निगाहों का अपनी पीठ में चुभना महसूस कर रही थी । जैसे वे मारक निगाहें उसकी खाल चीरकर उसके भीतर जा चुभेंगी ।
          जल्दी ही वह जूठे बर्तनों के अंबार से जूझने लगी ।
          "
सुन झुनिया ! " मेम साहब की आवाज़ ड्राइंग रूम को पार करके रसोई तक पहुँची और वहाँ उसने एक कोने में दम तोड़ दिया । जूठे बर्तनों के अंबार के बीच उसने उस आवाज़ की ओर कोई ध्यान नहीं दिया ।
          "
अरे , बहरी हो गई है क्या ? "
          "
जी , मेम साहब । "
          "
ध्यान से बर्तन धोया कर । क्राकरी बहुत महँगी है । कुछ भी टूटना नहीं चाहिए । कुछ भी टूटा तो तेरी पगार से पैसे काट लूँगी , समझी ? " उसे मेम साहब की आवाज़ किसी कटहे कुत्ते के भौंकने जैसी लगी ।
          "
जी , मेम साहब । "
           
ये बड़े लोग थे । साहब लोग थे । कुछ भी कह सकते थे । उसने कुछ कहा तो उसे नौकरी से निकाल सकते थे । उसकी पगार काट सकते थे -- उसने सोचा ।
क्या बड़े लोगों को दया नहीं आती ? क्या बड़े लोगों के पास दिल नाम की चीज़ नहीं होती ? क्या बड़े लोगों से कभी ग़लती नहीं होती ?
           
बर्तन साफ़ कर लेने के बाद उसने फूल झाड़ू उठा लिया ताकि कमरों में झाड़ू लगा सके । बच्चे के कमरे में उसने ज़मीन पर पड़ा खिलौना उठा कर मेज़ पर रख दिया । तभी एक नुकीली , नकचढ़ी आवाज़ उसकी छाती में आ धँसी -- " तूने मेरा खिलौना क्यों छुआ , डर्टी डम्बो ? मोरोन ! " यह मेम साहब का बिगड़ा हुआ आठ साल का बेटा जोजो था । वह हमेशा या तो मोबाइल पर गेम्स खेलता रहता या टी.वी. पर कार्टून देखता रहता । मेम साहब या साहब के पास उसके लिए समय नहीं था , इसलिए वे उसे सारी सुविधाएँ दे देते थे । वह ए.सी. बस में बैठ कर किसी महँगे स्कूल में पढ़ने जाता था । कभी-कभी देर हो जाने पर मेम साहब का ड्राइवर उसे मर्सिडीज़ गाड़ी में स्कूल छोड़ने जाता था ।
           
झुनिया का बेटा मुन्ना जोजो के स्कूल में नहीं पढ़ता था । वह सरकारी स्कूल में पढ़ता था । हालाँकि मुन्ना अपना भारी बस्ता उठाए पैदल ही स्कूल जाता था , उसका चेहरा किसी खिले हुए फूल-सा था । जब वह हँसता तो झुनिया की दुनिया आबाद हो जाती -- पेड़ों की डालियों पर चिड़ियाँ चहचहाने लगतीं , आकाश में इंद्रधनुष उग आता , फूलों की क्यारियों में तितलियाँ उड़ने लगती , कंक्रीट-जंगल में हरियाली छा जाती । मुन्ना एक समझदार लड़का था । वह हमेशा माँ की मदद करने के लिए तैयार रहता ...
           
हाथ में झाड़ू लिए हुए झुनिया ने दरवाज़े पर दस्तक दी और साहब के कमरे में प्रवेश किया । साहब रात में देर से घर आते थे और सुबह देर तक सोते रहते थे । 
महीने में ज़्यादातर वे काम के सिलसिले में शहर से बाहर ही रहते थे । झुनिया की छठी इन्द्रिय जान गई थी कि साहब ठीक आदमी नहीं थे । एक बार मेम साहब घर से बाहर गई थीं तो साहब ने आँख मार कर उससे कहा था -- " ज़रा देह दबा दे । पैसे दूँगा । " झुनिया को वह किसी आदमी की नहीं , किसी नरभक्षी की आवाज़ लगी थी । साहब के शब्दों से शराब की बू आ रही थी । उनकी आँखों में वासना के डोरे उभर आए थे । उसने मना कर दिया था और कमरे से बाहर चली गई थी । पर उसकी हिम्मत नहीं हुई थी कि वह मेम साहब को यह बता पाती । कहीं मेम साहब उसी को नौकरी से निकाल देतीं तो ? यह बात उसने अपने रिक्शा-चालक पति को भी नहीं बताई थी । वह उसे बहुत प्यार करता था । यह सब सुन कर उसका दिल दुखता ...
           
झाड़ू मारना ख़त्म करके अब वह पोंछा मार रही थी ।
             "
, इतना गीला पोंछा क्यों मार रही है ? कोई गिर गया तो ? " मेम साहब की आवाज़ किसी आदमखोर जानवर-सी घात लगाए बैठी होती । उससे ज़रा-सी ग़लती होते ही वह उस पर टूट पड़ती और उसे नोच डालती ।
           
अब गंदे कपड़ों का एक बहुत बड़ा गट्ठर उसके सामने था ।
             "
कपड़े बहुत गंदे धुल रहे हैं आजकल । " यह साहब थे । दबे पाँव उठ कर दृश्य के अंदर आ गए थे । उसने सोचा , अगर उस दिन उसने साहब की देह दबा दी होती तो भी क्या साहब आज यही कहते ? यह सोचते ही उसके मुँह में एक कसैला स्वाद भर गया ।
             "
ये लोग होते ही कामचोर हैं । " मेम-साहब का उससे जैसे पिछले जन्म का बैर था । " बर्तन भी गंदे धोती है ! ठीक से काम कर वर्ना पैसे काट लूँगी ! " यह आवाज़ नहीं थी , धमकी का जंगली पंजा था जो उसका मुँह नोच लेना चाहता था ।
             
झुनिया के भीतर विद्रोह की एक लहर-सी उठी । वह चीख़ना-चिल्लाना चाहती थी । वह इन साहब लोगों को बताना चाहती थी कि वह पूरी ईमानदारी से , ठीक से काम करती है । कि वह कामचोर नहीं है । वह झूठे इल्ज़ाम लगाने के लिए मेम साहब का मुँह नोच लेना चाहती थी । लेकिन वह चुप रह गई ...
             
एक चूहा मेम साहब की निगाहों से बच कर कमरे के एक कोने से दूसरे कोने की ओर तेज़ी से भागा । लेकिन झुनिया ने उसे देख लिया । अगर रात में सोते समय यह चूहा मेम साहब की उँगली में काट ले तो कितना मज़ा आएगा -- उसने सोचा । मेम साहब चूहे को नहीं डाँट सकती , उसकी पगार नहीं काट सकती , उसे नौकरी से नहीं निकाल सकती ! इस ख़्याल ने उसे खुश कर दिया । ज़िंदगी की छोटी-छोटी चीज़ों में अपनी ख़ुशी खुद ही ढूँढ़नी होती है -- उसने सोचा ।
             "
सुन , मैं ज़रा बाज़ार जा रही हूँ । काम ठीक से ख़त्म करके जाना , समझी ? " 
 
मेम साहब ने अपनी ग़ुस्सैल आवाज़ का हथगोला उसकी ओर फेंकते हुए कहा । " सुनो जी , देख लेना ज़रा । " यह सलाह साहब के लिए थी ।
             
काम ख़त्म करके वह चलने लगी तो उसने देखा कि ड्राइंग रूम में खड़े साहब न जाने कब से उसकी देह को गंदी निगाहों से घूर रहे थे । सकुचा कर उसने अपनी साड़ी का पल्लू और कस कर अपनी छाती पर लपेट लिया और बाहर अहाते में निकल आई । पर उसे लगा जैसे साहब की वासना भरी आँखें उसकी पीठ से चिपक गई हैं । उसे घिन महसूस हुई । यहाँ तो हर घर में एक आसाराम था ।
             "
सुनो , शाम को जल्दी आ जाना , और मुझ से अपनी पगार ले जाना । "
साहब की वासना भरी आवाज़ जैसे उसकी देह से लिपट जाना चाहती थी । उसे लगा जैसे यह घर नहीं , किसी अँधेरे कुएँ का तल था । उसका मन किया कि वह यहाँ से कहीं बहुत दूर भाग जाए और फिर कभी यहाँ नहीं आए । लेकिन तभी उसे अपनी बीमार बच्ची याद आ गई , उसकी महँगी दवाइयाँ याद आ गईं , और रसोई में पड़े ख़ाली डिब्बे याद आ गए ...

सुशांत सुप्रिय 
A-5001 ,गौड़ ग्रीन सिटी ,
वैभव खंड ,इंदिरापुरम ,
ग़ाज़ियाबाद - 201014 ( उ. प्र . )
   
मो: 08512070086  ई-मेल: sushant1968@gmail.com
 


सोमवार, 27 जून 2016

युवा कवि शिरोमणि महतो की कविताएं



     समकालीन रचनाकारों में प्रमुख स्थान रखने वाले शिरोमणि महतो  की कविताएं सरल शब्दों में बड़ा वितान रचती हैं कवि अपने लोक से कितना जुड़ा है । यह तो इन कविताओं को पढने के बाद ही जान पाएंगे।
युवा कवि  शिरोमणि महतो की कविताएं
नदी

मेरी माँ मेरे सर पर
हाथ रखती है
और एक नदी
छलछलाने लगती
-मेरे ऊपर

मेरी बहन कलाई में
राखी बांधती
और एक नदी
उडेल देती सारा जल
-मुझ पर

मेरी पत्नी होठों पर
एक चुम्बन लेती
और एक नदी
हिलोरे मारने लगती
-मेरे भीतर

माँ बहन और पत्नी
एक स्त्री के कई रूप
और एक नदी के
कई प्रतिरूप !

कोदो भात

कोदो गोंदली मंहुआ
अब देखने को नहीं मिलते
उखड़ गई इन फसलों की खेती
जैसे हम उखड़ गये अपनी जड़ों से !

आज कोदो का भात दुर्लभ है
लेकिन कहावत अभी जिन्दा है-
हाम तो बाप पके कोदो नायं खाईल हियो
पहले कोदो चावल से भी ज्यादा भोज्य था
तभी तो बनी थी-यह कहावत

धीरे-धीरे चावल भी छूटता जा रहा
और उसकी जगह लेता जा रहा
अब चौमीन-चाईनीज फूड....

जैसे-जैसे कोदा से चावल
और चावल से चाईनीज फूड
वैसे-वैसे भारत से इंडिया
होता जा रहा अपना देश....!
पता  : नावाडीह, बोकारो, झारखण्ड-829144  मोबाईल  : 9931552982

गुरुवार, 16 जून 2016

बातों का अफवाहें बनना ठीक नहीं- प्रेम नंदन



जन्म - 25 दिसम्बर 1980, फरीदपुर, हुसेनगंज, फतेहपुर (उ0प्र0) |
शिक्षा - एम0ए0(हिन्दी), बी0एड0। पत्रकारिता और जनसंचार में स्नातकोत्तर डिप्लोमा।
परिचय - लेखन और आजीविका की शुरुआत पत्रकारिता से। तीन-चार   वर्षों तक पत्रकारिता करने तथा लगभग इतने ही वर्षों तक इधर-उधर ‘भटकने’ के पश्चात सम्प्रति अध्यापन|
प्रकाशन- कवितायें, कहानियां एवं  लघुकथायें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं एवं ब्लॉगों में प्रकाशित।
1 -  अफवाहें बनती बातें

सच यही है
कि बातें वहीं से शुरू हुईं
जहाँ से होनी चाहिए थीं
लेकिन खत्म हुईं वहाँ
जहाँ नहीं होनी चाहिए थीं ।

बातों के शुरू और खत्म होने के बीच
तमाम नदियाँ, पहाड़, जंगल और रेगिस्तान आए
और अपनी उॅचाइयाँ , गहराइयाँ , हरापन और
नंगापन थोपते गए ।

इन सबका संतुलन न साध पाने वाली बातें
ठीक तरह से शुरू होते हुए भी
सही जगह नहीं पहुँच पाती-
अफवाहें बन जाती हैं ।

ऐसे विकराल समय में
बातों का अफवाहें बनना ठीक नहीं!


2-मदारी

जब भी लगती है उन्हें प्यास
वे लिखते हैं
खुरदुरे कागज के चिकने चेहरे पर
कुछ बूँद पानी
और धधकने लगती है आग !

इसी आग की आँच से
बुझा लेते हैं वे
अपनी हर तरह की प्यास !

मदारियों के
आधुनिक संस्करण हैं वे
आग और पानी को
कागज में बाँधकर
जेब में रखना
जानते हैं वे !

संपर्क – उत्तरी शकुन नगर, सिविल लाइन्स, फतेहपुर, उ०प्र०-212601,
दूरभाष– 09336453835
ईमेल - premnandan10@gmail.com
ब्लॉग – aakharbaadi.blogspot.in

रविवार, 5 जून 2016

‘ शिक्षातरु अभियान ’ - आरसी चौहान




   विश्व पर्यावरण दिवस पर पोस्ट कर रहा हूं सर्वनाम में प्रकाशित एक लेख का कुछ अंश। पठन पाठन के साथ वृक्षारोपड़ कार्यक्रम की कुछ झलकियां एवं आभार उन समस्त  कर्मठ  साथियों का जिन्होंने शिक्षातरु अभियान में निरंतर सहयोग दिया जिनमें सर्वश्री प्रदीप मालवा ,  सुनील कुमार ,  मुकेश डडवाल ,  सुनील कण्डवाल ,  सतीश कुमार ,  जीतेंद्र कोहली ,  मनवीर भारती ,  गणेश लखेड़ा जमुनादास पाठक एवं स्कूल के समस्त छात्र छात्राएं ।
उत्तराखण्ड के महत्वपूर्ण जनान्दोलन




चिपको आन्दोलन: दुनिया भर मे पर्यावरण और वन संरक्षण की  अलख जगाने वाले समाज सेवियों चण्डी प्रसाद भट्ट एवं आलम सिंह बिष्ट के कार्यों को सफल बनाने में स्वयं पेड़ों पर चिपक कर इस पर्यावरण चेतना के महान संघर्ष चिपको की जननी गौरा देवी को कौन भुला सकता है।बेजुबान वृक्षों की रक्षा में वृक्ष खोरों के खिलाफ गौरा देवी व उसकी दर्जनों सहेलियों की गर्जना पहाड़ी वादियों से निकलकर दुनिया के कोने-कोने तक प्रतिध्वनित हुई।



        भाले कुल्हाडे़ चमकेंगेहम पेड़ों पर चिपकेंगे ।



        पेड़ों पर हथियार उठेंगे, हम भी उनके साथ कटेंगे।



  चमोली जनपद के रैणी गाँव में 26 मार्च 1974 को कुल्हाड़ियों तथा बदूंकों से लैस वन ठेकेदार के मजदूरों वन कर्मियों व दबंगों को पीछे हटने को मजबूर कर दिया।जब गौरा देवी व उसकी सहेलियों ने अपने प्राणों की परवाह किए बिना पेड़ों से चिपक कर हजारों पेड़ों की रक्षा की। चिपको आंदोलन का ही असर था कि सन् 1980 में भारत सरकार को वन संरक्षण अधिनियमबनाना पड़ा।गौरा देवी के इस अभियान को पर्यावरणविद सुन्दर लाल बहुगुणा ने विश्व में एक नई पहचान दिलाई।




मैती आन्दोलन: पर्यावरण संरक्षण के लिए विश्व में चर्चित चिपको आन्दोलन के पश्चात मैती आन्दोलन का सूत्रपात हुआ। इसके मुखर स्वर अब भारत के अन्य राज्यों सहित अमेरिकाकनाडा,  चीनथाईलैण्ड व नेपाल में भी सुनाई पड़ने लगे हैं। कल्याण सिंह रावत इसी मैती आन्दोलन के जनक हैं ।सन 19950 में पर्यावरण संरक्षण हेतु भावनात्मक आन्दोलन मैती की शुरूआत करने के बाद अब तक लाखों पेड़ लगाए जा चुके हैं।हर शादी की याद में दुल्हा तथा दुल्हन मिल कर पेड़ लगाते हैं। उत्तराखण्ड में यह आन्दोलन संस्कार का रूप ले चुका है।





रक्षा सूत्र आन्दोलन: टिहरी गढ़वाल के भिलंगना क्षेत्र से शुरू हुआ यह आन्दोलन वृक्ष पर रक्षा सूत्र बाधंकर उसकी रक्षा का संकल्प लिया जाता है।यह अपने आप में एक अलग तरह का आन्दोलन है। इस आन्दोलन का सूत्रपात 1994 ई0 में सुरेश भाई ने किया । दरअसल इसके पीछे एक मुख्य वजह एक हजार मीटर की ऊँचाई  से वृक्षों के कटान पर लगे प्रतिबंध के हट जाने से संबंधित रही। इस आन्दोलन की सफलता जंगल में छपान के बावजूद इन पेड़ों का खड़ा होना है।




उत्तराखण्ड प्रकृति से बहुत गहरे रूप में जुड़ा है। यहां के लोगों में मान-मर्यादा , शिष्टाचार,  आचार -विचार एवं आतिथ्य सेवा की भावना कूट-कूट कर भरी है। इनकी ईमानदार छवि से उत्तराखण्ड ने अपनी अलग पहचान  बनायी है।ये लोग प्रकृति के इतने निकट हैं कि इनसे मानवीय जैसे रिश्ते स्थापित कर लिये हैं।नन्दा देवी को अपनी बेटी से भी अधिक प्यार व सम्मान देना इसका जीवंत उदाहरण है।

    पेड़ या जंगल इनके जीवन के अभिन्न अंग हैं।पेड़ों को वृक्ष माफियाओं से बचाने के लिये अपने प्राणों तक की परवाह नहीं करते ।इसी तरह नदियों की अविरल धारा को बनाये रखने के लिये भी इनके जनान्दोलन जग जाहिर हैं।चोरी -डकैती व छिनैती जैसी घटनाएं पहाड़ों में कम ही घटित होती हैं।अब कुछ असामाजिक तत्त्वों द्वारा इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति की जाने लगी है।


   यहां के लोग अपने जीवन मूल्य को बचाये रखने की भरसक कोशिक करने में लगे हैं।इन लोगों में आज भी सच्चाई, ईमानदारी,वफादारी व माता-पिता के प्रति आदर-सत्कार में कोई कमी नहीं आयी है।ऐसे चरित्रवान लोगों से ही समाज व देश का विकास सम्भव हो पायेगा।एक सुदृढ़,सभ्य और स्वस्थ समाज की रचना के लिये इनसे हमें सीख लेनी चाहिए।











संपर्क - आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)

राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121

मोबा0-08858229760 ईमेल- puravaipatrika@gmail.com

शनिवार, 28 मई 2016

कहानी : बदबू - सुशांत सुप्रिय




   
    श्री सुशांत सुप्रिय हिन्दी, पंजाबी और अंग्रेज़ी में लिखते हैं. हत्यारे , हे राम , दलदल  इनके कुछ कथा संग्रह हैं, अयोध्या से गुजरात तक और इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं  इनके काव्य संकलन. इनकी कई कहानियाँ और कविताएँ विभिन्न भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं. अनेक कहानियाँ  कई राज्यों के स्कूलों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित हैं, कविताएँ पूणे विश्व-विद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल हैं और विभिन्न विश्वविद्यालयों के शोधार्थी इनकी कहानियों पर शोध कर रहे हैं. भाषा विभाग ( पंजाब ) तथा प्रकाशन विभाग ( भारत सरकार ) द्वारा इनकी रचनाएँ पुरस्कृत की गई हैं. कमलेश्वर-कथाबिंब कहानी प्रतियोगिता ( मुंबई ) में लगातार दो वर्ष प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किये गए.
कहानी  : बदबू - सुशांत सुप्रिय 

            रेल-यात्राओं का भी अपना ही मज़ा है । एक ही डिब्बे में पूरे भारत की सैर हो जाती है । ' आमार सोनार बांग्ला ' वाले बाबू मोशाय से लेकर ' बल्ले-बल्ले ' वाले सरदारजी तक , ' वणक्कम् ' वाले तमिल भाई से लेकर ' केम छो ' वाले गुजराती सेठ तक -- सभी से रेलगाड़ी के उसी डिब्बे में मुलाक़ात हो जाती है । यहाँ तरह-तरह के लोग मिल जाते हैं । विचित्र क़िस्म के अनुभव हो जाते हैं ।

            पिछली सर्दियों में मेरे साथ ऐसा ही हुआ । मैं और मेरे एक परिचित विमल किसी काम के सिलसिले में राजधानी एक्सप्रेस से दिल्ली से रायपुर जा रहे थे । हमारे सामने वाली सीट पर फ़्रेंचकट दाढ़ीवाला एक व्यक्ति अपनी पत्नी और तीन साल के बच्चे के साथ यात्रा कर रहा था । परस्पर अभिवादन हुआ । शिष्टाचारवश मौसम से जुड़ी कुछ बातें हुईं । उसके अनुरोध पर हमने अपनी नीचे वाली बर्थ उसे दे दी और हम दोनो ऊपर वाली बर्थ पर चले आए ।

            मैं अख़बार के पन्ने पलट रहा था । तभी मेरी निगाह नीचे बैठे उस व्यक्ति पर पड़ी । वह बार-बार हवा को सूँघने की कोशिश करता , फिर नाक-भौंह सिकोड़ता ।
उसके हाव-भाव से साफ़ था कि उसे किसी चीज़ की बदबू आ रही थी । वह रह-रह कर अपने दाहिने हाथ से अपनी नाक के इर्द-गिर्द की हवा को उड़ाता । विमल भी यह सारा तमाशा देख रहा था । आख़िर उससे रहा नहीं गया । वह पूछ बैठा -- " क्या हुआ , भाई साहब ? "

            " बड़ी बदबू आ रही है । " फ़्रेंचकट दाढ़ीवाले उस व्यक्ति ने बड़े चिड़चिड़े स्वर में कहा ।
            विमल ने मेरी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा । मुझे भी कुछ समझ नहीं आया ।
            मैंने जीवन में कभी यह दावा नहीं किया कि मेरी नाक कुत्ते जैसी है । मुझे और विमल -- हम दोनो को ही कोई दुर्गन्ध नहीं सता रही थी । इसलिए , उस व्यक्ति के हाव-भाव हमें कुछ अजीब से लगे । मैं फिर अख़बार पढ़ने में व्यस्त हो गया । विमल ने भी अख़बार का एक पन्ना उठा लिया ।
            पाँच-सात मिनट बीते होंगे कि मेरी निगाह नीचे गई । नीचे बैठा व्यक्ति अब बहुत उद्विग्न नज़र आ रहा था । वह चारो ओर टोही निगाहों से देख रहा था । जैसे बदबू के स्रोत का पता लगते ही वह कोई क्रांतिकारी क़दम उठा लेगा । रह-रहकर उसका हाथ अपनी नाक पर चला जाता । आख़िर उसने अपनी पत्नी से कुछ कहा । पत्नी ने बैग में से ' रूम-फ़्रेश्नर ' जैसा कुछ निकाला और हवा में चारो ओर उसे' स्प्रे ' कर दिया । मैंने विमल को आँख मारी । वह मुस्करा दिया । किनारेवाली बर्थ पर बैठे एक सरदारजी भी यह सारा तमाशा हैरानी से देख रहे थे

            चलो , अब शायद इस पीड़ित व्यक्ति को कुछ आराम मिलेगा -- मैंने मन-ही-मन सोचा ।
            पर थोड़ी देर बाद क्या देखता हूँ कि फ़्रेंचकट दाढ़ी वाला वह उद्विग्न व्यक्ति
वही पुरानी हरकतें कर रहा है । तभी उसने अपनी पत्नी के कान में कुछ कहा । पत्नी परेशान-सी उठी और हमें सम्बोधित करके कहने लगी , " भाई साहब , यह जूता किसका है ? इसी में से बदबू आ रही है । "

             जूता विमल का था । वह उत्तेजित स्वर में बोला , " यहाँ पाँच-छह जोड़ी जूते पड़े हैं । आप यह कैसे कह सकती हैं कि इसी जूते में से बदबू आ रही है । वैसे भी , मेरा जूता और मेरी जुराबें , दोनों नई हैं और साफ़-सुथरी हैं । "

             इस पर उस व्यक्ति की पत्नी कहने लगी , " भाई साहब , बुरा मत मानिएगा । इन्हें बदबू सहन नहीं होती । उलटी आने लगती है । आप से गुज़ारिश करती हूँ , आप अपने जूते पालिथीन में डाल दीजिए । बड़ी मेहरबानी होगी । "
           विमल ग़ुस्से और असमंजस में था । तब मैंने स्थिति को सँभाला ," देखिए ,
हमें तो कोई बदबू नहीं आ रही । पर आप जब इतनी ज़िद कर रही हैं तो यही सही ।"

            बड़े बेमन से विमल ने नीचे उतर कर अपने जूते पालिथीन में डाल दिए ।
            मैंने सोचा --  चलो , अब बात यहीं ख़त्म हो जाएगी । पर थोड़ी देर बाद वह व्यक्ति उठा और मुझसे कहने लगा , " भाई साहब , मुझे नीचे अब भी बहुत बदबू आ रही है । आप नीचे आ जाइए । मैं वापस ऊपरवाली बर्थ पर जाना चाहता हूँ । "

            अब मुझसे नहीं रहा गया । मैंने कहा , " क्या आप पहली बार रेल-यात्रा कर रहे हैं ? भाई साहब , आप अपने घर के ड्राइंग-रूम में नहीं बैठे हैं । यात्रा में कई तरह की गंध आती ही हैं । टॉयलेट के पास वाली बर्थ मिल जाए तो वहाँ की दुर्गन्ध आती है । गाड़ी जब शराब बनाने वाली फ़ैक्ट्री के बगल से गुज़रती है तो वहाँ की गंध आती है । यात्रा में सब सहने की आदत डालनी पड़ती है । "

            विमल ने भी धीरे से कहा , " इंसान को अगर कुत्ते की नाक मिल जाए तो बड़ी मुश्किल होती है ! "
            पर उस व्यक्ति ने शायद विमल की बात नहीं सुनी । वह अड़ा रहा कि मैं नीचे आ जाऊँ और वह ऊपर वाली बर्थ पर ही जाएगा ।
            मैंने बात को और बढ़ाना ठीक नहीं समझा । इसलिए मैंने ऊपर वाली बर्थ
उसके लिए ख़ाली कर दी । वह ऊपर चला गया ।

            थोड़ी देर बाद जब उस व्यक्ति की पत्नी अपने बड़े बैग में से कुछ निकाल रही थी तो वह अचानक चीख़कर पीछे हट गई ।
            सब उसकी ओर देखने लगे ।
            " क्या हुआ ? " ऊपर वाली बर्थ से उस व्यक्ति ने पूछा ।
            " बैग में मरी हुई छिपकली है ।" उसकी पत्नी ने जवाब दिया ।
            यह सुनकर विमल ने मुझे आँख मारी । मैं मुस्करा दिया ।
             वह व्यक्ति खिसियाना-सा मुँह लिए नीचे उतरा ।

             " भाई साहब , बदबू का राज अब पता चला ! " सरदारजी ने उसे छेड़ा । वह और झेंप गया ।
              ख़ैर । उस व्यक्ति ने मरी हुई छिपकली को खिडकी से बाहर फेंका । फिर वह बैग में से सारा सामान निकाल कर उसे डिब्बे के अंत में ले जा कर झाड़ आया ।
हम सबने चैन की साँस ली । चलो , मुसीबत ख़त्म हुई -- मैंने सोचा ।
              पैंट्री-कार से खाना आ गया था । सबने खाना खाया । इधर-उधर की बातें हुईं । फिर सब सोने की तैयारी करने लगे ।
              तभी मेरी निगाह उस आदमी पर पड़ी । उद्विग्नता की रेखाएँ उसके चेहरे पर लौट आई थीं । वह फिर से हवा को सूँघने की कोशिश कर रहा था ।
              " मुझे अब भी बदबू आ रही है ... ", आख़िर अपनी चुप्पी तोड़ते हुए उसने कहा ।
              " हे भगवान ! " मेरे मुँह से निकला ।
              यह सुनकर विमल ने मोर्चा सँभाला , " भाई साहब , मेरी बात ध्यान से सुनिए । बताइए , हम किस युग में जी रहे हैं ? यह कैसा समय है ? हम कैसे लोग
 हैं ? "
               " क्या मतलब ? " वह आदमी कुछ समझ नहीं पाया ।

               " देखिए , हम सब एक बदबूदार युग में जी रहे हैं । यह समय बदबूदार है । हम लोग बदबूदार हैं । यहाँ नेता भ्रष्ट हैं , वे बदबूदार हैं । अभिनेता अंडरवर्ल्ड से मिले हैं , वे बदबूदार हैं । अफ़सर घूसखोर हैं , वे बदबूदार हैं । दुकानदार मिलावट करते हैं , वे बदबूदार हैं । हम और आप झूठ बोलते हैं , दूसरों का हक़ मारते हैं , अनैतिक काम करते हैं -- हम सभी बदबूदार हैं । जब यह सारा युग बदबूदार है , यह समय बदबूदार है , यह समाज बदबूदार है , हम लोग बदबूदार हैं , ऐसे में यदि आपको अब भी बदबू आ रही है तो यह स्वाभाविक है । आख़िर इस डिब्बे में हम बदबूदार लोग ही तो बैठे हैं ...। "

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   सुशांत सुप्रिय
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