कवि मित्र पद्मनाभ गौतम के पहाड़ी अनुभवों को उनके संस्मरण - ‘ लौट के बुद्धू घर को आए ’ की आज पांचवीं और आखिरी किस्त।आपके विचारों की प्रतीक्षा में। सम्पादक -पुरवाई
इस अनिश्चितता व उहापोह
में जब हम धरवाला से हम जब आगे बढ़े तो हमारे साथ दो और राहगीर आ गए। वो दोनों पिता-पुत्र
थे जो होली गाँव से आ रहे थे। होली एक कस्बा है जो खड़ामुख से बीस किलोमीटर दूर है।
वे पिता-पुत्र भी प्रातः काल होली से निकले थे। चूंकि रात हो रही थी, अतः महसूस हुआ कि दो
से भले चार। उन्होंने हमसे पूछा कि क्या वे हमारे साथ चल सकते हैं। हमने उन्हें सहर्ष
इसकी सहमति दे दी। वे बड़े प्रसन्न हुए। दोनों जम्मू-कश्मीर के भद्रवाह के पास के रहने
वाले थे तथा होली में मजदूरी का काम करते थे। हिमपात बढ़ता देख कर वे भी पदयात्रा पर
निकल पड़े थे। उन्होंने उस दिन कोई चालीस किलोमीटर की पदयात्रा की थी। परंतु वे हमारी
तरह थके नहीं थे। वह दोनों शारीरिक श्रम करने
के अभ्यस्त थे तथा हमारी तरह थक कर चूर नहीं थे।
जब हम राख पहुँचे तो
सांझ हो आई थी। राख में बर्फ और वर्षा रुक चुकी थी। अब आगे अंधेरे में और पैदल चलना
संभव नहीं था। हमें उम्मीद थी कि राख से तो चम्बा तक चलने वाली कोई टैक्सी अवश्य हमें
मिल जाएगी। पर उस दिन की आखिरी टैक्सी भी जा चुकी थी। हमारे पास राख में रुकने के अतिरिक्त
और कोई उपाय नहीं था। मजदूर पिता-पुत्र से पूछा तो उन्होंने कहा कि वे किसी दुकान के
ओसारे में सो जाएँगे। उनके पास एक मोटा गद्दी कम्बल था। हमारे पास तो कम्बल भी नहीं
था। हम कहाँ रुकेंगे। किसी दुकान की भट्टी पर! अपने आप से कोफ्त हुई, हमारे पास कोई योजना
जो नहीं थी। बस हम सनक में निकल पड़े थे। ’मृत्यु-दर्शन’ में राहुल सांकृत्यायन
कहते हैं कि घुमक्कड़ों को मृत्यु का भय कैसा। पर ठण्ड का तो होना चाहिए! कम्बल तो साथ
रखना चाहिए!! इसे ही अनुभव कहते हैं महाराज। ’देयर
इज़ नो शार्टकट टू एक्सपीरियंस’ अर्थात्
अनुभव लेने का कोई छोटा मार्ग नहीं होता, वायुयान
से आप पथरीली सड़क का अनुभव नहीं प्राप्त कर सकते।
एकाएक मुझे अब राख गाँव
के लोक निर्माण विभाग के विश्राम-गृह की याद आई, जहाँ मैं पिछली बार रुका था। परंतु खराब
मौसम में उसके खाली मिलने की संभावना कम ही थी। जब हम गेस्ट हाउस पहुँचे तो वहाँ का
चौकीदार ही नदारद था। बड़ी मुश्किल से खोजने पर हमें वह स्टाफ क्वार्टरों की ओर बैठा
मिला। पहले तो उसने हवाला दिया कि मौसम खराब है और कोई वी.आई.पी. कभी भी आ सकता है। पर बहुत देर तक हमारे
अनुनय करने पर तथा कुछ अतिरिक्त रुपयों के लालच में उसने हमारे लिए एक कमरा खोल दिया।
कमरे में बस एक डबल बेड था। फर्श पर मोटा जूट का कालीन बिछा था जो गर्म था। मजदूरों
से कहा कि भाई एक ही कमरा है। तुम चाहो तो इसमें रुक जाओं। उन्होंने वहीं जूट के शीतरोधी
कालीन पर अपना बिस्तरा लगा लिया।
रुकने का आसरा करने के
बाद अब हमें खाने की सुध आई। हम बाहर की ओर भागे। दोनों मजूरों ने कुछ भी खाने से इंकार
कर दिया था। बाजार राख के लोक निर्माण विश्रामगृह से लगा हुआ ही है। परंतु उस बर्फबारी
के मौसम में कैसा बाजार। सब बन्द था। बस एक होटल खुला मिला जिसमें मिट्टी तेल की ढिबरी
जल रही थी। हम लपक कर पहुँचे तो होटल मालिक ने हाथ हिला कर इशारा कर दिया। उसकी एक
पतीली में बस थोड़ा सा काबुली चने का झोल ही बचा था। हमें दुकान पर डबलरोटी मिल गई।
मैंने और फहीम दोंनो ने ब्रेड और चने का डिनर किया। उस वक्त वह हमारे लिए पाँच सितारा
होटल के खाने से कम नहीं था। यह वह डिनर था जो जरा सी और देर होने पर हमें नसीब होने
वाला नहीं था, जिसके
बिना फिर हमें रात भर भूखा सोना पड़ता। खा-पीकर हम कमरे में आकर लेट गए। हमने सोचा भी
नहीं था कि हमारा इतना बुरा दिन बीतेगा। हमें उम्मीद ही नहीं थी कि हम उस दिन चम्बा
नहीं पहुँचेंगे। कहाँ तो केवल तेरह किलोमीटर खड़ा मुख तक पैदल चलने की बात थी और अब
हम लगभग चालीस किलोमीटर पैदल चल चुके थे! वह भी बर्फ और बारिश में भीगते हुए। वह तो
खैरियत थी कि राख के उस गेस्ट हाउस में एक कमरा मिल गया, अन्यथा हमें वह रात किसी
दुकान की भट्टी पर ठण्ड से ठिठुरते हुए ही काटनी थी। थकान से तो हम निढाल थे ही, बातचीत करते-करते हमें
नींद आ गई।
रात अचानक कराहने की
आवाज़ सुनकर मेरी नींद टूटी। फहीम इकबाल अपना पेट पकड़े चीख रहा था। सम्भवतः ठण्ड से
उसे अपच हो गया था या फिर डबलरोटी या चनों में ही कोई दोष था। मैंने देखा तो वह बाथरूम
की ओर पेट पकड़ कर भाग रहा था। उसे उल्टियाँ हो रहीं थीं। पर उसकी पीठ सहलाने तथा पानी
पिलाने के अतिरिक्त अन्य कोई मदद नहीं थी देने को। बहरहाल राम-राम करके रात कटी। सौभाग्य
से उस रात फहीम को सिर्फ एक बार ही उल्टियाँ हुईं। कहीं अधिक बीमारी होती तब फिर हमें
लेने के देने पड़ सकते थे, क्यों
कि उस बर्फीले मौसम में राहत की कोई उम्मीद नहीं थी।
दूसरे दिन सुबह उठकर
हमें आगे निकलना था। फहीम की तबियत अब कुछ ठीक थी। मैंने जब उससे पूछा कि क्या वह आगे
चल सकता है, तो
उसने सहमति दे दी। चूँकि राख के आगे बर्फबारी नहीं थी तथा मौसम रात तक साफ था, अतः उम्मीद थी कि हमें
कोई न कोई साधन मिल ही जाएगा। किंतु दुर्भाग्य अब भी हमारा पीछा नहीं छोड़ रहा था। जब
हम राख के बस अड्डे पर पहुँचे तो हमें अपने कपड़ों पर रुई के नर्म-नर्म फाहे गिरते दिखाई
दिए। अब राख के आगे भी मौसम खराब हो चुका था तथा आगे भी बर्फ गिरने लगी थी। निराशा
ने हमें फिर से जकड़ लिया। मन हुआ कि चीख-चीख कर रोऊँ।
मेरे पैरों में अब तक
जबरदस्त सूजन आ चुकी थी। एड़ी के उपर की मोटी नस ठण्ड और श्रम के कारण बुरी तरह से दुख
रही थी। एक-एक कदम मेरे लिए एक मन से कम नहीं था। लेकिन किसी भी प्रकार से घिसटते हुए
ही सही, चलना
आवश्यक था। पिछले दिन के पैंतीस किलोमीटरों की पदयात्रा तन व मन दोनों को तोड़ने वाली
थी। जिसे पैदल चलने का अभ्यास ही न हो, उसके
लिए सामान्य मार्ग पर ही इतना रास्ता पैदल तय करना कठिन होता है। चूँकि हमारे ग्रामीण
सहयात्री दैहिक श्रम के आदी थे, अतः
उन्हें चलने में कोई परेशानी नहीं थी। कुछ दूर तक तो वे हमारे साथ चले। फिर अचानक हमारे
और उनके बीच की दूरी बढ़ने लगी। एक डेढ़-घण्टे के बाद वे पूरी तरह से हमारी आँखों से
ओझल हो गए, बिना
किसी अंतिम संवाद के। कोई लफ्ज़-ए-अलविदा नहीं। अब तो मुझे उनकी सूरत भी भूल चुकी है।
बस उनके पहनावे की कुछ याद है।
अब हमारी चाल बहुत ही
धीमी थी। पिछले दिन तक तेज चाल चलने वाला फहीम इकबाल रात को तबियत खराब होने के कारण
कमजोर हो चुका था। उधर मेरे पैरों की सूजन ने मुझे लाचार कर दिया था। लगभग एक बजे हम
घिसटते हुए चम्बा से पहले एक गाँव रजेरा पहुँचे जो कोई सात किलोमीटर पहले था। वहाँ
तक हम बर्फ और पानी में भीगते तिरपन किलोमीटर की यात्रा कर चुके थे, जिसमें अड़तालीस किलोमीटर
की पदयात्रा थी। उस गाँव में हम एक होटल में चाय पीने को रुके। अब मुझे खट्टी डकारें
आ रही थीं तथा चाय को देख कर वितृष्णा हो रही थी। बर्फ यहाँ भी पसरी हुई थी। राख से
यहाँ तक के तेरह किलोमीटर तक के सफर में रुक-रुक कर बर्फ बारी होती ही रही। पर अब हम
चम्बा के बहुत करीब थे। हमें केवल अंतिम छह-सात किलोमीटरों का रास्ता तय करना बाकी
था।
जब हम चाय पी ही रहे
थे कि एक कार चम्बा की ओर से वहाँ आकर रुकी। उसमें से दो दादा टाइप के लोग उतरे जो
तफ़रीहन सिगरेट पीने आए थे। जब वे सिगरेट फूँक रहे थे तो मैंने उनसे अनुरोध किया कि
चम्बा जाते समय वे हमें भी अपने साथ लेते चलें। बड़े दादा ने साफ मना कर दिया। हम दोनों
अब मानसिक रूप से टूट रहे थे। जब वे दोनों सिगरेट पीकर वापस जाने लगे तब मैंने फहीम
से कहा कि एक बार और विनती करते हैं। फहीम स्वाभिमानी नौजवान था। उसे पहली बार ही उनका
इंकार करना पसंद नहीं आया था। अतः उसने मुझे मना कर दिया तथा पैदल ही चलने को कहा।
परंतु मैंने हार नहीं मानी, यह
सोच कर कि पूछने में क्या जाता है। मैंने दादा को दोबारा अपनी परिस्थिति बतलाई। उससे
बताया कि हम लोग दो दिनों से पैदल चल रहे हैं तथा हमारी हालत बहुत खराब है। उसने कुछ
देर तक मुझे ध्यान से देखा। उसे मुझ पर दया आ गई तथा उसने हमें पिछली सीट पर बिठा लिया।
उसकी गाड़ी में बैठ कर दो बजे हम चम्बा पहुँचे। रास्ते भर वह दादा हमें अपनी तारीफें
सुनाता रहा तथा जाते-जाते किसी समस्या पर उसका नाम लेने की बात कह गया।
इस बार की सर्दियों में
चम्बा में भी बर्फबारी हुई थी, कई
दशकों के बाद। उधर आज कई दिनों के पश्चात् कहीं जाकर हमें सूर्य देवता के दर्शन हुए
थे। चम्बा में हमारी कम्पनी के मानव संसाधन विभाग का एक कर्मचारी नासिर खान पहले से
उपस्थित था, जो
बर्फबारी की खबर सुनकर चम्बा में ही रुक गया था। उसने खान चाचा के सस्ते होटल की डॉर्मेटरी
में शरण ले रखी थी। हमें भी वहीं रुकने का स्थान मिल गया। लगभग तीन बजे हम बिस्तर में
घुसे। गर्म रजाई में घुसते ही आँख लग गई। रात के आठ बजे नासिर खान ने हमें उठाया। हमने
रात का खाना खाया। अब तक मोबाईल चार्ज हो गया था। रामपुर-बुशैहर में परिवार से बात
की तो पता चला कि सब ठीक-ठाक है। पड़ोस की एक लड़की परिवार को सहारा देने के लिए पत्नी
के साथ रात को हमारे घर में ही सो रही थी। उलझन का एक सिरा तो सुलझा था।
अगले दिन दिनांक दस फरवरी
दो हजार आठ को हमने सुबह बनीखेत के लिए टैक्सी पकड़ी। मुझे अम्बाला होते हुए शिमला के
रास्ते रामपुर जाना था। फहीम इक़बाल को ललितपुर अपने घर निकलना था। आगे घटनाक्रम एक
अपवाद को छोड़ कर सामान्य ही रहा। वह यह कि बनी खेत में मेरे साथ बड़ी दुर्घटना होते
होते रह गई। हुआ यूँ कि जैसे ही हिमाचल ट्रांसपोर्ट की बस बनीखेत के बस-अड्डे में आकर
खड़ी होने लगी, मैं
सीट हथियाने के लिए बस की ओर लपका। चूँकि कदमों तले की बर्फ गाड़ियों के आवागमन से दबकर
ठोस हो चुकी थी, अतः
मेरा पैर फिसल गया। मैं बसे के अगले और पिछले पहियों के बीच जा घुसा। कंडक्टर के चिल्लाने
पर ड्राईवर ने ब्रेक लगा दिया और बस के पहिए चीख के साथ रुक गए। कण्डक्टर मुझे गुस्से
में कोस रहा था, परंतु
मैं तो दो दिनों के भीतर मौत से इस दूसरे साक्षात्कार पर सन्न खड़ा था।
अम्बाला से दोनों साथी
आगे बढ़ गए। फहीम ललितपुर निकल गया और नासिर खान आगरे को। ग्यारह तारीख की रात कोे अम्बाला
से कालका पहुँच कर छोटी ट्रेन से शिमला होते हुए मैं रामपुर पहुँचा, जहाँ परिवार व्यग्रता
के साथ मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। रात के साढ़े दस बजे मैंने दरवाजे पर दस्तक दी। और
हम सब एक साथ थे।
पर अभी मेरी परेशानियों
का अंत नहीं था। इतने दिनों की थकान लिए जैसे ही रजाई में घुसा, बेटा मानस पापा-पापा
चिल्लाता हुआ बिस्तर पर चढ़ गया। मैंने जो जयपुर रजाई ओढ़ी थी, वह बहुत मुलायम और फिसलन
भरी थी। बच्चा मुझ तक पहुँचने की कोशिश में रजाई से फिसला और सीधी खिड़की के सिल से
जा टकराया। उसका मस्तक फट गया तथा रक्त धार बहने लगी। उधर मैं इतना थक गया था कि मुझे
जैसे होश नहीं थे। मेरे पैरों के टेण्डन बुरी तरह से दुख रहे थे। पत्नी श्वेता चीख-चीख
कर रोने लगी। इतनी रात को इस हालत में मैं बच्चे को लेकर कैसे जाऊँ। आसमान से निकल
कर खजूर में जा अटका था मैं। निकटतम खनेरी अस्पताल वहाँ से पाँच किलोमीटर दूर था। रात
के ग्यारह बज रहे थे। किसी क्लिनिक के खुले होने का प्रश्न ही नहीं था। तब मुझे अपनी
नानी स्व. सुखवन्ती देवी का एक पुराना अचूक नुस्खा याद आया। मैंने पत्नी से कहा कि
वह रसोई से लाकर घाव में हल्दी भर दे। हल्दी ने अपना काम किया और कुछ समय पश्चात् रक्त
प्रवाह रुक गया।
प्रातःकाल बच्चे को देख
कर मेरा पड़ोसी जो पिछली कम्पनी का मेरा साथी था, वह मुझ पर बहुत नाराज हुआ कि हम बच्चे को
लेकर रात में ही हस्पताल क्यों नहीं गए। उसे मेरे अभिभावक होने के अधिकार पर ही एतराज
था। मैंने उसे बताया कि पिछले दिनों में मैं किन कठिन परिस्थितयों से होकर गुजरा हूँ, पर वह सुन कर राजी ही
नहीं था। हार कर मैंने हथियार डाल दिए तथा स्वीकार कर लिया कि मैं एक योग्य पिता नहीं
हूँ। कुछ देर तक उपदेश देकर वह काम पर चला गया।
खैर, सुबह चाय इत्यादि पीकर
किसी तरह लंगड़ाते हुए मैं बेटे को लेकर हस्पताल गया। उसके माथे पर दो टाँके लगे। सप्ताह
भर में पूरी तरह से घाव सूख गया। हाँ, बेटे
के मस्तक पर टाँकों का वह निशान आज भी बाकी है,
जो मेरी तीन दिनों की आपदा का स्मारक है। उधर कम्पनी के दिल्ली
कार्यालय को खबर मिल चुकी थी। विभागाध्यक्ष ने मुझसे फोन पर बात की। परियोजना प्रमुख
भटनागर साहब से लेकर दिल्ली के विभागाध्यक्ष तक को यह भरोसा हो गया था कि इस विकट अनुभव
के पश्चात् अब मैं लौटकर वापस नहीं जाऊँगा।
परंतु सबकी आशा के विपरीत, सन् 2008 के फरवरी महीने की बाईस
तारीख को मैं सपरिवार गृहस्थी के सामान के साथ भरमौर वापस पहुँच चुका था। फहीम इकबाल
और नासिर खान भी वापस पहुँच चुके थे। हमारे वापस लौटने पर सबसे अधिक वह दुष्ट अधिकारी
हैरान था। वह बर्फ में अपने साथियों के साथ पैदल चम्बा जाकर हम पर मानसिक बढ़त लेना
चाहता था। परंतु हमारी अड़तालीस किलोमीटरों की पदयात्रा ने उसे मुँह तोड़ जवाब दिया था।
लेकिन परियोजना में आने वाले दिन संघर्ष के ही थे, इस का अहसास मुझे हो चुका था। बहरहाल, संघर्ष मेरे लिए कभी
भी दुख या विषाद का विषय नहीं रहा। संघर्ष व प्रतिरोध न हो तो मेरे लिए जीवन वैसा ही
है, जैसे
बिना नमक का भोजन। संघर्ष के अभाव में मुझे समस्त आनंद फीके लगते हैं।
यहाँ आगे की नौकरी में
पर्याप्त नमक था।
संप्रति- सहायक
महाप्रबंधक , भूविज्ञान
व यांत्रिकी , तीस्ता जल विद्युत परियोजना , पूर्वी
सिक्किम, सिक्किम
संपर्क -
द्वारा श्रीमती इन्द्रावती
मिश्रा
स्कूल पारा बैकुण्ठपुर , कोरिया , छ.ग. 497335
मो. 9425580020
धन्यवाद आरसी भाई।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आरसी भाई।
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