बुधवार, 18 अक्तूबर 2017

अमरपाल सिंह ‘ आयुष्कर ’ की कहानी- वह हँसने वाली लड़की ........!





         अब तक इनकी कविताएं दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान ,कादम्बनी, वागर्थ ,बया ,इरावती प्रतिलिपि डॉट कॉम , सिताबदियारा , पुरवाई , हमरंग आदि में  रचनाएँ प्रकाशित
2001  में  बालकन जी बारी संस्था  द्वारा राष्ट्रीय  युवा कवि पुरस्कार
2003   में बालकन जी बारी संस्था   द्वारा बाल -प्रतिभा सम्मान 
आकाशवाणी इलाहाबाद  से कविता , कहानी  प्रसारित
परिनिर्णय ’  कविता शलभ  संस्था इलाहाबाद  द्वारा चयनित



वह हँसने वाली लड़की ........!
                                अमरपाल सिंह आयुष्कर


वह मुझे वाराणसी रेलवे  स्टेशन पर मिली थी । खुली किताब के फड़फड़ाते पन्ने -सी । पढ़ रहा था मैं एक -एक हर्फ़ । जिसे मैं शब्दों और वाक्यों की बंदिशों में गुनगुना रहा था, वह एक रहस्य कथा थी  .....।उसे फैजाबाद अपनी बुआ के यहाँ जाना था और मुझे नवाबगंज ।मेरे बगल बैठी वह बड़े चिरपरिचित अंदाज में एक - एक कर कितनी बातें पूछे जा रही थी और मैं उसी लय में गुम  सब बताता जा रहा था । था ही क्या छुपाने को ...? मेरा संकोची स्वभाव खुद के दायरे कैसे तोड़ रहा था ,यह सोचकर  मुझे हँसी  भी आ रह थी  ।
 
        “ आप हँसते हुए बुरे नहीं लगते , फिर इतना कम क्यों हँसते हैं ?” “ मुझे दूसरों को हँसते हुए देखना ज्यादा अच्छा लगता है..... मेरा ऐसा उत्तर  सुनकर वो  जोर से हँसी ,बोली – “ अरे वाह ! कुछ ज्यादा ही नहीं हो गया  ?”
कहाँ से हो ? बनारस के तो नही होइतना तो पक्का है !
सच कहूं !, जवाब देने का मन तो नही था, पर फिर भी मेरे प्रति उसकी जिज्ञासा अच्छी लग रही थी । जिन्दगी में पहली बार कोई अनजान लड़की इतने अपनापे भरे सवाल कर रही थी कि जवाब  मेरे चिंतन से बगैर इज़ाजत लिए उछल-उछल कर बाहर आ रहे थे । हाँ ! , बात -बात में उसने ये जरूर बताया था कि  वह एनएसडी के लिए फॉर्म भरना चाहती थी ,एक्ट्रेस बनना चाहती  थी  । ‘’परिवार तो बहुत  रुढ़िवादी है ,फिर भी मैं थोड़ी अलग हूँ ।’’ उसने पूरे आत्मविश्वास के साथ मुझसे कहा , “ यहीं करौंदी  के पास  रहती हूँ ।कभी आइयेगा घर ! न्योता दे  डाला था ।मेरी सहजता ने मुस्कुराकर स्वीकृति भी दे दी थी ।अच्छा लगा ,आप जैसी आज़ाद ख़याल लड़कियों को देखकर ,मैं खुश हो जाता हूँ ।” “ क्यों आपको कैसे लगा कि मैं आज़ाद ख्याल की हूँ ?फिर हँसते हुए बोली ... अरे ! वो तो बस  ..ऐसा बोलकर सहज  महसूस  करती हूँ, बस इसीलिए बोल दिया । मैंने कहा -आपकी हँसी और लड़कियों से बिलकुल अलग है ! झट से बोल पड़ी पता नहीं ,पर इतना ज़रूर है कि  जब भी मेरा मन उदास होता है ,तो  जोर जोर से हँसने को जी करता है, तब  मैं  हँस लेती हूँ ,ठहाके लगाकर । बस.... उदासी की धुंध छूमंतर . वैसे भी ख़ुशी ,शांति ये सब तो मानव मन की मूल प्रवृति है ,एक अपना मन ही तो है, जिसे हम अपने अनुसार चला सकते हैं ।
लेकिन हर कोई कहाँ चला पाता है मन को  अपने अनुसार ....?” मैं बुदबुदाया ।

     घर में जब इस तरह खुलकर हँसती होंगी तो सच मेंसारा विषाद , सारी थकान दूर भाग जाती होगी पूरे परिवार की ,कितना गुलज़ार होता होगा आपका घर आपकी इस जीवंत हँसी से ?” मेरे प्रश्न को सुनकर बोल पड़ी – “ हाँ !घर पर भी चाहे बाद में कितनी भी डांट  पड़े , पर अपनी आत्मा को कष्ट नहीं पहुँचाती  ,पाप लगता है ना ?” मैंने प्रश्न किया - पाप और पुण्य ,यक़ीन करती हैं ?अच्छा आपकी नज़र में पाप और पुण्य है क्या ?” कहने लगी –“ सम्पूर्ण प्रकृति को जो सुकून दे पुण्य ।और हाँ सबसे बड़ा पाप है आत्महिंसा ।मैं झट से मुस्कुराते हुए बोल पड़ा –“ दार्शनिक हैं आप तो !

    उसने शरमा कर पर पूरे आत्मविश्वास के साथ  मेरी तरफ़ नज़रें उठाकर बोलती गयी  –“ व्यक्ति ताकतवर हो जाये तो परहिंसक हो जाता है और कमजोर हो तो आत्महिंसक और मैं जीवन में कभी कमजोर नही पड़ना चाहती ।बार बार जन्म लेकर मानव जीवन जीना चाहती हूँ ।इस प्रकृति- सा मजबूत जन्म ।क्योंकि कमजोर होना ,आत्महिंसक होना पाप है ।और मुझे कभी  मोक्ष नही चाहिए ।जीवन संघर्ष की द्यूतक्रीड़ा - सा आनंद और कहाँ  ? ” खूब जोर की हँसी......ठहाकेदार ।....कितना खुलकर हँसती हैं आप ....अच्छा लगता है ।पूरे  इलाके में गूँजती होगी आपकी हँसी ? मैं ही हँसती हूँ पूरे गाँव में ऐसी हँसी ।बाकी  सभी लड़कियां ,औरतें डरती हैं, मेरी तरह हँसने में ।” “ऐसा  क्यों ?” आश्चर्य मिश्रित जिज्ञासा से मैंने उससे पूछा ।

जानना है क्यों ?”अपने रेशमी बालों पर हाथ फेरते हुए उसने कहा ।
इतनी  अद्भुत बात  सुनने के लिए मैंने उत्सुकता में सिर हिलाया ।
उसने बोलना शुरू किया – “ मेरे गाँव की एक बुआ जी थीं ,बड़ी भली थीं ,पर इतना हँसती थीं कि पूरा गाँव उन्हें हँसने वाली डायन बुलाता था , उनके हँसने की शुरुआत भी आरोह अवरोह के साथ होती ,पहले मुस्कुरातीं ,फिर बच्चो जैसा खिलखिलातीं ,फिर मर्दों -सी धमाकेदार हँसी ,बिलकुल मेरे जैसी ।लोग कहते जिस घर जाएगी पति चार दिन में निकाल बाहर  करेगा ।सुरसा की तरह मुँह फाड़कर हँसती है  , ये लच्छन लड़कियों के लिए शोभा नही देतेबिलकुल आवारा हँसी ,ना जाने कितने नामों ने नवाज़ी गयी उनकी हँसी ।और जानते हो ! शादी के बाद एक दिन बुआ की  ससुराल में मनिहार चूड़ी पहनाने आया ,चूड़ी पहनते हुए मनिहार की किसी बात पर जोर-जोर से हँस रही थी , न जाने किस बात पर... वैसे भी  उनकी  ससुराल में हँसने जैसी स्थिति पैदा करने सरीखा , कुछ  भी तो नहीं था  ।हँसी का भरा कलश अवसर पाकर  छलक पड़ा , फिर क्या - सास ने ना आव देखा ना ताव ,बेटे को पुकारते हुए बोलीं- निकाल इस हँसोड़ की जुबान ,परेतिन- सा  हँसती रहती है । जान अनजान , आस -पड़ोस सांझ- सबेरे मुँह बिचकाता है । ना  जाने कहाँ से उठा लाये बेशरम बहुरिया ? माँ-बाप ने हँसने का भी तरीका ना सिखाया लड़की को , भक्क भक्क कर हँसती है ।बुआ बाँह भर भर चूड़ियाँ खनकाती उठी ही थी कि, तभी एक तेज धक्का उनकी पीठ पर  पड़ा .....बेटे ने जैसे मातृऋण उतार दिया ।बुआ के मुँह से पाँच  दांत बाहर निकल पड़े ......हँसी का सोता तो भीतर था , वह कैसे सूखता , वह तो आत्मा का गान था ।हँसना तो प्रकृति से एकाकार होना था ।बाकी उमर बुआ ने उन्ही टूटे दांतों को श्रद्धांजलि देने में बिताया  ।हँसीं खूब हँसीं । पहले जहाँ दांत  दिखते थे ,वहाँ अब कभी-कभी सौन्दर्य लोभ से आँचल का कोना मुँह पर होता था ।वैसे पूरी उमर जीकर शरीर नहीं त्यागा ,असमय चली गयीं वो .......कितने अधूरे ख्व़ाब लिए .....। पीछे पाँच बेटियाँ ,पाँच दांतों की निशानी । बेटा जनने की आस लिए काया कंकाल में तब्दील हो गयी ....या पति ने ही मुक्ति दे दी ...जितने मुँह, उतनी बातें ।सच किसे पता ....? बेटियाँ भी विरासत में माँ की हँसी पा गयी थीं ।
फिर...? मेरे अशांत मन ने शांतिपूर्वक पूछा  ।
 “ फिर क्या, तबसे जब भी गाँव में कोई लड़की तारा बुआ- सा हँसती , तो लोग यही ताने देते ,कि  कोई सिरफिरा मरद मिल गया तो, भरी जवानी में मुँह पोपला कर देगा ।
जोरदार हँसी ...झरनों की तरह ,वेग से उतरती हँसी ,ना जाने किस रेगिस्तानी शून्य  में समा जाती ।झुंडों में सिमटी हँसी बिखर कर लुप्त हो जाती ...फिर सन्नाटा ........आगत  भय का इतना भयानक बखान ,वो भी हँसी की पतंगे उड़ाकर ।
 
जानते हो ! ये सब मैंने तुम्हे क्यों बताया ...क्योंकि जब भी मेरे भीतर कोई दुःख होता है , मैं बाँट देती हूँ, किसी से भी कह देती हूँ, मुझे आत्मा में यकीन है , सभी आत्माएं हैं, कभी -कभी जब कोई नहीं सुनने को तैयार नही होता तो अपने कुत्ते, गैया,पेड़ ,नदी और तालाब से भी बातें कर लेती हूँ ।ये  बेजुबान सही ,पर उनकी आत्मा तक तो मेरी आवाज पहुँच ही जाती है ना ! और तो  और कभी कभी खुद से भी बतिया लेती हूँ ......तुम करते हो ऐसा ?” मैंने संक्षिप्त उत्तर दिया – “ करूँगा ” , अब कोशिश करूँगा “....उसने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा – “ और हाँ ! ये पशु ,पक्षी, पेड़ -पौधे तुम्हारे मन की किसी से कहेंगे भी नहीं ..इन्सानों -से नहीं होते ये ! कुछ पल रुककर, गहरी साँसें लेते हुए बोल पड़ी, काश ! इंसानों के भी जुबान न होती ..कितना अच्छा होता ! तारा बुआ के दांत ना टूटते । मैं भी क्या पागलों - सा सोचती हूँ ! बोर हो रहे होंगे ना आप भी ?” मैंने कहा –“नही तो ! मैं तो सोचना शुरु करना चाहता हूँ ।’’ 

फिर चेहरे के भाव को संयत करते हुए कहने लगी –“तुम मिले तो मन ने कहा- कह डालो ...कह दिया ......। दो पल में सदियों का दर्द तो नही कहा जायेगा ना !एक जोरदार हँसी ....वह अच्छी लग रही थी ।

      फैज़ाबाद आ गया था ।हम स्टेशन से बाहर आ चुके थे । रिक्शा लेकर वो जाने लगी तो बोली - लीजिये ! मेरा पता है इसमें ।और फिर चली गयी ।जाते हुए उसको आवाज़ दी मैंने ..वह मुड़ी ,मैं जोर से चिल्लाया ....मेराSSमेंSSरा  नाम मानव भार्गव है ...तुम्हाराSSS… उसके हाथ आश्वस्त भाव से हवा में  हिल रहे थे । मुझे लगा शायद सुन लिया होगा उसने  ... ।

             उससे  मिलने के बाद दो वर्ष और जुड़ गए थे मेरी जिन्दगी में । नौकरी मिल गयी थी और  प्रशिक्षण भी पूरा कर लिया  था । आज बनारस छूट रहा था । इतने दिन बनारस  में बिताने के बाद उसकी यादें ,मन को भारी  कर रही थीं । रद्दी इकट्ठी की , पेपर वाले को बुलाया । वो तराजू -बाँट लेकर बैठ गया। मैं हँसा और उसका मुँह लड्डू से मीठा कराते हुए बोला ।नहीं भैया ! आज तोलकर नही, ऐसे ही ले जाओ ।उसने प्रसन्न मुद्रा में हाथ जोड़े और रद्दी को भरने लगा ,तभी एक कागज का टुकड़ा गिरा ,समय की ठहरी यादें ....वो हँसने वाली लड़की का पता था ।मैंने देखा ,मेरा उदास मन हँसने की वजह पा गया।

मैंने सोचा, मिलने चलता हूँ आज ,पर क्या वो दो  वर्षों बाद पहचान पायेगी ? इतना संक्षिप्त - सा परिचय था उस दिन,पता नहीं मेरा नाम भी सुन पायी थी  कि  नहीं ?उसका नाम भी तो नही पूछ  सका था उस दिन ...अरे हाँ ! वो हँसने वाली डायन बुआ वाली बात याद दिला दूँगा । पर ना जाने कितनों को बता चुकी हो अपनी बात? छोड़ो भी , जाने दो ...पता नही कैसी लड़की हो या फिर अब तक शादी हो गयी हो ....पर, एक बात तो पक्की है , कुछ बन जरूर गयी होगी । गजब का आत्मविश्वास और साहस था ।जीने का एक अपना ढंग ।बहुत कम लड़कियाँ जी पाती हैं ऐसा , कपास जैसा ।यहीं बनारस  का पता था करौंदी ,बी.एच.यू. के पास ।सोचा, दोबारा ना जाने कब आऊँगा ।मिल लेता हूँ एक बार , शायद अभी यहीं हो ? वो बिलकुल मेरे वैचारिक  खाके में समाने  वाली लड़की थी ।उसकी निश्छल हँसी ...सोचते -सोचते मैं उस पते के सामने था ।मैंने उस जर्जर होते मकान की कुण्डी खटकाई ऐसा लगा , कुण्डी निकलकर हाथ में आ जाएगी  । ईंटों से झाँकते मोरंग , बेबस धूलों ने, बेतरतीब उगी जिद्दी घासों ने ,यहाँ वहाँ  लटके जालों ने मुझे आगाह किया हो जैसे ।तभी एक जर्जर काया  ने दरवाज़ा खोला । अनुभवी रंग लिए बाल , विजन सरीखी आँखें ,पपड़ाये  होंठ और एक प्रश्नवाचक दृष्टि ।

मैंने उसके मुखाभाव को मूक प्रश्न मान, उत्तर दिया – “ मैं मानव भार्गव ....वो खूब हँसनेवाली लड़की यहीं रहती है ? मुझे भी अपने प्रश्न पर लज्जा ,संकोच और हँसी मिश्रित भाव आ रहे थे ।कहीं ये मुझे पागल ना समझ ले ।मैं उन शून्य में खोयी आँखों से, किसी उत्तर की उम्मीद ना पाकर लौटने लगा ।  मैं मुड़ा ही था कि एक भर्रायी आवाज़ ने मेरे क़दमों को रोक दिया ।हाँ ....हाँ ! यहीं रहती है ..आइये !उसने मुझे बैठाया पानी को ग्लास में उड़ेलते हुए उसने  दीवार पर लगी तस्वीर की तरफ इशारा करके पूछा ! इसी  लड़की की खोज में आये हैं ना आप ?मेरे हाथ से पानी का गिलास छूट गया । मेरे पूरे शरीर में एक सिहरन दौड़ गयी । बिलकुल वही चेहरा आँखों के सामने घूम गया , कानों में वही हँसी पिघलने लगी । तभी उसकी भर्रायी आवाज़ ने मुझे झकझोर दिया - करीब पंद्रह साल हुए वो हँसने वाली लड़की को गए ।मैं  लगभग उसे डाँटते हुए बोल पड़ा - पर ये  तो मुझे दो साल पहले मिली थी ! मैं मिला था ,उससे ट्रेन में, यकीं नहीं होता मुझे ,आप मज़ाक तो नही कर रहे ...” “ ऐसा भी हो सकता है ?” मैंने खुद से प्रश्न किया ।उसकी बातें सुनकर मुझे पसीना आ गया  ,मेरे पैर काँप रहे थे।
 
        तभी उसने बात आगे बढ़ाई  .... पत्नी थी वो मेरी । कब मिली थी आपको ?” मेरी  आँखों को , इस रूह सिहरा  देने वाले सच पर यकीं करना नामुमकिन था ।फिर भी मैं सुनना चाहता था ।
 
वह  मेरे जिज्ञासु, अशांत बालमन सरीखे प्रश्नों को पहचान, उत्तर देने के लिए ,अपनी पथरायी स्मृतियों घिसने लगा  - वो आज भी आती है । तारा , नाम था उसका” ....
ओह्ह्ह....... ! मैं सिहर  उठा ।मैंने  अपने हाथों को आपस में भींच, दोनों अंगूठों को दाँतों  तले दबा लिया ।तो वो तारा बुआ थीं ....।खुद की कहानी दोहरा रही थीं ....।बस इतना आत्मप्रलाप ।

   “ हाँ ! पाँच बेटियाँSSS थीं ना उनके ?”  मैंने उत्सुकतावश और सच को पैना करने के लिए पूछा ।
हाँ ..पाँच बेटियाँ थीं ....पाँचवीं बेटी यहीं है, मेरे साथ ”  एक बुत सरीखी काया की तरफ इशारा किया उसने , गहरी साँस ली , बोला – “ इसने  माँ की कहानी सुन , हँसना छोड़ ही दिया था । बाकी चार खूब हँसती थी । इसके  भीतर एक अनागत भय था । लगता था ,यूँ जोर - जोर हँसेगी  ,तितलियों - सा उड़ेगी  , झरनों -सा बहेगी ,सपने सजायेगीतो कहीं ऐसा ना हो कि इसके माँ  जैसी इसकी  भी जिन्दगी हो जाये । पर नही, इसका  सोचना गलत था ।लोगों को हँसना अच्छा लगता है ....ज़िन्दा लोग तो हँसते हुए ही अच्छे लगते हैं ! इसने  एक सहमे भविष्य की आशा में वर्तमान को नही जिया ।इसका कोई छोर भी है, नही पता ....थोड़ा रुककर ...... पर इसकी माँ  आज भी आती हैं इससे मिलने, मुझसे नही मिलती ,नाराज़ है अभी तक, मैंने कोई भी वचन नहीं निभाया ना,सब कुछ त्याग मेरे पास आई थी ,कहाँ  समझ सका एक नारी मन को, मेरे भीतर का दंभी, अज्ञानीपुरुष । हम एक दूसरे के पूरक बन सकते थे ,पर नही ! मेरे भीतर उपजे पुरुष अहं ने आत्मा की आवाज़ को अनसुना कर दिया था । मैंने प्रकृति की सहजता को उसकी कमजोरी ,उसकी विवशता माना । स्वप्नपंख ही काट दिए मैंने उसके ,यथार्थता पर पिघले मोम उड़ेल दिए , ओह्ह्ह .....भयानक भूल थी मेरी ,अक्षम्य अपराध है मेरा ... अक्षम्य अपराध ....यह कहते हुए उसकी आँखों से रक्तवर्णी अश्रु प्रवाहित हो रहे थे ।वह बोलता जा रहा था , “ जानता हूँ मैं ,तारा चाहती  है - एक बार अपनी बेटी को अपने जैसा हँसता हुआ देख ले  , उसे आत्मिक शान्ति  प्राप्त हो जाएगी  ।और मैं तारा की इस पीड़ा को परिशान्त करने में लगा हूँ ,क्योंकि मेरे लिए अब प्रायश्चित का एक यही जरिया है । रोज तरह तरह से इसकी खिलखिलाहट लौटाने का भागीरथ प्रयत्न करता रहता हूँ । ताकि इसके भीतर जमी हँसी की हिमानियां पिघल करकल कल करती हुई , जीवन-सरिता  से मिल सकें । 
तारा  हर लड़कियों की रूह में है, जो हँसना जानती हैं । पर तारा का लक्ष्य  ...कोख़ में असुरक्षित होती हुई ,आग में जलती हुई ,सड़कों पर गिद्ध भरी नज़रों से निहारी जाती हुई ,बेंची और खरीदी जातीं ,मर्दित की जाती हुई आस्थाओं ,पवित्रताओं का आत्मबल बनना चाहती है । इसीलिए मुक्त नही होना चाहती, इस नश्वर जगत से । ना जाने पीड़ा की कितनी कहानियों में वो चीखतीं हैं ,चिल्लाती हैं ......जीने के अंदाज़ बताती है, वह हर हारे मन की आवाज़ बनना चाहती है । ....जानते हो ! तारा उस दिन बहुत खुश दिखती हैं ,जब कोई बेटी जन्म लेती है ,जब कोई बेटी अपने तरह उकेरी गयी जिन्दगी जीती दिखाई देती है ,आसमान को छूती है , अपने सपने सच करती है और खुल कर हँसती है । खुलकर हँसने को वो आत्मा का संगीत ,एक अनहद नाद ....चिर शांति का महाद्वीप मानती है ।

ये क्या हैं ?मैंने तस्वीर के पास रखे लाल कपड़े बंधे लोटे की तरफ इशारा किया ...वह बिना एक पल रुके कातर स्वर में बोल पड़ा -अस्थियाँ हैं तारा की ....ले जाओगे आप ? गंगा में प्रवाहित कर देना ,मुक्त हो जायेगी तारा .........बेटियों पर अत्याचार नही देखा जाता उससे ना ..........नहीं तो ना जाने कब तक आती रहेगी बार बार, इस पीड़ायुक्त पथ पर पावों में छाले उगाने  , सदियों सदियों सहती रहेगी परपीड़ा ....नहीं ....नहीं मुक्त कर दीजिये उसे आप । मैंने जो  परहिंसा की है, उसी का प्रायश्चित कर रहा हूँ ,पापहस्त हूँ मैं,कोई नही आता यहाँ अब ! शायद तुम्हारे हाथों ये पुण्य कार्य लिखा था, तभी उसने तुम्हे यहाँ भेजा है !”  यह कहते हुए उसने अस्थिकलश मेरी ओर बढ़ाया , मैंने भारी  मन से , हलके अस्थिकलश को कांपते हाँथों  उठाया । तारा बुआ के पति का पश्चाताप कितना सार्थक था ? सोचता हुआ मेरा उद्दिग्न मन दहाड़े मार - मार कर रोना चाहता था ।
और अब मेरे भीतर एक अंतर्द्वंद था । तारा बुआ की मुक्ति ज़रूरी है या उनका रहना । तारा की भटकती आत्मा तो  बेटियों , औरतों , अजन्मी - जन्मी काया की शक्ति है ,संबल है। उसकी आत्मा को मुक्त करना , प्रकृति को पीड़ा देना , हतोत्साहित करना और अनाथ कर देने जैसा नही होगा ? और फिर तारा ने कहा भी तो था, उसे मोक्ष नही चाहिए ! प्रश्नों के अनंत ज्वालामुखी मेरे अन्तर्मन में फूट रहे थे ।  

आज मैं फूट- फूट कर रोना चाहता था । मैं प्रार्थना   रहा था कि तारा बुआ के पति का परहिंसक रूप किसी भी पुरुषमन को अपना ठौर ना बना पाये।  

        मैं अपरचित समय से, परिचय की माँग  कर रहा था, चारों ओर पसरे प्रश्नों के कंकाल  , मुझे हँसने वाली डायन बुआ के पाँच टूटे हुए दांत सरीखे  भयावह लग रहे  थे ।
तारा समय के बंधन से मुक्त  हो चुकी थी ....  मृत्यु तो  मात्र उस शरीर का अंत है जो प्रकृति के पञ्च तत्वों से निर्मित होता है । भगवान श्री कृष्ण ने कहा है -  आत्मा अमर है , उसका अंत नहीं होता, वह तो मात्र शरीर रूपी वसन परिवर्तित करती है ।  कटना, जलना, गलना व सूखना सभी  प्रकृति से बने शरीर या दूसरी वस्तुओं में ही संभव होता है, आत्मा में नहीं ।
तारा की मृत्यु पर शोक करके मैं उसकी पवित्र आत्मा को कष्ट नही देना चाहता था ।

            लेकिन ना  जाने क्यों मेरा  दृढ़  विश्वास  है कि वो हँसने वाली लड़की फिर मिलेगी मुझे ! और हाँ ! हर मनद्वार पर आज भी खड़ी है वो, मूकव्यथाओं का प्रचंड अंतर्नाद, और आत्मबल बनकर ! खटखटाती है, हर आत्मा की कुण्डियां  सुन सको तो खोल  देना द्वार , कर लेना  आत्मसात, उस हँसने वाली लड़की की पीड़ा ,जब  रोप लोगे मन की जमीनों पर उसका आना ,उसकी खिलखिलाहट ,उसकी पहचान ,उसकी उड़ान ,उसके स्वप्न ,उसकी साँझ, उसका विहान ।
क्योंकि आत्मा तो अजर, अमर है, बिलकुल उस हँसने वाली लड़की की, अन्तरिक्ष सरीखी हँसी जैसा ! 

संपर्क सूत्र- 

ग्राम- खेमीपुर, अशोकपुर , नवाबगंज जिला गोंडा , उत्तर - प्रदेश

मोबाईल न. 8826957462     mail-  singh.amarpal101@gmail.com


गुरुवार, 5 अक्तूबर 2017

सुमित वाजपेयी ' मध्यान्दिन ' की कविताएं





      समकालीन कविता के परिदृश्य में सैकड़ों नाम आवाजाही कर रहे हैं। वरिष्ठ पीढ़ी के बाद युवा पीढ़ी भी काफी हद तक साहित्यिक यात्रा के कई पड़ाव पार कर चुकी है। इनके एक दम पीछे युवतर एवं नवोदित कवि पीढ़ी समकालीन कविता की मशाल उठाए युवा पीढ़ी के दहलीज पर खड़ी है। एक नाम जो हिन्दी के साहित्याकाश में तेजी से अपनी चमक विखेर रहा है वह हैं सुमित वाजपेयी ' मध्यान्दिन '
       युवा कवि सुमित वाजपेयी ' मध्यान्दिन ' ...अभी हाल के वर्षो से कविताएँ भी लिख रहे हैं सुमित ! एकदम नवोदित कवि हैं सुमित वाजपेयी और अभी हाल में उनका नया काव्य संग्रह " मीठी धूप सुनहरी छाया " छप कर आया है सुमित वाजपेयी अद्भुत जीवंत , गांव - जन के कवि हैं उनके पास उनकी अपनी भाषा कविता कहन की सहज शैली है जिसमें कविता का लोक जीवन महकता ही नहीं अपितु जी उठता है आज ऐसी सहज जीवन - राग की कविताओ की कमी है निश्चित रूप से सुमित की कविताएँ उस कमी को पूरा करती हैं जिससे कविता का लोक जीवंत हो उठता है । प्रस्तुत है ' मध्यान्दिन ' की कविताएं........


1-आहटे
आहटे का रही है  
चारो तरफ से
नभ,धरती,आकाश से  
होगी..... क्रांति क्रांति होगी,क्रांति होगी

हारेगा आतंक,ना बचेगा कोई संत-महंत
टूटेंगे गढ़ सारे  
मंदिर,मस्जित,मूर्तियां,दरगाह सब
ज्ञान उपजेगा बुद्धि से  
देखो....  
देखो....  
आहटे आ रही है  
क्रांति होगी,क्रांति होगी
 
भर गया है क्रोध तन मन में  
तन गयी है भृगुटिया  
खेत की यह आत्मा है
 मिट्टी की है यह पुकार
अब नहीं सहेगे  
अत्याचार.....
हल उठाओ!  
फावड़े,खुरपे,गड़ासे  
काट डालो बंधनो को ........
 बैल है प्यासे हमारे
 बकरिया है उदास  
भेड़ बन जाओ सभी  
बस हल उठाओ  
फावड़े,खुरपे,गड़ासे  
देखो....
देखो....  
आहटे आ रही है  
क्रांति होगी,क्रांति होगी

पेड़ सब तो सो रहे हैं  
जंगल बहुत उदास  
कह कही है पागल हवाएँ  
घास मैदानों की और जल बरसात का  
ढोल की थाप का यह क्रोध है  
अब नहीं सहेगे  
जन-गण का विरोध  
हल उठाओ!  
फावड़े,खुरपे,गड़ासे  
बचा लो तुम स्वतंत्रता को  
छीन लो आकाश अपना  
मेरे लोग है बीमार,भूखे  
मर रहे है चौखटों पर रात दिन
मै कह रहा हूँ बस अब हल उठाओ  
फर्जी विकास और अन्याय के विरुद्ध
देखो....
 देखो....  
आहटे आ रही हैं  
क्रांति होगी,क्रांति होगी

2-लटका हुआ चाँद

पीपल के पेड़ पर  
लटका हुआ चाँद  
आकाश के पूर्वी कोने पर  
चितकबरे बादलों के बीच 
आग की नदी में  
डूबता - उतराता 
बह रही है हवा 
आधी रात को  
बाँस की पत्तियों पर 
चारों ओर बढ़ रहा है  
सन्नाटे का पिसाच  
तोड़ कर दीवार मेरी 
 मुस्कुराता है  
लटका हुआ चांद 
सीढियों के सहारे 
और ऊँचा चढ़ रहा है  
और बिखेर रहा है  
शुभ्र चाँदनी मेरे टूटे हुए छप्पर पर
 
संपर्क-
ग्राम-रजवापुर
पोस्ट-बरबतापुर (महोली)
जिला-सीतापुर-261141 (UP)
मोबाइल:09670100270
ई-मेल: sumitvajpey@gmail.com


शुक्रवार, 29 सितंबर 2017

सतीश कुमार सिंह की कविताएं




  
                      05 जून सन 1971

    इनकी कविताओं का प्रकाशन वागर्थ, अतएव , अक्षरा , अक्षर पर्व , समकालीन सूत्र , साम्य , शब्द कारखाना , आजकल , वर्तमान साहित्य सहित प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में ।
आकाशवाणी भोपाल , बालाघाटरायपुर , बिलासपुर केंद्रों से रचनाओं का प्रसारण ।
संप्रति - शासकीय बहुउद्देशीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय जांजगीर क्रमांक -2 में अध्यापन ।

    सतीश कुमार सिंह  की कविताएं जहां अनुभव की गहन आंच में रची पगी हैं वहीं अनगढ़ आत्मीयता की मौलिक मिठास लिए हुए हैं। सतीश कुमार सिंह  के कवि की सबसे मूलभूत ताकत अपनी माटी, अपने अनमोल जन, गांव-जवार और बाग -बगिचे हैं। जहां कवि पला बढ़ा है वहीं की चीजों से कविता का नया शिल्प गढ़ता है और भाषा को तेज धार देता है जिससे कविता जीवंत हो उठती है। सभी देशवासियों को विजय दशमी की ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ आज पढ़ते हैं सतीश कुमार सिंह  की कविताएं-

1- सिक्का

 इसके साथ जुड़े हैं
कुछ इंसानी करतब और
 तरकीबें
 इसलिए यह चलता भी है
 उछलता भी ।

 जाने कबसे कायम है
 कुछ खास खास जगह
 खास खास लोगों का सिक्का ।

 कहते हैं सिक्का जम जाने पर
 अपने आप फलने फूलने लगता है
 अंधेरे में कारोबार
 कई कई तरह के क्रिया व्यापार ।

 जनता इसे नहीं उछालती
 इसके साथ उछलती है ज्यादा
 तलाशी जाती हैं
 उसके इस तरह उछलने की वजहें ।

 किसी निर्णय पर पहुँचने
 जरूरी है सिक्के का उछलना ।

 शोले फिल्म के जय बीरू
 हेड और टेल पर
 जान की बाजी लगाते हैं
 सिक्के को
 बाजार में नहीं
 हवा में चलाते हैं ।

 चिल्हर नहीं है कहकर
 चॉकलेट या टॉफी थमाने वाले
 हमें बाजार का असली चेहरा दिखाकर संतुष्ट करने की
 कोशिश में लगे होते हैं ।

 इस बार जरूर चलेगा
 जनता का सिक्का
 इस उम्मीद में हम बार बार
 चुनाव चिन्ह में
 मुहर लगाते हैं
 वे फिर से अपना सिक्का
 बेखौफ होकर चलाते हैं ।



2- सोचते ही

 यह सोचते ही कि
 वह नहीं आएगा अब
 इंतजार की उत्कंठा खत्म हो गई ।

 यह सोचते ही कि
 आज बादल बरसेगे जरूर
 भीतर हरिया गया बहुत कुछ ।

 यह सोचते ही
 कि रोपूंगा गमले में
 मधुमालती के पौधे
 मेरे बगीचे में फूलों से लदी
 रातरानी बिहँस उठी ।

 यह सोचते ही कि
 सर्दी बढ़ गईं हैं इस बार
 दांत किटकिटाने लगे
 ठिठुरने लगी उंगलियां ।

 सोचते सोचते कितना कुछ
 होता है महसूस
 कितना कुछ घट जाता आसपास
 सोचते सोचते ।
संपर्क-
सतीश कुमार सिंह
पुराना कालेज के पीछे  ( बाजारपारा ) जांजगीर 
जिला - जांजगीर -चांपा ( छत्तीसगढ़ ) 495668 मोबाइल नं . 094252 31110


मंगलवार, 12 सितंबर 2017

आशीष बिहानी की कविताएँ



   

   आशीष बिहानी बीकानेर से आते हैं और वर्तमान में कोशिका एवं आणविक जीव विज्ञान केंद्रए हैदराबाद में पीएचडी कर रहे हैं।
इनका पहला काव्यसंग्रह अंधकार के धागे, हिन्दण्युग्म द्वारा 2015 में प्रकाशित । समालोचन, पहलीबार, पूर्वाभास,स्पर्श आदि ई पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित ।
         इनकी पिता पर लिखीं कविताएँ आशा है आपको अच्छी लगेंगी। पुरवाई में आपका स्वागत है।


मेरे पापा बहुत अच्छे पेड़ हैं
1-
 
मेरे पापा बहुत अच्छे पेड़ हैं  
उनका हमेशा से सपना था 
 कि हम अच्छे पेड़ बनें  
पर कभी हमसे कहा नहीं

उन्होंने कहा 
कि तुम विद्रोह करो  
पर शांति से

उनके उघड़ेपन ने हमें भीगने नहीं दिया  
उनके कठोर हाथों ने हमारे जीवन में घर्षण नहीं पैदा किया  
उनके बाल हवा में सरसराकर भी बिखरते नहीं  
उनकी मूंछ कभी चाय से गीली नही होती.
2-
 
मेरे पापा बहुत अच्छे पेड़ हैं  
घंटों भारी भरकम रजिस्टर लिए बैठे-बैठे  
उनके पैर लकड़ी के काउंटर में जड़ें जमा लेते हैं

सहज कर देते हैं वो  
लोगों का आना और बैठना  
और प्रलाप करना
 
वो सुबह जम्हाई लेते हैं तो  
शेष बची थकान  
पीठ से जड़ों की मिट्टी बांधे निकल आती है
3-
 
मेरे पापा बहुत अच्छे पेड़ हैं 
 वो टस से मस नहीं हुए 
 मृत्यु और ऊब की डूब में

उनकी जड़ों में गांठें हैं  
संस्थागत ऋण  
रीति-रिवाज़
भूमंडलीकरण और व्यक्तिवाद
नियम-कानून व्यापार और विचार
 
कहीं गहरे दबे हैं 
भयावह युद्ध की राख  
किसी के धुंधले कड़वे बोल  
कई समानांतर विश्व

जमाए हुए पकड़
पानी की खोज में  
बहुत गहरे

Email-ashishbihani1992@gmail.com

शुक्रवार, 1 सितंबर 2017

पहाड़ पर बचपन.....जगमोहन सिंह जयाड़ा ‘जिज्ञासू’,






उत्तराखण्ड के टिहरी जनपद, चन्द्रवदनी क्षेत्र के नौसा-बागी गांव में 21 जुलाई, 1963 को जन्में जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासू ने अपनी साहित्यिक यात्रा गढ़वाली कविताओं के सृजन से की। इनका पहला गढ़वाली कविता संग्रह अठ्ठैस बसंत हिमवंत कवि चन्द्र कुंवर बर्त्वाल जी को समर्पित है।  इनकी रूचियां -छायाकारी, उत्तराखण्ड भ्रमण, कविता सृजन, बांसुरी वादन में है। पहाड़ से दूर दर्द भरी दिल्ली प्रवास ने इनके मन में कवित्व पैदा किया और 1997 से गढ़वाली कविताओं का सृजन लगातार जारी है। अब तक लगभग एक हजार से भी ज्यादा गढ़वाली कविताओं का इन्होंने सृजन किया है।  इनकी गढ़वाली कविताएं हिलवाणी, हिमालय गौरव उत्तराखण्ड, जागो उत्तराखण्ड, स्टेट एजेंडा, रंत रैबार, यंग उत्तराखण्ड, कुमगढ़, मेरा पहाड़, पहाड़ी फोरम और फेसबुक पर प्रकाशित हैं। पुरवाई में आपका स्वागत है।

पहाड़ पर बचपन.....

पहाड़ से ऊंचा उठने की,
प्रेरणा लेते हुए बीतता है,
तभी तो पर्वतजन,
जिंदगी की जंग जीतता है।

पहाड़ पर बहती नदी भी,
प्रेरणा प्रदान करती है,
किनारे कितने ही कठोर हों,
ऐसे ही जिंदगी में,
बाधाएं आएंगी और जाएंगी,
जिंदगी में जीतना है,
हारना मंजूर नहीं,
सीख लेता है बचपन।

पहाड़ की पीठ पर,
पगडंडी पर चढ़ते हुए,
दूर धारे से पानी,
भरकर लाते हुए,
बुरांस के फूल निहारते हुए,
काफल खाते हुए,
पहाड़ पर दूर दूर,
बिखरे हुए गांवों में,
रात्रि में टिमटिमाती,
रोशनी को निहारते हुए,
मधुर लोकगीत गाते,
ग्रामवासियों के संग,
बीतता है बचपन।

बांज बुरांस के सघन वन,
पक्षियों का कोलाहल,
मंद मंद बहती ठंडी हवा,
बहती जल धाराएं,
भागता हुआ कोहरा,
प्रकृति का सौन्दर्य,
देखता और अहसास करता है,
पहाड़ पर बचपन।
 
संपर्क सूत्र-
जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासू,
सहायक अनुभाग अधिकारी,
उर्वरक उद्योग समन्वय समिति,
सेवा भवन, आर.के.पुरम,
नई दिल्ली-110066

मोबा0 - 09654972366

शनिवार, 26 अगस्त 2017

भारतीय महिलाएँ एवं आरण्य संस्कृति : गोवर्धन यादव



     
                                                                        
                पॆट की आग बुझाने के लिए अनाज चाहिए, अनाज को खाने योग्य बनाने के लिए उसे कूटना-छानना पडता है और फ़िर रोटियां बनाने के लिए आटा तैयार करना होता है. इतना सब होने के बाद, उसे पकाने के लिए ईंधन चाहिए और ईंधन जंगलॊं से प्राप्त करना होता है. इस तरह पेट में धधक रही आग को शांत किया जा सकता है.                                  
     बात यहाँ नहीं रुकती. जब पेट भर चुका होता है तो फ़िर आदमी के सामने तरह-तरह के जरुरतें उठ खडी होने लगती हैं. अब उसे रहने के लिए एक छत चाहिए ,जिसमें लकडियाँ लगती है. लकडियाँ जंगल से प्राप्त होती है. फ़िर उसे बैठेने-सोने अथवा अपना सामान रखने के लिए पलंग-कुर्सियाँ और अलमारियाँ चाहिए, इनके बनाने के लिए लकडियाँ चाहिए. लकडियाँ केवल जंगल से ही प्राप्त होती है. द्रुत गति से भागने के लिए वाहन चाहिए. गाडियां बनाने के किए कारखाने चाहिए और कारखाने को खडा करने के लिए सैकडॊं एकड जगह चाहिए. अब गाडियों कि पेट्रोल चाहिए. उसने धरती के गर्भ में कुएं खोद डाले  .कारखाने चलाने के लिए बिजली चाहिए. और बिजली के उत्पादन के लिए कोयला और पानी. अब वह धरती पर कुदाल चलाता है और धरती के गर्भ में छिपी संपदा का दोहन करने लगता है. कारखाना सैकडॊं की तादात में गाडियों का उत्पाद करता है. अब गाडियों को दौडने के जगह चाहिए. सडकों का जाल बिछाया जाने लगता है और देखते ही देखते कई पहाडियां जमीदोज हो जाती है., जंगल साफ़ हो जाते हैं  बस्तियां उजाड दी जाती है, आज स्थिति यह बन पडी है कि आम आदमी को सडक पर चलने को जगह नहीं बची.
                अब आसमान छूती इमारतें बनने लगी हैं  इनके निर्माण में एक बडा भूभाग लगता है. कल-कारखानों और अन्य बिजली के उपकरणॊं को चलाने के लिए बिजली चाहिए नयी बसाहट को.पीने को पानी चाहिए. इन सबकी आपूर्ति के लिए जगह-जगह बांध बनाए जाने लगे. सैकडॊ एकड जमीन बांध में चली गई. बांध के कारण आसपास की जगह दलदली हो जाती है, जिसमें कुछ भी उगाया नहीं जा सकता. आदमी की भूख यहां भी नहीं रुकती है. अब हिमालय जैसा संवेदनशील इलाका भी विकास के नाम पर बलि चढाने को तैयार किया जा रहा है. करीब दो सौ योजनाएं बन चुकी है और करीब छः सौ फ़ाईलों में दस्तखत के इन्तजार में पडी है. बडॆ-बडॆ बांध बनाए जा रहे हैं और नदियों का वास्तविक बहाव बदला जा रहा है. उत्तराखण्ड में आयी भीषण त्रासदी,और भी अन्य त्रासदियाँ, आदमी की विकासगाथा की कहानी कह रही है.
      आने वाले समय में सब कुछ विकास के नाम पर चढ चुका होगा. जब पेड नहीं होंगे तो कार्बनडाइआक्साईड  और अन्य जहरीले गैसों का जमावडा हो जाएगा? फ़ेफ़डॊं में घुसने वाली जहरीली हवा का दरवाजा कौन बंद करेगा? बादलों से बरसने के लिए किसके भरोसे मनुहार करोगे ?भारत के पुरुषॊं ने भले ही इस आवाज को अनसुना कर दिया हो, लेकिन भारतीय महिलाओं ने इसके मर्म को-सत्य को पहचाना है. 
     इतिहास को किसी कटघरे में खडा करने की आवश्यक्ता नहीं है. वर्तमान भी इसका साक्षी है. महिलाएँ आज भी वृक्षों की पूजा कर रही हैं. वटवृक्ष के सात चक्कर लगाती है और उसे भाई मानकर उसके तनों में मौली बांधती हैं और अपने परिवार के लिए और बच्चों के लिए मंगलकामनाओं और सुख-समृद्धि के लिए प्रार्थनाएँ करती है. तुलसी के पौधे में रोज सुबह नहा-धोकर लोटा भर जल चढाती हैं. और रोज शाम को उसके पौधे के नीचे दीप बारना नहीं भूलती है. तुलसी के वृक्ष में वह वॄंदा और श्रीकृष्ण को पाती हैं. उनका विवाह रचाती है. पीपल के वृक्ष में जल चढाना –उसके चक्कर लगाना और दीपक रखना नहीं भूलतीं. अमुआ की डाल पर झुला बांधकर कजरी गाती और अपने भाई से सुरक्षा और नेह मांगती है. अनेकों कष्ट सहकर बच्चों का पालन-पोषण करना, कष्ट सहना, उसकी मर्यादा है. और संवेदनशीलता उसका मौलिक गुण. यदि धोके से कोई एक छोटा सा कीडा/मकोडा उसके पैरों तले आ जाए, तो वह असहज हो उठती है और यह कष्ट, उसे अन्दर तक हिलाकार रख देता है. जो ममता की साक्षात मूरत हो, जिसके हृदय में दया-ममता-वात्सल्य का सागर लहलहाता रहता हो, वह भला क्योंकर जीवित वृक्ष को काटने की सोचेगी ?.
      उद्योगपतियों को कागज के ,निर्माण के लिए मोटे,घने वृक्ष चाहिए, लम्बे सफ़ेद और विदेशी नस्ल के यूक्लिप्टिस चाहिए और अन्य उद्दोगों के लिए उम्दा किस्म के पेड चाहिए., तब वे लाचार-हैरान-परेशान,- गरीब तबके को स्त्री-पुरुषॊं को ज्यादा मजदूरी के एवज में घेरते हैं और वृक्ष काटने जैसा जघन्य अपराध करने के लिए मजबूर करते है. मजबूरी का जब मजदूरी के साथ संयोग होता है तो गाज पेडॊं पर गिरना लाजमी है. इनकी मिली-भगत का नतीजा है कि कितने ही वृक्ष रात के अन्धेरे में बलि चढ जाते हैं. इस प्रवृत्ति के चलते न जाने कितने ही गिरोह पैदा हो गए हैं,जिनका एक ही मकसद होता है –पॆड काटना और पैसा बनाना. अब तो ये गिरोह अपने साथ धारदार हथियार के साथ पिस्तौल जैसे हथियार भी रखने लगे हैं. वन विभाग के अधिकारी और गस्ती दल,सरकारी कानून में बंधे रहने के कारण, इनका कुछ भी बिगाड नहीं सकते. केवल खानापूर्ति होती रहती है. यदि कोई पकडा भी गया, तो उसको कडी सजा दिए जाने का प्रावधान नहीं है. उसकी गिरफ़तार होते ही जमानतदार तैयार खडा रहता है. इस तरह वनमाफ़िया अपना साम्राज्य फ़ैलाता रहता है. देखते ही देखते न जाने कितने पहाडॊं को अब तक नंगा किया जा चुका है. आश्चर्य तो तब होता है कि इस काम में महिलाएं भी बडॆ पैमाने में जुड चुकी हैं,जो वृक्ष पूजन को अपना धर्म मानती आयी हैं. यह उनकी अपनी मजबूरी है,क्योंकि पति शराबी है-जुआरी है-बेरोजगार है-कामचोर है, बच्चों की लाईन लगी है, उनके पॆट में भूख कोहराम मचा रही है, अब उस ममतामयी माँ की मजबूरी हो जाती है और माफ़ियों से जा जुडती हैं.

एक पहलू और भी है 

     तस्वीर का दूसरा एक पहलू और भी है और वह है त्याग, बलिदान और उत्सर्ग का. पुरुष का पौरुष जहाँ चुक जाता है, वहीं नारी रणचंडीबनकर खडी हो जाती है .इतिहास के पृष्ठ, ऎसे दृष्टान्तो से भरे पडे हैं. नारी के कुर्बानी के सामने प्रुरुष नतमस्तक होकर खडा रह जाता है. जहाँ नारी अपने शिशु को अपने जीवन का अर्क पिलाकर उसे पालती-पोसती है, अगर जरुरत पडॆ तो अपने बच्चे को दीवार में चुनवाने में भी पीछे नहीं हटतीं. पन्ना धाई के उस बलिदानी उत्सर्ग को कैसे भुलाया जा सकता है.? जब मर्द फ़िरंगियों की चमचागिरी में अल्मस्त हो,अथवा आततायियों के मांद में जा दुबका हो, तो एक नारी झांसी की रानी के रुप में उसकी सत्ता को चुनौतियाँ देती हुई ललकारती हैं.और इन आततायियों के विरुद्ध शस्त्र उठा लेती है.
      पर्यावरण की रक्षा को महिलाओं ने धार्मिक अनुष्ठान की तरह माना है और अनेकानेक उदाहरण प्रस्तुत किए हैं. चिपको आन्दोलन आखिर क्या है?. उसने पूंजींवादी व्यवस्था, शासनतंत्र और समाज के तथाकथित टेकेदारों के सामने जो आदर्श प्रस्तुत किया है ,वह अपने आपमें अनूठा है. जब कोई पेड काटने आता है, तो वे उनसे जा चिपकती है, और उन्हें ललकाराते हुए कहती हैं कि पेड के साथ हम भी कट जाएंगी,लेकिन इन्हें कटने नहीं देंगी. लाल खून की यह कुर्बानी देश के लाखों-करोडॊं पेडॊं की रक्षार्थ खडी हुई. यह एक अहिंसक विरोध था और इन अहिंसा के सामने उन दुर्दांतों को नतमस्तक होना पडा. ऎसी नारियों का नाम बडी श्रद्धा के साथ लिए जाते हैं. वे हैं करमा, गौरा, अमृतादेवी, दामी और चीमा आदि-आदि. पेडॊं के खातिर अपना बालिदान देकर ये अमर हो गई और समूची मानवता को संदेश दे गई कि जब पेड ही नहीं बचेगा, तो जीवन भी नहीं बचेगा. इस अमर संदेश की गूंज आज भी सुनाई पडती है.
      विश्नोई समाज ने पर्यावरण के रक्षा का एक इतिहास ही रच डाला है. पुरुष-स्त्री, बालक-बालिकाएं पेडॊं से जा चिपके और उनके साथ अपना जीवन भी होम करते रहे थे. विश्व में ऎसे उदाहरण बिरले ही मिलते हैं. जोधपुर का तिलसणी गाँव आज भी अपनी गवाही देने को तैयार है कि यहाँ प्रकृति की रक्षा में विश्नोई समाज ने अपने प्राणॊं की आहूतियाँ दी थी. श्रीमती खींवनी खोखर और नेतू नीणा का बलिदान अकारण नहीं जा सकता. शताब्दियां इन्हें और इनके बलिदान को सादर नमन करती रहेंगी.             
       बात संवत 1787 की है. जोधपुर के महाराजा के भव्य महल के निर्माण के लिए चूना पकाने के लिए लकडियाँ चाहिए थी. सब जानते थे कि केजडली का वनांचल वृक्षॊं से भरा-पूरा है. वहाँ के लोग पेडॊं को अपने जीवन का अभिन्न अंग मानते है. ये पेड उनके सुख-दुख में सगे-संबंधियों की तरह और अकाल पडने पर बहुत ही उपयोगी सिद्ध होते रहे हैं. लोग इस बात से भी भली-भांति परिचित थे कि वे पेडॊं कॊ किसी भी कीमत पर कटने नहीं देंगे. महाराजा ने कारिन्दों की एक बडी फ़ौज भेजी, जो कुल्हाडियों से लैस थी. उन्हें दलबल के साथ आता देख ग्रामीणॊं ने अनुनय-विनय आदि किए, हाथ जोडॆ और कहा की ये पेड हमारे राजस्थान के कल्पवृक्ष हैं. ये पेड धरती के वरदान स्वरुप हैं. आप चाहें हमारे प्राण लेलें लेकिन हम पेडॊं को काटने नहीं देंगे. इस अहिंसात्मक टॊली की अगुआयी अमृता देवी ने की थीं.
                             
अमृतादेवी पेड से चिपकी
वे सामने आयीं और एक पेड से जा चिपकी और गर्जना करते हुए कहा-चलाओ अपनी कुल्हाडी....मैं भले ही कट जाऊँ लेकिन इन्हें कटने नहीं दूंगी. उसकी आवाज सुनी-अनसुनी कर दी गई और एक कारिन्दे ने आगे बढकर उसके ऊपर कुल्हाडी का निर्मम प्रहार करना शुरु कर दिया. अपनी माँ को मृत पाकर इनकी तीन बेटियाँ वृक्ष से आकर लिपट गईं. कारिन्दे ने निर्मम प्रहार करने में देर नहीं लगाई. कुल्हाडी के वार उनके शरीर पर पडते जा रहे थे और उनके मुख से केवल एक ही बोल फ़ूट रहे थे:-सिर साठे सट्टे रुंख रहे तो भी सस्तो जाण. इनके बलिदान ने ग्रामीणॊं के मन में एक अभूतपूर्व जोश और उत्साह को बढा दिया था. इसके बाद बारी-बारी से ग्रामीण पेडॊं से जा चिपकता और कारिन्दे उन्हें अपनी कुल्हाडी का निशाना बनाते जाता. इस तरह 363 व्यक्तियों ने हँसते-हँसते अपने प्राणॊं का उत्सर्ग कर दिया.            

संपर्क-  
103 कावेरी नगर छिन्दवाड़ा म.प्र. 480-001
 Mob-  07162-246651 0.94243-56400
E mail address-   
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