शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

कविता - प्रकृति : अमन उनियाल





थोड़ी सी धूप और थोड़ी से नमी है
यहीं पर पवन और यहीं पर जमीं है
कभी हार का गम होता है
कभी जीत की खुशी
यही तो प्रकृति की जादूगरी है
थोड़ी सी धूप और थोड़ी सी नमी है
जब मुश्किलों को झेला
तभी मंजिलें मिली हैं
यही तो समय की नियति रही है
थोड़ी सी धूप और थोड़ी सी नमी है
होना है इक दिन
सबको विदा इस दुनिया से
यही तो परमात्मा की आशिकी है
थोड़ी सी धूप और थोड़ी सी नमी है़
यहीं पर पवन और यहीं पर जमीं है।

संपर्क -
अमन उनियाल
कक्षा 11 रा 0 0 का0 गौमुख
टिहरी गढ़वाल , उत्तराखण्ड 249121

सोमवार, 12 दिसंबर 2016

स्वर्णलता ठन्ना की कविताएं-

       

     रतलाम म0प्र0 में जन्मीं स्वर्णलता ठन्ना ने परास्नातक की शिक्षा हिन्दी एवं संस्कृत में  प्राप्त की है एवं  हिन्दी से यूजीसी नेट उत्तीर्ण किया है। साथ ही  सितार वादन , मध्यमा : इंदिरा संगीत वि0 वि0 खैरागढ़ , छ 0 ग 0 से एवं पोस्ट ग्रेजुएशन डिप्लोमा इन कंप्यूटर एप्लीकेशन - माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता वि0 वि0 भोपाल से प्राप्त की है । आगमन साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समूह द्वारा "  युवा प्रतिभा सम्मान 2014 " से सम्मानित 

           साथ ही वेब पत्रिका अनुभूति, स्वर्गविभा, साहित्य रागिनी, साहित्य-कुंज, अपनी माटी, पुरवाई,  हिन्दीकुंज, स्त्रीकाल, अनहद कृति, अम्सटेल गंगा,  रचनाकार, दृष्टिपात, जनकृति, अक्षर पर्व,संभाव्य, आरम्भ, चौमासा, अक्षरवार्ता (समाचार-पत्र) सहित अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ,लेख एवं शोध-पत्र प्रकाशित।
संप्रति- ‘ समकालीन प्रवासी साहित्य और स्नेह ठाकुर ’  विषय पर शोध अध्येता,हिंदी अध्ययनशाला , विक्रम विश्व विद्यालय उज्जैन।


आवाजों के वर्तुल

मैं जब भी सुनती हूँ
तुम्हारी आवाज के वर्तुल
सारा कोलाहल
एक मद्धिम रागिनी में
तब्दिल हो जाता है
दिल की बोझिल धड़कनों में
नव स्पंदन के स्वर घुल जाते हैं
पलकों पर स्वप्न
नया जीवन उत्सव रचने में
तल्लीन हो जाते हैं
पीले फूलों की ऋतुएँ लेकर
देह की प्रकृति में
वसंत हाथ जोड़े खडा
प्रेम का याचक बना
दिखाई देता है
दिन पूरबी कोने को जगमगाते
दो कदम के फासले पर ही
साँझ के आँचल में छुप जाते हैं
और दिल की नाजुक दूर्वा पर
तुम्हारी याद के ओस कण
दमक उठते हैं...।


सतरंगा इंद्रधनुष

सोनाभ क्षितिज में
पसर जाती है जब
सुहानी साँझ
तारों की आगत से
सजने लगता है आसमाँ
और इठला कर चाँद
उग आता है
रश्मियां बिखेरता
तब यादों के सफों में
डबडबाई आँखों से
झर उठते हो तुम
छलक आता है मन
और सीलन से भर जाता है
दिल का हर कोना
चोटिल पल एक-एक कर
याद आते हैं
बीते क्षण लौट कर
अपने साये से टकराते हैं
ऐसे में मुझे
तुम याद आते हो...
प्रेम...!
मैंने सुना है
तुम सर्वज्ञ, सर्वव्यापी
और सक्षम हो...
तो झरते आँसुओं और
उजली चाँदनी से
रच दो ना
कोई सतरंगा इंद्रधनुष
मेरे लिए भी...।

संपर्क - 
84, गुलमोहर कालोनी, गीता मंदिर के पीछे, रतलाम . प्र. 457001
मो. - 09039476881
-मेल - swrnlata@yahoo.in

सोमवार, 5 दिसंबर 2016

कविता-बच्चे : साहिल नाथ







बच्चे होते हैं दिल के सच्चे
प्यारे होते हैं पर थोड़ा कच्चे
बच्चे ही पहचाने देश की उन्नति का सेहरा
बडे़ होकर देते देश की सीमाओं पर पहरा
बच्चों की उम्र होती है काफी नाजुक
इसलिए ध्यान देना होता है इन्हे पढ़ाई पर
लेकिन कुछ लोग इनके उददेश्य से भटकाकर
कर देते हें इन्हें गलत रास्तों पर
कलम पकड़ने की उम्र पर पकड़ा देते हैं इनके
हाथों में बन्दूक,छुपा देते हैं इनकी प्रतिभाओं को
और बन्द कर देते हैं इनकी अच्छाइयों का सन्दूक
बच्चों को देनी होती है सही शिक्षा और सही सोच
ताकि ये बढ़ सके समाज में प्रगति पथ की ओर
बच्चे होते हैं दिल के सच्चे
प्यारे होते पर थोड़ा कच्चे।
संपर्क -
साहिल नाथ
कक्षा- 11, राइका गौमुख
टिहरी गढ़वाल , उत्तराखण्ड 249121

सोमवार, 21 नवंबर 2016

हाइकु : अशोक बाबू माहौर



   मध्य प्रदेश के मुरैना जिला में 10 जनवरी 1985 को जन्में अशोक बाबू माहौर का इधर रचनाकर्म लगातार जारी है। अब तक इनकी रचनाएं रचनाकार, स्वर्गविभा, हिन्दीकुंज, अनहद कृति आदि में प्रकाशित हो चुकी हैं।
  ई.पत्रिका अनहद कृति की तरफ से विशेष मान्यता सम्मान 2014.2015 से अलंकृति ।

 
हाइकु

खुली किताब 
कलम इठलाती 
करती बक।

भिखारी रोता
देखते सब लोग 
निराले होते ।

चौंच दबाये 
बैठीं सब लताएँ
खामोश धीमी।

आकाश टेड़ा
लोग मुँह दबाये 
नाचती दूब ।


संपर्क- 
ग्राम-कदमन का पुरा
तहसील-अम्बाह,जिला-मुरैना (मध्य प्रदेश) 476111 
मो-09584414669 

सोमवार, 14 नवंबर 2016

पूर्णिमा जायसवाल की कविताएं



      

        13 दिसम्बर 1994 को कटहर बुटहनी गोण्डा उ0प्र0 में जन्मी नवोदित कवयित्री पूर्णिमा जायसवाल ने बहुत सरल शब्दों में अपनी बात कहने की कोशिश की है।  एम00 की पढ़ाई कर रही पूर्णिमा की ये पहलौटी कविताएं हैं। मां और बेटी के बीच हुए संवाद को बहुत ही बारीक धागों से बुनने की कोशिश की है। वहीं अपना मार्ग बनाने में विश्वास करने वाली पूर्णिमा जायसवाल की दूसरी कविता जीवन में भी बखूबी देखा जा सकता है। स्वागत है इस नवोदित कवयित्री का पुरवाई में।


पूर्णिमा जायसवाल की कविताएं

1-नीद
हे माँ 
मुझे अब सोने दो
मुझे नींद में खोने दो
बात हमारी सुनो माँ
कही मैं पागल न हो जाऊं
फिर दुनिया मुझ पर हॅसेगी
थोड़ा सा भार हटा लो माँ
नहीं बिटिया तुम पागल नहीं होगी
तू ज्ञान की अकूत भंडार है
पृथ्वी से भी भारी धैर्य की प्रतिमूर्ति हो
सो जाओ बेटी भार से घबराना क्या
कार्य से घबरा क्या
नींद और सपनों से
जूझ रही बिटिया
नाप रही है आकाश           
और मंजिल आ रही है पास।       

2-जीवन
नींद बेचकर
हमने ये कविता बनायी
ठोकर खाकर चलना सीखा
निकल पड़े
हम उस राह पर
जिसने हमें
सबक सिखाया
अंधकार का
विष पीकर
अब हमको जीना आया।।

सम्पर्क - पूर्णिमा जायसवाल
कटहर बुटहनी , लतमी उकरहवॉ
मकनापुर, गोण्डा उ0प्र0-271302
मोबा0-9794974220
 

रविवार, 30 अक्तूबर 2016

उत्तम कांबळे की कविताएं-





मूल कवि
उत्तम कांबळे
31 मे 1956, ग्राम टाकळीवाडी, तहसील शिरोळ, जिला कोल्हापूर (महाराष्ट्र)
साहित्य और पत्रकारिता
भाषा : मराठी
कहानी, उपन्यास, ललित, वृत्तपत्रीय लेख
प्रसिद्ध साहित्यकृती : श्राद्ध, अस्वस्थ नायक. कथासंग्रह-रंग माणसांचे, कावळे आणि माणसं, कथा माणसांच्या, न दिसणारी लढाई. काव्यसंग्रह-नाशिक-तू एक सुंदर खंडकाव्य। आत्मचरित्र-वाट तुडवतांना, आई समजून घेताना।
पुरस्कार : दर्पण पुरस्कार
विशेष : 81वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलन के  स्वागताध्यक्ष सांगली (महाराष्ट्र)(18 ते 20 जाने. 2008)
सद्यस्थिती : संपादक, दैनिक सकाळ


अनुवादक
दत्ता कोल्हारे
कार्यक्षेत्र : साहित्य और शिक्षा
मातृभाषा : मराठी
संपादित ग्रंथ : आदिवासी साहित्य एवं संस्कृति, हिंदी साहित्य : बदलता हुआ परिप्रेक्ष्य, वर्त्तमान भारतीय साहित्य : चिंता एवं चिंतन, हिंदी साहित्य : स्थानीय, राष्ट्रीय एवं वैश्विक संदर्भ
सृजन : विभिन्न पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित,
विशेष : आकाशवाणी पर वार्ताएं प्रसारित
सद्यस्थिती : प्राध्यापक

उत्तम कांबळे की कविताएं-

1- रोटी
रोटी
छिनाल होती है
घोडे की लगाम होती है
टाटा की गुलाम होती है
रोटी
मारवाडी का माप होती है
पेट में छुपा पाप होती है
युगोंयुगों का शाप होती है
रोटी
इतिहास और भूगोल भी
गले का फांस और श्वास भी
पहेलियों से भरा आकाश और आभास भी
रोटी
गवाह होती है धर्मयुद्धों की कर्मयुद्धों की
कागज पर धीरे से उतरनेवाली कविताओं की
और कविताओं में बोई गई विस्फोटों की।

 
2- अनुकरण 

मनुष्य संगणक से पूछता है...
‘‘हे संगणक!
तू एक ही समय में
विचारों से लेकर विकारों तक
सेक्स से लेकर अध्यात्म तक
संस्कृति से लेकर विकृति तक
सभी बातें
एक ही पेट में कैसे रख सकते हो?’’
संगणक बोला,
‘‘मैं तो बस तुम्हारा ही अनुकरण करता हूँ।’’

3- बाँग और आरती

बाँग, घंटानाद और आरती सुनकर
पहले मनुष्य जाग जाता था
आज दंगा हो जाता है
और प्रार्थना स्थलों को ही
रक्तस्नान  करता है।

4- क्या पता...
क्या पता...
नई सदी का मनुष्य
संगणक के कंधे पर
सिर रखकर
अंतिम साँस ले
दयालू संगणक
अंतराल में, मनुष्य के कबर के पास
शोकसभा ले
शोकप्रस्ताव पारित कर
आत्मीय भाषण भी दे
‘‘पृथ्वी पर रहनेवाली
मनुष्य नामक जाति
कितनी जुझारू थी,
कितनी गूढ़ थी
वह अत्यंत लड़ाकू भी थी
वह धर्म के लिए लड़ी
वह जाति के लिए लड़ी
प्रदेश और पंथ के लिए भी लड़ी
दुःख बस इस बात का है कि
वह मनुष्यता के लिए
कभी नहीं लड़ी
समस्त संगणक बंधुओं को
अब हमारा नम्र निवेदन
उन्होंने उन्हें
मनुष्य द्वारा प्राप्त बुद्धि का
दयालूवृत्ति से प्रयोग करें
मनुष्यता के लिए लड़े
ऐसे मनुष्य को दुबारा
जन्म देने का
प्रमाणिक प्रयत्न करें
नामशेष होने वाले
मनुष्य प्राणी को
यही सच्ची श्रद्धांजली।’’


संपर्क :
दत्ता कोल्हारे  
मोबा0-09860678458
Email-dattafan@gmail.com,

बुधवार, 19 अक्तूबर 2016

बूढ़ी अम्मा : ममता सैनवाल



    
  

   इस नवोदित रचनाकार में बहुत कुछ करने की संभावना है। इसके पहले इनकी एक कविता प्रकाशित कर चुका हूं। इस बार इनकी डायरी का कुछ अंश जो इनके अनुभवों पर आधारित है बिना तारिख के।


 बूढ़ी अम्मा


      आज कल रास्ते में चलते टी0वी0,अखबार पर हम अलग अलग घटनाएं देखते सुनत व पढ़ते रहते हैं।मैं भी एक ऐसी घटना का वर्णन कर रही हूँ,जो दो साल पहले मेरे साथ घटी।

     मैं उस समय की बात कर रही हूँ जब मैं अकेले ट्यूशन क्लास जाया करती थी। मैं जिस बस स्टॉप से अपनी बस पकड़ती थी उसी बस स्टॉप पर एक बूढ़ी अम्मा बैठी रहती थी और वह बहुत बूढ़ी थी लेकिन वह बस स्टॉप पर अकेले ही बैठे रहती थी । एक दिन मैंने उन से जाकर पूछा अम्मा आप हमेशा यहां अकेले क्यूँ बैठे रहती हो। उन्होंने मेरे सवाल का कोई जवाब नहीं दिया वे जहां बैठी थी वहां से उठकर चली गई मैंने सोचा शायद वो मुझसे बात नहीं करना चाहती इसलिए वो उठकर चली गई।

      एक दिन सोमवार की सुबह को जब मैं दुबार टयूशन क्लास के लिए बस स्टॉप गई तो वह बूढ़ी औरत वहां पर सब लोगों से पानी मांग रही थी लेकिन कोई उस बुढ़िया को पानी की क्या , बात तक सुनने को तैयार न थे । लोग उन्हें देखकर भी अनदेखा कर रहे थे।बुढ़िया पानी मांगते मांगते जमीन पर गिर गई। लोग पैर मार-मार कर आगे बढ़ गए।लेकिन किसी ने उन्हें पानी की एक बूंद तक नहीं दी। थोड़ी देर बाद मैंने दुकान से पानी की एक बोतल खरीदी और उन अम्मा का जमीन से उठाया उनके कपड़े झाड़े जिन पर बहुत मिट्टी लग गई थी। उनके कपड़े झाड़ने के बाद एक कोने में बैठाया और उन्हें पानी पिलाया। उस समय अम्मा मुझे गले लगकर रोने लगी।उस समय मुझे लगा कि वो कोई मेरी ही कोई अपनी है।मैंने अम्मा से पूछा कि अम्मा आप यहां अकेले क्यों बैठे रहती हैं।उन्होंने रोते रोते कहा मुझे मेरे बच्चों ने घर से बाहर निकाल दिया है।मेरे पति की मृत्यु के बाद उन्होंने सारी जमीन जायदाद अपने नाम पर कर ली।और मुझे घर से बाहर निकाल दिया।

    मैंने अम्मा से कहा अम्मा आप मेरी दादी जैसी हैं।आप मेरे साथ घर चलो । आप मेरे घर पर रहना। '' मैं नहीं जाउंगी, ये बस स्टॉप ही मेरे घर जैसा है। मैं यहां दो साल से रह रही हूं।'' अम्मा ने कहा ।



वो मेरे साथ नहीं आई।
अगली सुबह जब मैं दोबारा बस स्टॉप पर गई तो वहां पर बहुत भीड़ लगी हुई थी।मैं जब भीड़ के आगे जाकर देखा तो वह बूढ़ी औरत जमीन पर लेटी हुई थी। मैंने लोगों से पूछा कि अम्मा लेटी हुई क्यों हैं ? तो लोगों ने बताया कि अम्मा मर गई है।उस समय मुझे लगा कि मेरा अपना कोई मुझसे दूर हो गया है।



   शायद आज अगर अम्मा के बच्चे उन्हें घर से बाहर नहीं निकालते तो वे जीवित रहती। उन्हें क्या पता माता-पिता दुनिया में कितनी अनमोल चीज हैं। जिसका कोई मोल नहीं है और ना ही हो सकता है।

संपर्क-
ममता सैनवाल
कक्षा 12
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख टिहरी गढ़वाल
उत्तराखण्ड 249121
 

शनिवार, 8 अक्तूबर 2016

पा गया बंदूक अब कंधे की है दरकार उसको : ठाकुर दास 'सिद्ध'




                                                 14 सितम्बर 1958
शिक्षा- जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक । लेखन विधाएँ- गीत,ग़ज़ल,दोहे,सवैया,कविता,कहानी,व्यंग्य । प्रकाशित कृति- वर्ष 1995 में श्री प्रकाशन दुर्ग से ग़ज़ल संकलन 'पूछिए तो आईने से'  
संप्रति- छत्तीसगढ़ जल संसाधन विभाग में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत।
ग़ज़ल

पा गया बंदूक अब कंधे की है दरकार उसको।
है फ़रेबी, कर परे रे, छोड़ गोली मार उसको।।


जो हमें दिन-रात गहरे ज़ख़्म ही देता रहा है।
गर कहें तो किस ज़ुबाँ से यार कह दें यार उसको।।

जो बचेगा बाद में, वो आप ही के नाम होगा।
पर अभी सब ही से पहले, चाहिए है सार उसको।।

सिर्फ़ पत्थर थे भरे, सीने में होना था जहाँ दिल।
हो गई नादानियाँ, समझा किए दिलदार उसको।।

कर चुका बातें बहुत वो बीच अपने नफ़रतों की।
चुप कराने के लिए अब, दो लगा दो-चार उसको।।

पास अपने आ गया शैतान ये जिस पार से है।
'सिद्ध' मिलकर अब चलो हम भेज दें उस पार उसको।।
 

  
संपर्क –
  ठाकुर दास 'सिद्ध'
  सिद्धालय, 672/41,सुभाष नगर,
  दुर्ग-491001,(छत्तीसगढ़)
  मो-919406375695
 

गुरुवार, 29 सितंबर 2016

राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं -

    

     हिमाचल प्रदेश के सुदूर पहाड़ी गांव से कविताओं की अलख जगाए राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं किसी पहाड़ी झरने की तरह मंत्र मुग्ध कर देने के साथ आपको यथार्थ के धरातल सा वास्तविक आभास भी कराती हैं। कवि के कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं है। बिल्कुल पहाड़ी नदियों की तरह निश्चल और पवित्र हैं इनकी कविताएं। गांव , नदी , पहाड़  ,जंगल , घाटियां नया आयाम देती हैं इनकी कविताओं को ।
   
     बकौल राजीव कुमार त्रिगर्ती - गांव से हूं ,आज भी समय के साथ करवट बदलते गांव से ही वास्ता है। जीवन का वह हिस्सा जब हाथ लेखनी पकड़ने के लिए बेताब थाए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के माहौल में बीता। वाराणसी की खरपतवार और रासायनिक उर्वरक. रहित साहित्य की भूमि में कब कवित्व का बीज अंकुरित हुआ कुछ पता ही नहीं चला। भीतर के उद्गारों को अपने ढंग से व्यक्त कर पाने की हसरत से ज्यादा आत्मसंतुष्टि शायद ही कहीं होती हो। असल में पहाड़  ,जंगल , घाटियों , कलकलाती नदियां हैं तभी तो पहाड़ में प्रेम है। इनके होने से ही जीवन जटिल है तभी तो पहाड़ में पीड़ा है। यहां प्रेम और पीड़ा का सामांजस्य अनंत काल से सतत प्रवाहित है। प्रकृति के सानिध्य में सुख दुख के विविध रूपों को उभारना अच्छा लगता है। मेरे लिए यह बहुत है कि प्रकृति के सानिध्य में भीतर के उद्गारों को व्यक्त करने का एक खूबसूरत तरीका मिल गया है। भीतर के उद्गार को अपने ही शब्दों में व्यक्त करने के आनंद की पराकाष्ठा नहीं और यह आनंद ही मेरे लिए सर्वोपरि है।

राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं -
1-एकमात्र गुनाह      

असल में हमने तमाम सुविधाएं दी हैं
चोरों को, घूसखोरों को देष में आम लुटेरों को
बड़ी से बड़ी सीमेंट सरिए की बिल्डिंग डकार जाने पर
अनाज मंडियों से अनाज को निगलने
बोरी से इलेक्ट्रानिक्स तक
आखिरी सामान तक के तमाम घोटाले
खेलों के अन्तर्राष्ट्रीय आयोजनों  के नाम पर
सरकारी धन का मुंह मनचाहे ढंग से खोलने
अपने ही लोगों या भाई भतीजावाद के नाम पर 
कहीं भी कुछ भी हड़प लेने
बड़े से बड़े नाम पर
बड़े से बड़ा धब्बा लगाने पर
किसी भी बड़ी से बड़ी चोर कंपनी से घूस लेकर
देकर अनर्थक व्यापार की अनुमति
घूसखोरों से भी घूस लेने वाले सम्माननीय लोगों
कुछ भी मार लेने की चाह में जीने वालों
कि हर सुविधा का रखा जाता है ख्याल
दी जाती है विशिष्ट सुविधाएं हर जगह
यहॉं सब कुछ खेल सा ही है
खेल ही समझा जाता है
कोई भी गुनाह रोटी को छोड़कर
अब जो एकमात्र गुनाह है, वह है
रोटी लूटना
और उससे भी ज्यादा
कड़ी मशक्कत के बाद
भूख के कीड़ों के कुलबुलाने पर भी
वक्त पर एक जून की भी रोटी
न खा पाना।

2-अभाव और कविता   


जब अभाव खत्म होंगे
तो लेखनी की नोक पर आएगी
और इत्मीनान के साथ
लिखी जाएगी कविता,
अभाव जब खत्म हुए
कलम की स्याही
सूख चुकी थी
और कविता रूठ चुकी थी।

संपर्क-
राजीव कुमार त्रिगर्ती
गांव-लंघु डाकघर-गांधीग्राम
तहसिल-बैजनाथ
जिला - कांगड़ा  हिमाचल प्रदेश 176125

मोबा0-09418193024

बुधवार, 14 सितंबर 2016

हिंदी दिवस पर विशेष : अमरपाल सिंह आयुष्कर



 जन्म :१ मार्च १९८० ग्राम खेमीपुर,नवाबगंज जिला गोंडा ,उत्तर - प्रदेश          
दैनिक जागरण, हिदुस्तान ,कादम्बनी,आदि में  रचनाएँ प्रकाशित
बालिका -जन्म गीत पुस्तक प्रकाशित
२००१  मैं बालकन जी बारी संस्था  द्वारा राष्ट्रीय  युवा कवि पुरस्कार
२००३ बालकन जी बारी -युवा प्रतिभा सम्मान आकाशवाणी इलाहाबाद  से कार्यक्रम प्रसारित
परिनिर्णय-  कविता शलभ  संस्था इलाहाबाद  द्वारा 
पुरस्कृत

 हिंदी हिंदुस्तान की


जाति - धर्म मजहब से ऊँची अधरों के मुस्कान –सी
स्वर्णिम किरीट चन्दन मस्तक का हिंदी है
सदियों से सस्वर गुंजित है ये अलियों के गुंजार –सी
लहराती माँ के आँचल - सी हिंदी हिन्दुस्तान की ,

कहीं कृष्ण का बचपन बनती, कहीं राम की माया
कहीं पे राधा पाँव महावर ,कहीं नुपुर सीता माता
गंगा की निर्मल धार कभी ,कभी भारत माँ का ताज बनी
युग –युग से हंसकर सींचा है ,ये स्वर्ग सरीखा बाग़ भी
लहराती माँ के आँचल - सी हिंदी हिन्दुस्तान की

शिशु की तुतली बोली में कभी खनकती है
बन प्रेम दीवानी मीरा , कभी झलकती है
हो राम , कौसल्या गोद सजी पुष्पित होकर
दसरथ के ह्रदय का बनती कभी विलाप भी
लहराती माँ के आँचल सी हिंदी हिन्दुस्तान की

खेतों का पानी बनी कभी ,कभी गर्जन करती ज्वार दिखी
हरियाली हँसते किसान के गालों के गुलज़ार- सी
भेदभाव को मिटा सभी को गले लगाती रहती है
होली ,ईद ,दिवाली ,क्रिश्मस ,बैसाखी त्यौहार – सी
लहराती माँ के आँचल सी हिंदी हिन्दुस्तान की

राणा की शमशीर कभी , कभी वीर शिवा की बन कटार
आजादी के मतवालों संग ,किया शत्रु पर बज्र प्रहार
रण बीच गरजती रही ,कलिका रूप बनी
फांसी पर झूली कभी शान से, वीरों के बलिदान -सी
लहराती माँ के आँचल -सी हिंदी हिन्दुस्तान की

कहीं जीर्ण वसन की लाज बचाती रहती है
कहीं आंचल सजनी का लहराती रहती है
गोरी के अलकों - पलकों के मादक –मादक मुस्कान –सी
बनती दीपक राग कभी ,कभी बनती मेघ मल्हार भी
लहराती माँ के आँचल- सी हिंदी हिन्दुस्तान की
गैरों की भाषा जब लोगों की बनती शान
अपनों के ही बीच फिरे बनकर अनजान
दुखिया होती जब कुब्जा और अहिल्या- सी
बनकर देव सामान सूर ,तुलसी ने डाली जान भी
लहराती माँ के आँचल सी हिंदी हिन्दुस्तान की |



संपर्क सूत्र-

अमरपाल  सिंह ‘आयुष्कर’

G-64  SITAPURI

PART-2

NEW DELHI

1100045

मोबा0-8826957462