बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

रावण के पुतले

रावण के पुतले


 
 

















  











डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’

मत जलाओ जगह-जगह
रावण के पुतले
आख़िरकार, क्या बिगाड़ा है
रावण ने तुम्हारा!

शताब्दियों पूर्व
भगवान के हाथों मरकर
उसने मोक्ष प्राप्त कर लिया,
वह मुक्त है जन्म-मरण के बंधन से।

रावण का पुतला जलाकर
क्या साबित करना चाहते हो तुम?
........रावण तो तुम्हारे मन में है
अहंकार के वशीभूत हो तुम
रावण को जला पाने की सार्म्थ्य
तुममें नहीं
क्या फ़र्क़ है तब
तुममें और रावण के अहंकार में
सदियों पहले जो
मुक्त हो चुका है
भवसागर के बंधन से
हर साल उसका पुतला
अग्नि को समर्पित कर
आख़िरकार, क्या साबित करना
चाहते हो तुम लोग?
पहले जलाओ
अपने मन के रावण को
पहले मारो
अपने मन के रावण को
अपना अहं त्याग कर सीखो मानवता
अपना चरित्र ऊँचा उठाओ
समाज में समरूपता लाओ।

साल में एक बार
रावण का पुतला जलाकर
साल भर
रावण बने फिरते हो
अपने कुकर्मों से लज्जित
करते हो मानवता को
जातिवाद-वर्गवाद-भाषावाद
के बीज बोते हो
वैमनस्यता की फसल सींचते हो
माँ-बहन-बेटी की आबरू से
खेलते हो......
रहजनी-हत्या-लूट-फिरौती
क्या-क्या नहीं करते हो!
मत जलाओ रावण के पुतले
बार-बार,
पहले शुद्ध करो अपना अन्तःकरण।

रावण तुम सबसे बहुत भला था
सीता मैया को
कभी ग़लत दृष्टि से
नहीं देखा था उसने।
वह खोज रहा था
उनके माध्यम से अपनी मुक्ति।
रावण बहुत ईमानदार था
अपने वचन के प्रति......
विश्वासघात करने पर
कितने राजाओं ने
अपने बन्धु-सहोदरों को
दी हैं क्रूर-यातनायें
और उतार दिया है मौत के घाट,
रावण ने तो विभीषण को
लात मारकर ही भगाया था......
और एक बात सोचो-
कोई काट ले तुम्हारी बहन के
नाक-कान,
क्या तुम माफ़ कर पाओगे उसे?
आखि़रकार, किस प्रकार जी पायेगी
तुम्हारी बहन ताउम्र, सोचो!
अपने मन का अहंकार मिटाओ
रावण के पुतले मत जलाओ।

      सम्पर्क:-  अध्यक्ष - ‘अन्वेषी’
                      24/18, राधानगर, फतेहपुर (उ.प्र.)-212601
                      वार्तासूत्र - 9839942005, 857400635

बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

शिरोमणि महतो की कविताएं



शिरोमणि महतो की कविताएं

जन्म      ः    29 जुलाई 1973

शिक्षा      ः    एम.ए. (हिन्दी) प्रथम वर्ष

सम्प्रति   ः    अध्यापन एवं ‘‘महुआ’’ पत्रिका सम्पादन

प्रकाशन  ः    कथादेश, हंस, कादम्बिनी, पाखी, वागर्थ, कथन, समावर्तन,
द पब्लिक एजेन्डा, समकालीन भारतीय साहित्य, सर्वनाम, युद्धरत आम आदमी, शब्दयोग, लमही, पाठ, पांडुलिपि, हमदलित, कौशिकी, नव निकश, दैनिक जागरण ‘पुनर्नवा’ विशेषांक, दैनिक हिन्दुस्तान, जनसत्ता विशेषांक, छपते-छपते विशेषांक, राँची एक्सप्रेस, प्रभात खबर एवं अन्य दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाषित।

                 उपेक्षिता (उपन्यास) 2000
                 कभी अकेले नहीं (कविता संग्रह) 2007
                 संकेत-3 (कविताओं पर केन्द्रित पत्रिका)2009 प्रकाशित।
                 करमजला (उपन्यास) अप्रकाशित।

सम्मान    ः     कुछ संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
                 जनकवि रामबली परवाना स्मृति सम्मान (2010),खगड़िया
                            (बिहार)



               हम झारखण्ड के युवा कवि शिरोमणि महतो की कविताएं प्रकाशित कर रहे हैं। झारखण्ड में जीवन-यापन करते हुए वहाँ की जनपदीय सोच को अभिव्यक्त करना जोखिम भरा काम है, हमने शिरोमणि महतो की उन कविताओं को तरजीह दी है। जिसमें उनका जनपद, उनका परिवेश मुखर होता है। बेशक अपने परिवेश के शिरोमणि महतो अच्छे प्रवक्ता हैं। इस उत्तर आधुनिक समय में झारखण्ड और वहां की चिन्ताएं विश्व-पटल पर रखने का कौशल शिरोमणि महतो में है। वह बड़ी बारीकी से आस-पास विचरण करते समय की चुनौतियों को महसूस करते हैं और अपनी जिम्मेदारियां समझते हैं कि ऐसे कठिन समय में एक लोकधर्मी कवि की क्या भूमिका होनी चाहिए?

- अनवर सुहैल
, कवि-कथाकार, संपादक-संकेत


शिरोमणि महतो की कविताएं

 अकाल

पिछले साल सूखाड़ था
इस साल अकाल हो गया
सूखाड़ की नींब पर
अकाल का खूँटा खड़ा होता है

घर में एक भी
अनाज का बीटा नहीं
घड़े-हंड़े सब खाली-खाली
किसी में एक भी दाना नहीं
छप्पर से भूखे चूहे गिरते
और तडप कर दम तोड़ देते !

अकाल केवल अनाज का नहीं
पानी का भी अकाल है....
कुँआ पोखर नदी नाले
सब के सब सूख गये
भूखे-प्यासे पशु पक्षी
भटक रहे इधर-उधर
और तड़प-तड़प दम तोड़ रहे....

अकाल का मायने
‘अ-काल’
फिर यह क्यों सिद्ध हो रहा
-महाकाल !

रूप रंग आकार
एक होने के बावजूद
कितना अलग होता है-
आदमी का मिजाज
और उसका काम-काज !!

पिता की खांसी

पिता की खांसी
जैसे उठता-कोई ज्वार
मथता हुआ सागर को
इस छोर से उस छोर
दर्द से टूटते पोर-पोर

जब खांसी का दौरा पड़ता
थरथराने लगता-पिता का धड़
डोलने लगता-माँ का कलेजा
मानो खांसी चोट करती
घर की बुनियाद पर
हथौड़े की तरह....
और हिल उठता-समूचा घर !

अब सत्तर की उमर पर
दवाओं का असर
कम पड़ रहा
पिता की खांसी पर

डॉक्टर कहा करते-
यह खांसी का दौरा
दमा कहलाता है
जो आदमी का
दम तोड़कर ही दम लेता है !

लेकिन
अगर आदमी में दम हो
तो पछाड़ सकता है
-दमा को

दमा और दम की
लड़ाई अभी जारी है.....!


जूठे बर्त्तन

रात भर ऊँघते रहे
जूठे बर्त्तन
अपने लिजलिजेपन से

मुर्गे की बांग से
भोर होन की आस में
तारों को ताकते रहे
झरोखे की फांक से

सुबह होते ही
जूठे बर्त्तनों को
ममत्व भरे हाथों का
स्पर्थ मिलता....

घर की औरतें
जूठे बर्त्तनों को
ऐेसे समेटती/सहेजती
मानो उनका स्वत्व
रातभर रखा हो
इन जूठे बर्त्तनों में !

चाहे ये जूठे बर्त्तन
किन्हीं के हों

किसी भी जात/धर्म के
ऊँच-नीच/भेद-भाव
तनिक नहीं करतीं
घर की औरतें
इन जूठे बर्त्तनों से !



पता         ः    नावाडीह, बोकारो, झारखण्ड-829144

मोबाईल   ः    9931552982

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2012

जिंदा रहने की कीमत





रेखा चमोली की कविताएं-
       08 नवम्बर 1979 को कर्णप्रयाग उत्तराखण्ड मे जन्मीं रेखा चमोली ने प्राथमिक से लेकर उच्चशिक्षा उत्तरकाशी में ही ग्रहण की। इनकी रचनाएं- वागर्थ ] बया नया ज्ञानोदय] कथन] कृतिओर] समकालीन सूत्र ] सर्वनाम] उत्तरा] लोकगंगा आदि साहित्यिक पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। इसके अलावा राज्य स्तरीय पाठ्यपुस्तक निर्माण में लेखन संपादन। कार्यशालाओं में सक्रिय भागीदारी एवं नवाचार हेतु सदैव प्रयासरत।
संप्रति- अध्यापन
कविताएं-

जिंदा रहने की कीमत

राजशेखर ने अपनी जान दे दी
नदी में कूदकर
सात दिन की दौड़ धूप के बाद
उसकी लाश मिली
राजशेखर चला गया
हर सुख-दुख से बहुत दूर
जरा भी सोचा
पीछे छूट रहे
चार किशोर होते बच्चों और
अंधी पत्नी के बारे में

छोटे से चौक में
एक ओर बंधी दो भैंसे
एक बोरी के ऊपर सुखाने डाली मिर्चें
थोड़ी-सी छेमियों की फलियां

वहीं धूप में
फटे तिरपाल के टुकड़े पर बैठी
असमय सूखी फसल सी
राजशेखर की पत्नी गुड्डी देवी

आंखे रो-रोकर
बाहर निकलने को हो आयी हैं
दुख
पति के जाने से अधिक
अपने और बच्चों के भरण पोषण का है

बताती है
कई दिनों से उलझा-उलझा रहता था
नींद में भी सिहर जाता
कहता कई लोग
सफेद कपड़े पहने
पीछा कर रहे हैं उसका

हमारी तो किस्मत ही खराब है
पहले मेरी आंखे गई
बहुत इलाज कराया
चंडीगढ़ तक
मेरा तो यह हाल है
कोई दे देगा तो खा लूंगी
फिर ये चार-चार बच्चे
नाते रिश्तेदार तो जीते-जी थे
अब कौन है हमारा
हजार रूपये थे घर में
इनकी ढ़ूढ में ही खत्म हो गए
राशन-पानी था ही कितना
बहनजी
इन बच्चों का कुछ इंतजाम
कर सको तो कर देना
मैं भी कहीं गिर पड़ कर
अपनी जान दे दूंगी

चारों बच्चे
मां को घेर कर बैठ गये
छोटा बेटा दहाड़े मार रोने लगा

कौन थे ये सफेद कपड़े पहनकर
राजशेखर के सपनों में आने वाले
क्या वे
जिनकी उधारी के चलते
ठप्प हो चुकी थी उसकी दुकान
क्या वे सब
आपसी रंजिश के चलते
जिन्होंने नहीं बनने दिया
उसका बीपीएल कार्ड और
पिछड़ी जाति का प्रमाण पत्र
या फिर वे
जिन्होंने रात-दिन झगड़ा कर
डरा धमका
किया उसे मजबूर
गांव में बना-बनाया मकान छोड़
जंगल के बीच मकान बना रहने को
जहां ग्यारह बजे ही छिप जाती है धूप
घूमते हैं रात-बिरात जंगली जानवर
वे चमकते बीज
जो बड़े उत्साह से लाया था वह
फिर जिन खेतों से
सालभर पलता था परिवार
दो महीने भी खा पाया भरपेट

या फिर हम सब
जिन्होंने सारे हालात जानते-बूझते
नहीं की उसकी कोई मदद

राजशेखर नहीं बन पाया
बाजार के मुताबिक
तेज-तर्रार, दो की चार करने वाला

राजशेखर
अब क्या करेंगे
तुम्हारे बच्चे
कौन-सा रास्ता चुनेंगे
जिंदा रहने के लिए
लड़ेंगे परिस्थितियों से
या सीख लेंगे बाजार के दाव-पेंच

काश
वे जो भी रास्ता चुने
उससे उन्हें या
उनके कारण किसी को
करना पड़े वरण
अकाल मृत्यु का।

मैं कभी गंगा नहीं बनॅूगी


तुम चाहते हो
मैं बनॅू
गंगा की तरह पवित्र
तुम जब चाहे तब
डाल जाओ उसमें
कूडा-करकट मल अवशिष्ट
धो डालो
अपने
कथित-अकथित पाप
जहॉ चाहे बना बॉध
रोक लो
मेरे प्रवाह को
पर मैं
कभी गंगा नहीं बनॅूगी
मैं बहती रहॅूगी
किसी अनाम नदी की तरह
नहीं करने दूगी तम्हें
अपने जीवन में
अनावश्यक हस्तक्षेप
तुम्हारे कथित-अकथित पापों की
नहीं बनूगी भागीदार
नहीं बनाने दूगी तुम्हें बॉध
अपनी धाराप्रवाह हॅसी पर
मैं कभी गंगा नहीं बनूंगी
चाहे कोई मुझे कभी पूजे।

संपर्क-
निकट ऋषिराम शिक्षण संस्थान
जोशियाड़ा ]उत्तरकाशी ]उत्तराखण्ड 249193
मोबा0 9411576387