गुरुवार, 16 मई 2013

स्वप्न और यथार्थ के मध्य झूलती कहानियां



         





  स्वप्न और यथार्थ के मध्य झूलती कहानियां  



आज हमारे सामने युवा रचनाकारों की एक ऐसी पीढ़ी दिखाई दे रही है , जो कविता  और कहानी दोनों विधाओं में अपनी असरदार उपस्थिति के साथ हिंदी साहित्य  के परिदृश्य पर मौजूद है | इन प्रतिभाशाली युवा रचनाकारों ने उस परम्परा को भी जीवित रखा है , जो नागार्जुन , निराला , अज्ञेय , मुक्तिबोध , विनोद कुमार शुक्ल , उदय प्रकाश और कुमार अम्बुज से होते हुए आज भी चली आ रही है |  विमलेश त्रिपाठी इसी युवा पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं | अपने कविता संग्रह ‘हम बचे रहेंगे’ के जरिये इन्होंने गत वर्ष साहित्य जगत में अपनी धमाकेदार उपस्थिति दर्ज कराई थी | उस पुस्तक को न सिर्फ सराहा गया था , वरन उसे पुरस्कृत भी किया गया था | इस वर्ष अपने पहले कहानी संग्रह ‘अधूरे अंत की शुरुआत’ के जरिये विमलेश का कथा क्षेत्र में यह प्रवेश लगभग स्वप्निल ही माना जायेगा , जिसे भारतीय ज्ञानपीठ ने युवा कहानी के लिए नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित किया है | जाहिर है , कि जब इस पुस्तक को ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार दिया गया है , तब इसमें जरुर ही कोई खास बात रही होगी , क्योकि इसे परखने का काम वरिष्ठ साहित्यकारों के एक सम्मानित पैनल द्वारा किया जाता है |
इस संग्रह में कुल सात  कहानियां हैं | एक छोटी , पांच सामान्य कद-काठी की और एक लम्बी कहानी | ये सभी कहानियां समय के एक अंतराल में देश  की विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं  में छपने के साथ-साथ पर्याप्त रूप से चर्चित भी हुयी हैं | इन्हें पढने के बाद कुछ चीजें आपके दिमाग में सामान्यतया उभरती हैं | मसलन , इन कहानियों का लेखक एक कवि है और इनसे गुजरते हुए कविता का आनंद भी लिया जा सकता है | इनमें चमकदार बिम्बों की एक लम्बी श्रृंखला है , और जो शायद ही कहीं टूटती या छूटती है | स्वप्न और यथार्थ के बीच झूलती इन कहानियों का नायक यथार्थ से तालमेल बिठा पाने में अपने को असफल पाता है और तदनुसार वह स्वप्न में आवाजाही करने लिए अभिशप्त हो जाता है | इनमें नायक का चयन लेखक के इर्द-गिर्द बुना गया लगता है , जो इस समाज में अपने आपको मिसफिट पाता है , और प्रकारांतर से विक्षिप्तता की ओर बढ़ता चला जाता है | वह नायक गाँव से चलकर किसी शहर-महानगर ( अधिकतर कोलकाता ) में पहुंचा तो होता है , लेकिन अभी भी उसके मन में अपने गाँव की तस्वीर बसी हुयी है | अपने समय के सारे महत्वपूर्ण सवालों – मसलन साम्प्रदायिकता , जातीय दंश , स्त्री पराधीनता और व्यवस्था की विद्रूपता – से टकराती इन कहानियों में पठनीयता का स्तर बहुत ऊँचा है , जिसे जीवंत बनाने के लिये देशज शब्दों के साथ-साथ किस्सागोई का भी जबरदस्त इस्तेमाल किया गया है | और अंत में यह भी कि , ये कहानियां अपने शानदार अंत के लिए भी पढी जा सकती हैं , जिसमें पाठक को ‘कुछ न कुछ’ बेहतर जरुर मिलता है | 
इस संग्रह की पहली कहानी  ‘अधूरे अंत की शुरुआत’  है और यह संयोग ही कहा जाएगा , कि इसी कहानी से विमलेश अपने कथा-लेखन की शुरुआत भी करते हैं | यह कहानी उपरोक्त  सारे आधारों के सहारे ही आगे  बढ़ती है , जिसमें इसका नायक ‘प्रभुनाथ’  समाज से तादात्म्य बैठाने में असफल रहने और सामाजिक  उपेक्षा भाव के कारण टूटता  दिखाई देता है , और यही टूटन उसे अपनी प्रेमिका के साथ  ज्यादती के स्तर तक गिरा देती है | लगभग विक्षिप्तता की स्थिति में वह अपनी प्रेमिका को संबोधित पत्र में कहता है “ मेरे जैसे लोग जिस  समाज में जीते हैं , और उनके एक विशेष मानसिक गठन वाले मन पर वह समाज जिस तरह की ग्रंथियां बनाता है , उनके वशीभूत हो वे क्या कुछ कर गुजरते हैं , उन्हें खुद भी पता नहीं होता ...फिर भी तुम्हारा स्नेह मुझे आदमी बना सकता था ... जो मैं कभी था ही नहीं |” ( पृष्ठ – २८ , अधूरे अंत की शुरुआत ) | यह कहानी व्यक्ति और समाज के जटिल रिश्ते की पड़ताल के साथ-साथ अपने शिल्प और यादगार अंत के लिए भी उल्लेखनीय मानी जा सकती है |
इस संग्रह की अन्य कहानियों के नायक भी , मसलन ‘परदे के इधर  उधर’ के ‘दुर्लभ भट्टाचार्य’  हों , या ‘खँडहर और इमारत’ के ‘प्रबुद्ध’ हों , अंततः  उसी टूटन , विक्षिप्तता  और पलायन को पहुँचते है , जिसके लिए वे इस व्यवस्था में अभिशप्त हैं | कहानियां उन्हीं विद्रूपताओं के मध्य से उपजती हैं , जिसमे यह व्यवस्था ऐसे प्रत्येक आदमी के सामने सिर्फ और सिर्फ टूटन का विकल्प ही छोडती है , जो सोचने समझने वाला है और जो नैतिकता के मूल्य को जीवन में उतारना चाहता है | इसलिए यह अनायास नहीं है , कि ये नायक सपनों में आवाजाही करते रहते हैं | यदि इन नायकों के जीवन में सपने नहीं होते , जहाँ वे अपने मन की दुनिया को जी सकते हैं , तो यह समझना कठिन न होता , कि उनकी यह टूटन और विक्षिप्तता समाज पर किस तरह से टूटती |
हमारे समय की दो सबसे बड़ी  त्रासदियों को केंद्र में रखकर विमलेश ने दो कहानियां लिखी है | साम्प्रदायिकता और जातीय जकड़न | संग्रह की चौथी कहानी ‘चिंदी चिंदी कथा’ मूल रूप से साम्प्रदायिकता को केंद्र में रखकर लिखी गयी है , जिसके बीच एक प्रेम कथा भी चलती है | हमारा समाज आज भी गैर-बराबरी वाले प्रेम सम्बन्ध को किस तरह से ठुकराता है , इस कहानी में देखा जा सकता है , और फिर यदि प्रेम करने वाले अलग-अलग धर्मों से आते हैं , फिर तो इस समाज के लिए प्रेम करने वालों से अधिक गुनाहगार कोई और हो ही नहीं सकता है | अच्छी बात यह है , कि एक सजग कथाकार की जिम्मेदारी निभाते हुए विमलेश इनका अंत उस मुकाम पर करते हैं , जहाँ से समाज को कुछ हासिल हो सकता है | 
पांचवी कहानी ‘एक चिड़िया एक पिंजरा और कहानी’ हमारे  दौर के तीन ज्वलंत विषयों को लेकर चलती है , जिसमें विमलेश के भीतर का सधा कथाकार उभरकर सामने आता है | हालाकि इस कहानी में थोड़ा फ़िल्मी पुट दिया गया है , और जिसे स्वयं कथाकार भी मानता है , लेकिन तब भी यह कहानी ‘जातीय घृणा , सगे-सम्बन्धियों द्वारा यौन शोषण और उसके बीच बचे रहे गए प्रेम’ की अद्भुत दास्तान बन जाती है | कहानी का अंत बहुत रक्तपूर्ण होता है , लेकिन इसकी जिम्मेदारी उस सामाजिक व्यवस्था पर ही आयत होती है , जिसमें ऐसा रक्तपात अमानवीय और प्रतिगामी माना जाता है | छठी कहानी ‘पिता’ वर्तमान दौर के उस संवेदनहीन समाज का आख्यान रचती है , जिसमें एक बेटा अपने बाप को यह कहते हुए पतंग सरीखा उड़ा देता है , कि ‘आपका मेरे ऊपर कौन सा एहसान है ? मैं तो इस दुनिया में तब आया , जब आप मजे ले रहे थे |’ इस छोटी कहानी में विमलेश ने, बदहवास दौड़ती हुयी इस युवा पीढ़ी की उन मनोदशाओं को व्याख्यायित किया है , जिनमें सामाजिक मूल्य और नैतिकताएं सिरे से तिरोहित हो गयी हैं |
संग्रह की अंतिम कहानी ‘अथ श्री संकल्प-कथा’ है , जो एक ‘लम्बी कहानी’ भी है | विमलेश इस कहानी में पूरी फार्म के साथ नजर आते हैं | वे राजनीतिक रूप से अपना पक्ष चुनते हैं , और व्यवस्था की जकड़नो में पिसते हुए इस समाज के बृहत्तर हिस्से पर केन्द्रित करते हुए , इस कहानी को बड़े कैनवस पर लेकर जाते हैं | इसमें आये मुक्तिबोध जैसे कई पात्र हमारे जीवन से उठाये गए हैं , जिनके सहारे यह ‘संकल्प-कथा’ आगे बढ़ती है | इसको पढ़ते हुए उदय प्रकाश की दो चर्चित कहानियां – ‘मोहन दास’ और ‘पाल गोमरा का स्कूटर’ – जेहन में कौंधती हैं | मुक्तिबोध जैसे चरित्र को चुनने का तरीका ‘मोहन दास’ की याद दिलाता है , तो कहानी के नायक ‘संकल्प प्रसाद’ की टूटन और विक्षिप्तता ‘पाल गोमरा के स्कूटर’ की | जाहिर है , कि यह लम्बी कहानी विमलेश के इस संग्रह की सबसे महत्वपूर्ण कहानी भी मानी जा सकती है |
तिरोहित नैतिकताओं के इस दौर में नैतिक विधानों  पर चलने वाले इन कहानियों के पात्रों का विक्षिप्तता  की तरफ बढ़ना कोई अस्वाभाविक नहीं है , लेकिन इनकी एक आलोचना यह कहकर तो की ही जा सकती है , कि बेहतर तो यह होता कि विमलेश इन पात्रों के सहारे इस व्यवस्था को बदलने के लिए और अधिक संघर्ष करते | जाहिर है कि आज उन संघर्षों की सफलता भले ही ‘कालाहांडी से दिल्ली’ जितनी दूर दिखाई देती है , लेकिन एक कथाकार से यह अपेक्षा तो की ही जा सकती है , वह इस दूरी में अपने पात्रों को कुछ कदम ही सही , लेकिन चलने के लिए प्रेरित अवश्य करे | बजाय इसके कि वे थक-हारकर सामाजिक पलायन कर जाएँ | जिन कहानियों में यह संघर्ष दिखाई देता है , वही कहानियां इस संग्रह को ऊँचाई भी प्रदान करती हैं | इन कहानियों में दो और चीजें अखरती हैं | एक तो लेखक का लगभग प्रत्येक कहानी में यह कहना , कि ‘यह एक कहानी नहीं है’ , और दूसरा यह कि लेखक के भीतर के कवि का अपने पात्रों पर हावी हो जाना | मसलन - ‘एक चिड़िया , एक पिंजरा एक कहानी’ की नायिका ‘रश्मि मांझी’ का वह पत्र |
लेकिन इन आलोचनाओं के होते हुए भी इस संग्रह को अपने समय के दस्तावेज के रूप  में पढ़ा जाना चाहिए | विमलेश के भीतर जो कथाकार है , वह बहुत संभावनाशील है | वह इस बदलती दुनिया को तो देख-सुन ही रहा है , साथ-ही-साथ उसे अपनी जमीन की भी पहचान है | उसके पास भाषा और शिल्प तो है ही , कथ्य और पक्ष चुनने की समझ भी है | जाहिर है , कि इस संग्रह से विमलेश के प्रति हमारी आशाएं और बढ़ गयी हैं , और उसी अनुपात में आने वाले समय में उनकी जिम्मेदारी भी |


पुस्तक
अधूरे अंत की शुरुआत
 ( कहानी संग्रह )
लेखक – विमलेश त्रिपाठी
प्रकाशक – भारतीय ज्ञानपीठ , नयी दिल्ली
मूल्य – 130 रुपये
                                                      



संक्षिप्त परिचय


     

                                 रामजी तिवारी 

बलिया , उ.प्र.
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख , कहानियां ,कवितायें और समीक्षाएं प्रकाशित
सिनेमा पर एक किताब प्रकाशित – ‘आस्कर अवार्ड्स – यह कठपुतली कौन नचावे’
‘सिताब-दियारा’ नामक ब्लाग का सञ्चालन
मो.न. – 09450546312











रविवार, 12 मई 2013

पूनम शुक्ला की कविताएं


            
                                                             पूनम शुक्ला

                        26 जून 1972 को  बलिया , उत्तर प्रदेश में जन्मीं पूनम शुक्ला को बलिया में रहने का मौका बहुत कम ही मिला है ।पिता के स्थानान्तरण के कारण देश के विभिन्न हिस्सों में रहने का मौका मिला
मैं बोऊँगी उजास  और टार्च  कविता में अतीत के पृष्टभूमि से सामग्री लेकर जो कविता का वितान रचा है उसकी टीस कवयित्री के अंतर्मन में गहरे तक बैठी हुई है जिसकी कसमसाहट और छटपटाहट यहां शिद्दत से महसूस की जा सकती है। सच को सच लिख देना और समाज से खतरा मोल लेना पूनम शुक्ला की कविता -मैं बोउंगी उजास  में बखूबी देखा जा सकता है।अन्य कविताएं भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं।इनकी कविताओं को पढ़ना एक सुखद अनुभूति से गुजरना है।

शिक्षा - बी एस सी० आनर्स ; जीव विज्ञान - एम एस सी ,कम्प्यूटर साइन्स -एम० सी चार वर्षों तक विभिन्न विद्यालयों में कम्प्यूटर शिक्षा प्रदान की ,अब स्वतंत्र लेखन मे संलग्न

कविता संग्रह- सूरज के बीज  अनुभव प्रकाशन,गाजियाबाद द्वारा प्रकाशित ,विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में समय- समय पर कविताओं का प्रकाशन ।सनद ,पाखी ,नव्या में प्रतीक्षित

मदर डे पर कवयित्री पूनम शुक्ला की कविताएं-

1- मैं बोऊँगी उजास

बहुत पीया था
तरह - तरह के मिश्रण से
बनाया गया ठंडा
स्वादिष्ट पेय
जिसमे समानता का
थोड़ा मसाला था
एकता की मिठास
सभी जातियों को एक करती
सूखे मेवों की तश्तरी
और फिर कुछ बर्फ के टुकड़े
विभिन्न तर्कों के
उसे और स्वादिष्ट बनाते

पर क्यों पिलाया गया था
मुझे वो पेय स्कूल में
हर कक्षा में
हर मास्टर द्वारा
जब आज सत्य का
साक्षात्कार हुआ तो
जमीन ही धसक गई
सारी पढ़ाई तो
कहीं भीतर
धरातल में खिसक गई

जिस दिन पढ़ाई गई
कहानीठाकुर का कुआँ
कितनी चर्चा हुई थी
करुण था कक्षा का माहौल
सभी ने महसूस किया था
हृदय परिवर्तन
मैंने भी सँजो लिए थे
वो पल
जो टिमटिमाते हैं आज भी
दिल के किसी कोने में 
पर कितनी लाचार हूँ
अभी तक वो टिमटिमाता कोना
रोशन नहीं कर पाया
पूरे घर को
अलग रख दिए गए हैं
कुछ काँच के गिलास
जब आता है कोई ईसाई
मुसलमान या निम्न वर्ग का
मुझे दे दिया जाता है आदेश
पानी लाने का उस गिलास में
सुनकर मैं पत्थर बन जाती हूँ
वो गिलास मुझ पत्थर से टकराकर
चकनाचूर क्यों नहीं हो जाते

चाहते हुए भी
आदेश का पालन करती हूँ
सभी बड़े हैं
आज्ञा का पालन करती हूँ
वरना बेशरम,बत्तमीज़ की
उपाधि का सेहरा
रख दिया जाएगा सिर पर

आज सोचती हूँ कि
इतनी शिक्षा और उम्दा सोच
पाकर भी मैं
कितनी लाचार हूँ
पर फिर भी लगी हूँ
अनवरत यात्रा में
कि किसी दिन ये वक्त
होगा मेरी मुट्ठी में
और मैं बोऊँगी उजास
वह टिमटिमाता कोना
कर देगा एक दिन रोशन
मेरे घर को



2- टार्च

जब छोटी थी मैं
और बिजली  चली जाती
घर में एक लालटेन जला
हम सभी बाहर  बैठ जाते
और फिर होती तरह-तरह की बातें
घर की समाज की देश की शिक्षा की
हमारे मस्तिष्क में खुद ही
टिमटिमाने लगते थे जुगनू
और फिर सचमुच
एक जुगनू की टोली
उड़ती हुई हमारे इर्द गिर्द
अँधेरे को रोशन थी कर देती

याद है एक बार
उन जुगनुओं को
बोतल में भरकर
हमने एक टार्च भी था बनाया
इस भीड़ भरे शहर में
वो जुगनू तो अब नहीं दिखते
पर मस्तिष्क के जुगनू
बड़े काम हैं आते
इस जीवन में जब भी
है अँधेरा छाता
उन्हीं जुगनुओं का
टार्च बना लेती हूँ
और पार कर जाती हूँ अँधेरा


3- माँ       

सबसे पहले उठ
लग जाती है काम पर
सुबह से शाम तक की
एक लंबी लिस्ट है
उसके पास
सबको रीमांइडर देती हुई
सबको माइन्ड करती हुई
वो एक संचालक
एक अनुशासक
एक निरीक्षक
तो कभी
पालक का काम करती है
पिता के कोप को पोट
आँसुओं को घोंट
चलती जीवन की गाड़ी के
चालक का काम करती है

4- चलें फिर

चलें फिर
नव ज्योति के संसार में
चलें फिर
नव किरणों के प्रकाश में
फिर से दिखती है ,दूर
एक नई आभा
चलें उस पुंज के अभिसार में
चलें फिर

थक हम गए थे
रुक हम गए थे
चिन्तन चिता में
हम गुम गए थे
फिर से आई है
एक मधुर पुकार
चलें फिर

क्यों नम हैं आँखें
क्यों गुम हैं बातें
क्यों थम गई हैं
अँधेरी ये रातें
बजा फिर से वही
वीणा की टंकार
चलें फिर


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