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बुधवार, 10 अप्रैल 2013

आर-पार’ यानी विद्रूपताओं पर करारा प्रहार

 पुस्तक समीक्षा


 
‘आर-पार’ यानी विद्रूपताओं पर करारा प्रहार
  -चक्रधर शुक्ल

 
                         अन्वेषी संस्था के अध्यक्ष और अन्वेषी पत्रिका के संपादक डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ के संपादन में एक दर्जन कवियों की चुनिंदा कविताओं का संग्रह ‘आर-पार’ हमारे बीच आ चुका है। इन युवा कवियों को पढ़ना अपने आप में एक सुअवसर है जिनके ज़रिये कविता अपने शिल्प में पीड़ा, घुटन, आक्रोश, संत्रास, झूठ, फ़रेब के साथ अमर्यादित कामों की निंदा ही नहीं करती, बल्कि बहुत संजीदगी के साथ उसे सबके सामने लाकर सच को उद्घाटित करती है। सच्चाई को स्वीकारना सबके बस की बात नहीं। भीरु होता जा रहा जनमानस तमाम ऐसे कृत्यों को देखता रहता है, लेकिन विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाता। इसी साहस का काम कविता करती हैं कविता संग्रह ‘आर-पार’ की कविताएँ।


                       गुनहगार, मुखौटा लगाकर भीड़ में शामिल हो जाता है। उस मुखौटे को उतारने का काम आरसी चौहान  अपनी कविता के माध्यम से करते हैं और बहुरूपिये को सामने लाते हैं। पेट की आग को मिटाने के लिए, वह जाने कितने रूप धरता है। कितनी बार पेट की क्षुधा, परिवार की परवरिश के लिए दंश झेलता है। मरता है- तालियाँ बजती हैं और उन्हीं तालियों के बीच एक अंतिम एपीसोड का होना, गहरे दर्द में डुबो देता है। कविता ध्वनित होती रहती है- कविता यहाँ ज़िन्दा है। उसे ज़रूरी नहीं छंद में बाँधा जाय, मुक्तक में ढाला जाय, गीत में उतारा जाय, ग़ज़ल में सँवारा जाय। कविता, कविता है जो निर्झरित होती है, होती रहेगी। अपनी भावना को बहुत गहरे, शब्दों के माध्यम से दिल में उतार देना कविता की ताकत को दर्शाता है।
‘‘....कविता सिर्फ एक कविता नहीं है
कविता है एक विचार.....।’’


                         विचारवान कवि कृष्ण कुमार यादव  विचारों को गति देते हैं। वर्तमान समय में बाज़ारीकरण, उपभोक्तावाद का चित्रण करती कविता, विज्ञापनों के गोरखधंधों की ओर इंगित ही नहीं करती, सच्चाई बताती है। लुप्त होती जा रही हमारी संस्कृति के बीच गौरैया का जिक्र करती कविता कवि की अतिसंवेदनशीलता को दृष्टिगत करती है।
‘‘......आदमी/ ......आदमी के आर-पार
    जमी होती है धूल.....।.’’


                         कवि डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ की इस कविता से ही इस संग्रह का शीर्षक लिया गया है। कवि बताता है कि- ‘‘हर इंसान/अपने बारे में/देता है/सदा ही/यह उलाहना/मुझे आजतक/नहीं समझ सका कोई.....!’’ यह व्यामोह, अहं का प्रदर्शन भी हो सकता है, जो व्यक्ति अपने घर में रहते हुए अपने घर रूपी देह को नहीं पहचान पाया, वो दूसरों को क्या पहचान पायेगा-अतिविचारणीय है। खुद को जानने का भ्रम उसे जीवित तो रखे हुए है, लेकिन सत्य से विमुख होकर आर-पार करना सहज नहीं। जो कर लेता है, निश्चय ही उसने ढाई आखर प्रेम के पढ़ लिये हैं। एक दूसरी कविता ‘रोड लाइट के बोझ तले’ में कवि डॉ. शैलेष ने बाल मज़दूरी का जितनी बेबाकी से बयाँ किया है, उतनी बाल मज़दूरी पर सेमिनारों, सभा-संगोष्ठियों, आदि में भी चर्चा नहीं होती-
‘‘महज एक/दस की नोट के लिए....
किंतु, कैसे उठा लेती है
होकर ज़लील प्रति रोज़
उम्र से भी दूने का बोझ!
क्या पेट की क्षुधा
रोड लाइट से भी भारी है।’’


                         राजस्थान के अक्षय गोजा  की कविताएँ जीवटता, साहस, ख़ुशमिज़ाजी तथा ज़िंदादिली से भरपूर हैं। युवा हस्ताक्षर प्रवीण कुमार श्रीवास्तव  की कविताएँ नयी ज़मीन, नयी संभावनाएँ तो तलाशती ही हैं, साथ ही नयी उम्मीद भी जगाती हैं-‘‘जाने, कब आयेगी वह घड़ी/जब ग्रहण लगेगा/इनके/इस अघोषित अधिकार पर/और/ये सरकारी गिद्ध होंगे/विलुप्तता के कगार पर।’’


                           मध्य प्रदेश के कवि देवेन्द्र कुमार मिश्र  का यायावरी मन विभिन्न विषयों पर कविता लिखकर अपनी सार्थकता सिद्ध करता है-‘‘मैंने सहारा माँगा था/तुम कंधा देने लगे/मरा नहीं हूँ मैं/गलती कर दी हमने/तुमसे सहायता माँगकर.....।’’ इस सिलसिले में श्रवण कुमार पांडेय  की कविता अपना विशेष प्रभाव छोड़ती है-‘‘मुझे जी लेने दिया जाता/तो मेरा ‘आज’/कुछ और ही होता/कुंती जैसा एहसास/मुझे जीना होगा आजीवन/ कर्ण यदि कुंती के पास होता/तो महाभारत का/कथानक कुछ और होता......।’’
                          कवि अरविंद कुमार वर्मा  की पर्यावरण को शब्दांकित करती कविता ‘ठूँठ’ सामाजिक सरोकारों से जुड़कर वर्तमान समाज का जीता-जागता उदाहरण सामने रखती है। इसी की अगली कड़ी में युवा कवि डॉ. ज्ञानेंद्र गौरव  की कविता ‘मील के पत्थर’ उन पत्थरों को भी चलने की प्रेरणा देती है जो हमें अपने अभीष्ट तक पहुँचाने में मदद करते हैं।


                           युवा कवि वसीम अकरम  सिर्फ़ एक कवि नहीं, बल्कि एक शायर, एक लेखक, एक गायक और एक सुधी पत्रकार हैं। समाचार इनकी ज़िंदगी का हिस्सा हैं-उनकी कविता ‘ताज़ा ख़बर’ इसका प्रमाण तो है ही, साथ ही ‘लड़की, कंधा, मरहम, बदनाम गली, भिखारी, शहर-ए-ख़ामोश और बोझ आदि उनकी कविताएँ उनके युवा तेवर से परिचित कराती हैं और समय से साक्षात्कार कराते हुए हमारा ध्यान भी खींचती हैं। गणेश शंकर श्रीवास्तव ‘ऋषि’ ने घर को सजाने-सँवारने-बनाने में नये-नये प्रतीक गढ़े हैं, कारीगरी की है, शब्दों की पच्चीकारी की है-‘‘तभी तो हम तब्दील हो रहे हैं/एक नये कल्चर में......./कार्पोरेट मोहब्बत की ओर।’’


                            संपादक डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ के संपादन में दर्जन भर कवियों की दर्जनों कविताएँ निश्चय ही साहित्य जगत को प्रभावित करेंगी और अपना स्थान भी बनायेंगी। इस संग्रह का समर्पण व आवरण अत्यधिक प्रभावी है, इसका दिल खोलकर स्वागत होना चाहिए।  

समीक्षक सम्पर्क- 
सिंगल स्टोरी, एल. आई. जी.-1, बर्रा-6, कानपुर (उ. प्र.)-27

पुस्तक प्राप्त करने हेतु संपर्क सूत्र 
-   
 डॉ. शैलेष गुप्त‘वीर’
 24/18 राधा नगर फतेहपुर उ0प्र0 212601
 वार्तासूत्र-09839942005, 8574006355 


  email -doctor_shailesh@rediffmail.com


मासिक पत्रिका प्रथम प्रवक्ता से साभार