गुरुवार, 29 जनवरी 2015

मछली : डॉ0 अर्चना रानी वालिया




 














रंग -बिरंगी सुन्दर मछली

नित जल में ही रहती है

जल ही है यह मेरा जीवन

फुदक - फुदक कर कहती है



एक ताल से अन्य ताल तक

सैर सपाटा करती है

अपनी छोटी पूंछ हिलाती

जल में सांसे भरती है



अंदर से वह आंख दिखाती

हाथ लगा डर जाती है

पानी के अंदर ही जाने

कैसे खाना खाती है



कीट पतंगे खा जाती है

गोते खूब लगाती है

अपने सुन्दर खेलों से वह

सबका मन बहलाती है



मैं जल तल की महरानी हूं

जैसे सबसे कहती है

पानी को भी स्वच्छ साफ यह

निशदिन करती रहती है।
संपर्क -

डॉ0 अर्चना रानी वालिया (प्रवक्ता -हिन्दी)

रा0स्ना0 महाविद्यालय कोटद्वार पौड़ी

उत्तराखण्ड



रविवार, 25 जनवरी 2015

देश पुकारता है : उमेश चन्द्र पन्त





उत्तराखण्ड के सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ के चोढीयार गंगोलीहाट नामक गांव में 30 अक्टूबर 1985 को जन्में उमेश चन्द्र पन्त अज़ीब ने अपनी साहित्यिक यात्रा कविताओं से की। इनकी रूचियां -फोटोग्राफी, देशाटन, कवितां, सिक्का.संग्रह, पढना, तबला वादन एवं संगीत में।

 बकौल उमेश चन्द्र - यही कुछ साल भर पहले कविताओं की शुरुआत हुई अनजाने ही कुछ पंक्तियाँ लिखीं तो लगा के मैं भी लिख सकता हूँ बस यूँ ही एक अनजाने सफ़र की शुरुआत हो गई  उम्मीद है यह सफ़र यूँ ही अनवरत चलता रहेगा क्यों कि कुछ सफरों को मंजिलों की तलाश नहीं होती वे सिर्फ सफ़र हुआ करते हैं।

समस्त देशवासियों को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ प्रस्तुत है युवा कवि उमेश चन्द्र पंत की देशभक्ति कविताएं-

उमेश चन्द्र पन्त की कविताएं

देश पुकारता है

उठ जागो , के अब देश पुकारता है
दिशाएं ये गीत गाती तो हैं
उठ तेरे लहू की है अब जरुरत
अंतर्मन से ये आवाज आती तो है

लाऊँगी मैं
सुख का सवेरा
सांझ ये गीत गुगुनाती तो है
और कुछ न सही
तमाम अंधेरों के बीच
उम्मीद की किरणें
जगमगाती तो हैं।

वतन

कर गुजरना है कुछ ग़र
तो जुनूं पैदा कर
हक को लड़ना है
रगों में खूं पैदा कर
वतन की चमक को जो बढ़ाये
तेरी आँखों में ऐसा नूर पैदा कर 
वतन पे कुरबां होना शान है माना
तू बस अरमां पैदा कर
शम्सीर बख़ुदा मिलेगी तुझे तू
तू हाथों में जान पैदा कर
अहले वतन को जरूरत है तेरी
तू हाँ कहने का ईमान पैदा कर 
सीसा नहींए हौसला--पत्थर है उनका
तू साँसों में बस आंच पैदा कर
फ़तह मिलकर रहेगी तुझे 
हौसला पैदा कर
रौंद न पाएंगे तुझे चाह कर भी वे
कुछ ऐसा मंज़र राहों में पैदा कर
होंगे ख़ाक वे , सामने जो आयेंगे
तू सीने में बस , आग पैदा कर।


संपर्क-
ग्राम- चोढीयार
पोस्ट-गंगोलीहाट
जिला-पिथौरागढ़ ;उत्तराखंड
वार्ता सूत्र-09897931538
ईमेल-umeshpant.c@gmail.com
UmeshC.pant@yahoo.co.in

सोमवार, 19 जनवरी 2015

आधी आबादी का सच : प्रेम नंदन





        
                                                       प्रेम नंदन

          25 दिसम्बर 1980 को उत्तर प्रदेश में फतेहपुर जनपद के फरीदपुर नामक गांव में जन्में प्रेमचंद्र नंदन ने लेखन और आजीविका की शुरुआत पत्रकारिता से की । लगभग दो वर्षों तक पत्रकारिता करने और कुछ वर्षों तक इधर-उधर भटकने के उपरांत अध्यापन के साथ-साथ कविताएँ, कहानियाँ, लघुकथाएँ एवं समसामयिक लेखों आदि का लेखन एवं विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन। एक कविता संकलन - सपने जिंदा हैं अभी , 2005 में प्रकाशित ।

      मेरे कवि मित्रों में से एक प्रेमचंद्र नंदन ने ये कविताएं अरसा पहले भेंज दिया था। फिलहाल प्रस्तुत है यहां उनकी ये कविताएं-

आधी आबादी का सच

























मंजिलें तो सदियों से
उनके आधीन हैं
बहुत पहले से
रास्तों पर उनका ही कब्जा है
इधर कई वर्षों से
उनकी गिद्ध नजरें
हमारे सपनों पर टिकी हैं।

वे चाहते हैं
कि हमारे कदम
उनकी बनाई परिधि से
बाहर न निकलें
और यदि निकलें
तो फिर उनके निशान तक ढूढ़े न मिले।
उन्हें पता नहीं क्यों
हमारी ऑंखों की चमक में
कड़कती हुई बिजली
या तलवार की धार दिखाई देती है
इसलिए वे हमको
डुबोये रखना चाहते हैं ऑसुओं में ।

हमारी खिलखिलाहटों में
न जाने क्यों
सुनाई पड़ता है उन्हें
अपनी पराजय का शंखनाद
इसलिए वे
सिल देना चाहते हैं
हमारे होंठ।
हम अपनी जरूरत जाहिर करते हैं
तो उन्हें लगता है
कि हम उनके साम्राज्य की
कुंजी मॉंग रहें हैं उनसे
इसीलिए वे कदम दर कदम देते रहते हैं चेतावनी
हमें अपनी सीमा में रहने की ।

हमारे कदमों की सधी हुई चाल से
उन्हें अपना पुरूषवादी वर्चश्व
ढहता नजर आता है
इसलिए वे
नई-नई तरकीबों से
हमारे रास्तों और कदमों को
अवरोधित करते रहते हैं हमेशा।

हमारी आधी आबादी होने के बावजूद
वे कुंडली मारे बैठे हैं हमारे अस्तित्व पर
गोया वे दुर्योधन हैं
जो हमारे सपनों और इच्छाओं को
फलने-फूलने के लिए
कहीं भी
सुई की नोंक के बराबर भी
जगह देने को तैयार नहीं हैं।

 जो खुश दिखता है

जो खुश दिखता है
जरूरी नहीं,
कि वह खुश हो ही ;
खुशी ओढ़ी भी तो जा सकती है
ठीक वैसे ही
जैसे अपने देश के
करोड़ों भूखे , नंगे लोग
पेट की आग बुझाने की असफल कोशिश में
जिंदगी की चक्की में
पिसे जा रहें हैं
फिर भी  खुशी से
जिए जा रहे हैं !

अभाव और दुःखों के
गहन अंधकार में
सुख और साधनों की
एक  क्षीण-सी लौ का भी सहारा नहीं है
उनके जीवन में
फिर भी
करोड़ों पथराई ऑंखों में
ऑंसुओं को बेदखल करते हुए
न जाने कौन से
सुनहरे भविष्य के सपने तैर रहे हैं
जिन्हें पाने की मृग-मरीचिका में
वे घिसटते हुए दौड़ रहे हैं
सिसकते हुए हॅंस रहे हैं
और मरते हुए जी रहे हैं ।

जवानी में ही झुर्रियों भरे
असंख्य दयनीय चेहरों पर
चिपकी हुई बेजान मुस्कुराहटें देखकर
मेरा यह विश्वास लगातार गहराता जा रहा है
कि जो खुश दिखता है
जरूरी नहीं ,
कि वह खुश हो ही ;
खुशी ओढ़ी भी तो जा सकती है !

 संपर्क-
उत्तरी शकुननगर,
सिविल लाइन्स ,फतेहपुर,0प्र0
मो0 & 9336453835
bZesy&premnandan@yahoo.in

शनिवार, 10 जनवरी 2015

हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएं-


 


                                          हरीश चन्द्र पाण्डे 

थर्मस

बाहर मौसम दरोगा सा
कभी आंधियां कभी बौछारें
कभी शीत की मार कभी ताप की
अपनी शर्तों पर सभी कुछ

सभी कुछ झेल रही हैं बाहर की दीवारें
कुछ भी पता नहीं हैं भीतर की दीवारों को
भीतर कांच की सतह पर गर्म दूध
हिलोरे ले रहा है
एक दिव्यलोक जहां
ऊष्मा बांट ली जाती है भीतर ही भीतर

बाहर का हाहाकार नहीं पहुंच पाता भीतर
भीतर का सुकून बाहर नहीं झांकता

एक छत के नीचे की दो दीवारें हैं ये
जिनके बीच रचा गया है एक वैकुअम
बहुत बड़े वैकुअम का अंश है यह
संवाद के बीच पड़ी एक फांक है

इन्कार का एक टुकड़ा है।

हम मारेंगे

ज्ञान में बढ़ोगी
तो मनोविज्ञान से मारेंगे
मनोबल में बढ़ोगी
तो बल से मारेंगे
अस्त्र से बढ़ोगी
तो शस्त्र से मारेंगे
 

यहां मारेंगे वहां मारेंगे
कहां कहां नहीं मारेंगे
सभी जगहों सभी कालों सभी धर्मों में मारेंगे
ढंके चेहरे में मारेंगे
चीर हटाकर मारेंगे
रच लो तुम अपनी आजादी
बराबरी व उड़ने के सपने
किस किस दिशा किस किस गुफा में 
जाओगी बचाने अपने को
हम कोख के भीतर जाकर तुम्हें  मारेंगे।














आवास- -114, गोविन्दपुर कालोनी, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश,
            मोबाइल- 09455623176

गुरुवार, 1 जनवरी 2015

उनके लिए समान है,नया-पुराना साल: पीयूष कुमार द्विवेदी 'पूतू'








                                                                    पीयूष कुमार द्विवेदी 'पूतू'




दोहे
चौराहे पर खिंच रहा,अब पंचाली चीर।
  खुद में मोहन मस्त हैं,किसे सुनाए पीर॥

मिले किसी को दूध ना,कोई चाभे खीर।
देख-देख दिल रो रहा,किसे सुनाए पीर॥

मेरा मन घायल हुआ,खा नैनों के तीर।
दिल का खोया चैन सब,किसे सुनाए पीर॥

ए.सी.में रहने लगे,जितने रहे फकीर।
निर्धन मरते भूख से,किसे सुनाए पीर॥

दुखिया हैं माता-पिता,मनवा बड़ा अधीर।
  किया सुतों ने जो अलग,किसे सुनाए पीर॥

कौन यहाँ सुनता भला,रहा नहीं मन धीर।  
सबने मुझको है ठगा,किए सुनाए पीर॥

बेटी पढ़ती इसलिए,होवे ताकि विवाह।
 पढ़ सुत पावे नौकरी,सारे घर की चाह॥

बेटी मारेँ गर्भ में,और पूजते शक्ति।
'पूतू' कैसा धर्म है,कैसी है यह भक्ति॥


मुझे न मारेँ गर्भ में,बेटी करे पुकार।  
मेरी क्षमता को ज़रा,करे आप स्वीकार॥

उनके लिए समान है,नया-पुराना साल।
 जो खाते रोटी-नमक,मिले न जिनको दाल॥




संप्रति- अध्यापनरत जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग 
            विश्वविद्यालय चित्रकूट में।  
संपर्क-   ग्राम-टीसी,पोस्ट-हसवा,जिला-फतेहपुर 

               (उत्तर प्रदेश)-212645 मो.-08604112963 
            ई.मेल-putupiyush@gmail.com