सोमवार, 31 अगस्त 2015

लव-जिहाद जैसा कुछ नहीं... अनवर सुहैल







       अनवर सुहैल का समकालीन रचनाकारों में महत्वपूर्ण स्थान है। इनकी लेखनी को कविता, कहानी ,उपन्यास आदि विधाओं में एकाधिकार प्राप्त है। इस वर्ष इन्हें मध्य प्रदेश सरकार का प्रतिष्ठित वागीश्वरी पुरस्कार भी प्रदान किया गया है। इनकी कहानी को पढ़ने के बाद कई मिथक टूटते से नजर आ रहे हैं। तो प्रस्तुत है इनकी कहानी -लव-जिहाद जैसा कुछ नहीं...








      रूखसाना से इस तरह मुलाकात होगी, मुझे मालूम न था.चाय लेकर जो युवती आई वह रूखसाना थी. जैसे ही हमारी नज़रें मिलीं...हम बुत से बन गए. बिलकुल अवाक् सा मैं उसे देखता रहा. एकबारगी लगा कि खाला क्या सोचेंगी कि उनके घर की स्त्री को मैं इस तरह चित्रलिखित सा क्यों देख रहा हूँ?खाला सामने बैठी हुई थीं.खाला ने मुझे इस तरह देखा तो बताने लगीं--अच्छा तो तुम इसे जानते हो...ये रुखसाना है, गुलजार की बीवी.  अल्लाह का फ़ज़ल है कि बड़ी खिदमतगार है. दिन-रात सभी की खिदमत करती है. तुम्हारे गाँव की तो है ये. अपने इनायत मास्साब की लड़की.’’


      मैंने उन्हें बताया—“इनके अब्बू ने हमें पढ़ाया है खाला...मैं तो इनकी घर ट्यूशन पढने जाया करता था..!और इनायत मास्साब का वजूद मेरे ज़ेहन में हाज़िर हो गया.हमारे प्रायमरी स्कूल के शिक्षक इनायत मास्साब.नाम से बड़ा रवायती तसव्वुर उभरता है, लेकिन इनायत मास्साब बड़े माडर्न दीखते थे. क्लीन-शेव्ड रहते और अमूमन ग्रे पेंट और सफ़ेद शर्ट पहना करते. ठण्ड के दिनों में वे इस ड्रेस पर एक ग्रे कोट डाल लिया करते. बड़े स्मार्ट-लूकिंग थे मास्साब.उनकी तीन लड़कियां थीं.बड़ी का नाम उसे याद नही क्योंकि वो ससुराल जा चुकी थी, दूसरी का नाम शबाना था और सबसे छोटी रुखसाना...शबाना स्थानीय गर्ल्स कालेज में पढ़ती थी.रुखसाना और मैं एक ही कक्षा के विद्यार्थी थे लेकिन स्कूल अलग-अलग था हमारा.

      मैं गणित में काफी कमज़ोर था, सो अब्बा मुझे गणित पढ़ने के लिए इनायत मास्साब के घर भेजा करते थे.मुझे गणित विषय अच्छा नही लगता था लेकिन मेरी रूचि गणित के बहाने रुखसाना में ज्यादा थी.जब मैं उनके घर पहुंचता तब दरवाज़ा रूखसाना ही खोलती और फुर्र से अंदर भाग जाती इस आवाज़ के साथ--अब्बू, पढने वाले आ गए!


     उसने कभी ये नहीं कहा कि शरीफ आया है...ट्यूशन पढ़ने. पता नही क्यों वो मेरा नाम न लेती थी...बहुत खतरनाक टीचर थे इनायत मास्साब, जो भी चेप्टर समझाते इस ताईद के साथ कि न समझ आया हो तो पढाते समय पूछ लो. एक बार नहीं दस बार पूछो...हर बार समझायेंगे वे..लेकिन इसके बाद यदि सवाल नहीं बना तो फिर बेंत की मार खानी होगी. वे बेंत इस तरह चलाते की हथेली लाल हो जाती और चेहरा रुआंसा.एक और खासियत थी उनकी. सवाल का जवाब नहीं लिखाते थे. बच्चों को जवाब लिखने को प्रेरित करते. वे कहते कि दिखाओ कैसे कोशिश की सवाल का जवाब पाने की.बड़े ध्यान से बच्चों के जवाब देखते और बताते कि सवाल हल करने का तरीका कितनी दूर तक ठीक था और कहां से रास्ता भटक गया है. यह भी कहा करते कि गणित में सबसे महत्वपूर्ण बात होती है सवाल को समझना. यदि सवाल सही न समझा गया तो कितना बड़ा फन्नेखां हो सवाल हल नहीं कर पाएगा. इसलिए अव्वल बात ये कि सवाल भले से याद हो फिर भी जवाब लिखने से पूर्व सवाल को अच्छी तरह पढ़ा और समझा जाए. हम बच्चे उनकी इस शिक्षा को जीवन के हर स्तर पर खरा उतरता पाते.

      मेरे हिसाब से बच्चे उस शिक्षक की ज्यादा कद्र करते हैं और उससे डरते भी हैं जिसके बारे में उनके बाल-मन में यकीन हो जाए कि ये शिक्षक विलक्षण ज्ञानी है. कहीं से भी पूछो और कितना कठिन प्रश्न पूछो चुटकी बजाते हल कर दिया करते थे. मुझे उनमे एक रोल-मॉडल दीखता...मैं भी बड़ा होकर उन्ही की तरह का ज्ञानी-शिक्षक बनने के ख़्वाब देखने लगा था.ठीक इसके उलट बच्चे उन शिक्षकों का मज़ाक उड़ाते, जिनके बारे में जान जाते कि इस ढोल में बड़ी पोल है.उनमे हिंदी के अध्यापक का नाम सबसे ऊपर था.वैसे भी विज्ञान के बच्चे हिंदी के शिक्षकों का मज़ाक उड़ाया करते हैं.हिंदी के अध्यापक उर्फ़ जेपी सरन उर्फ़ उजड़े-चमन….


          मुझे नही मालूम लेकिन ये बात कितनी सही है कि हिंदी का अध्यापक कवि ज़रूर होता है.कवि भीऐरागैरा नही. तुलसीदास से कुछ कम और निराला से कुछ ज्यादा.उनकी बात माने तो कविता वही है जैसी जेपी सरन उर्फ़ उजड़ेचमन लिखते हैं.बच्चे उनकी इतनी हूटिंग करते लेकिन वाह रे सर की मासूमियत, वे समझते की उन्हें दाद मिल रही है.इनायत मास्साब को हम सर भी कह सकते थे, लेकिन नगर के उम्रदराज़ शिक्षक थे इनायत मास्साब.जब शिक्षकों को गुरूजी कहा जाता था उस वक्त भी उन्हें मास्साब का लकब मिला हुआ था.जाने कितने लेखको की गणित की किताबों का अध्ययन उन्होंने किया हुआ था.

        हम तो सोचा करते कि इनायत मास्साब खुद ही  सवाल  बना लिया करते हैं.काहे कि अपनी देखी भाली किसी किताब में वैसे सवाल नही मिलते थे.इनायतमास्साब मुझे पसंद करते थे क्योंकि मैं सवाल हल करने का वास्तव में प्रयास करता था. मेरी कापी के पन्ने इस बात के गवाह हुआ करते.इनायत मास्साब के ट्यूशन ने गणित को मेरे लिए खेल बना दिया था...

        वे कहा करते...मैथेमेटिक्स एक ट्रिक होती है. जिसे महारत मिल जाए उसकी बाधाएं दूर...जब मास्साब ट्यूशन पढ़ाते उस दरमियान एक बार रूखसाना पानी का गिलास लेकर आती थी.वैसे भी किशोरावस्था में किसी को कोई भी लड़की अच्छी लग सकती थी. लेकिन रूखसाना इसलिए भी अच्छी लगती थी कि उसे मैं काफी करीब से देख सकता था. वह दरवाज़ा खोलती थी. अपने पिता के लिए पानी का गिलास लाती थी.

       ईद के मौके पर मुझे भी सेवईयां मिल जातीं. उनके घर की शबे-बरात के  समय सूजी और चने की कतलियां तो बाकमाल हुआ करतीं थीं, क्यूंकि उन कतलियों में  रूखसाना का स्पर्श भी छुपा होता था.वह ज़माना ऐसे ही इकतरफा इश्क या इश्क की कोशिशों का हुआ करता था.तब मोबाईल, फेसबुक या व्हाटसएप नहीं था. मिस-काल या साइलेंस मोड की सवारी कर प्यार परवान नहीं चढ़ा करता था.चिट्ठियां लिखी जाएं तो पकड़े जाने का डर था.और यदि लड़की चिट्ठी अपने पिता या भाई को दिखला दे या कि चिट्ठियां ओपन हो जाएं तो फिर शायद कयामत हो जाए...ऐसे दुःस्वप्न की कल्पना से रोम-रोम सिहर उठे.

     कुछ बद्तमीज़ लड़के थे जो जाने कैसे पिटने की हद तक जलील होकर इश्क करते थे और राज़ खुलने पर खूब ठुंकते भी थे.इस तरह मैं यह फ़ख्र से कह सकता हूं कि रूखसाना मेरा पहला इकतरफा प्यार थी.बड़ा अजीब जमाना था. बात न चीत, सिर्फ देखा-दाखी से ही सपनों में दखल मिल जाता.इस रुखसाना ने मेरे ख़्वाबों में बरसों डेरा डाला था.कभी देखता कि पानी बरस रहा है,मैं छतरी लेकर घर लौट रहा हूँ.रुखसाना किसी मकान के शेड पर बारिश रुकने का इंतज़ार कर रही है और फिर मुझे देख  मेरी ओर बढती है. मैं उसे इस तरह छतरी ओढाता हूँ  कि  वह  न  भीगे... भले  से  मैं  भीग  जाऊं. कभी  ख़्वाब  में  वह  मेरे  घर  आकर  मेरी  बहनों के साथ लुकाछिपी खेलती होती और मुझे घर में देख अचानक अदृश्य हो जाती.आह,वो ख्वाबों के दिन...किताबों के दिन...सवालों की रातें...जवाबों के दिनवही मेरे सपनो वाली रुखसाना इस रूप में मेरे सामने थी और मैं चित्र-लिखित



    कुछ साल बाद मैं बाहर पढ़ने चला गया.अपने कस्बे में अब कम ही आ पाता था.मेरे ख्याल से जब मेरा तीसरा सेमेस्टर चल रहा था तभी दोस्तों से पता चला था कि इनायत मास्साब की बेटी रूखसाना की कहीं शादी हो गई है. शादी हो गई तो हो गई. मुझे क्या फर्क पड़ सकता था. मुझे तो शिक्षा पूर्ण कर अच्छे प्लेसमेंट का प्रयास करना था. उसके बाद ही शादी के बारे में सोचता. घर से कोई दबाव नहीं था. अब्बू चाहते हैं कि मैं अभी प्लेसमेंट के बारे में न सोचूं और पीजी करूं. पीएचडी करूं. फिर किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर लग जाऊं.


     अब्बू का मानना है कि दुनिया में प्रोफेसर या शिक्षक से बढ़कर कोई नौकरी या काम नहीं है. कितनी इज़्ज़त मिलती है प्रोफेसरों को. जिन बच्चों को पढ़ाओ, एक तरीके से वे मुरीद बन जाते हैं....पीरों-फकीरों वाला पेशा है प्रोफेसरी. मुझे भी यही लगता कि मेहनत इस तरह की जाए कि मां-बाप  के ख़्वाब भी पूरे हों और भविष्य भी सुनिश्चित रहे.शिक्षक, वकील  या डॉक्टर कभी रिटायर नही होता...ताउम्र उनकी सेवायें ली जा सकती हैं.बुजुर्गों की दुआओं से वही हुआ और मैंने पीएचडी की, अन्य  अर्हताएं  प्राप्त  कीं  और  एक  मानद  विश्वविद्यालय में  सहायक प्राध्यापक बन गया.बाल-बच्चेदार  हो  गया... दुनियादार  हो  गया...समझदार हो गया...लेकिन दिल के कोने में एक बच्चा,एक किशोर,एक युवक हमेशा उत्सुकता से छिपा बैठा रहा. यही मेरी प्रेरणा है और यही मेरी ताकत.


      मैं अपनी खाला से मिलने काफी अरसे बाद आया था.अनूपपुर में बस-स्टेंड से लगा है खाला का घर. अम्मी के इंतेकाल के वक्त खाला मिलने आई थीं. लगभग दस साल बाद उन्हें देखा था. आसमानी रंग का सलवार-सूट पहने थीं वो जिस पर सफेद चादर से बदन ढांप रखा था उन्होंने. हमारे खानदान में बुरके का चलन नहीं है. मेरी अम्मी भी बुरका नहीं पहनती थीं. जिसे बुरा लगे या भला, मुझे बुर्के का काला रंग एकदम पसंद नही. जाने  कब  और  कहाँ  बुर्के  के  इस  प्रारूप का चलन शुरू हुआ...आजकल शहरों में लडकियां कितनी खूबसूरती से चेहरा ढाँपती हैं. एक  से  बढ़कर  एक  सुन्दर  से  स्कार्फ  मिलते  हैं. डिज़ाइनर-स्कार्फ. जिनसे चेहरा छुपता  तो  बखूबी  छुपता  है  लेकिन  लडकियाँ बुर्केवालियों  की  तरह  अजूबा  नही  दीखतींमेरा  उद्देश्य बुर्के  की  बुराई  करना  नही  है, लेकिन  खाला  के  घर  में  रुखसाना  को देख विचार यूँ ही भटकने लगे थे.


     मुझे अच्छी तरह मालुम था कि खाला के बेटे गुलज़ार भाई की शादी तो बहुत पहले खाला की रिश्तेदारी में ही कहीं हुई थी. फिर गुलज़ार  भाई  के पहले  बच्चे को जन्म  देने की बाद लम्बी   बीमारी के  बाद वह चल बसी थी. गुलज़ार   भाई  उसके  बाद दुकानदारी  और तबलीग  जमात के  काम किया  करते थे. एक   बार  हमारे  शहर  में  गुलज़ार  भाई आये थे एक तबलीगी जमात के साथ. शायद  चिल्ला  (चालीस दिन) का  इबादती   सफ़र  था. मैं  जुमा  की  नमाज़  के  लिए  वक्त   निकाल  ही  लेता  हूँ. जुमा के  जुमा  मुसलमानी का नवीनीकरण  करता रहता हूँ.मोहल्ले की मस्जिद में मासिक  चन्दा  भी  देता  हूँ. मस्जिद के इमाम,सदर-सेक्रेटरी  और  अन्य  नमाज़ी  मुझे  काफी  अदब से देखते हैं. मेरा  आदर  करते  हैं. विश्वविद्यालय  में  प्रोफेसर  होने के अलग फायदे हैं.समाज के हर तबके से  आदर मिलता है.


            तो गुलज़ार भाई ने फोन किया था कि तुम्हारे शहर में तबलीग के सिलसिले में आ रहा हूँ.इसमें जमात  छोड़ कहीं घूमने-फिरने की आज़ादी नही होती. इसलिए  संभव  हो  तो  मस्जिद  में  आकर  मिलो. जुमा  की  नमाज़  से  फारिग  होकर  हम  मिले. अजीबो गरीब  दीख  रहे  थे  गुलज़ार  भाई. पहले  कितने  हैंडसम  हुआ  करते थे वो...जींस और टी-शर्ट के  शौक़ीन... लेकिन  उस  दिन  मैं  उन्हें पहचान नही पाया...मेहँदी रची दाढ़ी, माथे पर काला निशान, गोल टोपी, लम्बा  सा  कुरता  और  उठंगा पैजामा….


          मैं हतप्रभ रह गया.वैसे मुसलमानों की ये परम्परागत पोशाक है.लेकिन अपने गुलज़ार भाई इस मुद्रा में मिलेंगे ऎसी उम्मीद नही थी. मुझे हंसी आई. गुलज़ार  भाई  गंभीर  दिखे  और  मुझसे  हाल-चाल  पूछने की जगह दुनियादारी त्याग कर समय रहते दीन के राह में  चलने  की  दावत देने लगे. तबलीग  जमात  में  लोगों  को  यात्रा  में  निकलने  की  गुजारिश करने को दावत देना' कहते  हैं. ये  प्रत्येक  तबलीगी  का  काम है कि वो मुसलमानों को दीन और  धर्म  का  पालन  करने  की दावत दें.उनसे घर छोड़ कर दीन की  राह  में  निकल  पड़ने  का  आग्रह  करें  और  गुमराही  में  भटकने  से बचा लें.तब  लीग  जमात  का  काम  सारी  दुनिया  में  ज़ारी  है. गुलज़ार  भाई  जैसे  धर्मप्रेमी  लोग  अपने जीवन में रसूल की सुन्नतें लाने के लिए...अपना आखिरत (परलोक)संवारने के लिए  तबलीग में दस या चालीस दिन के लिए घर छोड़ कर विभिन्न कस्बों-शहरों  की  मस्जिदों  में  कयाम  करते  हैं. सादा  जीवन,सादा भोजन और इबादतें करते रहते हैं. एक  चिल्ला  काटने  के  बाद  उनकी  दुनियावी  आदतों  में  दीन  ऐसा  पेवस्त  हो  जाता  है  कि  एक  तरह  से  उनका कायाकल्प  हो जाता है.   न  जाने  मुझे  क्यों  इन  तबलीगी  लोगों से चिढ होती है.घर-बार  छोड़  कर  इस्लामी जीवन पद्धति  सीखना  मुझे  पसंद  नही. दुनिया  की  रोज़मर्रा  की  उलझनों  के  बीच  रहकर  दीन पर  कायम  रहना  ज्यादाकठिन है.



       खैर...पत्नी के निधन के बाद इंसान में ऐसी तब्दीली आती होगी ऐसा मैंने  सोचा  था.मैंने  गुलज़ार  भाई  की  बातें  ध्यान  से  सुनी  थीं  और  हस्बे- मामूल  उन्हें यही जवाब दिया--इंशा-अल्लाहपहली फुर्सत  में एक  चिल्ला  मैं भी काटूँगा...अभी नौकरी नई है भाई साहेबथोड़ी मुहलत दें!


     बात आई-गई हुई. गुलज़ार भाई  से फिर  मेरी मुलाकात नही  हुई. आज  जब  खाला के घर में हूँ. रुखसाना  मेरे  सामने  है  तो  जाने  कितने  खयाल आ-जा  रहे  हैं. खाला  ने  मुझे  उस  दिन  जाने  न  दिया.मैं रुक गया.शाम की चाय खाला के साथ पी.फिर खाला पड़ोस में एक जनाना मीलाद में चली गईं.रुखसाना और मैं अकेले रह गये.इधर-उधर की बातें हुईं फिर मेरी जिज्ञासा ने जोर मारा और हम मुद्दे पर आ गए. रुखसाना  ने  झिझकते  हुए  जो  किस्सा  बताया  उसे  सुन  मेरे  होश  उड़  गए.ये रुखसाना की दूसरी शादी है.


     रुखसाना की पहली  शादी जिस युवक से हुईवो  अपने  पडोस  की  एक  हिन्दू  लडकी  से  प्यार  करता  था. युवक  ने घर  वालों  के  दबाव  में  आकर  रुखसाना  से  निकाह  तो  पढवा  लिया  था, लेकिन  उस  हिन्दू  लडकी से  अपना  संपर्क  नही  तोड़ा  था. और  एक  दिन  नगर  में  खबर  फ़ैल  गई  की  रुखसाना  का  शौहर  उस  हिन्दू  लडकी  को  लेकर  कहीं भाग गया है.नगर में हिन्दू मुस्लिम  फसाद  के  आसार  हो  गए. लडकी का परिवार नगर के संपन्न लोगों का था. बड़े  रसूख  वाले  लोग  थे वे लोग.

      रुखसाना के शौहर के खिलाफ लड़की भगा ले जाने का अपराध पंजीबद्ध हुआ.नगर के कई संगठन इस घटना से तिलमिलाए हुए थे. शुक्र है तब लव-जिहाद' शब्द उस कस्बे में नही पहुंचा था. हाँ, कुछ सिरफिरे ज़रूर इस केस को हवा देना चाह रहे थे. उनका मानना था कि मुसलमान लडकों में गर्मी ज्यादा होती है, तभी तो वे उंच-नीच नहीं देखते और ऐसी हरकतें कर बैठते हैं कि उन लोगों की ठुकाई का मन करता है.

     रुखसाना ने बताया कि ऐसे हालात बन गये थे कि यदि कोई भी पक्ष थोडा सा भी तनता तो फिर उस आग में सब कुछ जल कर भस्म हो जाता.खुदा का शुक्र था कि दोनों तरफ समझदार लोगों की संख्या अधिक थी. फिर  भी  कई  दिनों  तक  दोनों  पक्षों  में  तनातनी  बनी रही. दोनों  समुदाय  के  रसूखदार  लोगों  के  बीच  नगर  में  पंचायत  हुई. अब सुनते हैं की वे लोग घर से भागकर सूरत चले गये थे. युवक वहां किसी फैकट्री में काम करने लगा और दोनों सुकून से  दाम्पत्य  जीवन गुज़ार रहे हैं.और जो भी हुआ हो उसके आगे...लेकिन रुखसाना अपने मायके वापस आ गई.इनायत मास्साब ने रुखसाना के लिए आनन्-फानन रिश्ते खोजने लगे.



             उसी समय गुलज़ार भाई की बीवी का इन्तेकाल हुआ था. गुलज़ार  भाई  की  पहली बीवी  से  पैदा  संतान  अब  स्कूल  जाने  लगी  है. लेकिन  उस  समय  तो खाला को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा  था. ऐसे  में  मेरी  अम्मी  ने  खाला  से  रुखसाना  प्रसंग  पर  बात  की. रुखसाना  को  देखने  खाला आई थीं और उन्होंने रुखसाना को गुलज़ार भाई के बारे में, अपनी मृतक बहु के बारे  में और गुलज़ार भाई  की  नन्ही  सी  औलाद  के  बारे  में साफ़-साफ़ बता दिया था.


       रुखसाना शादी-ब्याह के मसले से उकता चुकी थी.इस नए रिश्ते के लिए मानसिक रूप से वह तैयार नही हो पा रही थी.वह घबरा रही थी, लेकिन फिर इनायत मास्साब की बुजुर्गियत, मोहल्ले  की  बतकहियाँ  आदि  ने उसे एक नया फैसला लेने दिया.और घुमा-फिरा कर रुखसाना का निकाह एक सादे समारोह में गुलज़ार भाई से हो गया.


        हम बहुत देर तक खामोश बैठे रहे और बेदर्द समय की हकीकत को महसूस करते रहे......


सम्पर्क:  टाईप 4/3, ऑफीसर्स कॉलोनी, बिजुरी
          जिला अनूपपुर .प्र.484440 

        फोन 09907978108

बुधवार, 26 अगस्त 2015

कविताओं के अंतर्गत पढ़ें कुमार विक्रम, आरसी चौहान, धीरज श्रीवास्तव, शरद आलोक और रवींद्र स्वप्निल प्रजापति की कविताएँ।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

        

 

 

 

 

 

                                                                                                                                                                                                                                                                                           आरसी चौहान

 

       इस पखवारे_साठोत्तरी पीढ़ी के प्रमुख कथाकार महेंद्र भल्ला का पिछले दिनों निधन हो गया। एक तरल बहती हुई भाषा में बेहद अंडरटोन में लिखी गई उनकी कहानियाँ हों या कि एक पति के नोट्स जैसा चर्चित उपन्यास हो उन्हें पढ़ना हमेशा एक शानदार अनुभव रहा। ‘एक पति के नोट्स’ उनकी सबसे चर्चित कृति जरूर रही पर इसका एक बड़ा खामियाजा यह हुआ कि इस सब के नीचे प्रवासी स्थितियों पर उनकी उपन्यास त्रयी ‘उड़ने से पेश्तर’, ‘दूसरी तरफ’ तथा ‘दो देश और तीसरी उदासी’ जैसे बेहद महत्वपूर्ण रचनात्मक काम पर कभी कोई चर्चा ही नहीं हुई। इस बार हिंदी समय (http://www.hindisamay.com) पर प्रस्तुत हैं उनकी पाँच कहानियाँ - आगे, बदरंग, कुत्तेगीरी, तीन चार दिन और पुल की परछाईं।



मित्रवर
Hind Samay <mgahv@hindisamay.in>
साठोत्तरी पीढ़ी के प्रमुख कथाकार महेंद्र भल्ला का पिछले दिनों निधन हो गया। एक तरल बहती हुई भाषा में बेहद अंडरटोन में लिखी गई उनकी कहानियाँ हों या कि एक पति के नोट्स जैसा चर्चित उपन्यास हो उन्हें पढ़ना हमेशा एक शानदार अनुभव रहा। 'एक पति के नोट्स' उनकी सबसे चर्चित कृति जरूर रही पर इसका एक बड़ा खामियाजा यह हुआ कि इस सब के नीचे प्रवासी स्थितियों पर उनकी उपन्यास त्रयी 'उड़ने से पेश्तर''दूसरी तरफ' तथा 'दो देश और तीसरी उदासी' जैसे बेहद महत्वपूर्ण रचनात्मक काम पर कभी कोई चर्चा ही नहीं हुई। इस बार हिंदी समय (http://www.hindisamay.com) पर प्रस्तुत हैं उनकी पाँच कहानियाँ - आगेबदरंगकुत्तेगीरीतीन चार दिन और पुल की परछाईं। कभी देवीशंकर अवस्थी ने लिखा था कि उनके 'यहाँ वस्तुतः कहानी के माध्यम से यथार्थ की खोज है - खोज तो गहन प्रश्नाकुलता से संबंधित है। यह भी कहना चाहूँगा कि सचाई की खोज एक श्रेष्ठतर कलाशिल्प की खोज भी है। दोनों वस्तुतः एक ही हैं। जिस मानवीय समस्या को उठाया जाता है उसी के अनुरूप कलाशिल्प को भी होना चाहिए। महेंद्र भल्ला ने इस शिल्प की खोज की चेष्टा की है और दूर तक इसमें सफल भी हुए हैं।' 

गाब्रिएल गार्सिया मार्केज विश्व के महानतम लेखकों में शुमार किए जाते हैं। दूसरी तरफ क्यूबा के लोकप्रिय क्रांतिकारी नेता फिदल कास्त्रो भी कम चर्चा में नहीं रहे हैं। यहाँ पढ़ें मार्खेज का फिदल कास्त्रो पर लिखा गया रेखाचित्र फिदल कास्त्रो। अनुवाद किया है चर्चित कवि-पत्रकार शिवप्रसाद जोशी ने। संस्मरण के अंतर्गत पढ़ें चर्चित कथाकार अखिलेश का संस्मरणभूगोल की कला। चर्चित आलोचक मदन सोनी ने हिंदी उपन्यास का एक बहसतलब जायजा हिंदी उपन्यास की अल्पता पर कुछ ऊहापोह शीर्षक से किया है तो मीराँ साहित्य के गंभीर अध्येता माधव हाड़ा मीराँ के संदर्भ में एक नई दृष्टि लेकर आए हैं मीराँ का कैननाइजेशन में। विशेष के अंतर्गत पढ़ें पल्लवी प्रसाद का बहसतलब आलेख ग़ालिब के गलत अनुवाद। आलोचना के अंतर्गत पढ़ें समकालीन कहानी पर युवा आलोचक राकेश बिहारी के दो आलेख भविष्य के प्रति आश्वस्त करती कहानियाँ और बेचैनी और विद्रोह के बीच एक सामाजिक विमर्श। पुस्तक संस्कृति के अंतर्गत पढ़ें महेश्वर का लेख एक दिन किताबों के लिए भी। सिनेमा के अंतर्गत पढ़ें युवा कथाकार विमल चंद्र पांडेय का आलेख कोई भी सच अंतिम नहीं होता : कानून। और अंत में कविताओं के अंतर्गत पढ़ें कुमार विक्रमआरसी चौहानधीरज श्रीवास्तवशरद आलोक और रवींद्र स्वप्निल प्रजापति की कविताएँ। साथ में जनपदीय हिंदी के अंतर्गत पढ़ें  भोजपुरी के चर्चित कवि प्रकाश उदय की कविताएँ।

मंगलवार, 18 अगस्त 2015

पद्मनाभ गौतम की कविताएं






                             पद्मनाभ गौतम   
        कवि अपने आस पास के परिवेश से बखूबी परिचित है। यही वजह है कि कविताएं यथार्थ के धरातल पर मूर्त रूप लेती चली जाती हैं। और कविता का नया वितान रचते हुए जीवन के संघर्ष और सौंदर्य को एक साथ रेखांकित करती हैं। तो आज पढ़ते हैं पद्मनाभ गौतम की कुछ कविताएं।

1. बैकुण्ठपुर


मेरे प्रिय शहर,

रहना इतने अरसे तक दूर
 
कि भूल जाते तुम मुझे 

और मैं तुमको,

कि इस बीच देखी मैंने दुनिया
 
बहुत-बहुत खूबसूरत/ 

देखा तुमने बदल जाना 

एक पूरी पीढ़ी का

इस बीच बिताए दिन मैंने
 
लोहित, दिबांग, सियोम के तीर पर 

देखा उफनते रावी, सतलज, चनाब को
 
समंदर सी ब्रह्मपुत्र के सैलाब को

देखी कतारें चिनारों की 

चीड़ और दईहारों* की 

बर्फ से अटे पहाड़
 
और मीनाबाज़ार 

भूल-भुलैया ऐसी 

कि भूलना था मुनासिब 

कि भूल जाते तुम मुझे
 
भूल ही जाता मैं भी तुम्हें

मेरे प्यारे शहर

मुमकिन होता भूलना
 
अगर उलीच न जाता कोई 

यादों के झरोखे से 

मेरे चेहरे पर 

गेज का मटियाला पानी,

अधखुली आंखों में यदि उतर न आते 

कठगोड़ी के बौने पहाड़,

और सोनहत के शिव घाट पर 

हमारा मधुचन्द्र भी

अब भी ढांप लेती है मुझको
 
किसी चादर सा

झुमका बांध पर तैरती 

चांद की सुनहली छाया,

झुमका के कंपकपाते पानियों पर 

पसरता है जब चांद का रंग

आ जाते हैं सपनों में अकसर,

चेहरे,

एक रोज बिछड़े थे जो
 
गेज के नदी के घाट पर

और हंसता है खिलखिलाकर 

एक बच्चा
 
रामानुज स्कूल की मीनार से

भटक जाता हूं जब मैं 

चीड़ के गंधहीन जंगलों में,

सरई फूलों की मदमाती गंध 

देती है सदाएं चिरमिरी घाट से

मैं तुमसे मीलों दूर 

और तुम मुझसे 

फिर भी मेरे भीतर बसते हो तुम
 
ओ प्रिय शहर
 
और मेरी रगों से गुजरती है
 
तुम्हारी सड़कें

है परदेस की दुनिया 

तुमसे बहुत-बहुत सुन्दर,

और कुछ नहीं देने को 

दुनियावी तुम्हारे पास,

कि पूरे शहर भी नहीं तुम 

शहर के पैमाने पर,

फिर भी लौट कर आना है 

मुझको वापस एक दिन,

तुम्हारे पास

ओ हरे-नीले पानियों से लबरेज नदियों
 
माफ करना, कि बहुत खूबसूरत हो तुम
 
पर मेरा इश्क तो गेज है

सुनो, कि एक दिन बह जाना है 

मुझको भी सदा के लिए

गेज नदी के प्यार में
 
गेज नदी की धार में।


*दईहार=देवदार

2. पिता

जब तक थे पिता,
परे था कल्पनाओं से 
पिता की अनुपस्थिति में जीवन

पिता की उपस्थिति
तृप्ति नहीं थी इच्छाओं की
या सुरक्षा का आभास
कठिन नहीं होता तब काटना 
एक चैथाई सदी
पितृछाया से दूर

धूप विहीन पूस 
छांव विहीन जेठ
जल विहीन वर्षा
रंग-गंध हीन बसंत
इससे भी कहीं ऊपर था 
पिता के न होने का अर्थ

पिता की याद को धुंधलाते
लौट आए रंग भी त्यौहारों में
दीवाली के दियों में 
रौशन हुई बातियां

बस जीवन की डायरी में
एक चौथाई सदी से
रिक्त है एक स्थान
स्थान जो है पिता के
अंतिम वस्त्र सा श्वेत
स्थान जो भर नहीं पाता
किसी भी रंग की स्याही से

अब भी नहीं 
समझ पाता हूं,
कि क्या खोया हमने
पिता की अनुपस्थिति में
और कितना।
संपर्क-
पद्मनाभ गौतम
बैकुण्ठपुर, जिला-कोरिया
छत्तीसगढ़, पिन-497335
मो.-8170028306


शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

उमा शंकर मिश्र की कहानी : दिल और गम

स्वतंत्रता दिवस की ढेर सारी अग्रीम शुभ कामनाओं के साथ प्रस्तुत है कहानीकार उमा शंकर मिश्र की कहानी : दिल और गम


     कभी कभी गाँव की भटकती हुई पगडंडी भी विकास के रास्ते से जा मिलती है । कभी कभी निरर्थक विचार भी किसी आविष्कार का कारण बन जाते हैं।कभी कभी प्यार के दो पल भी मौत का दामन थाम लेते हैं। इस तरह की विचारधारा सुलेमान के मन मस्तिष्क के झंकृत कर रहा था।आज गाँव में विकास का चौपाल लगाया जा रहा था। सुबह से ही मीडिया और कुछ खरीदे हुए श्रोता गाँव में इधर उधर भटक रहे थे। जिन लोगों को विकास की रूप रेखा तक नहीं मालूम थी । यही आज नये नये कपड़े पहनकर चौपाल के आस पास मंडरा रहे थे।कंक्रीट के जंगलों से आये इन शहरी लोगों को गांव की हरियाली राश तो नहीं आ रही थी लेकिन 6 घंटे का कार्यक्रम करना तो था ही। इसी के लिए तो सरकार से 10 लाख रू0 मिले हैं कुछ कार्य तो दिखाना ही पड़ेगा।

     सरकारी ऑफिसर सूट पहने पहले भाषण देना प्रारम्भ कर दिया । श्रोता गण कम होने के कारण यह स्थानीय युवक से पूछ रहा था कि भीड़ कम क्यों है।उत्तर में गांव  की एक दो निर्धन महिलायें जो खाना खाने के लिए बुलायी गयी थी। उत्तर दिया स्कूल कालेजों की छुटटी यदि हो जाती तो भीड़ में कुछ इजाफा हो जाता ।पुलिस के कुछ कर्मचारी बैठे मुस्करा रहे थे। जितना विपक्ष को खतरा बताया गया था।वह कहीं भी दिख नहीं रहा था।मुख्य नेता जी दोपहर के 2 बजे पधारे बड़ी जोर शोर से नारे लग रहे थे किराये पर आने वाले कार्यकर्ता लिए हुए पैसे के बदले गला फाड़ फाड़ कर चिल्ला रहे थे।

     उधर प्राइमरी स्कूल की अध्यापिका रंजना ने स्कूल न बन्द करने का ऐलान किया।परीक्षा सिर पर है और थोड़ी वाह वाही के लिए बच्चों का  भविष्य चौपट नहीं किया जायेगा।जूनियर हाई स्कूल के अध्यापकों ने हां में हां मिलाया और समर्थन कर दिया।किसी भी चुनाव या चौपाल के लिए शिक्षण संस्थाओं का दुरूप्योग नहीं होने दिया जायेगा।

     मुख्य नेताजी ने अपनी लिस्ट पढ़ा । इस गांव में 3 सरकारी कार्यालय है इस हम लोगों की सरकार ने बनाया है। भीड़ से आवाज आयी सब ढह गया है केवल ऊपर से आज ही चूना लगाया गया है । बिरला सीमेन्ट की बोरी में चूना था हम लोगों ने अपनी आंखो से देखा है नेताजी पेरशान हो गये । दो सरकारी स्कूल हम बनवाने जा रहे हैं। भीड़ से आवाज आयी  उसी स्कूल की बगल में कान्वेन्ट स्कूल चलेगा और वेतन सरकार से लेकर अध्यापक उस प्राइवेट स्कूल में मदद करेगें।यही होता आया है।अगल बगल जाकर देख लें कृपया । आवाज में साक्ष्य था,शक्ति थी,आभार था। अतः जिलाधिकारी जो बहुत देर से तमाशा देख रहे थे जांज का ऐलान किया । नेताजी अपने कार्यकर्ताओं को लेकर चल दिये इस देश के गांव का विकास इसलिए नहीं होता है कि लोग हर काम में अड़चने पैदा करते हैं।

    उधर सूलेमान रंजना की मदद से उच्च न्यायालय में एक रिट दाखिल कर दिया ।उच्च न्यायालय के एक बेन्च ने जांच करने का आदेश दे दिया। जिलाधिकारी का स्थानान्तरण तत्काल कर दिय गया। जांच निष्पक्ष कराने के लिए सरकार को निर्देश दे दिये गये। तथा उस नेता को जिसने गांव में चौपाल लगाया था। उस गांव की तरफ न जाने का निर्देश भी उस आदेश में ही था।

    निष्पक्ष जांच आरम्भ हुई कोर्ट के सख्त रूख के कारण जो नेता गांव में चौपाल लगाये थे। सब जांच के दायरे में आ गये थे। नये जिलाधिकारी इतना घुमावदार निकला कि जांच के परिधि को बढ़ान के लिए कुछ अच्छे नागरिकों से कोर्ट में सप्लीमेन्टरी दाखिल करा दिया। चारों तरफ हाहाकार मचा था। जांच में पिछले 10 साल से चौपाल लगाने में 10 लाख रू0 के दुरूपयोग को पकड़ा गया। जो सड़कें बनायी गयी थीं ।एक भी मौके पर मिली ही नहीं। पगडंडिया जैसे मुह चिढ़ा रही थी।

      मनरेगा में 1 करोड़ ,विधायकी का सारा पैसा,सांसद फंड का सारा धन भ्रष्टाचार की वेदी पर बलिदान किया गया था। जिलाधिकारी गांव के थे । अतः जांच में उनका सहयोग बेमिशाल था। ईमानदारी का जलवा जौ जमीर के सख्त रूख के कारण गुलाम बना हुआ था। आज खुशी का इजहार कर रहा था।

    बेईमानों का दिल जो ईमानदारी को गम दिया था।आज ही गम की परिभाषा को जाना पहचाना और अपने भाग्य को कोसते हुए पुलिस की गाड़ी में बैठ गये।सत्ता की लड़ाई में यह सब होता रहता है।नेताजी अपने आदमियों को समझ रहे थे।नये जिलाधिकारी ने अपने सात दिन के कार्यकाल में गांव की विकास को नजदीक से देखने के लिए दो दिन स्वंय चौपाल लगाने का निर्णय लिया आज
चौपाल के पहले दिन ही जमीन पर बिछी हुई पुरानी दरी पर लोग बैठे थे ।

     नाश्ता में गाँव के जंगली बेर ,कुछ नीबू ,कुछ पपीता आया था।उसे बड़े गाँव के अधिकारी खा रहे थे। उन्हें वह बहुत ही स्वादिष्ट और अच्छे लग रहे थे।दूर दूर तक कहीं जिन्दाबाद के नारे का नामोनिशान ही नहीं था।वातावरण ध्वनि प्रदूषण मुक्त था। पक्षियों की चहचहाहट सबको प्रसन्न कर रही थी दिल में आज गम नहीं था।
सम्पर्क:  उमा शंकर मिश्र
          ऑडिटर श्रम मन्त्रालय
          भारत सरकार
          वाराणसी मोबा0-8005303398

गुरुवार, 6 अगस्त 2015

जब एक प्रेम कविता लिखना चाहता हूँ : मिथिलेश कुमार राय


          

         24 अक्टूबर,1982 0 को बिहार राज्य के सुपौल जिले के छातापुर प्रखण्ड के लालपुर गांव में जन्म। हिंदी साहित्य में स्नातक। सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं व वेब पत्रिकाओं में कविताएं व कहानियाँ प्रकाशित। वागर्थ व साहित्य अमृत की ओर से क्रमशः पद्य व गद्य लेखन के लिए पुरस्कृत। कहानी स्वरटोन पर द इंडियन पोस्ट ग्रेजुएट नाम से वृत्त-चित्र का निर्माण। कुछेक साल पत्रकारिता करने के बाद फिलवक्त ग्रामीण क्षेत्र में अध्यापन।
         
             समकालीन कविता के परिदृश्य में सैकड़ों नाम आवाजाही कर रहे हैं। वरिष्ठ पीढ़ी के बाद युवा पीढ़ी भी काफी हद तक साहित्यिक यात्रा के कई पड़ाव पार कर चुकी है। इनके एक दम पीछे युवतर एवं नवोदित कवि पीढ़ी समकालीन कविता की मशाल उठाए युवा पीढ़ी के दहलीज पर खड़ी है। ऐसे ही एक युवा कवि मिथिलेश कुमार राय हैं।

          ठेठ माटी की गंध लिए सादगी और संवेदनाओं से भरी कविताएं मिथिलेश कुमार राय को हिन्दी साहित्य में एक अलग पहचान दिलाती हैं। इनकी कविताओं की ठेठ देशी गमक ही है कि पाठक मन भौंरे की तरह रस पान करने के लिए अपने आप खींचा चला आता है। बिंबों में गुंथी हुई कविताओं की शब्द पंखुड़ियां जब एक-एक कर खुलती हैं तो भाषा की सादगी नये शिल्प में चमक उठती है। उनकी कविताएं जन सामान्य से सहज संवाद करती हुई आगे बढ़ती हैं जहां कोई छल नहीं , कोई जादू नहीं बस शुद्ध देशीपन के साथ अपनी जगह बना लेती हैं। संभावनाओं से भरे इस कवि की एक कविता जब एक प्रेम कविता लिखना चाहता हूँ  को पोस्ट करते हुए तृप्ति का अनुभव कर रहा हूं। आप सुधीजनों के अमूल्य विचारों की प्रतीक्षा में।


     
जब एक प्रेम कविता लिखना चाहता हूँ

मेरी उम्र अट्ठाईस साल है
और मैं कविताएं लिखता हूँ

अभी-अभी मैंने एक लंबे बालों वाली लड़की से कहा
कि मैं तुम्हें महसूसता रहता हूँ हमेशा
जवाब में उसने
अपनी आँखें नीची कर लीं
 और पैर के अंगूठे से पृथ्वी को
कुरेदते हुए कहा 

कि मैं भी तुम्हें महसूस करती रहती हूँ हमेशा


इसी बात पर मैं एक प्रेम कविता लिखना चाहता हूँ
जिसे पढ़ते हुए लोगों का दिमाग सो जाए
और दिल को ही सारी प्राण-उर्जा मिलने लगे
लेकिन लड़की
जिसका भाई एक ऊँचे ओहदे पर है
और पिता शहर में रसूख रखता है
मुसकुराते-मुसकुराते डर जाती है
रह-रहकर उसकी आँखें
समय के पार देखने लगती हैं
जहाँ से आती हुई मायूसी
 उसके चेहरे को घेरकर 

विकृत कर देती है


तीन साल धूल फांकने के बाद
अभी-अभी मैंने दो टके की नौकरी पकड़ी है
खेतों के मेड़ पर गाते मेरे पिता
पीली पड़ चुकी फसल पर नजर पड़ते ही
गुनगुनाना भूल जाते हैं
और चेहरे को आसमान की ओर उठाकर
पता नहीं क्या देखने लगते हैं

बावजूद इसके
मैं एक प्रेम कविता लिखना चाहता हूँ
 जिसमें लंबे बालोंवाली लड़की की खिलखिलाहट की तरह
जीवन हो

लेकिन इस शहर की एक स्त्री
कल अपने तीन छोटे-छोटे बच्चों के साथ
रेल की पटरी पर सो गईं

इस दिल दहला देनेवाली घटना की पड़ताल
अखबारवाले और जिनके दल की सरकार नहीं है अभी
उसने की तो पता चला 

कि स्त्री का पति
दौड़ने के काबिल नहीं था
वह घिसटकर चलता था
और उसके घर में चिड़िया को चुगाने के लिए
एक भी दाना नहीं था
दाने के बदले स्त्री को किसने क्या कहा
कि उसे गहरी नींद में जाने के अलावे 

कुछ सूझा ही नहीं


बावजूद इसके
मेरे मन में 

वह जो एक प्रेम कविता कुलबुला रही है
जो एक खिलते हुए फूल को देखकर आई थी
मैं उसे लिख लेना चाहता हूँ
लेकिन मुझे पता चलता है कि
इलाके के एक गाँव के खेत में
एक चौदह साल की बच्ची की
लाश मिली है
और पोस्टमार्टम की रिपोर्ट में चिकित्सक ने लिखा है 

कि मरने से पहले बच्ची के मुँह से
 हजार बार चीत्कार निकली थी


लंबे बालोंवाली लड़की कहती है 

कि वह प्रेम कविता
जिसे लिखने के लिए मैं
अधीर हूँ

मुझे बहुत इंतजार करना पड़ेगा
वह अपनी उदास आँखों से
यह भी कहती है कि
ऐसा भी हो सकता है 

कि तुम मर जाओ
और तब भी तुम्हारा इंतजार खत्म न हो


 रौशनी में सजा मुकर्रर होती थी

होने को तो बहुत कुछ था आसमान की तरह
जिसके होने या नहीं होने का 

कुछ भी मतलब नहीं निकलता था
लेकिन उजाला एक खतरनाक चेहरा लेकर आता था

उन दिनों मैं रौशनी से बचने के लिए
हाँ-वहाँ भागा फिरता था
रात आती थी तो थोड़ी राहत मिलती थी
और मैं चाहने लगा था 

कि रात को चाँद भी न निकले
और तारे भी अंधेरे में गुम हो जाए कहीं
अंधेरा ही एकमात्र सहारा था हमारा


असल में अपने अंदर 

एक फूल के खिलने से मैं प्रफुल्लित था
लेकिन उसके सुगंध को छुपाने के लिए 

मुझे मारा-मारा फिरना पड़ रहा था

खूंखार भेड़िये से पटे जंगल में
अघोषित रूप से 

फूल के नहीं खिलने का नियम था
यह सब को पता था
और सब भरसक जतन भी किया करते थे
लेकिन कोई जतन में असफल हो जाता था 

तो उसके लिए एक ही सजा मुकर्रर होती थी

ऐसे में मैं मारा-मारा फिरता था
और रात के आगोश में ही तनिक सकून पाता था

दिन का हिस्सा दरिंदों के पास था
और हम जो रात को मंत्र जपते थे
दुनिया के अमन-चैन के लिए
दिन उसकी सजा का समय होता था


यह शब्द नहीं लिखा जाता तो अच्छा होता

हमारे नथुने से भी टकराई थी
वह पवित्र गंध
हमने भी चाहा था
कि यह दुनिया 

एक उद्यान हो जाए


उम्र ही ऐसी थी कि हमारा ध्यान
लौट-लौटकर फूलों पर आ जाता था
और उसकी सुगंध से 

हम हमेशा सराबोर रहते थे

हम चाहते थे 

कि समूची पृथ्वी
 गुलाबी रंग में रंग जाए
और खिले हुए गुलाब की तरह
 सबका चेहरा दमकने लगे

 इसके लिए हमने
अपने हाथों को ऊपर उठाकर दुआ मांगी
और भरसक प्रयत्न किया 

कि आजू-बाजू के लोग भी 

हमसे सहमत होकर
फूलों की सुगंध को
दसों दिशाओं में फैलाने के लिए
हवा से मनुहार करें

लेकिन यह शब्द नहीं लिखा जाता तो अच्छा होता
कि हमारी प्रार्थनाएं बेअसर रहीं
हमारी उम्र फिसल गई
और अब हम 

अपने हाथों को ऊपर उठाकर 

सिर्फ हहाकार कर सकते हैं


 जैसे एक राजा होता था

एक लड़की उस तरह नहीं थी
जैसे एक राजा होता था
किसी किस्से में

वो अब भी कहीं न कहीं थी
मुसकुराती हुई
मेरी बंद आँखों के पार
या सांसों में

असल में गलती मेरी ही थी

मुझे एक साँप में तब्दील हो जाना चाहिए था
और अपनी चमकती हुई नई त्वचा के साथ
केंचुआ छोड़कर आगे बढ़ जाना चाहिए था

या समय रहते मुझे
एक वृक्ष में बदल जाना चाहिए था
अपने सारे पत्ते को विदाकर
मुझे फिर से हरा हो जाना चाहिए था
लेकिन मैं प्यार करने के हुनर सीखने में
अपना सारा हुनर गंवा बैठा था

संपर्क
मिथिलेश कुमार राय
ग्राम व पोस्ट- लालपुर  
वाया- सुरपत गंज
 जिला- सुपौल (बिहार) पिन-852 137    
फोन-9473050546, 9546906392
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