शुक्रवार, 30 मार्च 2012

रहस्यमयी प्रेम कथाओं वाले मित्र

         

          अक्टूबर माह की आठवीं कविता आरसी चौहान की है। इससे पहले इनकी एक कविता सितंबर माह मे दूसरे स्थान पर रही थी। 




 
















पुरस्कृत कविता: रहस्यमयी प्रेम कथाओं वाले मित्र

हो सकता

कुछ चीजें लौटती नहीं जाकर वापस
पर बहुत सारी चीजें लौटती हैं
दिमाग में
जैसे- बचपन की धमाचौकड़ी
प्यार का पहला दिन, पिता का गुज़रना
और भी बहुत कुछ
बार-बार खुलती हैं स्मृति की किताबें
फड़फड़ाते हैं पन्ने
और उसमें दर्ज सारी कहानियां
अक्षरशः उग आती आंखों के सामने
और लहलहाने लगती
सपनों की फसल।

याद है जब पढ़ते थे मिडिल में

अधिकांशतः छोटे भलेमानुष
था एक लड़का प्रेम का जादूगर
दोपहर की छुटिटयों में बताता
लड़कियों के शरीर में आये उभार का रहस्य
कई-कई तरह की रहस्यमयी कथाएं
और हम विस्मित!
तो शुरू करते हैं पहली कथा से
एक था लड़का
बिल्कुल ललगड़िया बानर-सा
जो लड़को में बनरा के नाम से प्रसिद्ध
मुंह भी निपोरता वैसे ही
हम जिज्ञासावश पूछते खोद-खोद
वह बताता रस भरी बातें और कथा को
दूसरी ओर घुमाने का माहिर

 या यूं कहें प्यार की गाड़ी का अच्छा
ड्राइवर था वह
एक कथा से दूसरी कथा में घुसने का महारथी
महिनों तक घूमती रहती उसकी एक-एक कथा

फिर तो एक दिन उसको घेर कर हमने

सुनी एक और रस भरी दास्तान
कथा में एक थी लड़की और उसे
फंसाने की अनूठी तरकीब
अट्ठारह पोरों वाली दूब को जलाकर
उसकी भस्म अगर छिड़क दी जाए तो
खिंची चली आएगी तुम्हारे मनमाफिक
फिर मन में फूटते बुलबुले
चुनते अपने-अपने हिसाब से
क्लास की लड़कियां
और ढूंढते अट्ठारह पोरों वाली दूब
दूब भी ऐसी कि मिलती उससे
एक कम या एक अधिक पोरों वाली
महिनों तक घास में खोजते दूब और
दूब में अट्ठारह पोर
अट्ठारह पोरों की भस्म
भस्म से फंसी लड़की
लड़की का रहस्यमयी शरीर
एक अनछुआ एहसास
एक अनछुई गुदगुदी
और गर्म रगों में दौड़ती सनसनी
फिर हार-पाछ कर जाते उसकी शरण में
किसी अचूक नुस्खे की करते फरमाइश

धीरे-धीरे साल कैसे बीता

परीक्षा कैसे हुई सम्पन्न
सभी हुए कैसे पास
इसका पता ही न चला
वह आया था हम लोगों की जिन्दगी में
रहस्यों से भरा सिर्फ एक साल
आगे की पढ़ाई मे बिखरे इधर-उधर
बमुश्किल एकाध-साथी ही रह पाये साथ
पता चला वह चला गया पढ़ने बनारस
अब इन सारी चीजों से बेखबर
चलती रही पढ़ाई
मिलते रहे नये पुराने दोस्त
किसी ने पकड़ ली नौकरी
किसी ने खेती
किसी ने राजनीति की पूंछ
तो किसी ने हर गोल पाइप में तलाशना शुरू किया
कट्‌टा और बंदूक
मैं भी गाँव छोड़कर गया गोरखपुर
मऊ, बनारस, इलाहाबाद और
नौकरी लगते ही टिहरी
जहां एशिया का सबसे बड़ा कच्चा बांध
जिससे निकलती है चमचमाती बिजली
एक बार फिर चमकी मेरी आंखों में
बिजली

यहां वह मिडिल में पढ़ने वाला मित्र नहीं

बल्कि मिडिल में पढ़ाने वाला मित्र मिला
जो पहाड़ों में आया था अपनी
जवानी के दिनों में
छोड़ कर दुनियां का सारा तिलिस्म
उसे नहीं मालूम थी हॉलीवुड फिल्मों की
सिने तारिकाओं की प्रेम कहानियां या
ठंडे प्रदेशों में खुलेआम
प्रेम प्रसंगों में डूबे लोगों का रहस्य
वह जब भी मिलता आग्रह करता
देखने को वैसी ही फिल्में
जिसके आगे पानी भरती थी अप्सराएं
अब हमारे उसके बीच
कोई उम्र की सीमा नहीं थी
वह था तो मेरे बाप की उमर का
लेकिन इस उम्र में फूटने लगे थे
जवानी के कल्ले,
हम युवा मित्रों के बीच
आने लगा बाल रंगाकर
जैसे कोई सांड सींग कटा कर
घुमता हो बछड़ों में
हम सबकी बातें सुनता गौर से
पैदा हुए नए सूर-कबीरों के दोहों पर
खिलखिलाता खूब और करता पैरवी
कि शामिल होने चाहिए ये दोहे
’सेक्स एजुकेशन’ की किताबों में
हम मुस्कुराते और पीटते अपना सिर
वह भरता आहें और कहता
हमने नाहक गुजार दी अपनी
जिन्दगी के अड़तालीस साल
सहलाता अपना चेहरा जैसा
 बन चुका चिकना सिर
और सिर के पिछले हिस्से में
कौवे के घोंसले की तरह उलझे बालों में
फिराता अपनी अंगुलियाँ

एक दिन उसकी अनुपस्थिति में

उसकी प्रेम कहानी का हुआ यूँ लोकार्पण
कि वह आया था बीस-बाईस की उम्र में
छोड़ कर अपना भरा-पूरा परिवार
और आया तो यहीं का होकर रह गया
उसे ऐसा लगा कि यहां के लोग
हमसे जी रहे हैं सौ साल पीछे
फिर तो यहां की आबो-हवा ने पहले तो
उसका दिल जीता
नदी, पहाड झरने
सबके सब उतरते चले गये
दिल में उसके
सिर्फ उतरी नहीं थी तो एक पहाड़ी
औरत
जो उसी स्कूल में पढ़ाती थी हमउम्र
उसने किया अथक प्रयास और
फिसला तो फिसलता ही गया
पहाड़ी ढलानों पर बिछे चीड़ के पत्तों पर
ढूंगों की तरह
जहां स्वयं को भी नहीं देख पा
रहा था वह
फिर तो उसके भीतर प्रेम का पहला बीज
अंखुआने से पहले ही लरज गया
और अब महसूसता हूँ
कि इन्हीं उठापटक के बीच
चलता है जीवन
ढ़हते- ढिमलाते बनते हैं रिश्ते
और इन्हीं रिश्तों के जंगलों में
लौटता है जीवन
बसता है घर
फुदकती हैं चिड़ियाँ
और ठंडी बयार चलने लगती है एक बार फिर। 

पुरस्कार - विचार और संस्कृति की चर्चित पत्रिका समयांतर की एक वर्ष की निःशुल्क सदस्यता।
                                                                                               हिन्द युग्म से साभार

शुक्रवार, 16 मार्च 2012

प्रेम नंदन की दो कविताएं


          25 दिसम्बर 1980 को उत्तर प्रदेश में  फतेहपुर जनपद के फरीदपुर नामक गांव में जन्में प्रेमचंद्र नंदन ने लेखन और आजीविका की शुरुआत पत्रकारिता से की । लगभग दो वर्षों तक पत्रकारिता करने और कुछ वर्षों तक इधर-उधर भटकने के उपरांत अध्यापन के साथ-साथ कविताएँ, कहानियाँ, लघुकथाएँ एवं समसामयिक लेखों आदि का लेखन एवं विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन। एक कविता संकलन -सपने जिंदा हैं अभी , 2005 में प्रकाशित ।

            नंदन जी की कविताएं यथार्थ के जिस धरातल पर लिखी गयी हैं कविता का यथार्थ और जीवन का यथार्थ अलग अलग नहीं है। इनकी कविता में जन सामान्य की संघर्षशील चेतना की अभिव्यक्ति नाना रूपों में हुई है।इनकी कविता के केन्द्रीय चरित्र सामान्य जन ही हैं जो अपनी मिट्टी में रचे बसे हैं। ग्रामीण शोषण की प्रक्रिया और रूढ़ियां कवि की चेतना को उद्वेलित करती हैं। बड़े सपने बनाम छोटे सपने  नामक कविता में बखूबी देखा जा सकता है।

          यहां एक ऐसा भी समाज है , जो पूंजी की ताकत से वर्तमान को इतना बर्बाद कर रहा है कि भविष्य स्वंयमेव नष्ट हो जाए।यही सब स्थितियां  भ्रष्टाचार और शोषण को बढ़ावा दे रही हैं। यह विडम्बना ही है कि एक ओर सम्पन्न वर्ग बेहिसाब संपत्ति का मालिक बनता जा रहा है, तो दूसरी ओर गरीब और गरीब होता जा रहा है। सामाजिक क्षोभ और लोक की पीड़ा दोनों ने कवि की कविता को बल प्रदान किया है।


यहां प्रस्तुत है प्रेमचंद्र नंदन की दो कविताएं
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बड़े सपने बनाम छोटे सपने
 
एक अरब से अधिक
आबादी वाले इस देश में
मुटठी भर लोगों के
बड़े-बड़े सपनों
और बड़ी-बड़ी फैक्टियों
शानदार हालीडे रिसार्टस.... से बना
विकास रथ चल रहा है
किसानों-मजदूरों की छाती पर
ये बनाना और बेचना चाहते हैं
मोबाइल, कंप्यूटर, कार
ब्रांडेड कपड़े,मॅंहगी ज्वैलरी़.....
उन लोगों को
आजादी के इतने सालों बाद भी
जिनकी रोटी
छोटी होती जा रही है
और काम पहुंच से बाहर
जिनके छोटे-छोटे सपने
इसमें ही परेशान हैं
कि अगली बरसात
कैसे झेलेंगे इनके छप्पर
भतीजी की शादी में
कैसे दें एक साड़ी
कैसे खरीदें-
अपने लिए टायर के जूते
और घरवाली के लिए
एक चांदी का छल्ला
जिसके लिए रोज मिलता रहा है उलाहना
शादी के लेकर आज तक
लेकिन इन मुटठी भर लोगों के
बड़े सप
नों के बीच
कोई जगह नहीं है
आम आदमी के छोटे सपनों की 
   

               
 जिंदगी को जी भरकर जीना है

                                        
जिंदगी को
व्यवस्थित करने के चक्कर
में
आजीवन अव्यस्थित रहे
कभी समाज,
कभी परिवार
तो कभी स्वयं अपनी नजरों में
फूल के बीच शूल की तरह स्थित रहे
तथाकथित अप
नों में
अजनबी बने रहे
स्वार्थो की लिजलिजी डोर से तने रहे
अपनी मूर्खताओं और चालाकियों के चलते
कभी किसी रिश्ते को
खुश नहीं रख सके
जिंदगी के स्वाद को
ठीक से न चख सके  
अनियंत्रित इच्छाओं की
रपटीली आपाधापी में
कभी अंधी परंपराओं की
बेड़ियों में बंधे रहे
कभी नंगी आधुनिकता के दलदल
में धंसे रहे
इंसान होने की
अपनी सीमा को रोना रोते-रोते
हर सीने में चुभते रहे
हर ऑंख खटकते रहे
पैरों में मृगमरीचिका थी
उम्र भर भटकते रहे
बहुत.... देर बाद समझे
जिंदगी तो अक्खड़ है
कबीर-सी फक्कड़ है
किसी भी नाथ से नथती नहीं है
किसी भी खूंटे से बंधती नहीं हैं
इसीलिए अब इसको
जी भरकर जीना है
घूंट-घूंट पीना है
कल और कल के चक्कर को छोड़कर
आज में जीना है
जी भरकर जीना है।
                      
संपर्क-
                         अंतर्नाद                     
                         उत्तरी शकुननगर, फतेहपुर उ0प्र0
                        मोबाइल-09336453835

गुरुवार, 8 मार्च 2012

अमरपाल सिंह आयुष्कर की कविताएं

           उत्तर प्रदेश के नवाबगंज गोंडा में 01 मार्च 1980 को जन्में अमरपाल सिंह आयुष्कर ने इलाहाबाद विश्व विद्यालय से हिन्दी में एम0 ए0 किया है । साथ ही नेट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद नागालैंड के एक केन्द्रीय विद्यालय में अध्यापन।
            आकाशवाणी इलाहाबाद में एक कार्यक्रम के दौरान हुई मुलाकात कब मित्रता में बदल गयी इसका पता ही न चला। लेकिन भागमदौड़ की जिंदगी और नौकरी की तलाश में एक दूसरे से बिछुड़ने के बाद 5-6 साल बाद फेसबुक ने मिलवाया तो पता  चला कि इनका लेखन कार्य कुछ ठहर सा गया है । विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं से गुजरने के बाद लम्बे अन्तराल पर इनकी दो कविताएं पढ़ने को मिल रही हैं और वह भी अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस एवं होली की हुड़दंग के साथ।
पुरस्कार एवं सम्मान- 
           वर्ष 2001 में बालकन जी बारी इंटरनेशनल नई दिल्ली द्वारा “ राष्ट्रीय युवा कवि पुरस्कार ” तथा वर्ष 2002 में “ राष्ट्रीय कविता एवं प्रतिभा सम्मान ”।
        शलभ साहित्य संस्था इलाहाबाद द्वारा 2001 में पुरस्कृत ।

यहां उनकी दो कविताएं-


 









किलकारी से सिसकारी तक

जब आंगन में पाँव  पड़ा
 तो नाम पिता का पाया
थोडा प्यार-दुलार मिला तो
थोडा मन मुरझाया
यौवन की दहलीज पार कर
पति के घर जब आई 
सात फेरों  में नाम कट गया
पति के नाम समाई
थोडा सा अधिकार मिला तो
थोडा मन मुरझाया
किलकारी आँगन में गूंजी
लाल हमारा आया
मन पति की केंचुल छोड़ा
फिर मुन्ना की अम्मा कहलाई
थोडा- सा आकाश मिला
तो थोडा - सा संग पानी
अपना नाम मैं रही ढूंढती
खुद को न पहचानी
किलकारी से सिसकारी तक
खूब  चक्कर  छानी
कब तक यूँ  रहेगा खारा मेरी आँख का पानी
कोई तो तोड़ेगा आकर
निद्रा सबके मनकी
कोई तो फोड़ेगा  आकर
गागर रखी पुरानी ।

केश  तुम्हारे

जब तुम्हारा निर्दोष  बचपन
खुले घुंघराले  बालों में चहकता
तो जीवन  की निश्चलता  का आभास  देता है
जब दो चोटियों  में बंधकर
यौवन के प्रांगन   में लहराता
तो- जीवन की स्वछंदता का आभाष देता है
जब निश्चलता स्वछंदता परिपक्व हो
प्रिय की बाँहों को शीतलता  देते हैं
तो- जीवन की मृदुता का पान करते  हैं
जब भोर तुलसी के फेरे लेती
भीगे बालों से मोती चुराती      
तो ममत्व के अंकुरण का आभास देती है
जब जुड़े  के रूप मैं आता
तो दृढ़ता, मर्यादा को साकार कर
जीवन के सत्य का साक्षात्कार कराता
पर जब कभी कोई दुश्शासन बन
निश्चलता, स्वछंदता, मृदुता, ममता और दृढ़ता को चुनौती देता
तो पांचाली का प्रण बन कुरुछेत्र - सा विद्ध्वंस  दोहराता ।
 
संपर्क सूत्र- 
              खेमीपुर अशोकपुर नवाबगंज गोंडा उ0प्र0 271303
              मोबा0-09402732653

गुरुवार, 1 मार्च 2012

गौरव सजवाण की कविता


 इंटर की पढाई कर रहे गौरव सजवाण का जन्म उत्तराखण्ड में टिहरी  जनपद के पलेठी नामक गांव में 25 जुलाई1996 को एक किसान परिवार में हुआ।
 इनकी कहीं भी प्रकाशित होने वाली पहिलौठी कविता है। वैसे पुरवाई पत्रिका का उद्देश्य बच्चों की रचनाधर्मिता को बढ़ावा देना है। चाहे इनकी रचनाओं का स्वाद कच्चापन एवं कसैलापन ही क्यों हो। इसके पहले हम बिजेन्द्र सिंह एवं मनवीर सिंह नेगी की कविताएं पढ़वा चुके हैं। जिंदगी कहने और कहने के बीच कैसे गुजरती है। गौरव सजवाण की कविताओं में बखूबी महसूसा जा सकता है।

गौरव सजवाण की कविता
 








कहने और कहने के बीच

बहती हवाओं को
बलखाती नदियों को
नीले समन्दर को
अनमापे आसमान को   
खड़ी चट्टान को
फैले मैदान को
सूरज की किरनों को
चांद की अंजोरिया को
टिमटिमाते तारों को
चक्कर लगाते ग्रहों को
कुछ नहीं कहा जा सकता
कुछ कहा जा सकता है तो
सिर्फ अपनी बुराइयों को
दूसरों की भलाइयों को
किसानों की मेहनत को
लहलहाते खेतों को
चींटियों की एकता को
बगुले के ध्यान को
कुत्ते की नींद को
गिलहरी के साहस को
और फिर चलती है जिंदगी
इसी कहने और कहने के बीच।