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रविवार, 7 जून 2015

डॉ. राकेश जोशी की पाँच ग़ज़लें




                                                   9 सितम्बर, 1970

  अंग्रेजी साहित्य में एम. ए., एम. फ़िल., डी. फ़िल. डॉ. राकेश जोशी मूलतःराजकीय महाविद्यालय, डोईवाला, देहरादून, उत्तराखंड में अंग्रेजी साहित्य के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. इससे पूर्व वे कर्मचारी भविष्य निधि संगठन,श्रम मंत्रालय, भारत सरकार में हिंदी अनुवादक के तौर पर मुंबई में पदस्थापित रहे. मुंबई में ही उन्होंने थोड़े समय के लिए आकाशवाणी विविध भारती में आकस्मिक उद्घोषक के तौर पर भी कार्य किया. उनकी कविताएँ अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के साथ-साथ आकाशवाणी से भी प्रसारित हुई हैं. छात्र जीवन के दौरान ही उन्होंने साहित्यिक पत्रिका "लौ" का संपादन भी किया. उनकी एक काव्य-पुस्तिका "कुछ बातें कविताओं में" तथा एक ग़ज़ल संग्रह 'पत्थरों के शहर में' "यथार्थ प्रकाशन", नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है. साथ ही, उनकी हिंदी से अंग्रेजी में अनूदित एक पुस्तकद क्राउड बेअर्स विटनेसभी देहरादून से प्रकाशित हुई है.






 डॉ. राकेश जोशी की पाँच ग़ज़लें
1
 
आज फिर से भूख की और रोटियों की बात हो
 खेत से रूठे हुए सब मोतियों की बात हो

जिनसे तय था ये अँधेरे दूर होंगे गाँव के
 अब अँधेरों से कहो उन सब दियों की बात हो

इक नए युग में हमें तो लेके जाना था तुम्हें
इस समुन्दर में कहीं तो कश्तियों की बात हो

जो तुम्हारी याद लेकर आ गई थीं एक दिन
 धूप में जलती हुई उन सर्दियों की बात हो

जिनको तुमने था उजाड़ा कल तरक्की के लिए  
आज फिर उजड़ी हुई उन बस्तियों की बात हो

ज़िक्र जब भी जंगलों का, आँसुओं का, आए तो
 पेड़ से टूटी हुई सब पत्तियों की बात हो

2
 
जैसे-जैसे बच्चे पढ़ना सीख रहे हैं
 हम सब मिलकर आगे बढ़ना सीख रहे हैं

पेड़ों पर चढ़ना तो पहले सीख लिया था  
आज हिमालय पर वो चढ़ना सीख रहे हैं

भूख मिटाने को खेतों में जो उगते थे
गोदामों में जाकर सड़ना सीख रहे हैं

कहाँ मुहब्बत में मिलना मुमकिन होता है
 इसीलिए हम रोज़ बिछड़ना सीख रहे हैं

नदी किनारे बसना सदियों तक सीखा था  
गाँवों में अब लोग उजड़ना सीख रहे हैं

धूप निकल कर फिर आएगी इस धरती पर  
दुनिया को हम लोग बदलना सीख रहे हैं

3

 जब हकीक़त सामने है क्यों फ़साने पर लिखूँ
ये है बेहतर, दर्द में डूबे ज़माने पर लिखूँ

खेत पर, खलिहान पर, मैं भूख-रोटी पर लिखूँ
 बंद होते जा रहे हर कारखाने पर लिखूँ

फूल, भँवरे और तितली की कहानी छोड़कर  
आदमी के हर उजड़ते आशियाने पर लिखूँ

ख़त्म होते जा रहे रिश्तों के आँसू पर लिखूँ  
आदमी को रौंदकर पैसे कमाने पर लिखूँ

याद तुमको क्यों करूँ मैं, और क्यों करता रहूँ
 इक कहानी अब मैं तुमको भूल जाने पर लिखूँ

जिसकी सूरत रात-दिन अब है बिगड़ती जा रही
मैं उसी धरती को अब फिर से सजाने पर लिखूँ

बस्तियों में आम लोगों की गरीबी देखकर  
कुछ घरों में क़ैद मैं सबके ख़ज़ाने पर पर लिखूँ

सोचता हूँ, तेरे जाने का कोई न ज़िक्र हो 
एक दिन एक गीत तेरे लौट आने पर लिखूँ

4
 
अब उजालों से कोई आता नहीं है
 भीड़ में भी कोई चिल्लाता नहीं है

मैं कभी डरता नहीं हूँ भीगने से
सर पे कोई छत नहीं, छाता नहीं है

जिन किताबों में गरीबी मिट गई है

उन किताबों से मेरा नाता नहीं है

बिल्लियों के संग वो पाला गया है
 शेर होकर भी वो गुर्राता नहीं है

डाँटते हैं सब नदी को ही हमेशा  
बादलों को कोई समझाता नहीं है

इस जगह तुम ज़िंदगी को ख़त्म समझो
इससे आगे रास्ता जाता नहीं है

5
 
जो ख़बर अच्छी बहुत है आसमानों के लिए  
वो ख़बर अच्छी नहीं है आशियानों के लिए  

इस नए बाज़ार में हर चीज़ महंगी हो गई  
बीज से सस्ता ज़हर है पर किसानों के लिए

भूख से चिल्लाए जो वो, खिड़कियाँ तू बंद कर
 शोर ये अच्छा नहीं है तेरे कानों के लिए

हक़ की बातें करने वालों के लिए पाबंदियाँ  
और सुविधाएं लिखी हैं बेज़ुबानों के लिए

अब नए युग की कहानी में नहीं होगी फसल
खेत सारे बिक गए हैं अब मकानों के लिए

पेट भरने के लिए मिलती नहीं हैं रोटियाँ  
खूब ताले मिल रहे हैं कारखानों के लिए


सम्पर्क: डॉ. राकेश जोशी असिस्टेंट प्रोफेसर )अंग्रेजी (

राजकीय महाविद्यालय, डोईवाला
देहरादून, उत्तराखंड
फ़ोन: 08938010850 ईमेल: joshirpg@gmail.com