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सोमवार, 23 नवंबर 2015

वह और मैं : डॉ. अंगद कुमार सिंह

    

     
     डॉ. अंगदकुमार सिंह का जन्म 15 अक्टूबर, 1981 को गोरखपुर जिलान्तर्गत माल्हनपार गाँव में हुआ था | इन्होंने 2003 में हिन्दी साहित्य में एम. ए. किया तथा 2009 में पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की | इनकी ‘समकालीन हिन्दी पत्राकारिता और परमानन्द श्रीवास्तव’, ‘प्रतिमानों के पार’(संयुक्त लेखन), ‘शब्दपुरुष’(संयुक्त लेखन), ‘दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’(संयुक्त लेखन) पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है | इनके लेख परिकथा, नवसृष्टि, मगहर महोत्सव, आज, मुक्त विचारधारा, चौमासा, कथाक्रम, लाइट ऑफ नेशन जैसी अनेक पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित होते रहते हैं | सम्प्रति ये वीरबहादुर सिंह पी. जी. कॉलेज, हरनही, गोरखपुर में हिन्दी विभाग के प्रभारी तथा असिस्टेण्ट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं तथा पूर्वांचल हिन्दी मंच, गोरखपुर के मन्त्री के दायित्त्व का निर्वहन कर रहे हैं |

 डॉ. अंगद कुमार सिंह की कविता-

 वह और मैं                                                       

याद जब तेरी आती 
नींद-चैन नहीं आता है
फिरता हूँ मारा-मारा
भटकता हूँ दर्रा- दर्रा
रास्ता नहीं सूझता
दीखता  न किनारा
मिलता न ठाँव कहीं
ठौर न ठिकाना
आगे जो कदम बढ़ाता
पैर जाते पीछे
गिरता हूँ तेरी याद को लपेटे ।
नींद में मेरे करीब वह होती
जागने पर वह पास न होती
बूझ न पाता हुआ क्या मुझे है
कोई बताये, उपाय सुझाये
अक्ल न आये तुम्हें कैसे पाएं
कोई जगाए रास्ता दिखाये
वह जो मिल जाये
जीवन सफल हो जाये
आवागमन से उपराम हो जाये |


 -डॉ. अंगद कुमार सिंह

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2015

कथासाहित्य में उभरते समकालीन प्रश्न और परमानन्द श्रीवास्तव के उत्तरआधुनिक जबाब-अंगद कुमार सिंह



                                                        अंगद कुमार सिंह

संक्षिप्त परिचय                                  
डॉ. अंगद कुमार सिंह का जन्म 15 अक्टूबर, 1981 को गोरखपुर जिलान्तर्गत माल्हनपार गाँव में हुआ था | इन्होंने 2003 में हिन्दी साहित्य में एम. ए. किया तथा 2009 में पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की | इनकी ‘समकालीन हिन्दी पत्राकारिता और परमानन्द श्रीवास्तव’, ‘प्रतिमानों के पार’(संयुक्त लेखन), ‘शब्दपुरुष’(संयुक्त लेखन), ‘दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’(संयुक्त लेखन) पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है | इनके लेख परिकथा, नवसृष्टि, मगहर महोत्सव, आज, मुक्त विचारधारा, चौमासा, कथाक्रम, लाइट ऑफ नेशन जैसी अनेक पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित होते रहते हैं | सम्प्रति ये वीरबहादुर सिंह पी. जी. कॉलेज, हरनही, गोरखपुर में हिन्दी विभाग के प्रभारी तथा असिस्टेण्ट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं तथा पूर्वांचल हिन्दी मंच, गोरखपुर के मन्त्री के दायित्त्व का निर्वहन कर रहे हैं |

कथासाहित्य में उभरते समकालीन प्रश्न और परमानन्द श्रीवास्तव के उत्तरआधुनिक जबाब 

     परमानन्द श्रीवास्तव ऐसे कथालोचक थे जो न कभी कथा का सार-संक्षेप देते थे न उस पर अन्तिम फैसला ही सुनाते थे | वे कृति के मर्म को उजागर करते थे और अपेक्षा करते थे कि पाठक खुद भी रचना का सहयात्री बने | इसीलिए वे औसत कथालोचना के पक्ष में नहीं रहते थे | अगर उन्होंने कवि-कथाकार उदयप्रकाश की कृति ‘रात में हारमोनियम’ पर लिखने के लिए कलम उठाया तो उदयप्रकाश के समग्र लेखन को ध्यान में रखकर |1

       परमानन्द श्रीवास्तव तसलीमा नसरीन के आत्मकथात्मक उपन्यास ‘द्विखण्डित’ पर अपनी लेखनी चलाते हुए लिखा है कि, “उसे प्रेमकथा की तरह न पढ़कर प्रेमहीनता या अप्रेम के वाचाल विस्फोट के रूप में भी पढ़ा जाना चाहिए | प्रेम कथाओं की स्निग्धता की जगह यही दैहिक शोषण और स्त्री उत्पीड़न के प्रसंग बेशुमार हैं और उनसे यौनिकता की जटिलता का भी अता-पता नहीं चलता | और तो और, यह पोर्नोग्राफी भी नहीं है जिसे मनोहरश्याम जोशी जैसे बड़े लेखकों की भी एक कसौटी बनाते हैं |”1 आगे भी वे इसी लेख में कहते हैं, “तसलीमा और उनकी सहेलियों का सामना मर्दांगिनी जनाने वाले नरपशुओं पर है | तसलीमा की कृतियों का साहित्यिक महत्त्व न हो सनसनी पैदा करने में वह अद्वितीय हैं | यह भयावह है, आघातप्रद है | यहाँ सेक्सुअललटी भी निरर्थक है | नंगई को क्या कहेंगे- अश्लीलता भी अपने आप में अपर्याप्त शब्द है | पर यह है तसलीमा की आपबीती जो जगबीती से भयावह है, बिद्रूप है, त्रासद है | सनसनी का भी परिप्रेक्ष्य उतना सीमित नहीं है जितना मान लिया जाता है |”2 

     परमानन्द श्रीवास्तव की नज़र में रशीद जहाँ की कहानी ‘बेज़ुबान’ ऐसी है जो पितृसत्तात्मक समाज के धौंस को बेनक़ाब करती है | जहाँ लड़की दिखायी नहीं जा सकती भले ही वह कुँवारी बैठी रहे | यह मानसिकता धार्मिक नैतिकता के कारण बनी थी | मुसलिम समाज में स्त्रियाँ देह में बन्द हैं- वे अपने हुस्न से बेपरवाह एक ढर्रे की ज़िन्दगी जिये जाती हैं | यह सामन्तवाद की ठसक है कि लड़की जान-पहचान वालोँ को भी दिखायी नहीं जा सकती |3                            

    परमानन्द श्रीवास्तव ने गीतांजलिश्री के उपन्यास ‘माई’(1993) और ‘हमारा शहर उस बरस’(1988) पर अपनी लेखनी चलाते हुए बहस छेड़ा है कि, “स्त्री स्वभाव की रहस्यमयता को भेदकर विस्फोटक सच्चाईयों तक पहुँचने की प्रक्रिया का एक अपना अन्तरंग रहस्य भी हैं | खिलन्दड़ेपन में इस रहस्य को खोजने का साहस गीतांजलिश्री की खास पहचान बनता है | अपने ही खाल के नीचे देखने का साहस | अपने ही खाल के बाहर आकर बड़े फलक पर देश में घटित साम्प्रदायिकता के उन्माद और ट्रेजडी को प्रत्यक्ष करने का जो साहस गीतांजलिश्री ने ‘हमारा शहर उस बरस’(1998) में दिखाया है उसमें इतिहास की समझ के साथ गहरी नैतिक मानवीय पीड़ा भी शामिल है |”4                                        

      परमानन्द श्रीवास्तव ने माना है कि, ‘कब तक पुकारूँ’ में स्त्रियाँ पुरूषों पर भारी पड़ती हैं | बाँके और रुस्तम खाँ की हत्या प्यारी-कजरी ने की है | यह स्त्री सशक्तिकरण के दौर का नया यथार्थ है, जिसे छठे दशक में राज्ञेय राघव ने रेखांकित किया था | प्यारी की मृत्यु पर कजरी का विलाप सर्वभक्षी सामन्ती क्रूरता पर चीख़ की तरह है |5

   आज़ादी के बाद कुछ ही क्लासिक उपन्यासों में एक ‘कब तक पुकारूँ’ राजस्थानी आँचलिक समाज को केन्द्रीयता देता है | आपराधिक जीवन में यौनिकता केवल एक पहलू है | कथानक की नैतिकता प्रतिरोध का साक्ष्य है |6 
                                           
     परमानन्द श्रीवास्तव ने मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास ‘कहीं ईसुरी फ़ाग’ पर साहित्यिक टिप्पणी के साथ जो कहा, वह है- “लोक आख्यान को शोधपरियोजना का हिस्सा बनाकर मैत्रेयी पुष्पा ने जाने-माने फगवारे ईसुरी की प्रेमकथा का ऐसा अन्वेषण किया है जो सृजनधर्मी है | यह प्रेरणा ऋतु जैसे शोध अभ्यर्थी से मिली हो या बुन्देलखण्ड के जीवन से, उपन्यास के लिए सार्थक सिद्ध हुई है | यह किसी शोधकर्मी का प्रोजेक्ट नहीं, चरित्रों के अन्त: रस में बैठने वाली लेखिका का एक सम्यक स्त्री-विमर्श है | निर्देशक की आपत्ति और स्वीकृत से ही उपन्यास शुरू होता है और लगभग पहली ही बार में ही पढ़ लिया जाता है | स्त्री, लोक और आख्यान के इस ताने-बाने में स्त्री ही प्रधान है |”7

   आगे इसी लेख में स्थिति को और अधिक स्पष्ट करते हुए वे अपने विचार व्यक्त करते हैं, “मैत्रेयी पुष्पा ने काल कथा क्रम से नहीं कही है- सुदूर अतीत से साम्प्रदायिक उन्माद वाले मौजूदा दौर से जोड़ा है | इस रूप में शायद पहली बार | कार सेवकों का उन्माद | मुसलमानों का उन्माद | फिर अतीत में झाँसी की रानी की विद्रोहिणी सेना | समानान्तर रूप से एन.सी.सी. की महिला सेना | आक्रमण का अभ्यास | इन दिनों रज्जो के जीवन में एक वागी आ गया था | सन्देश लाने वाली एक बेड़िन थी | ईसुरी देख रहे थे कि झाँसी की रानी का हारना पूरे देश का हारना था | ईसुरी अब भी निर्मोही स्त्री रज्जो को भूल नहीं पा रहे थे | रज्जो देशपत नाम से वागी के यहाँ चली गयी है |”8   
                                         
         परमानन्द श्रीवास्तव ऐसे नायब आलोचक थे जो कई कथाकारों पर एक साथ लेखनी चलाने की कूबत रखते थे | उन्होंने विमल कुमार के ‘चोरपुराण’, क्षमा शर्मा के ‘नेमप्लेट’, कुणाल सिंह के ‘सनातन बाबू का दाम्पत्य’ और संजय खाती के ‘बाहर कुछ नहीं था’ कहानी-संग्रह पर एक साथ कलम चलायी और लिखा, “ये ऐसे संग्रह हैं जो कहानी के बहुरंगी यथार्थ को कभी छायाभासी यथार्थ, कभी भयानक यथार्थ को प्रकट करते हैं | इनमें कई बार एक ही संग्रह की दो कहानियाँ एक जैसी नहीं हैं | वे विमल कुमार के यहाँ एक थीम है पर खिलन्दड़ापन वहाँ भी वैविध्य की झलक देता है | ‘युवतर’ कहानी-लेखक कुणाल सिंह संजय से सीख सकते हैं कि कहानी में वक्रताएँ अनिवार्य नहीं हैं | इक तो संजय खाती के यहाँ भी नहीं है, पर विन्यास में सचेष्ट जटिलता भी नहीं है | क्षमा शर्मा सीधे-सीधे अपने समय को  सम्बोधित करती हैं | एक बेलाग स्मार्टनेस उनका ढंग है | विमल कुमार के व्यंग्य-दृष्टि के पीछे कवि-दृष्टि मौजूद है | विमल कुमार के व्यंग्य के भ्रामक सरलता के पीछे राजनीतिक समझ भी सक्रिय है | कहना न होगा कि यहाँ चुने गये कहानी-संग्रह हमारे समय की विडम्बना को ग्राह्य बनाते हैं | कहानी अब कहानी के फार्म तक सीमित नहीं है | यह खबर भी है, विचार भी, हस्तक्षेप भी |”9 

      अलका सरावगी के उपन्यास ‘शेष कादम्बरी’ पर जब परमानन्द जी विचार करते हैं तब पता चलता है कि, “अलका सरावगी की यह ताकत है कि बहुत नजदीक की दुनिया पर एक तरह की फन्तासी का पर्दा डालकर वे व्यक्तिगत वृतान्त भी इस तरह लिख जाती हैं कि उसमें एक पूरे समाज या राष्ट्र की पीड़ा का पुनराख्यान भी सम्भव हो | इसलिए दुहराव का खतरा ‘शेष कादम्बरी’ में बचा ली गयी है | शायद इसीलिए उन्हें एक साथ अनेक शिल्प युक्तियों को साधने और इस्तेमाल करने की जरूरत होती है|”10                            

     परमानन्द श्रीवास्तव ने भगवान सिंह के उपन्यास ‘उन्माद’ की आलोचना करते हुए लिखा है कि, “भगवान सिंह ने ‘उन्माद’ में एक और तरह का अधिक गहन तार्किक सूक्ष्म पाठ गढ़ा है और साम्प्रदायिकता को ‘मनोरुग्णता’ के रूप में देखने की माँग की है | अब ऐसे उपन्यास कई हैं जिनमें साम्प्रदायिकता की समस्या को, उसके ऐतिहासिक, सामाजिक या राजनीतिक पहलुओं को समझने और विश्लेषित करने की कोशिश की गयी है | इस समस्या का समाजशास्त्र समझने-समझाने वाले कई महत्त्पूर्ण ग्रन्थ या दस्तावेज़ भी हमारे सामने हैं | समस्या ऐसी है कि जितना सुलझाए, उलझन बढ़ती ही जाती है | इधर इतिहास और उपन्यास के सम्बन्ध-विश्लेषण के क्रम में प्राय: उपन्यास को राष्ट्रीय रूपक के रूप में देखने की कोशिश की जाती है और उसकी एक से अधिक व्याखाएँ हैं | भगवान सिंह का ‘उन्माद’ इतिहास नहीं, उपन्यास है पर वह केन्द्रित है, उसका लम्बा इतिहास है|”11 
                                                  
      परमानन्द श्रीवास्तव आलोक मेहता के कहानी-संग्रह ‘चिड़िया फिर नहीं चहकी’ के बारे में अपनी टिप्पणी देते हुए कहा कि, “ये कहानियाँ समय के वीभत्स सच को खोलती हैं और हमें उत्पीड़न के यथार्थ से रू-ब-रू कराती हैं | यहाँ सत्ता के गलियारे में पूँजी और विलास का खेल प्रकट है | महत्वकांक्षाएँ जहरीली हो जाती हैं | स्मृति वर्तमान तक कथा में जो चरित्र आते हैं वे काल्पनिक होकर भी यथार्थ हैं | स्त्री सिर्फ़ सेवा-समर्पण में अपने को नहीं खपाती, एक दिन बलात्कारी राजनीतिक की हत्या कर देती है |”12 
                                   
        दरअसल परमानन्द श्रीवास्तव कथापाठ के दौरान किसी भी कृति को ‘वाह-वाह’ के रूप में नहीं देखते बल्कि आलोचनात्मक दृष्टि में उसे उतारते हुए आगे बढ़ते हैं | उनकी नज़र समकालीन कथा-साहित्य में कोई कहानी मात्र नहीं कहता, अपितु अपने समय और समाज के तमाम प्रश्न भी खड़े करता है | सभी प्रश्नों के जबाब कथालेखक की नियति नहीं होती | जबाब का हकदार विवेक-सम्पन्न आलोचक होता है | यह दौर उत्तरआधुनिक पीठ का है | अत: समय के साहित्यपीठ पर बैठकर किसी कथाबन्ध का आलोचनात्मक अन्वेषण करना वास्तविक मुकाम तक पहुँचना होता है | इस लिहाज से परमानन्द श्रीवास्तव की कथाविषयक समस्त आलोचनात्मक टिप्पणियों की पड़ताल करने के उपरान्त इस निष्कर्ष पर पहुँचना वाज़िब प्रतीत हो रहा है कि आलोचक के रूप में परमानन्द श्रीवास्तव समकालीन कथासाहित्य के भीतर से उठने वाले प्रश्नों का बेबाक   उत्तरआधुनिक जबाब देते     हैं|

सन्दर्भ-सामग्री:   
       
1. कथादेश (सं. हरिनारायण), अतल का अन्तरीप उर्फ वाचाल प्रेम का विस्फोट, परमानन्द श्रीवास्तव             
2. वही
3. कथाक्रम, कहानी का पुनर्पाठ, (रशीद जहाँ के सन्दर्भ में), परमानन्द श्रीवास्तव   
4. अपनी ही हाल के नीचे, परमानन्द श्रीवास्तव   
5. कब तक पुकारूँ : एक कालजयी उपन्यास, परमानन्द श्रीवास्तव   
6. वही 
7. सहारा समय, शब्दलोक, स्त्रीलोक और आख्यान, परमानन्द श्रीवास्तव 
8. वही
9. यथार्थ से अनहोनी, परमानन्द श्रीवास्तव 
10. स्मृति और प्रत्यक्ष के तनाव में अधूरेपन की कथा, परमानन्द श्रीवास्तव 
11. साम्प्रदायिकता का अन्तर्पाठ, परमानन्द श्रीवास्तव 
12. कथादेश, यथार्थ की विडम्बना और आलोक मेहता की कहानियाँ, परमानन्द श्रीवास्तव
सम्पर्क: 
डॉ. अंगदकुमार सिंह                                                  
असिस्टेण्ट प्रोफेसर : हिन्दी 
वीरबहादुर सिह पी.जी.    कॉलेज  हरनही,
गोरखपुर- 273412 उत्तर प्रदेश, भारतवर्ष                                           
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