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मंगलवार, 24 मार्च 2015

ज्ञान प्रकाश चौबे की कविताएं-



   

     बहुत कम उम्र में ही कविता से शुरूआत करने वाले ज्ञान प्रकाश चौबे ने बहुत जल्द ही कविताओं की ठोस जमीन तैयार कर ली। अपनी बोली-बानी के शब्दों को धार देकर कविता में ऐसे पिरोते हैं कि विचलन की स्थिति नहीं आती । बल्कि इनकी काव्य भाषा चमक उठती है। इस सदी के पहले दशक में हिन्दी साहित्य में खूब धमक के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करायी लेकिन बाद में कई सालों तक अज्ञातवास की स्थिति में चले गये थे। अब पुनः दमखम के साथ उपस्थित हैं।

प्रस्तुत है इनकी कुछ कविताएं-

नींद अन्धेरे में 

नींद होती सुबह में
सुनता हूं
खिसकती हुई दुनिया की आहटें

नींद के आँगन में
झांक कर देखता हूं
पगुराते समय को

नींद के सिवान में
भटकाता हूं
रेहड़ से गुम हुई भेड़ों की तलाश में

नींद की परछाईयों में
चटख रंग भरते हुए
खींचता हूं
एक पूरे दिन का भरापूरा चेहरा
और समय को
बांधने की लापरवाह कोशिश करता हूं

नींद अंधेरे में
लगाता हूं
जागते रहे की टेर

जंगल कथा
सूरज लाल है
लाल है हमारी आंखों में
बधें हुए बाजुओं की कीमत
कि हमारी सांसे
हमारे ही जंगल की
ज़रखरीद गुलाम बन चुकी है
हमारे पहाड़ हमारे नहीं रहे
नहीं रही उनके चेहरे पर
हमारे मांसल सीने की कसी हुई चमक
तेंदु के पत्तों से टपकता
हमारी औरतों का खून
हमारे भालों ,बरछों, लाठियों पर चमकता हुआ
लाल सलाम

हमारी भूख
हमारी प्यास
रात के जंगली अन्धेरे में
बच्चों के गले से निकल कर
हमारी आत्मा की सन्तप्त गलियों में
आवारा बनी हुई
चीख रही है
उलगुलान उलगुलान

हमारे बाहों की मछलियों के गलफड़ो में
चमकती हुई हमारी लाल होती आँखें
महुए की तीखी गंध से सराबोर
उन्मत्त हवाओं की ताल पर
मादल की थिक-थिक-धा-धा......
धा-धा...धिक-धिक...धा के साथ
रेत-बजरी के विशाल सीने पर
कोयले की कालिख में पुती
चीखती हैं
आओ हमारे सीनो और बहन-बेटियों को रौंदने वालों
जंगल पहाड़ नदी के आँगन से
हमारे छप्परों का निशान मिटाने वालों
तुम्हारे दैत्याकार बुल्डोजरों मशीनों की विशालता
हमारे बच्चों की अन्तहीन चीखों से बड़ी नहीं

नहीं है तुम्हारे जेबों के कोटरों के बीच
हमारे छोटे सपनों का भरपूर नीला आसमान
और ना ही तुम्हारी आँखों में अपनेपन का कोई अंखुआ
पूर्वजों के हथेलियों से गढे
हमारे तपे हुए सीने की कथा
तुम्हारे विकास की गाथाओं से परे
रची गयी है
धरती के धूसर और पथरीली ज़मीन पर
जंगलो के हरे केसरिया रंगों से
जिनमें हमारे शरीर का नमक चमकता हुआ
तुम्हारे सूरज को मात देता है

सुनो सुनो सुनो
जंगलवासियों सुनो
खत्म हो रहा है
हमारे सोने का समय 
आ रही है पूरब से
जंगल के जले हुए सीने की चीख
आ रही है चिड़ियों के जले हुए शरीर से
मानुख की गंध
हो रहा है खत्म 
मदमस्त करने वाली थापों पर नाचने का समय

आ रहा है धुएं के बादलों के पीछे से
हमारे वक्त का अधूरा सूरज
जिसकी अधूरी रोशनी में
हमारा गुमेठा हुआ भविष्य
हुंकारता है
बढ़ो बढ़ो आगे बढ़ो
और कहो कि समय का पहाड़
हमारे बुलन्द हौंसलों से ज्यादा ऊंचा नहीं
ना ही हमारे निगाहों के ताब से ऊंचा है तुम्हारा कद

खत्म हो रही है पृथ्वी
खत्म हो रहे हैं बाघ
साहस खत्म हो रहा है
गौरैया खत्म हो रही है
खत्म हो रहा है
बच्चों का फुदकना
फूल खत्म हो रहे हैं
खत्म हो रही है रंगों की भाषा
नदी खत्म हो रही है
खत्म हो रहा है धमनियों में लहू
जंगल खत्म हो रहा है
खत्म हो रही हैं सांसें
इस तरह
हमारी नींद के अन्धेरे में
खत्म हो रही है पृथ्वी


परिचय
 जन्म 18 जुलाई 1981, चेरूइयाँ, जिला-बलिया, (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा  एम. ए. (हिन्दी साहित्य), बी. एड. (विशिष्ट शिक्षा), पीएच.       डी. (हिन्दी साहित्य)
प्रकाशन -प्रेम को बचाते हुए’ (कविता संग्रह), नाटककार भिखारी ठाकुर की सामाजिक दृष्टि (आलोचना)।
संपादन शोध पत्रिका संभाष्यका चार वर्षों तक संपादन।
सम्मान- वागार्थ, कादम्बिनी, कल के लिए, प्रगतिशील आकल्प आदि पत्रिकाओं द्वारा कविताएं सम्मानित।
संप्रति-स्वतंत्र लेखन एवं कर्मश्रीमासिक पत्रिका का संपादन
संपर्क-देवीपाटन, पोस्ट तुलसीपुर, जिला बलरामपुर.(उ0 प्र0)
            दूरभाषः 08303022033