शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

समीक्षा - मेरे गाँव का पोखरा' : आदमी के भीतर आत्मविश्वास और संघर्ष की कविताएँ

 


मेरे गाँव का पोखरा' : आदमी के भीतर आत्मविश्वास और संघर्ष की  कविताएँ


डॉ. बदलेव पाण्डेय


   नीलोत्पल रमेश की सद्य:प्रकाशित कविता-संकलन 'मेरे गाँव का पोखरा' ने पूरे ठसक के  साथ साहित्यिक मंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज की है । अमेजन पर उपलब्ध यह पुस्तक शीर्ष पचास पुस्तकों में शुमार रही जो किसी साहित्यकार की पहली पुस्तक के लिए एक बड़ी उपलब्धि है।इनकी कविताओं में पर्यावरण के गहराते संकट को जहाँ कोयलांचल की जमीनी सच्चाई के साथ चित्रित करने का प्रयास किया है, वहीं सामाजिक विद्रुपताओं एवं राजनैतिक भ्रष्टाचार पर तीखा प्रहार किया गया है। प्रलेक प्रकाशन,मुंबई से छपी इस कविता-संकलन की कुल - 67 लघु कविताएं हमें आश्वस्त करती हैं कि विषम परिस्थितियों के इस दौर में भी कवि-कर्म की प्रतिबद्धता सीमा के सिपाही से तनिक भी कमतर नहीं है -

"कविता वहाँ पहुँचती है

जहाँ हो रहा हो बलात्कार

हो रहा हो अन्याय

हो रहा हो अनैतिक काम

बेखटके पहुँचकर

संघर्ष के लिए

हो जाती है तैयार

प्रतिबद्ध सैनिक की तरह।"

 

   नीलोत्पल रमेश की कविताएँ मजदूरों के शोषण, किसानों की बदहाली एवं महँगाई की मार झेलते निम्न मध्यवर्ग की लाचारी को शिद्दत के साथ प्रस्तुत करती है। समाज के निचले तबके के लोगों के शरीर और श्रम के शोषण के खिलाफ बगावती तेवर रखने वाले नीलोत्पल रमेश की लेखनी ने समाज की शोषणकारी ताकतों के विरूद्ध एक अघोषित अंतहीन जंग छेड़ रखी है। उनकी यह लड़ाई किसी राजनीतिक स्वार्थ से प्रेरित नहीं है। उनकी कविताएँ गहन मानवीय संवेदना की कोंख से उपजी है। उनकी लेखनी भीख माँगने वाली एक भिखारिन की लाचारी पर राजनैतिक मुहावरे वाली शैली में बात नहीं उठाती है। कवि को भिखारिन और उसकी बेटी की भूख की चिंता से बड़ी एक और चिंता खायी जा रही है -

"भिखारिन की बच्ची

जिसकी उम्र आठ-दस की रही होगी

किसी दिन किसी वहशी का शिकार हो सकती है

क्योंकि इसके जन्म की कथा भी

ऐसे ही किसी वहशी के द्वारा लिखी गयी होगी

जिसके बारे में, उसकी माँ भी

ठीक-ठीक नहीं बता सकती।"

 

   नीलोत्पल रमेश लगभग तीन दशकों से हिंदी में सृजनशील रहे हैं।इनका अनुभव संसार अत्यंत विस्तृत रहा है। बिहार के एक गाँव में जन्में और पले-बढ़े नीलोत्पल रमेश विचार और संस्कार दोनों से खाँटी देशज हैं। 'घुरचिआह' लोगों से इनकी पटरी नहीं बैठती है और न ही हर दिन हर जगह 'मुखौटे' बदलकर खुद को पेश करने वालों के बीच इनका उठना-बैठना होता है। गँवई संस्कार की सादगी इनकी लगभग हर कविता में मौजूद है, किंतु शोषण के खिलाफ उभरी इनकी उग्रता जब भाषा की मर्यादा को लांघती है तो कुर्सी पर बैठे व्यक्ति के सारे शरीर में एक झुरझुरी पैदा कर देती है -

"ग्रेड दे हरामजादे!

और अपने चश्मे का नंबर

एक बार फिर जाँच करा ले

कितना बदल चुका है

और तुझे एहसास तक नहीं

कि इस चश्मे ने

कार्यकुशलता प्राप्त लोगों को

पहचानना ही छोड़ दिया है

अकुशल और चापलूस ही

अब इसकी पहचान बन गए हैं।"

 

   नीलोत्पल रमेश की कविताओं में सत्ता की अव्वल दर्जे की संवेदनहीनता के बीच से उभरकर आने वाला जीवन-संघर्ष उनकी बेवाक शैली में चित्रित हुआ है। देश में युवाओं की बढ़ती बेरोजगारी और किसानों की सामूहिक आत्महत्याएँ अब राष्ट्रीय खबरें नहीं बनती हैं। झारखंड में जंगल की लूट और जंगल के कानून से गाँव के मजदूर किसान तबाह हैं। 'एक तरफ पुलिस, दूसरी तरफ पार्टी', 'एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाईं' वाली स्थिति में पिसते हुए गाँव के लड़के शहरों में खाक छानते फिर रहे हैं। एक ओर कोयला ढोने वाली कंपनियों ने लूट मचा रखी है तो दूसरी ओर विस्थापन का दंश झेलते साइकिल से कोयले की बोरी ढोते तेरह-चौदह साल के बच्चों की रीढ़ की हड्डी कमान की तरह झुकी जा रही है।जिस दिन कोयला ढोने वाला वह लड़का गश्त लगाती पुलिस को मनमाने पैसे नहीं दे पाता है,उस दिन पीठ पर डंडों के दो-तीन निशान लेकर घर लौटता है -

"वह निकल पड़ता है तड़के ही

कोयले की बोरी से लदी

साइकिल को लेकर

ताकि दोपहर तक पहुंच सके राँची"

 

     'मेरे गाँव का पोखरा' कविता-संकलन ग्रामगंधी कविताओं से भरी पड़ी है। इन कविताओं में आपको गाँव का जर्रा-जर्रा अपनी सोंधी महक के साथ मौजूद मिलेगा। आम के मंजर से महकती अमराइयाँ, कीचड़ में अंदर तक धँसी हुई धनरोपनी करती औरतों की माँसल पिंडलियाँ ,उनकी खनकती हंसी-ठिठोली और रोपनी के गीतों के साथ संगीतमय हो उठा ग्रामांचल इन कविताओं में आपको भरपूर जिंदगी के साथ मिल जाएगा। लेकिन इस संदर्भ में खास बात ये है कि ये सारी कविताएं 'नास्टेल्जिक' अर्थात अतीत राग में डूबी हुई हैं। गाँव अब गाँव नहीं रह गया है। कवि को पीड़ा है कि कोस भर का पोखरा, अब पोखरी में बदल चुका है। जिस मैदान में वह बचपन में अपने साथियों के साथ चीका और कबड्डी खेला करता था, वहां दबंग एवं स्वार्थी तत्वों ने अपना कब्जा जमा रखा है। जन-समुदाय की संकुचित होती जा रही मानसिकता के प्रतीक के रूप में गाँव का पोखरा उभरकर सामने आया है

"समय की मार

और लोगों की

संकुचित मानसिकता ने

इस पोखर को

पोखरी बना दिया है

जो दिनों-दिन

और सिकुड़ता जा रहा है।"

 

  नीलोत्पल रमेश के लिए उनका गाँव, गाँव के लोग, संयुक्त परिवार के सदस्य, कोस भर साथ पैदल चलकर पढ़ने जाने वाले सहपाठी, सभी समग्रता में एक इकाई हैं। यही गाँव जब अपना कलेवर बदलता है तो उसे काफी पीड़ा होती है। गाँव में बढ़ती कटुता और वैमनस्य, जाति के नाम पर आरक्षण एवं वोट की राजनीति से उपजे विद्वेष से आदमी और आदमी के बीच दूरी बढ़ती जा रही है। ऊपर से सारा गाँव उग्रवाद के आतंकी साये में जी रहा है। 'गाँव से दोस्त का पत्र' कविता में कवि कहता है -

"जहाँ हम तुम

खेलते थे कबड्डी और चीका

वहाँ पुलिस कैंप लगाए

गाँव की हर गतिविधियों पर

डाले रहती है नज़र

चैन की सांस लेना

मुहाल हो गया है अब

पूरे गाँव को।"

 

   प्रेम और रूमानियत के साथ-साथ नीलोत्पल रमेश पारिवारिक संवेदना के कवि हैं। नौकरी के सिलसिले में एक लंबे प्रवास की पीड़ा झेलते कवि के भीतर उसकी माँ, भाई-बहन,पिता ही नहीं, सारे पुरजन की यादें समायी हुई है। मां की सीख, बहन काह दुलार और भाइयों के साथ झिंगामस्ती के वे सारे दिन इन कविताओं में कुछ इस प्रकार चित्रित हैं कि ये आपके बचपन की मीठी यादों को लेकर अतीतरागी बना देंगी। इसके अलावे 'अजन्मी बेटियाँ'और 'बेटी का पत्र माँ के नाम' जैसी मार्मिक कविताएँ भावुक कर देने वाली हैं।

   नीलोत्पल रमेश उद्दाम जिजीविषा के कवि हैं क्योंकि इनके आदर्श दशरथ माँझी और दाना माँझी जैसे कर्मवीर महापुरुष हैं। इनकी कविताएँ जिस परिवेश में साँसे लेती हैं वहाँ जीवन की प्रतिकूलताओं के साथ निरंतर चलने वाला संघर्ष जरूर है किंतु कहीं भी पराजय और हताशा नहीं है । इस परिवेश के पात्र कोयला के चट्टानों की तरह मजबूत शरीर और मजबूत इरादों वाले हैं। संकलन की कविताएँ आदमी के भीतर आत्मविश्वास और संघर्ष की चेतना जगाने वाली सकारात्मक सोच वाली कविताएँ हैं।प्रलेक प्रकाशन ने इसका प्रकाशन बहुत ही सुंदर कलेवर में किया है जिसके लिए वो बधाई के पात्र हैं । कुल मिलाकर यह संकलन पठनीय एवं संग्रहणीय बन पाया है ।



'मेरे गाँव का पोखरा' - कविता-संग्रह

कवि - नीलोत्पल रमेश

प्रकाशक - प्रलेक प्रकाशन,मुंबई - 401303

मूल्य - 240/-रुपये, पृष्ठ - 152,वर्ष- 2020 ई.

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संपर्क :- डॉ. बलदेव पाण्डेय

मालती मिथिलेश रेसीडेंसी,फ्लैट संख्या - 202

रामनगर, हजारीबाग - 825301(झारखंड)

मोबाइल नंबर - 9334662954


 

 

रविवार, 23 अगस्त 2020

सुमित दहिया की कविताएं-

 

 

             16.09.1988, फरीदाबाद (हरियाणा)


शिक्षा : राजनीति विज्ञान,विधि (LAW) में स्नातक और स्नातकोत्तर
भाषा-ज्ञान : हिंदी,अंग्रेजी, हरियाणवी
प्रकाशित कृतियाँ : 'मिलन का इंतजार (काव्य संग्रह-अद्वैत प्रकाशन), 'इल्तिज़ा' (ग़ज़ल संग्रह-अयन प्रकाशन) 'खुशनुमा वीरानगी' (ग़ज़ल संग्रह-अद्वैत प्रकाशन) ,खंडित  मानव की कब्रगाह' (गद्य कविता संग्रह-अतुल्य प्रकाशन) और आवाज़ के स्टेशन ( काव्य संग्रह-अद्वैत प्रकाशन )

साहित्यिक ऑफ और ऑनलाइन पत्र,पत्रिकाओं में प्रकाशित:- वागर्थ (कलकत्ता), अंतरराष्ट्रीय पत्रिका आधारशिला, हिंदुस्तानी ज़बान युवा (मुम्बई), सोच-विचार (बनारस), शीतल वाणी (सहारनपुर), व्यंग्य यात्रा (दिल्ली), विभोम स्वर, राष्ट्र किंकर, अक्षर पर्व (रायपुर), समय सुरभि अनंत ( बेगूसराय ), पोएटिक आत्मा, साहित्य कुंज, जनसंदेश टाइम्स (लखनऊ), पतहर पत्रिका, प्रेरणा अंशु ( दिनेशपुर )
इसके अलावा ऑनलाइन साक्षात्कार औऱ विभिन्न विषयों पर कई बार संवाद किया है।

सुमित दहिया की कविताएं

1- घर

तुम्हें घर की परिभाषा बताते वक़्त
कहाँ से शुरू करू
यह समझ नही आ रहा
ये मिन्नत और मेहनत के बीच खींची
एक महीन रेखा का नाम है
या फिर नई, पुरानी भावनाओं की
आहुतियों का जोड़ है
क्या ये विपदाओं का तोड़ है

ओ समझदारी का आयतन नापने वाले गोल ग्रह
तूने तो इसे ईजाद नही किया था
फिर कैसे ये तेरे और आसमान के बीच
वर्गाकार उदासी बनकर ऊपज आया
किसने कर्क रेखा के चारो तरफ चला दी
यह बहुमुखी बंदूक

तेरी प्रकृति में हिलते हुए असंख्य पत्तों से उत्पन्न
अनंत ध्वनि के विस्तार में निहित
किसी स्वर,किसी उच्चारण में
यह विडंबना-पूर्ण ठहराव व्यापत नही है
प्रेम की अविरल धारा की तासीर भी केवल बहाव है

जीवन की आखिरी सांस में समाहित
पहली इच्छा का कठिन रास्ता भी
इसी घर के संकरे गलियारे से होकर गुजरता है।

2-अंतिम इच्छा 


तुम्हारे प्रेम से ऊपजकर
मैं अनेक रिश्तों की खरपतवार नही बनना चाहता
इसलिए उग रहा हूं
भविष्य की और
मेरे ह्रदय के पायदानों में अटकी धूल का
प्रत्येक कण गवाह है, तुम्हारे आने-जाने का
और इन स्मृतियों में जब-जब विवेक आता है
मैं अचानक चोंक पड़ता हूं
जैसे मध्य्म रोशनी के एकदम तेज़ होते ही
ताज़ा शिशु की अधमुंदी आंखे चोंक पड़े
पिंघलती सांसों के पर्दो के पीछे सदा मौजूद है
यौवन का घना जंगल
हाँ तहकीकात इस बात की होती है
कि आज का तथाकथित प्रेम है तो
उसमे मौजूद प्राणी कितने है

अपने बचपन के दिनों में
जब बाल्टी के साथ मैं कुएं में गिरता था
तब पानी के अक्स में तैरती कई तस्वीरे  देखता था
और महसूस करता था
बहुत सारे शीर्ष प्रेम जागरण
जिन हाथों ने इस जलीय स्पर्श की  
बादशाहत को उठाया था
वे अपने जीवन के उस पड़ाव में पहुँच चुके है
जहाँ पैदा होने वाला हरेक भाव
काफिले को केवल एक दिशा की तरफ धक्का देता है
वास्तविक घोषणा के उसूल
अगर गुनाह नही हुए है
तो सत्य आज भी आईना बना रहेगा
और उसके अंदर तैरती परछाईयों के कई आयोजन
अब भी जानते होंगे
कि यह प्रेम रूपी झरना आखिर फूटता कहाँ से है
यह ओस की बूंदों का प्रथम सौभाग्य छूटता कहाँ से है

मेरे अंदर उमड़ते भावनाओं के कई इंकलाब
जब यह पूछने आते है
कि तुम कविता लिखते क्यूँ हो
तो उनसे हर बार यही सवाल करता हूं
कभी ये भी तो पूछो
मैं कविता पढ़ता क्यूँ हूं
सुनो,अभी इकठ्ठा मत करना अहाते के बाहर टपके
उस अज्ञात पसीने को
क्योंकि एक अरसे बाद वहां जरूर कोई आएगा
उन विचलित उदास बूंदों में पड़ी
तुम्हारी अंतिम इच्छा सूंघने।


संपर्क : सुमित दहिया 

 9896351814, 8054666340
E-mail : dahiyasumit2116@gmail.Com



गुरुवार, 20 अगस्त 2020

'अपना खून' - समीक्षक-रामप्रसाद

 
उपन्यास 'अपना खून' -विक्रम सिंह

विक्रम सिंह का उपन्यास 'अपना खून' पहाड़ी जीवन का मार्मिक पक्ष हमारे सामने लाती है। यह उपन्यास, पहाड़ी लोगों की भूख, गरीबी, और उनकी तमाम लाचारियों के साथ-साथ वहां के लोगों की सादगी और अपार सुंदरता को बहुत सहजता से चित्रित करते हुए आगे बढ़ती है । इस क्रम में बेमेल विवाह, बेरोजगारी और पहाड़ से लोगों के पलायन जैसे बड़े विमर्शों को बिना किसी लाग-लपेट के उपन्यासकार ने विविध रूपों में अंकित किया है। विक्रम सिंह अच्छे किस्सागो हैं। अपनी धरती और अपने पहाड़ से जुड़कर लिख रहे हैं।

 
पहाड़ व पहाड़ी-जीवन,परिवेश व वहाँ की समस्याओं को लेकर एक बेहतरीन उपन्यास को बड़े परिश्रम से लिखा है लेखक विक्रम सिंह जी ने! उपन्यास शुरू होता है और उपन्यासकार उपस्थित रहता है पूरे उपन्यास में! उपन्यास पढ़ते जाते हैं ,आँखे शब्द-दर-शब्द पढ़ती जाती है और दीमाग में दृश्य बनते जाते हैं! उपन्यास में इतिहास का समावेश भी उपन्यास की आवश्यकता के साथ वर्णित है और हमें हमारे बीते वक़्त की याद को हरा कर जाता है!दो दशक पूर्व घटी घटनाओं की यादें पुनः हो आती है!बस समाजवादी सरकार का कारनामा नहीं बताया लेखक ने,शायद कुछेक विवशता होगी!लेखक को आयुर्वेद की दवाईयों का भी अनुभव है जो उपन्यास के शुरू में ही मिल जाता है,गांववाले मंहगी दवाईयों के बदले प्राकृतिक जड़ी-बूटियों से अपने को व अपनी उस जेब को बचाये रखते हैं जो पहिले से ही खस्ताहाल होती है!

उपन्यास के शुरूआत में उत्तराखंड़ राज्य के संघर्ष व पहाड़ो में ब्रिटिश के आगमन-गमन के ब्यौरे हैं,जो लेखक की इतिहास की रूची का उदाहरण हैं और कहानी की नीव भी!दीपा के पिता की मृत्यु उसी आंदोलन के दौरान हो जाती है और परिवार रूपी गाड़ी का पहियाँ ऐसा खराब होता है कि परेशानियाँ सदा के लिये या स्थायी आवास बना लेती हैं!परिवार में अधिक बच्चों का होना सुखदायी होता है यदि आय निश्चित हो रही हो अन्यथा वही बच्चे कष्टदायी लगने लगते हैं और जैसे-तैसे जीवन के समुद्र में तैराकी कर पार उतरने लायक हो पाते हैं!

जीवन के सबसे हसीन लम्हे वो और उस समय घटित होते हैं जब हम किशोरावस्था की सीमा को पार कर युवावस्था के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं!पर वे लम्हें हरेक की जिन्दगी में हों ऐसा भी नहीं होता,किसी को झलक मिल जाती है और वह उसी के सहारे पूरा जीवन व्यतीत कर जाता है !बहुत सारों को तो जिन्दगी ऐसे झंझावतों में घुसा देती है कि बस्स...

'रहने के काबिल तो न थी यह इब्रत सराय

इत्तेफाकन इस तरफ अपना भी आना हो गया' 'मीर'

ऐसे ही उपन्यास की मुख्य पात्र दीपा के जीवन के वे दिन शुरू होते हैं और शुरू होते ही समाप्त हो जाते हैं!इंदर के साथ मेलजोल बढ़ता है मगर परिणाम तक पहुंच नहीं पाता!क्यूं नहीं पहुंच पाता,ये कहानी की मुख्य थीम है!सपनों के मरने का दर्द वही समझ सकता है जिसने सपने देखे हों,और दम तोड़ते हुये भी देखा हो सपनों को!

मां की बीमारी के इलाज के लिये शहर जाना और समुचित व्यवस्था का न हो पाना भी ये दर्शाता है कि देश की अधिकाश जनता आज भी मूलभूत सुविधा से वंचित है!गरीब को गम्भीर बिमारी मृत्यु का न्यौता होता है!धन  व सुविधा के अभाव में वही प्राप्त हो पाता है!!ग्रामीण-जीवन छोटी बातों में ही जीवन को उत्सवमय बना लेते हैं!पहाड़ी परिवेश की असुविधा में अध्यापक,डॉक्टर या अन्य सरकारी सेवक जो जनता के लिये नियुक्त होते है,पर अपनी असुविधा को देखकर पलायन कर जाते हैं और पीछे वो जनता रह जाती है जो अभाव में जीने की आदी है!पोस्टमैन हरेक जगह के भ्रष्ट हैं!डाक की पूरी सामग्री हाथतक पहुंचाना कर्म है उनका पर उसके लिये नज़राना चाहिये होता है,कहानी में यह भी अनायास समझ में आता है,जब एक चिट्ठी के लिये दो रूपये ले लेता है पोस्टमैन इंदर से!

उपन्यास में जो एक और तथ्य है वह ये कि ,'प्राकृतिक खनिज व अन्य सम्पदा से परिपूर्ण जितने राज्य हैं वहां निर्धनता का स्थायी वास है,धन-सम्पदा का दोहन तो सरकारी नीतियों से लाभ लेनेवाले पूंजीपति उठा ले जाते है!इसलिये वहाँ की गरीब युवापीढ़ी अपने सपनों की होली जलाकर काम व धनोपार्जन के लिये दूर-दराज के क्षेत्रों में चले जाते हैं,जहाँ वे हाड़तोड़ परिश्रम करते हैं और मुआवजे के ऐवज में इतना ही पा पाते हैं कि,'मैं भी भूखा न रहूं,परिवार न भूखा सोय!'साधू के लिये कुछ नहीं बच पाता!आगे जो   उपन्यास की कहानी है वह शीर्षक के हिसाब से है!आज के समाज में भी लोगों को संतान और वह भी पुत्र की इच्छा प्रबलता से घेरे हुये है!और इसी चाह में नायिका फंसती है और उपन्यास भावपूर्ण होता जाता है!उपन्यास में दो जगह लेखक का विद्रोही स्वर मुखर होता है!पहिला इकबाल की पहली पत्नी के द्वारा ये कहते हुये कि,'अगर उसे लड़की मिल सकती है,तो क्या मुझे लड़का नहीं मिल सकता!'दूसरे कलावति के द्वारा!रूपसिंह जब दूसरी शादी की बात करता है कलावती से संतानप्राप्ति के लिये तो कलावती का क्रोधपूर्ण प्रतिवाद,'आज यह कमी अगर तुम्हे होती तो क्या तुम मुझे दूसरे के पास जाने देते?'

रिश्तों की स्वछंदता से उपजी कमी के धरातल पर पूरे  उपन्यास की कहानी बांधे चलती है!

बहुत कुछ और भी है कहने के लिये,बस संक्षेप में ही बात सही लगती है!

 शुरू से अंत तक पाठक को बांधे रहता हैं'बिल्कुल सही और सटीक कहा है!

फिर मिलते हैं इसी प्रस्तुति की अगली कहानी के संक्षिप्त टिप्पणी के साथ!

"मेरे हुलिये पर हंस पड़ा था कोई,

रो दिया मेरी शायरी सुनकर!''
 
समीक्षक-रामप्रसाद
केरल
 
Apna Khoon https://www.amazon.in/dp/8194652685/ref=cm_sw_r_wa_apa_i_taipFb14P9VA3