गुरुवार, 18 जून 2020

प्रतिभा श्री की कविताएं


  

     प्रतापगढ़  में जन्मी प्रतिभा श्रीवास्तव भंवरनाथ ,आजमगढ़ ,उत्तर  प्रदेश में रहती हैं। सम्भावनाओं से भरी इस कवयित्रि ने बहुत कम समय में ही कविताओं के सुर-लय एवं ताल को साध लिया है । भाषा के स्तर पर इनकी कविताएं स्थानीय शब्दों से  नया शिल्प गढ़ती हैं तथा बिंब आश्चर्यचकित करते हैं। यह एक सुखद स्थिति है। अब तक  इनकी रचनाएं - जन सन्देश टाइम्स,सुबह सवेरे, सामयिक परिवेश,अदहन ,स्त्री काल,अभिव्यक्ति के स्वर,गाथान्तर एवं स्त्री काल ब्लॉग तथा पुरवाई ब्लॉग में लघुकथा व कविताएँ प्रकाशित हो चुकी हैं।
 
प्रतिभा श्री की कविताएं

1-पुराने खत

1-पुराने खत
जब दरख़्त इंकार कर देते
छाँव से
जब चिड़िया भी बातचीत बन्द कर
मुँह फेर लेती है
तब बड़ी जोर की ख्वाहिश होती ..
जब बड़ी जोर की ख्वाहिश हो ..!
मिलना सांझ की मुंडेर पर
मैं पढूँगी ...!
तुम्हारी आँखों में
पुराने खत ।


2- मनबढ़ बेटियाँ

पुत्र मोक्ष का द्वार है
सो पुत्र प्राप्ति हेतु
एक  , चारसात, नौ तक  जनी गईं बेटियाँ
एक पुत्र बाँणा कहलाया सो दो होने के लिए
बारहपन्द्रह तक  जनी गईं
कुछ गर्भ में मरीं , कुछ जन्मने के बाद , जो स्वतः नहीं मरी मार दी गईं
कुछ सख्त जान  सांस रोकने के बाद भी न मरीं
जो बच गईं , वो काठ की बनी कठकरेजी  थीं
वे जंगली कीकर सी बढ़ती रही 
कठकरेजी लड़कियाँ  बड़ी ढीट निकलीं
छान लेतीं दूध की बटलोई से मलाई की परत
भिनसारे ही सबसे पहले खातीं रात बचा रोटी भात
ढूँढ  लेतीं घर में छुपा के रखे घी ,मेवे के लड्डू
उनके खेल गुड़िया का ब्याह नहीं
गिल्ली डंडा और चिल्हो थे
वे  सबसे ऊँचा चढ़ती पेड़ पर
जब  गिल्ली पर साधती निशाना तो सबसे दूर जाता उसका दाँव
लड़की ने खपरैल के टुकड़े पर नोंकदार कंकड़ से बिस्मिल्लाह किया
भाई की  किताब के श्वेत श्याम चित्रों में रंग भरे
उसे पढ़ने को किताब चाहिए
लिखने को तख्ती और दुध्धि चाहिए थी
वह लड़ पडतीं अम्मा से, दादी से, ताई से
उसके तमाम सवाल बैठक में चर्चा के विषय होते
और उसकी जिदें ताई , अम्मा की चिंता
लड़की पढ़ने दी गई बड़ी बात हुई
किताबें उसके लिए  भानुमति का पिटारा
और स्कूल मजूर को इन्सान बनाने वाले जादुई घर
पढ़ने को भाई की पुरानी किताबें मिलीं
लिखने को बची कॉपियों के पन्ने
उसे और पढ़ना था तो पढ़ डालीं पूजाघर के तमाम ग्रन्थ
खोज लीं खपरैल, टीन ,छप्पर में खोंसी किताबें
गोबर काढ़ते, उपला बनाते ,गाय को सानी देते
उसने किताबों को याद  किया
इनके राजकुमार सपनो में आते और बसवारी की आड़ में बैठ घण्टो बतियाती
ये दिन के किसी भी पहर परीलोक की परी बन घूम आती सातों लोक
उन्हें गहने पहनने का शौक चढ़ा तो बबूल के काँटो से छेद लिया कान नाक
उन्हें जितेंदर की फिलिम देखनी थी तो लाँघ गईं घर का डरवाण
इन्हें सयानी दिखना था सो चोली खरीदने को बेच आई बखार का धान
ये अल्हड़ , किसी  बहती नदी सी
चंचल ,युवा हिरनी सी और अक्खड़ ,किसी बिगड़ैल बछड़े सी
उसे काम की चाहना हुई  सो कई कई प्रेमियों को परखा
और छुपकर भुसौले में , बाग में , खेत में ,चूम लिए  चुने गए प्रेमी के होंठ
इनके जिद्दी मन की आँच से जलने लगीं गाँव की पताकाएँ
ये लड़की ना हुई खानदान का अभिशाप  हुई
परिवार का पिशाच हुई
बाप, दादा, चाचा ,भाई की नजरों में खंजर लगे
चौदह की उम्र में चौंतीस के आदमी संग ब्याही गई
इनके पाँव में महावर की जगह कटी कमर का लहू लगा
ब्याह की पहली सुबह ये बाथरूम में बेहोश मिली
और अगली सुबह इनकी जबान तालु से सटी रही
आँखे जँगल में रास्ता भूल गए छौने जैसी आकुल
इनके गले में हिलक रहा आँसुओं का समुंदर था
इनकी देह  काटती रही तेज छुरी कोई
ये सोलह की उम्र में सतवासें बच्चे की मां बनी
इनकी देह में सोवर का ताप चढ़ा
स्तनों में दूध कभी न उतरा
इनकी दूर की नजर कमजोर हुई
और जबतब कमर के नीचे कोई नस पूरी देह तान देती
ये  अट्ठारह की उम्र तक  चालीस की दिखने लगी
इन्हें छज्जे पर बैठा बन्दर कौवा नजर आता
ये जूड़ी बुखार से जब तब खटिया धर लेती
ये मायके की मनबढ़ बेटियाँ
ससुराल में  बेतरह  सुधारी गईं
इनके पँख कतरे गए
इनकी आँख का दायरा सिमटाया गया
इन्हें केवल आँगन और कोठरी भर देखनी चाहिए।

संपर्क सूत्र-
प्रतिभा श्रीवास्तव 
भंवरनाथ ,आजमगढ़ ,उत्तर प्रदेश
E Mail-raseeditikat8179@gmail.com

शुक्रवार, 5 जून 2020

सुवेश यादव के दोहे

      


          17 सितंबर 1980 में जनपद कानपुर नगर में  शीशूपुर,करबिगवां गांव में जन्में सुवेश यादव ने खेती-बाड़ी करते हुए कविताएं भी लिखते हैं । अब तक विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में इनके गीत, ग़ज़ल, दोहा एवं लघुकथाएँ इत्यादि प्रकाशित हो चुकी हैं । संप्रति - ग्रामीण पाठशाला में प्राइवेट शिक्षक एवं लघु कृषक ।
       बकौल सुरेन्द्र कुमार- दोस्तों दोहों का चलन आज से ही नहीं, सदियों सदियों तक का है । सिर्फ दो लाइनों में पूरी कथा बयां हो जाती है । हमने जबसे होश संभाला तबसे अपने बुजुर्गों की ज़बान से बोलते हुए सुना है । मसलन कोई बात समझानी हो, कोई सीख देनी हो, दोहों का सहारा लिया जाता है । ये दोहों की बहुत बड़ी  कुव्वत है । फिल्मी गीतों की प्रसिद्धि के साथ-साथ लोकगीतों के साथ साथ दोहे अपना मुकाम बनाए हुए हैं । आप बिहारी, रहीम और कबीर के दोहे देख लीजिए । इनकी भाषा सरल है । समझ में आने लायक है । तभी तो लोकप्रिय हैं आजकल । जो हिंदी में दोहे लिखे जा रहे हैं बहुत अच्छे लिखे जा रहे हैं ।
       इसी क्रम में एक संभावना शील, अपनी माटी से जुड़ा हुआ नव अंकुर दोहेकार सुवेश यादव के प्रस्तुत हैं कुछ दोहे
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कंगूरों पर है लिखा , चारण जी का नाम ।
छुपा नींव की ईंट सा ,
है जनकवि गुमनाम ॥

अपनी मिट्टी पर उसे , होगा कैसे नाज ।
जिसने पहना ही नहीं , खुद्दारी का ताज ॥

चरण चढ़े कुचले गए , हम श्रद्धा के फूल ।
बगुले में हंसा दिखा , हुई यहीं पर भूल ॥

हम माटी के लोग हैं , हमसे पूछो साब ।
सोनचिरैया क्यूं मरी , देंगे सही जवाब ॥

दो पंखों का इक चिड़ा , उड़ता मेरे गाँव ।
एक पंख में धूप है , दूजे में है छाँव ॥

मेरे गाढ़े वक्त में , कतरा रहे हुजूर ।
बरगद सा विश्वास था , अब रह गया खजूर ॥

सादा सा इंसान हूँ , ज्यादा नहीं शऊर ।
दुनियादारी का नमक , मुझमें नहीं हुजूर ॥

अपनी अपनी शान है , अपने अपने ठाट ।
शहंशाह का तख्त हो , या फ़कीर की खाट ॥

 सड़क बनी श्रमदान से , श्रमिक हुए गुमनाम ।
 शिलालेख पर है खुदा , शहंशाह का नाम ॥ 

घिसती जाती चप्पलें , बढ़ता जाता कर्ज ।
दो पैसे की चाकरी , अच्छा खासा मर्ज ॥

चार अंक की सैलरी , छ: अंकों के खर्च ।
मास्साब की जिंदगी , का ये नया रिसर्च ॥

जब जब थामी लेखनी , उपजा यह विश्वास ।
बाहर भी आकाश है , भीतर भी आकाश ॥



संपर्क -
शीशूपुर,करबिगवां
जनपद - कानपुर नगर
मो0 - 6393009448  /  8874921985