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मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

कविता : सचमुच कहीं खो न जाऊँ - आयुष चन्द




 













सुदूर तक दृष्टिगत होते 
अनगिनत घर ही घर
कहीं दूर तक फैले विशालकाय
अपनी लम्बी बांहे फैलाये
सुदंरता निहार जिनकी
आंखे फटी रह जाए
कहीं कच्चे साधारण घर
गोबर मिटटी से लिपे पुते
घास की चद्दर से बने
कहीं लकड़ी या टीन से ढके
गरीबों की झोपड़ियों वाले घर
कहीं टपकती छत वाले
कहीं टूटते बिखरते घर
बदसूरत धुंए से काले
पर घरों की इस भीड़ में 
मिलता नहीं कोई मकान,
अगर मिलें भी कोई मकान
होगा वहीं कलह,क्लेश 
और टूटते-बिखरते परिवार
नहीं है कोई सयुंक्त परिवार
कहीं प्यार और शांति नहीं
न जाने क्यों हम सब भावशून्य हो गए
घरों की इस भीड़ में
सचमुच कहीं खो न जायें इन्सान।
संपर्क -
आयुष चन्द
कक्षा 12B
रा 00 का0 गौमुख
टिहरी गढ़वाल , उत्तराखण्ड 249121