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मंगलवार, 28 नवंबर 2017

भोजपुरी सिनेमा रसातल की ओर : अंजनी श्रीवास्तव

                                                            अंजनी श्रीवास्तव


            भोजपुरी सिनेमा को रसातल में ले जाने वाले लोग व्यावसायिक लाभ के बड़े-बड़े आंकड़े-दिखाकर भले लोगों को भरमाने की कोशिशें करें पर सच यही है कि भोजपुरी सिनेमा आत्महनन के आखिरी दौर में है। इसे हर तरह से गिराने की सफल कोशिश की गयी है।  यह सचमुच बदहाली में है।  अच्छी विचार धाराओं पर चलने वाले लोग भोजपुरी सिनेमा से पूरी तरह कट चुके हैं।  दरअसल भोजपुरी फिल्मोद्योग अब शरीफों के हाथ में रहा ही नहीं। खूंखार आतंकवादी संगठन आईएस के हवसी लड़ाकों और आज के अश्लील फिल्मकारों में कोई खास अंतर नहीं। वो अगवा की गयी महिलाओं के साथ दुष्कर्म करते हैं और भोजपुरिया फिल्मकार भोजपुरी संस्कृति और परम्पराओं से बलात्कार करते हैं।

           अगर आपकी आंखें बदहाल नज़ारे देखने की आदी हैं तो आइए, भोजपुरी - चलचित्रनगरी में आपका उदासीन स्वागत है।  उधर देखिए - वो जो वस्त्र से महागरीब मगर यौवन से मालामाल हीरोइन दिख रही है न, वो गांव की रहने वाली है मगर जिस पार्क में उछल - कूद कर रही है, वो शहर में है। अब यह मत पूछिए कि गांव की पगडंडियों से वो शहर के पार्क तक कैसे पहुंची ? बस वो जो कुछ भी कर रही है, उसे देखते जाइए।  वो अपने लुभाऊ अंगों को एक-एक करके तब तक दिखाती रहेगी, जब तक कि उसकी भौगोलिक संरचना को आप अपने दिलोदिमाग के फोटोशॉप में 'सेव' नहीं कर लेते।  हीरोइन ऐसे-ऐसे उत्तेजक वाक्य बोलेगी कि आप लंबे समय तक सोच-सोचकर गरमाते रहेंगे। आज यह सब देखकर सोचने को विवश होना पड़ता है कि दादा साहेब फाल्के को किसी पुरुष-नायिका लेने पर क्यों विवश होना पड़ा? भले घरों की लड़कियां तब फिल्मों में काम करना अपमान समझती थीं, लेकिन आज की भोजपुरी हीरोइनें फिल्मों में जो काम करती हैं वो कोठों पर देह बेचती विवश नारियां भी न करें। 


         अब इस नारी भारवाहक हीरो को देखिए।  ये नाजुक हीरोइन को अपनी सख्त पीठ पर लादे पूर्व जमींदार से लेकर वर्तमान सरपंच तक के खेतों का चक्कर लगाएगा।  गाना गाएगा, हीरोइन से चिपकेगा, उसके पीछे भागेगा, अपने पीछे भगाएगा, मगर चारों तरफ शांति छाई रहेगी।  गांव के पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े भी इतने अनुशासित कि अपनी परछाई तक नहीं दिखाएंगे।  गांव के सारे लोग इन दोनों को मौका देने के लिए किसी सत्संग में जा बैठे हैं, या वो इस काबिल नहीं हैं कि उन्हें ऐसे धार्मिक दृश्य देखने का सौभाग्य प्राप्त हो, ऐसा प्रतीत होता है। 


अब एक नजर इस तरफ भी - यह एक ग्रामीण परिवार है।  ध्यान से देखिए तो लगेगा जैसे चेन्नई गुवाहाटी पैसेन्जर  ट्रैन में अलग-अलग स्टेशनों से सवार होकर मजबूरी में साथ-साथ बैठे विभिन्न राज्यों  के मुसाफिर हैं।  इनकी एक और खासियत है - एक परिवार के सदस्य होकर भी ये अलग-अलग किस्म की भोजपुरी बोलते हैं।  भोजपुरी क्या बोलते हैं - बस यही समझ लीजिए कि भोजपुरी के अलावा सब कुछ बोलते हैं।  फिल्म में भोजपुरी की इतनी नफीस हजामत बनायी जाती है कि आप को लगेगा, आप जो भोजपुरी जानते हैं, वो असली नहीं है। 


           अब अपनी गरदन जरा इधर घुमाइए।  ये सिकडू नौजवान महोदय फर्स्ट क्लास फर्स्ट एम ए हैं, मगर रिक्शाचालक हैं।  यह स्पष्ट नहीं है कि रिक्शा चालन इनका पुश्तैनी पेशा है या बेरोजगारी इनसे ऐसा करवा रही है ? ये शिक्षा - सखा भी हो सकते हैं और अक्षररिपु भी।  जो भी हो, हीरो तो हैं।  अतएव ऐंठना और अकड़ना उनका अधिकार है।  ये हजरत कुछ ही पलों में एक दबंग विधायक के विशाल बंगले में खास अदा से दाखिल होने वाले हैं।  फिर भाषा - व्याकरण की हड्डी तोड़ते और ललकारते हुए जितना याद आएगा आएगा, बाकी अपनी तरफ से जोड़कर डायलॉग बोलेंगे।  आंखों से हरदम अंगारे बरसाने वाला विधायक बुधन सिंह बस उनसे चुपचाप देखने का ही काम लेगा।  हमारा ये दो पसलियों वाला हीरो सोमारू विधायक की इकलौती लाडली बहन मंगला के गालों पर बिना गोंद के टिकट-ए-मोहब्बत चिपकाकर वनराज की तरह अंगड़ाइयां लेता हुआ निकल जाएगा।  गार्ड गुरुदास, दरवान शुकदेव और गनमैन सनीचर सबको एक साथ लकवा मार जाएगा। उसके निकलने के बाद लकवा भी सबको अपनी गिरफ्त से मुक्त कर देगा।  विधायक के गुर्गे गुर्राते हुए आगे बढ़ेंगे, मगर तभी खलनायकवा को सुबुद्धि का २२,००० वोल्ट वाला झटका लगेगा।  वो हाथ उठाकर उन्हें रोक देगा।  उधर विधायक की बहन हीरो के चुम्बन को तन्हाई में याद करती हुई मुस्कुराएगी, लजाएगी और एक दिन बंगले से निकल भागेगी।  हीरो को ढूंढते-ढूंढते उसके गांव पहुंचकर उसकी गोद में गिर जाएगी।  बुधन सिंह बटालियन भी अंततः हथियार डाल देगी।  लो जी ! कितना अच्छा दी एन्ड है।  सचमुच समानता का हाथ पकड़े समाजवाद आ ही गया। अमीर-गरीब, ऊंच-नीच का भेद ख़तम।  रिक्शा खींचने वाला सोमारू सुंदरी मंगला का हसबैंड बनने के साथ-साथ विधायक बुधन का बहनोई भी बन गया।  जी हां बहनोई।  जीजा नहीं।  छोटी बहन का पति बहनोई।  भोजपुरी संस्कृति है न ? मजा यह कि जिस दिन बुधन मन्त्री बनेगा, सोमारू उससे मनचाहे काम करवायेगा।  साले का सिर बहनोई के आगे झुका ही रहता है न ? वाह भाई वाह ! मजा आ गया।  डायरेक्टर और राइटर साहबान ! तुम दोनों की तो. . . । बिहार और उत्तर प्रदेश के बाहुबली विधायकों और सांसदों को कभी देखा या उनके बारे में सुना है कि नहीं ? यह सब देखकर तो पहली इच्छा यही होती है कि इनकी जम कर सुताई कराई जाए, ऐसे ही विधायकों और सांसदों के हाथों। 


          तमाम बदलावों और सुधारों के बावजूद आज क्या भोजपुरी समाज में एक ही गांव के लड़के और लड़कियों के बीच प्रेम-सम्बन्ध या शादी स्वीकार्य है ? नहीं न, मगर हमारी भोजपुरी फिल्मों में यह बड़ी ढीठता के साथ दिखाया जाता है।  भोजपुरिया समाज में तो कई-कई गांवों तक गोत्र का परहेज चलता है।  आज अगर फ़िल्मी मड़वे में कोई दुल्हन जीन्स टॉप में फेरे लेती हुई दिख जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि बहुत कुछ बदल रहा है।  बड़ी तेजी से बदल रहा है।  मगर बदलाव इतना ज्यादा भी न हो जाए कि अपना ही परिचय देते समय बार-बार कान खुजाने पड़ें । शहर की पढ़ी-लिखी लड़की को गांव का अनपढ़ लड़का भा जाता है।  शादी के बाद ससुराल (गांव) पहुंचकर वो बड़ी आसानी से एडजस्ट हो जाती है।  उसका ससुर सुदूर गांव में भी थ्री पीस पहन कर चलता है।  सास बुढ़ापे में भी लिपिस्टिक लगाती है। दिन में तीन बार खाती है और चार बार कपड़े बदलती है।  घर में खाने के लाले पड़े होते हैं, मगर सन्दूक में बेशकीमती साड़ियों, बिंदियों और चूड़ियों का जखीरा पड़ा रहता है।  सुबह बिस्तर से उठते समय भी पता नहीं उसका मेकअप कैसे तरोताजा रहता है।  हो सकता है - रात में मेकअपवुमन बनकर चुड़ैल और भूतनी उसका श्रृंगार कर जाती हों।  भोजपुरी फिल्मों में हीरोइनों और आयटम डांसरों को जबरदस्त सेक्स बम बने रहने के लिए लिया जाता है, फिर भी हीरो के पारिश्रमिक का दसवां हिस्सा उन्हें बतौर पारिश्रमिक मिलता है।  


           आज असली जिंदगी में भी गांव की एक लड़की शहर में ही शादी करना चाहती है।  मगर हमारी भोजपुरी फिल्मों में मोहब्बत की मारी शहर की कुवांरी शार्ट स्कर्ट पहने ऊपले थापने और रोटियां बेलने में सास की मदद करने गांव पहुंच जाती है। और तो और मजदूर भी यहां जीन्स टी-शर्ट पहनकर ही फावड़ा चलाते हैं।  परिवार भारी कर्ज में डूबा है पर बेटा मोटरसाइकिल में बिना पेट्रोल भराए, उस पर प्रेमिका को बैठाए दूर-दूर की सैर करवा रहा है।  खदेड़न रविदास का बेटा झमकुआ के. रविदास भी अपने जूते मरम्मत की दुकान पर अंग्रेजी बोलता दिखने लगा है।  फिल्मों में दिखाई जाने वाली महाराष्ट्र स्टेट ट्रांसपोर्ट और गुजरात रोडवेज की बसों के नंबर प्लेट तक नहीं बदले जाते।  सबको पता है कि शूटिंग राजपिपला और पनवेल में ही हो रही है, मगर फिल्म तो भोजपुरी में है।  थोड़ा तो विवेक का इस्तेमाल करो भाइयों ! लोग तुम्हारी बेवकूफी से तृप्त होने के लिए सिनेमाघरों में नहीं आते ?


           बददिमाग जमींदार का बदचलन बेटा एक गरीब स्कूल मास्टर की सौंदर्य धनवंती बेटी को गर्भवती करके छोड़ देता है।  मास्टर की बेटी उसकी हेंकड़ी सीधा करने के लिए धमकी देती है कि अगर उसने उसे नहीं अपनाया तो वो उसके बाप की अर्धांगिनी बन जाएगी।  बाप और बेटे दोनों से सेटिंग की कल्पना तो कोई क्रांतिकारी कथाकार ही सोच सकता है।  एक महाशय तो चाचा और भतीजी के प्रेम-सम्बन्ध पर फिल्म बनाकर पूरे भोजपुरी समाज को थरथरा देने का मंसूबा पालते हुए भोजपुरी फिल्मों की आइडियल सिटी (हिंदी अनुवाद कर लें ) में घूम रहे थे।  जब चारों तरफ से हुज्जत के पत्थर बरसने लगे तो रेड कार्नर नोटिस वाले क्रिमिनल की तरह रातोंरात अंडरग्राउंड हो गए।  समाज में निःसंदेह अनैतिक सम्बन्ध स्थापित होते रहते हैं, जिन पर थू-थू भी होती है, मगर ऐसे नाजायज सम्बन्धों को फिल्मों का विषय नहीं बनाया जा सकता।  यह संस्कारों पर कालिख पोतने जैसा तुष्ट कर्म होगा। दो नौजवान भाई औरतों की तरह साड़ियां-चूड़ियां पहने अपने ही घर में बाप के इर्द-गिर्द नाचते हुए गाना गाते हैं।  वास्तविक जीवन में क्या ऐसा होता है ? नहीं होता, पर फिल्मों में तो बहुत कुछ होता है न ? भोजपुरी भाषा में एल्बम और डीवीडी फ़िल्में बनाने वाले तो पोर्नोग्राफी वालों के भी कान काट लेते हैं।  घिसे पिटे और हिंदी फिल्मों के सुपरहिट संवादों का ऐसा भोजपुरिया अनुवाद किया जाता है कि बुद्धि-विवेक शून्य भोजपुरिया दर्शक तालियों से जबरदस्त प्रतिक्रिया देते हैं। मानो यह संवाद वो पहले कभी नहीं सुना । 


           कुछ संस्कृति-संहारक गीतकार हमारा सामान्य ज्ञान सुधरवाने की नीयत से यह बताते हैं कि चम्बल घाटी किसी मध्यप्रदेश में नहीं बल्कि गोरियों के लहंगों के नीचे स्थित है।  आइटम सांग के माध्यम से एक तन्वंगी बड़ी नम्रता के साथ अपने जीजा से निहोरा करती है कि चूंकि चूल्हे का मुंह छोटा है, अतएव उसमें मोटी लकड़ी न लगाई जाए।  एक बुजुर्ग गीतकार के लिखे गीत का दुर्लभ मुखड़ा है - "तोहरा बगइचा के हमरा फल चाहीं।" एक साला गाने में अपने जीजा को बहन के साथ अकेले में कैसे-कैसे क्या-क्या करना है बता रहा है।  फिल्मों में अश्लीलता के दर्शन करके सभ्य आदमी खुद को भोजपुरिया कहने में लज्जित होने लगा है। भोजपुरी संस्कारों की ऐसी दुर्गति हजार फकीरों की एक जैसी बददुआओं से ही संभव है। आधुनिकता की आंधी में भी हमारे संस्कारों, परम्पराओं और संस्कृति की जड़ें पूरी तरह नहीं उखड़ीं।  जमीन से अभी भी जुडी हैं।  लाज-लिहाज ने भले पूरी तरह पर्दा करना छोड़ दिया हो, उतनी ढीठ और बेशरम भी नहीं हुईं।  इसके पहले कि मनोरंजन के बहाने कोई शिष्टाचार का सरकलम करने की जुर्रत करे, उसकी मुश्कें कस देनी चाहिएं वर्ना भाषा और संस्कृति के हमेशा हमेशा के लिए गम हो जाने का पर्याप्त इतिहास है हमारे पास। 


           गैर तो गैर खांटी भोजपुरिया भी अपनी संस्कृति के क्षरण से चिंतित या विचलित नहीं दिखते।  भोजपुरी फिल्म-इंडस्ट्री के ९०% लोगों को सिर्फ पैसों और मौज-मस्ती से मतलब होता है।  क्रिएटिविटी अब चंद जुनूनियों और संस्कृति-प्रेमियों तक ही महदूद रह गयी है।  जो लोग फिल्मों में भोजपुरी की अस्मिता का हनन रोक सकते थे, वही लोग बदकारों की कोर कमिटी में बैठे है।  लोग इस बात से ज्यादा मतलब रखते हैं कि फिल्मों के नाम पर उनके आंगन में सिक्कों की कितनी बरसात हुई ? फिल्म बनी या नहीं ? कितने दरबदर और कितने तरबतर हुए ? इनसे इनका कोई लेना-देना नहीं होता।  जिसमें उनका फायदा है, वही उनका एजेंडा है।  आपके प्रतिकार के जवाब में उनके पास बेशरमी भरे यथेष्ठ तर्क हैं।  अश्लीलता की वो मौके पर ही नयी परिभाषा गढ़कर बता देंगे।  अगर वो बहुमत में हों, तो फिर आपकी बोलती बंद करके रख देंगे।  "गंगा मईया तोहे पियरी चढ़ईबो" के पुराने वटवृक्ष की जड़ों में भाइयों ने जिलेटिन लगा दिया है।  उड़ना तो तय है। 


          आज भोजपुरी फिल्म-इंडस्ट्री में मेधावी वर्ग हाशिये पर है।  उसकी सकारात्मक सोच, मेधा और रचनात्मकता का कोई पूछवैय्या नहीं।  जिनके दिमाग में कचरा भरा है, जिनका विवेक भौतिकता का बंधुआ गुलाम बनकर रह गया है, उनसे कुर्तक की ही उम्मीद की जाती रही है, वो अपनी गलती स्वीकारेंगे नहीं।  अश्लील गीत लिखकर और गाकर लोग सांसद-मन्त्री तक बन जाएंगे।  ऐसे में विरोध करने वाले तो ब्लॉक/अंचल स्तर तक भी अपनी चीख नहीं पहुंचा पाएंगे।  फिल्मों में गुणवत्ता का स्तर गिरने से दर्शक भी बिचके हैं।  सर्व शिकायत है कि आज की भोजपुरी फिल्मों में गांव की छवि नहीं दिखती। जब किसी भोजपुरी फिल्म में ढूंढने से भी भोजपुरी न मिले तो मुंह दूसरी तरफ करके बात ख़तम करने में ही भला मान लेना चाहिए।

               गुजरात के बैल और महाराष्ट्र की बैलगाड़ी भोजपुरी दर्शकों की मांग नहीं, भरी जवानी में सठियाए निर्माताओ-निर्देशकों की प्रदूषित सोच की देन है।  यकीनन भोजपुरी संस्कृति के साथ खिलवाड़ हो रहा है, मगर इस निकृष्टतम खेल पर प्रतिबन्ध लगाने कोई सामने नहीं आता। प्रोडूसर कहते हैं - "इस दुरावस्था के दोषी वितरक हैं " वितरकों का तर्क है कि ऑडियंस की इच्छा का सम्मान नहीं करेंगे तो जिन्दा कैसे रहेंगे ? अथवा "वो व्यवसायी हैं", जैसी फ़िल्में बनेंगी, वैसे ही फ़िल्में खरीदनी भी पड़ेंगी।  वितरकों का सिंडिकेट एक झटके में सार्थक फिल्मकारों को दरबदर कर देता है।  उनकी फ़िल्में एक तो बन नहीं पातीं दूसरे बनकर भी रिलीज नहीं हो पातीं।  उनका हश्र देखकर दूसरे भी मैदान छोड़ देते हैं।  इस तरह रावणराज अपने तरीके से अपना आरोहण करने लगा है। 

          प्रोड्यूसर की पुकार है - "वो छला गया।" वितरक की सफाई है - "उसे घाटा हुआ।" प्रबुद्ध दर्शक की व्यथा है - "फिल्म में जब हमारा कल्चर है ही नहीं तो क्या देखने जाएं ?" यह अलग बात है कि जितने लोग आज की भोजपुरी फ़िल्में देखने से कतरा रहे हैं, उनसे कई गुणा ज्यादा लोग उन्हीं फिल्मों को देख रहे हैं।  कौन हैं ये लोग ? जो भी हों, फिल्मों को वही चला रहे हैं।  फिर किस बात का शोरगुल ? यहां की हर बात, लोगों का हर अंदाज अलग है।  बस किराए के लिए दूसरों पर आश्रित याचक-पाचक भी यही दावा करते फिरते हैं कि वो मदर इंडिया, मुगलेआजम, शोले, लगान और बाहुबली बना रहे हैं।  बाद में दिखते भी नहीं कि उनसे पूछा जाए कि कब रिलीज हो रहीं हैं उनकी वो कालजयी फ़िल्में ?

           कोई चचेरा, ममेरा, फुफेरा, मौसेरा भाई हीरो बना नहीं कि रिश्ते के सारे भाई, जिन्हें नाटकों में परदा खींचने का काम भी नहीं मिलता, हीरो बनने मुंबई आ पहुंचते हैं।  शक्ल-सूरत ऐसी कि इनको खड़ा करने में चलते-फिरते लोग लंगड़े हो जाते हैं।  किसी स्थापित हीरो का नकटा अनुज भी हीरो बन जाता है। हर हीरो की नापसंद हीरोइन, राइटर और तकनीशियन। अजीब हाल है मगर उनके बेशरमी भरे फलसफे सुनिये।  पागलखाने में भर्ती होने को दिल करेगा।

           अगर पूरे देश का हिसाब लगाया जाए तो साल में ४०० से भी ज्यादा फ़िल्में बनती हैं यानी प्रतिदिन एक से भी अधिक।  पिछले १२ वर्षों में भोजपुरी फिल्मों के निर्माण में कोई रूकावट नहीं आई।  जाहिर है, भोजपुरी फिल्मों के निर्माण हेतु कहीं न कहीं से लगातार और पर्याप्त पैसे आ रहे हैं।  पैसे और लोग लगाते है।  पर प्रयोग दूसरे लोग करते हैं।  प्रयोगधर्मियों का क्या है ? एक को नोंचकर दूसरे को झिंझोड़ने निकल पड़े।  इनके मारे हुए उम्र भर मिमियाते हैं।  किसी से अपना दर्द बयां नहीं कर सकते। गौरतलब है कि  पुराने, नामचीन समर्थ फिल्मकारों ने संगीन हालातों को देखते हुए  भोजपुरी फ़िल्में बनाने से हाथ खींच लिया।  ये वो लोग थे, जिनकी फ़िल्में देखने के लिए परिवार के परिवार एक दिन पहले ही शहर आकर सिनेमाघरों के बाहर डेरा डाल देते थे।  एक बार बराये-मेहरबानी पिछला इतिहास देख लीजिए।  मोहनजी प्रसाद आज भी जीवित हैं, लेकिन भोजपुरी फिल्मोद्योग में मूंछों पर ताव देते हुए गलत लोग चांदी की बरफी खा रहे हैं। वो सक्षम लोगों के तलवे चाटने और उनके लिए शबाब का  रोज नया पैकेज पेश करने को अपना टैलेन्ट मानते हैं।

            क्यों पिछले ४१ सालों में (१९६१ से लेकर २००२ तक) उत्साही दर्शकों, उदार फायनेंसरों, सक्षम निर्माता निर्देशकों और उचित माहौल के रहते हुए भी गिनती की फ़िल्में बनीं।  जब तक अच्छे-अच्छे प्लाट मिलते रहे, फ़िल्में बनती रहीं।  बाद में भोजपुरी प्रेमी वो सारे सर्जक हिंदी फिल्मों की तरफ लौट पड़े।  उन्होंने जो भी किया, उत्कृष्ट किया।  अपनी तरफ से बेहतरीन दिया।  भोजपुरी समाज, संस्कृति और उसके लोक-संगीत को बड़ी खूबसूरत और नफासत से पेश किया। आज का हाल देखिये।  समाज कितना बेपरवाह है ? संस्कृति पूर्ण प्रदूषित है और संगीत का तो पूछिए ही मत।  एक ही ट्रैक पर सौ-सौ गाने लिखे जाते हैं।  गीतकार को जो शब्द सूझता है, लगा देता है।  संगीतकार को शब्दों से क्या, उनके अर्थों से क्या ? बस छाप करके दे देना है। जिससे हवसियों की कनपटी लाल हो जाए।  विडम्बना देखिए, छपरा के भिखारी ठाकुर और महेंद्र मिसिर के गीत असम की कल्पना पटवारी जाती हैं।  गांधी, पटेल, नेहरू, इंदिरा पर हिंदी में फ़िल्में बन सकती हैं, लेकिन वीर कुंवर सिंह, जय प्रकाश नारायण, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, अब्दुल हमीद जैसी हस्तियों पर भोजपुरी में क्यों नहीं ? असम, त्रिपुरा, कर्नाटक से आए लोग आखिर कहां तक हमारी विरासत को घिस-घिस कर चमकाते रहेंगे।  वो तो "लोकराग" जैसी संस्थाओं का यशगान कीजिए, जिन्होंने भोजपुरी के लोकगीतों को चुन-चुनकर दृश्य-श्रव्य माध्यम के जरिए लोगों तक पहुंचाया।  महेंद्र मिसिर के पूरबी गीत, रघुवीर नारायण का बटोहिया तथा और भी कई रचनाएं और चन्दन तिवारी जैसी विविधता भरी आवाज को तराश कर सामने लाने का काम तो उन्होंने किया ही है।  ऐसे अच्छे काम तो और भी लोग कर सकते हैं, मगर क्यों नहीं करते ?

            अब रुख सिनेमा हॉल की तरफ।  अंदर की बात बाद में।  पहले बाहर खड़े होकर पोस्टर देखते हैं।  फिल्म का नाम ही ऐसा है कि समझ में नहीं आता, उसे हिंदी कहें या भोजपुरी? अब ध्यान से कलाकारों का  मुखमंडल देखिए।  बात समझ में आ जाएगी।  अब देखिए, ये जो झुंड के झुंड लोग हैं, सीधे हॉल की तरफ भागे आ रहे हैं, कौन हैं ये ? अरे, यही तो आज के निरर्थक सिनेमा के समर्पित दर्शक हैं। अब लगी हुई फिल्म पर बात कीजिए।  इसमें दावे के साथ कहा जा सकता है कि शुद्ध भोजपुरिया कलाकार दो से ज्यादा नहीं हैं।  हीरोइनें हमेशा बाहर से ही आती रही हैं।  अब रिकार्ड टूट रहा है।  आरा, बक्सर से भी एक-एक करके निकलने लगी हैं।  भोजपुरी सिनेमा की आज अपनी कोई सार्थक सोच नहीं है।  सब कुछ उधार लिया हुआ।  विषय वस्तु हिंदी फिल्मों का नकलांश।  नाम भी हिंदी फिल्मों वाला। 

           भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री हमेशा से अव्यवस्थित रही है।  कौन मार्गदर्शक है और कौन अनुगामी, पता ही नहीं चलता।  फिल्मों से जुड़े लोगों को न्याय दिलाने के लिए अपना कोई अलग यूनियन तक नहीं है।  पता नहीं, किस अशुभ घड़ी में किस अपण्डित ने इसका नाम भोजीवुड या पॉलीवुड रख दिया था। हालात उम्मीदों को चोटिल करते हैं।  फ़िल्में हिट होने और अच्छे काम करने के बावजूद कलाकारों और तकनीशियनों को काम मांगने के लिए ऑफिस दर ऑफिस चक्कर लगाने पड़ते हैं।  " योग्यता पर काम मिलता है", इस धारणा को भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री ने पूर्ण बहुमत से ख़ारिज कर दिया है।  जुगाड़ और कैम्पबाजी के बिना यहां काम नहीं मिल सकता।  लोगों की चाहत और महत्वाकांक्षा भी इतनी सस्ती कि जब खुद को भोजपुरी का अमरीश पुरी, राजपाल यादव, मनोज वाजपेयी, अमिताभ बच्चन, गुलशन ग्रोवर, निरुया रॉय और मीना कुमारी कहते हैं, उनकी सोच पर तरस के लगातार झटके आते हैं। इन्टरनेट ने तो इनको मानों हजारों पंख दे डाला है।  फेसबुक पर देखिये इनकी आत्मप्रशंसा।  काम के लोगों का गुणगान।  अपनी ही हीरोइन बेटियों के नाम से अभद्र गीत सुनते बेगैरत माता पिता।  फ़िल्मी मैगजीनों में बेटी के हीरो से रोमांस की प्रायोजित खबरों को दूसरों को पढ़वाते दलाल बाप और धंधेबाज मांएं। 

           सेंसर बोर्ड ने भी भोजपुरी फिल्मों को प्रमाण-पत्र देने के लिए उन लोगों को चुन रखा है, जो भोजपुरी के अलावा भोजपुरी का कोई दूसरा शब्द भी नहीं जानते।  उन्हें कुर्सियों पर सोने की बीमारी है।  उनके दिमाग में भोजपुरी फिल्म का अर्थ है - कांति शाह और पिछले दशकों में बनती गरमागरम फ़िल्में भोजपुरी की पहचान बनायी है - निम्न दर्जे की भाषा और अश्लील दृश्यों के इर्द-गिर्द बनी गयी कहानी।  भोजपुरी ऑडियो वीडियो को सुनने सुनाने की गलती वो भी परिवार के सामने अक्षम्य होगी। 

         स्तरीय पत्र-पत्रिकाएं भोजपुरी सिनेमा पर चार पंक्तियां लिखने में भी अपनी तौहीन समझती हैं।  जोशो-जूनून में कई पत्रिकाएं निकलीं और फिर अहसासे-नुकसान और तल्ख़-तजुर्बों के बाद बंद भी हो गईं।  हम मानें या न मानें, मगर अपने ही समाज और संस्कृति के हम अपराधी हैं।  ऐसे अपराधी, जिन पर मुकदमे नहीं चल सकते, मगर सजा पीढ़ियों को, परम्पराओं को और तहजीब को भुगतानी पड़ती है।  भोजपुरी सिनेमा के करीब ५६ सालों में कम से कम तीन ब्रेक लगे।  ये ब्रेक हमेशा बाहरी लोगों ने लगाया है।  भेड़चाल भोजपुरी सिनेमा का पुराना सिध्दान्त रहा है।

          हालात सुधारने के लिए क्या करना चाहिए ? एक दो अच्छी फ़िल्में बनाने से भी कुछ नहीं होगा।  जब कुएं में ही भंग पड़ी हो तो नशीले तत्वों को भगीरथ प्रयासों से ही निष्क्रिय किया जा सकता है।  निर्माताओं को सुनिश्चित करना होगा कि वो भोजपुरी फिल्मों में भोजपुरी क्षेत्रों के लोगों को ही लें।  ऐसे लोग जो भाषा की ऐसी-तैसी ना करें।  ऐसी साफ सुथरी फ़िल्में तो बनायें जिन्हें सपरिवार देखा जा सके।  हालात देखकर ऐसा लगता है, जैसे आनेवाले  दिनों में भोजपुरी फिल्म इन्डस्ट्री देश की सबसे बड़ी सी ग्रेड फिल्म इन्डस्ट्री न बनकर रह जाए।  दुश्चिंता इस बात की है कि यही फूहड़ फ़िल्में कहीं हमारी पहचान बनकर स्थापित न हो जाएं।

          जो  भोजपुरिए हजारों मील दूर निर्जन टापूओं पर जाकर समृध्द देश बसा सकते हैं, उनकी अपनी ही फिल्मों की दशा इतनी बदतर कैसे हो सकती है ? क्यों न सारे भोजपुरी भाषी आपस में जुड़कर कुछ सोचें और सही राह निकालें।  जब फसलों को नीलगाय या बंदर नोचते बर्बाद करते हैं, छूटे सांड चर जाते हैं, तब किसान माथा पीटते हुए आत्महत्या नहीं कर लेते।  मिल जुलकर उनसे निदान का रास्ता भी ढूंढते हैं।  भोजपुरिया समाज इतना कमजोर भी नहीं हो गया कि फिल्मरुपी सरसों में लगने वाली अश्लीलता की 'लाही' का समय पूर्व इलाज न कर पायें :- 

"इससे कव्ल कि जख्म नासूर बन के सेहत पर घात करें
क्यों न सब छोड़ के इसके फौरी इलाज की बात करें"

 संपर्क सूत्र- 
 ए - 223 , मोर्या हाउस
 वीरा इंडस्ट्रियल ईस्टेट
 ऑफ ओशिवरा लिंक रोड
  अंधेरी  (पश्चिम ), मुंबई - 400053
  मोबाइल  (M ) - 9819343822
  E-mail : anjanisrivastav.kajaree@gmail.com
                srivastavanjani37@yahoo.com

रविवार, 10 जुलाई 2016

अंजनी श्रीवास्तव की कविता : बेटियां








शिक्षा : बीएससी , पीजीडीएमएम , डीटीएम
कार्य : स्वतन्त्र पत्रकारिता एवं लेखन के सभी आयामों में देश भर में समय - समय पर प्रकाशित।
"ऑडियोग्राफी की उड़ान " , " ध्वनि के बाजीगर " एवं " दोहा संग्रह" , दोहों के दंश " , पुस्तकें प्रकाशित। 
" भोजपुरी सिनेमा : तब अब सब " प्रकाशनाधीन
कई हिंदी एवं भोजपुरी फिल्मों का संवाद एवं गीत  लेखन
संप्रति " दी साउन्ड एसोसिएशन आफ इंडिया " का  कार्यपालक सचिव

बेटियां

कल तक खन -खन  चूड़ियां बजाती  हुई ऊपले  थापने
घर के लिये भूख -प्यास पर भारी  पड़ने
नापी -जोखी  हुई जमीन  पर परिक्रमा करने
और आंसुओं  के ताल में मुस्कुराहटों  के कमल खिलाने वाली
साड़ी ,सिंदूर और चूड़ियों  तक  महदूद बेटियां  आज
  सिर्फ चला  रही  हैं ट्रैनें
बल्कि  चला रही  हैं देश  भी
सिर्फ भर नहीं  रहीं ,बैठे -बैठे सपनों  की उड़ान
बल्कि  हकीकत में उड़ाने  लगी हैं लड़ाकू विमान
विकास की परछाईयों  से बहुत  दूर
सुहागन बनकर आंगन  में  गंगा नहाती
पति के पांवों  में तीरथ धाम  तलाशती
जातकों  की निश्छल  हंसी  में मंजिलें छूती
धूप के फैलाव  में समय की सूई  टटोलती
एक जिस्म पर ओढ़कर ,रिश्तों के कई -कई  चादर
गर्दिश और गुमनामी के गर्द में नहाकर भी
जिस तरह करती है मन की सुंदरता को अभिव्यक्त
क्या कर पायेगी किसी प्रेमचंद की कलम
मकबूल की कूंची
और किसी सम्वेदनशील फिल्मकार  की सिने-कृति ?
घर की दहलीज पर
दुनिया का ग्लोब  देखती ,
चूल्हे के धुओं  में अपना अक्स निहारती
परम्पराओं  की लीक  पर
बंद आंखों  से डग भरती
इस खूंटे  से उस खूंटे तक बंधती
विपत्तियों  की बाढ़ में साहस के पतवार से
जिंदगी की नाव खेती बेटियां
तो बस बेटियां ही होती हैं -
जैसी साहूकार की वैसी चर्मकार की..



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