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रविवार, 23 नवंबर 2014

पुस्तक समीक्षा - माफ करना हे पिता



   
            

दिनेश चन्द्र भट्ट गिरीश




         नैनीताल मुद्रण एवं प्रकाशन सहकारी समिति से प्रकाशित शंभु राणा की पुस्तक माफ करना हे पिता’ 36 व्यंग्यों का संग्रह है। संस्मरणात्मकता व्यंग्यों की प्रमुख विशेषता है। बहुत तल्ख अंदाज में सामाजिक विद्रुपताओं पर जबरदस्त ढंग से प्रहार किया गया है। समाज के जो आवरण समाज की सुन्दरता का आभास कराते हैं आवरण मुक्त होने पर स्थिति को घृणास्पद बना देते हैं। छद्म आदर्शों पर लेखक का रोष मुखर हो उठता है-‘‘........युद्ध के वास्तविक कारणों, जो कि अमूमन कुछ लोगों के अपने स्वार्थ होते हैं, पर तर्क संगत बात करें, वह गद्दार है। सामान्य दिनों में देश को अपनी माँ कहकर उसके साथ बलात्कार करने वाले अपनी माँ के खसम उन दिनों खूब भक्ति का दिखावा करते हैं।Þ

            हर युग में व्यवस्था के विरूद्ध अभिव्यक्ति व्यंग्यकार का काम्य है। व्यवस्थाएँ बदलती हैं विद्रूपताएँ नई-नई आकृतियाँ ग्रहण कर समाज को प्रभावित करती हैं। कबीर से लेकर वर्तमान तक व्यवस्थ्काओं पर व्यंग्यकार मुखर रहे हैं। शिक्षा व्यवस्था जिसे एक संवेदनशील व्यक्ति समाज का आधार बताता आया है लेकिन हमारी व्यवस्था उसे किस ढंग से नेस्तनाबूत करने पर तुली हुई है। मध्याह्न भोजन व्यवस्था जिसके कारण शिक्षण पर कितना दुष्प्रभाव पड़ रहा है; इसकी बाननी देखिए-‘‘रेत में सर छिपा लेने से तूफान की ताकत कम नहीं होती...........। शिक्षा को तो साँस लेने की तरह स्वाभाविक होनी चाहिए। लानत भेजिए इस व्यवस्था को जहाँ शिक्षा देने और मछली फाँसने में फर्क न हो कि लालच देना पड़े, चारा डालना पड़े। आओ बच्चों, अ आ पढ़ो फिर हम तुम्हें भात देंगे अहा यम-म-म।Þ .................. इस स्यवस्था का तो मतलब हुआ कि बच्चा खा-पीकर संड मुसंड हो जाए, मानसिक विकास की जरूरत नहीं। 
 
            बेरोजगारी का दंश झेल रहे पढ़े लिखे नौजवानों पर लेखक पुनः व्यवस्था की असफलता तथा बेरोजगार नौजवानों की व्यथा को प्रस्तुत करता है। जहाँ भी बेरोजगार जाता है वहीं उसे अनचाही सलाओं का सामना करना पड़ता है। हमारी व्यवस्था के नीति निर्धारक उन्हें नौकरी न कर व्यवसाय करने की सलाह देते रहते हैं। वहीं पारिवारिक सदस्यों का स्वभाव भी उन्हें विचलित करने के लिए कम नहीं है। साथ ही साथ एन0जी00 वालों पर करारा प्रहार किया है कि लोगों को जागरूक करने का जिम्मा आम व्यक्ति का और मलाई खाने का हमारा-‘‘हाय रे सादगी से लिपटा कमीनापन, तू खुद विश्वभ्रमण कर और मैं अपने घर खाकर बाजार में दुकानदारों से मार खाऊँ और लिफाफे बनाऊँ।Þ पिता के रिटायर हो जाने पर बेरोजगार पर क्या असर होता है-‘‘उनकी चुप्पी बोलने से ज्यादा चुभती है......... और आज पिताजी ने अर्थपूर्ण ढंग से अपनी बात भी कह दी एक सूचना के रूप में कि आज से ठीक एक वर्ष बाद मैं रिटायर हो जाऊँगा।Þ जो व्यक्ति भी बोराजगारी के दौर से गुजरा हो वही जानता है कि यह अच्छा समय तो नहीं ही होता-‘‘आज एक लतीफे नुमा कहावत सुनने को मिली कि जब आदमी का समय विपरीत चल रहा हो तो ऊँट की सवारी करते हुए भी कुत्ता काट लेता है।........... हमारी पीढ़ी एक दुर्घटना का नतीजा है..... वर्ना हमारी ऐसी कुकुरगत नहीं होती।Þ

            पुस्तक की प्रतिनिधि व्यंग्य माफ करना हे पिता में पिता की मृत्यु के बाद उन्हें उनके गुणों एवं दोषों सहित याद किया गया है। भावुकता की बिल्कुल गुंजाईश नहीं है। अपने पिता को कहीं भी आदर्श न मानकर अच्छाई और बुराई का सम्मिश्रण ही माना गया। जबकि होता यह है कि मृत्यु के बाद पिता देव-सम ही हो जाते हैं लेकिन लेखक के लिए उनका रोल घटिया अभिनेता की तरह ही है-‘‘लेकिन मैं उन्हें एकदम ही पीता नहीं कहने जा रहा। इसलिये नहीं कि मेरे बाप लगते थे बल्कि इसलिए कि चाहे जो हो आदमी कुल मिलाकर कमीने नहीं थे।Þ पिता के साथ बिताए 36 वर्षों का संस्मरणात्मक व्यंग्य में लेखक के पिता सांख्यकी विभाग में चपरासी थे। संस्मरणों का सिलसिला देहरादून और अल्मोड़ा का है। माता हमेशा बीमार रहने वाली जिस कारण पिता को ही बच्चों का ख्याल रखना पड़ा था। माता की मृत्यु के एक वर्ष बाद पिता द्वारा किए गए पुनः विवाह लेखक के जीवन की एक जबरदस्त फँास थी जिसे वह कभी अपने पिता को क्षमा नहीं कर पाया। ‘‘इसके पीछे सबसे बड़ा कारण मुझे बताया गया कि मेरी देखभाल कौन करेगा!........ कारण शुद्ध रूप से शारीरिक था इतनी समझ मुझमें तब भी थी (बाकी आज भी नहीं)। पिता अपने नीजी, क्षणिक सुख के लिए शादी करना चाह रहे थे। ............ मैं उनकी इस हरकत (शादी) को कभी भी नहीं पचा पाया।Þ विमाता से भी चार सन्तानों का जन्म होता है। ‘‘उन्होंने सन्तति के रूप में अपनी अन्तिम रचना रिटायरमैण्ट के बाद प्रस्तुत की। गोया रिटायर कर दिए जाने से खुश न हो और अपनी रचनात्मक क्षमता साबित कर उन्हें सरकार को मुहतोड़ जवाब दिया हो।Þ 

        रिटायरमैण्ट के बाद उन्हें लॉटरी के चस्के तथा लॉटरी का ज्ञाता होने का दर्प पिता हँसी के पात्र ही ज्यादा नजर आते हैं। रचना यत्र-तत्र हँस-हँसकर लोटपोट कर देने के साथ ही लेखक की आन्तरिक व्यथा, उसके एकाकीपन तथा अपने मित्रों पर बोझ बन जाने वाली स्थिति लेखक के प्रति संवेदना जगाती है। स्वप्न विश्लेषण के आधार पर नंबर बताने की सिद्धहस्तता की बानगी देखिए-‘‘सपने में अगर शादीशुदा औरत दिखे तो मतलब है कि आज जीरो खुलेगा, क्योंकि औरतें बिन्दी लगाती है। कुँवारी लड़की का नम्बर अलग बनता था और अगर प्रश्नकर्ता सपने में महिला के साथ कुछ ऐसी-वैसी हरकरत कर रहा हो उससे कुछ और नम्बर निकलता था।Þ
 
            सभी गुणों (कर्मठता, हुनरमंद, खिलाने-पिलाने के शौकीन आदि) एवं अवगुणों का समुच्चय माफ करना हे पिताव्यंग्य रचना लेखक के अनुसार-पिता जैसे थे मैंने ठीक वैसे ही कलम से पेंट कर दिए। न मैंने उनका मेकअप किया, न उनपर कीचड़ उछाला’- अक्षरशः सही साबित होता है।

            विवाह नामक संस्कार को भी बारीकी से देखने की जुर्रत लो साहब गुजर गये शादियों के भी दिन नामक व्यंग्य में की गई है। बाराती बनकर किया गया छिछोरापन परिणामस्वरूप पिटाई हो या दुल्हन की विदाई के समय रूलाई और उसी वीडियो को देखकर हँस-हँस कर दोहरी हो जाना या बैण्ड बाजे के साथ झुनझुना बजाने वाले की बेचारगी हो- ये सभी शादी के विविध रंग हैं जिनका चित्रण लेखक की पैनी नजर से कैसे बच सकते हैं। शादी के समय दुल्हा किसी संस्थान में अच्छे ओहदे पर स्थापित तथा लड़की कान्वेण्ट एजुकेटेड ही नजर आते हैं। समय बीतते-बीतते दूल्हा बेरोजगार तथा दुल्हन भी वैसी पढ़ी लिखी नहीं होती जैसे उसे बताया गया था। ‘‘तो साहब कुल मिलाकर आज तक न तो किसी को अपने ख्वाबों का हूबहू शहजादा मिला न शहजादी। ............. वैसे भी रील लाईफ और रियल लाईफ में धरती आसमान का अन्तर होता है ............ तो लड़कियाँ रोती हैं विदाई के समय तो ठीक ही रोती हैं और बाद में शादी की वीडियो की रिकार्डिंग देखते हुए हँसती हैं तो क्या बुरा करती हैं? Þ

     दो इकम दो ........ में अपने स्कूली दिनों की स्मृतियों से लबालब है कि किस प्रकार पढ़ाई की प्रक्रिया में यांत्रिकता तथा कतिपय शिक्षक-शिक्षिकाओं की फूहड़ता का संस्मरणात्मक चित्रण की बानगी देखए-‘‘एक दिन हेड टीचर जी ने दरवाजे से क्लास में झांका। अरे शीला सुन तो। शीला जी उनके पास गई-हाँ दीदी? हेड टीचर कहने लगी-हाय राम, मैं पेटीकोट उल्टा पहन लाई हूँ रे आज। क्या करूँ बतातो, सीधा पहन लूँ? शीला जी ने कहा-रहने दो दीदी कौन देख रहा है, घर जाकर पहन लेना। उन्हें बात पसंद आई, उल्टे से ही काम चला दिया।Þअध्ययन और अध्यापन का यथोचित सम्बन्ध सृजनात्मकता से है, जहाँ खानापूर्ति ही एक मात्र कार्य रह जाता है वहाँ यांत्रिकता और कृतिमता का आना स्वाभाविक है। तब शिक्षण सुचारू बनाने के लिए शारीरिक दंड ही अपनाये जाते रहे हैं। इस कारण शिक्षण प्रक्रिया एक बोझ बनकर ही रह जाती है। मार से बचने की नई-नई तकनीकें विद्यार्थी विकसित कर लेता है। ‘‘दिया हुआ काम बच्चे अगर न कर पाये तो उसे बिच्छू घास का जायका लेना पड़ता था या एक बड़ा सा पत्थर सर पर रखकर पीरियड भर धूप में खड़े रहना पड़ता था। ............... हमनें आत्मरक्षा के कुछ तरीके खोज लिए थे। मसलन वे गाल पकड़कर खींचे तो मुंह का सारा थूक खीचे जा रहे गाल की ओर शिफ्ट कर दो।Þ

            मनुष्य की आदम इच्छा रही है कि वह पूर्ण मर्द कहलाए। इसी लालसा को भड़काने और समग्रतः परितुष्ट कराने का दावा करने वाले दवा विक्रेता सड़क के किनारे मजमा लगाए हुए एक तथाकथित मर्द को हमेशा से आकर्षित करते आए हैं। मदारियों-दवाफरोशों का जमाना शीर्षक के अन्तर्गत लेखक ने दवा विक्रेताओं की विक्रय-शैली को व्यक्त किया है कि दवा से अधिक उनके डायलाग किस प्रकार आकर्षण के केन्द्र होते हैं। ‘‘बकौल उनके अक्सर भालू घास-लकड़ी को जंगल गयी महिलाओं पर क्यों झपटता है, क्योंकि वह शिलाजीत खाता है। कुछ मिलाकर वह चीज इतनी गर्म थी कि ग्रीन पीस वाले उन्हें बोलना सुन लेते तो पर्यावरण के नाम पर जरूर मुकदमा कर बैठते।Þ एक ही लक्ष्य और साधन कि किसी भी प्रकार स्वयं को सन्तुष्ट करने की अदम्य कामना का ईलाज-‘‘सभी दवाफरोशों की बातों का एक ही सार होता मानो औरत कोई अवैध निर्माण हो और पुरूष को चाहिए कि उसे ढहा दें।Þ सभी जानते हैं कि - दवाविक्रेता लोगों को ठग रहे हैं लेकिन आज उदारीकरण के नाम पर देश के करोड़ों का चूना लगाने वालों का तमाशा देखने के लिए देश अभिशाप है। करोड़ों का बजट अश्ली तमाशों में लिप्त हाइटैक तमाशागीर कब देश देश की छाती पर मॅूग दलते रहेंगे। ‘‘ इन बड़े मदारी जादूगरों का तमाशा, इस देश की जनता ने न जाने कब तक झेलने को अभिशाप है, जबकि इन छोटे सड़क छाप मदारियों की अब सिर्फ यादे ही बाकी रह गई हैÞ

      व्यंग्य संग्रह माफ करना है पिता लेखक की व्यावहारिक सोच का परिणाम है कि कथनी और करनी के बीच का फासला है उसी की उपज है यह व्यंग्य रचना। व्यंग्य रचना कागद लेखी से ज्यादा ऑखन देखि का परिणाम है। भाषा में चुटीलापन है जिस भाषा की अभिव्यक्ति में संकोच हो सकता है उसे बेखौफ होकर व्यक्त किया गया है। वही भाषा जो आम जन के बीच व्यवह्त होती है अगर सहन करना मुश्किल हो जाता है तो वह स्वाभाविक तौर पर फट पड़ती है। उदाहरणार्थ- ‘‘तो यार कभी -कभार किसी न किसी बहाने साम्प्रयादिक फसाद कर लिया करो। बहाने बहुतेरे हैं। भारत-पाकिस्तान का क्रिकेट मैच ही सही। क्योंकि हमें अपने बाप के मरने का उतना अफसोस नहीं होता जितना सचिन के 99 पर आउट हो जाने पर होता है। तो यारो दंगा-संगा टाइप का कुछ न कुछ होता रहना चाहिये शहर में ।Þ

          ‘‘इस देश के अधिकांश बुद्धिजीवियों की कोई भी समस्या तब तक टच नहीं करती जब तक खुद उनकी छाती पर घूंसा न पड़े। गीदड़ों के दरवार में फर्जी सलाम करने वाले शेर हैं ये सब।Þ नये-नये मुहावरों के प्रयोग जो लिखित स्वरूप में नहीं ही होते उनका उपयोग लेखक ने शिद्द्त से किया है- यथा खुला खेल फरूखाबादी, गोली देना आदि। स्थानीय शब्दों (चुतिया के, कुकुरगत्त, लौंडे लफाड़े, शिबौशिब आदि ) का प्रयोग करके भाषा की स्वाभाविकता को बड़ा दिया है व्यंग्य संग्रह की पठनीयता जबर्दस्त है। अन्ततः कहा जा सकता है कि रचना पठनीय एवं संग्रहणीय है।


शनिवार, 1 सितंबर 2012

शौचालय का अर्थशास्त्र

शौचालय का अर्थशास्त्र




 
दिनेश चन्द्र भट्ट ‘गिरीश‘
‘शौचालय‘ शब्द दो शब्दो के योग से बना है- ‘शौच‘ और ‘आलय‘ शौच शब्द ‘शुचि‘ से बना है जिसका अर्थ है-पवित्र। ऐसा ‘आलय‘ (भवन) जहां से व्यक्ति पवित्र होकर निकलता है। जिसका शौचालय जितना बडा वह उतना ही अधिक पवित्र-वर्तमान परिपेक्ष्य में यही अभिप्राय ज्यादा समीचीन है। ऐसे शौचालय का प्रयोग न कर पाने वालो को क्या कहा जाय-म्लेच्छ यही न।
              शुचिता या पवित्रता के पायदान पर हमारे देश में आज अगर कोई विराजमान हैं तो वे हैं- योजना आयोग के उपाध्यक्ष माननीय माण्टेक सिंह अहलू वालिया। 35 लाख रू0 खर्च करके दो भव्य शौचालय निर्मित करवाने वाले की शुचिता पर कैसे सन्देह किया जा सकता है। आर0टी0आई0 के तहत इस बात का उद्घाटन हुआ है। समग्र राष्ट्र के हितार्थ आर्थिक नियोजन करने का कार्य कितना मष्तिष्क को थकाने वाला होगा जिस कारण उन्हे कब्ज की शिकायत रहती होगी। उनके शुभचिन्तको ने उन्हे भव्य शौचालय निर्मित कराने की सलाह दी होगी। यह ऐसा शौचालय होगा जो संगमरमर से निर्मित उसकी दीवारें स्वर्णरचित और उसकी सामग्री रत्नखचित ही होगी ऐसा अनुमान मैं लगा रहा हूँ। शुचिता हेतु जब वे बैठते होगे मंद-मंद संगीत की सुरलहरियाँ बज उठती होंगी। वहाँ त्रिविध बयारि (शीतल, मंद, सुगन्धि से परिपूर्ण वायु) बहती होगी ताकि वे शुचिता परिपूर्ण होकर उस आलय से बाहर आये।
              मल-मूत्र विसर्जन के लिये एक और शब्द प्रयुक्त होता है- लघुशंका और दीर्घशंका। जब कोई व्यक्ति फ्रेश होने के लिये जाता है तो वह कहता है- दीर्घशंका हेतु जा रहा हूँ। निश्चय ही वह निम्नमध्य या मध्यम आर्थिक स्थिति वाला ही व्यक्ति है जिसे शंका है (लघु या दीर्घ) कि शारीरिक श्रम न करने अव्यवस्थित दिनचर्या, तनावग्रस्तता के कारण उसकी आँतो में पल रहे या सड रहे मलमूत्र का परित्याग वह यथोचित ढंग से कर पाता है या नही! उसकी शंका समाधान को प्राप्त ही होगी निश्चयपूर्वक कहा नहीं जा सकता अपच, अम्लीयता, गैस, बवासीर जैसी बीमारियाँ इसीलिये अस्तित्वमान है।
              निम्न आर्थिक स्थिति वर्ग का तो कहना ही क्या ‘मलत्याग‘ शब्द की अश्लील मानते हुए वह कहता है-दिशा मैदान जाना। आज के सन्दर्भ में उसमें ऐसा करने के लिए न तो कोई दिशा बची है और न मैदान ही। हाँ रेल लाईन या सड़क के किनारे समूह बनाकर मजबूरी में शर्म का परित्याग किए हुए बैठने को मजबूर है। रेल के ए0सी0 क्लास में सफर करने वाले भद्रपुरूष के लिए ऐसे दृश्य कितनी जुगुप्सा पैदा करते होंगे। देश की अधिसंख्य आबादी ऐसा करती है। इसे सहन भी तो करना ही पड़ता है कि एक चुनाव से दूसरे चुनाव तक वोट बैंक के रूप में इनका जीवित रहना कितना जरूरी है। अन्य समय अभावग्रस्तता में ये जियें या मरें किसे परवाह है।
              शौचालय के लिए यदाकदा ‘बाथरूम‘ का प्रयोग किया जाता है। कहीं-कहीं विद्यालयों में बच्चे मलमूत्र त्याग के लिए ‘बाथरूम‘ शब्द का प्रयोग करते हैं। जरूरतमंद व्यक्ति अगर किसी मंत्री या बड़े नेता के यहाँ पहुँच जाय तो वह नेताजी को घण्टों बाथरूम के आश्रय में पाता है। आज समझ में आ रहा है कि आलीशान शौचालय का उपयोग करने वाला बाथरूम की भव्यता से मोहित होकर ही घण्टों सुखभोग करता हुआ परितृप्त होकर वहाँ से निकलता होगा।
              तो बात निकली थी माण्टेक सिंह का शौचालय भव्य और आकर्षक शौचालय/आर0टी0आई0 के तहत हमारे देश की सभी उच्च-आर्थिक स्थिति वालों के शौचालयों की स्थिति का ब्यौरा मंगाया जाना चाहिए साथ ही विदेशों की ऊँची हस्तियों के शौचालयों से सम्बन्धित अभिलेख माँगे जाने चाहिए। सबसे महंगे शौचालय वाले का नाम गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज होना चाहिए। हो सकता है माण्टेक सिंह का नाम इस रिकार्ड में दर्ज हो जाय। अमेरिका के राष्ट्रपति इस हेतु उन्हें गले लगा लें जैसा कि पिछले माह एक अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर उन्होंने हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को गले लगा लिया था। इससे बड़ा सम्मान हमारे देश के लिए और क्या हो सकता है।
              शौचालय दीर्घशंका और दिशा मैदान का सम्बन्ध जीवन स्तर से ही है। जो व्यक्ति 35 लाख रू0 के शौचालयों का इस्तेमाल कर रहा है वह निश्चय ही छप्पन भोग का आनन्द तो लेता ही होगा। वह करोड़ालय (करूणालय नहीं) में तो अवश्य निवास करता होगा। उसके मातहत पलने वाले लोगों का जीवन स्तर भी उन्नत होता होगा। पत्रकारों को चाहिए कि वे उन सभी का साक्षात्कार ले (माण्टेक सिंह और उनके मातहतों से) और पूछें आपको कैसा लगता है इतने भव्य शौचालयों का उपयोग करते हुए? क्या-क्या विशिष्टताएँ है इन शौचालयों का उपयोग करते हुए? क्या-क्या विशिष्टताएँ हैं इन शौचालयों में? कितना आनन्द आता है शुचिता की प्रक्रिया में? आदि-आदि। हमारी नई पीढ़ी को यह जानकारी अवश्य ही होनी चाहिए ताकि उनका लक्ष्य बने-माण्टेक सिंह जैसा बनना और भव्य शौचालयों का सदुपयोग कर एक काबिल भारतवासी बनना। माता-पिता अपने बच्चों को एक सीख दें कि बनो तो माण्टेक सिंह जैसा अन्यथा मानुष देह धारण करने का क्या औचित्य ‘बड़े भाग मानुस तन पावा, सुर नर मुनि सदग्रंथन गावा‘। हमारा बचपन क्यों ऐसा आदर्श ग्रहण कर पा रहा है बड़ा चिन्तनीय विषय है।
बच्चे का मंहगा स्कूल हमारा आवास हमारी कार गहने आदि स्टेटस सिम्बल  हुआ करते है। स्टेटस मैण्टेन करने के लिए आज व्यक्ति क्या नही करता! गुणवत्ता से  अधिक प्रचलन का ध्यान रखा जाता है। हमारे  लिए सौभाग्य का विषय है। कि आज शौचालय स्टेटस सिम्बल बनने जा रहा है। सम्पन्नता की अभिव्यक्ति या व्यक्ति की पहचान इसलिए नही होगी कि वह किस कार में सवारी करता है। या उसके बच्चे  कितने मंहगे स्कूल में  पढ़ते है। या वह कितना मंहगा भोजन करता है। बस महत्वपूर्ण यह होगा कि उसका शौचालय कितना मंहगा है। और उसके भीतर किन-किन सुख सुविधाओं की ध्यान में रखा जाता है। अभी तक टायलेट से सम्बन्धित अब शौचालय से सम्बन्धित टायलेट सीट उसमे वाले मार्बल आादि का विज्ञापन अधिकाधिक देखने को मिलेगा। अगर कोई फिल्मी हस्ती तत्सम्बन्धी आइटम का विज्ञापन करे तो कहना ही क्या क्रिकेट स्टार घड़ी बेच रहा है। फिल्म अभिनेत्री कुरकरे खाकर और खिलाकर अपने  परिवार को सम्पन्न और खुशहाल बता रही है। इसी प्रकार का बहुत कुछ। लेकिन अब फिल्मतारिका और फिल्म स्टार टायलेट में बैठा यह बताने का प्रयास कर रहा होगा। कि फलॉँ कम्पनी की टायलेट सीट या शौचालय
में प्रयुक्त होने वाला मार्बल या इसी  तरह  के  अन्य आयटम आपको कैसे सुख प्रदान करते  है। अगर  आप  बताए  गए आयटम का प्रयोग  करते  है  तो आपका  जीवन  धन्य  हो जाएगा  और यह भी कि  आपका  शैाचालय आपके लिए गर्व और  पड़ोसी की ईर्ष्या का कारण भी होगा उस विज्ञापन  का मूलमंत्र होगा-उसका शौचालय आपके शौचालय से आकर्षक कैसे! उपभोक्ता के लिए अंग्रेजी का शब्द है-कष्टमर। अगर उपभोक्ता को आर्थिक तंगी से जीवन यापन करते हुए विज्ञापित वस्तुओं का प्रयोग स्टेटस के  दबाब में करना पड़े तो वह कष्टमर  ही है यानि आर्थिक तंगी  के कारण  कष्ट से  मरने  वाला। शौचालय  आज बाजार के मायावी संसार का प्रिय विषय बनने जा रहा है। यही प्रेरणा काम करने वाली है। कि आप अपने जीवन में भवन बनाएॅँ या न बनाये एक अदद आलीशान  शौचालय  अवश्य बनवा ले। ‘एक बंगला  बने  न्यारा‘ नही ‘एक शौचालय  बने उजियारा‘।
मुझे लगता है। कि माण्टेक सिंह का सम्बन्ध मण्टो की एक कहानी कि एक चरित्र टोबाटेक सिंह से है। कहें तो माण्टेक सिंह और टोबाटेक सिंह भाई भाई। टोबाटेक सिंह ने अपनी ऑँखिरी श्वास तक भारत विभाजन को स्वीकार नही किया। भारत  और पाकिस्तान के पूरे क्षेत्र को वह हिन्दुस्तान ही मानता आया दुर्भाग्य से पाकिस्तान में रहना पड़ा  हर समस्या की शिकायत वह पण्डित नेहरू से करने की बात कहा करता था इसी प्रकार माण्टेक सिंह आर्थिक विभाजन को स्वीकार नही करना चाहते। सभी भारतवासियों को वह खाते-पीते सम्बन्ध उभरती आर्थिक महाशक्ति वाले देश नागरिक समझते है अगर किसी व्यक्ति को भुखमरी, किसानों की आत्महत्या, भ्रष्टाचार, संशाधनो का असमान वितरण आदि समस्याएँ या विसंगतिया दिखाई देती है तो उसकी दृष्टि का दोष है उसकी भावना का दोष है- ‘जाकी रही भावना जैसी।‘ हमें बलिहारी होना चाहिये उस शौचालय का जिसके उपयोग के उपरान्त ऐसी कोई भी अनुभूति नही होती जो देश के लिये चिन्तनीय हो। वहाँ ऐसा अनुभव अवश्य होता होगा कि भारत 2020 तक विश्व की सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरने वाला है। ऐसा अनुभव प्रदान कराने वाला शौचालय अगर महिमामण्डित करने के योग्य नही तो और क्या है?
              काले धन पर इस वर्ष और विगत वर्ष अत्यधिक चर्चाएं हुई कि कालाधन विदेशों मे जमा है। कई लोगो ने विस्तर के अंदर दीवार की चिनाई में छत के भीतर आदि कई जगहों पर धन संचित किया हुआ था। हमारे देश के मनीषी इसे कालाधन बता रहे थे। अगर मेरे पास इतना धन होता तो मैं इसे काला नहीं रहने देता इसे पीला बना लेता। शौचालय की दीवारों को स्वर्णनिर्मित बनाकर भव्य शौचालय की निर्मिति के बाद भी अगर देश की तीन चौथाई आबादी बेधडक यत्र-तत्र दिशा मैदान वाला कार्य भी करती या 28 रू0 रोजाना कमाकर अमीर भी बन जाती तो मुझ पर क्या असर होता शायद कुछ भी नहीं क्योकि मैं तो उस भव्य शौचालय का उपभोग करने वाला होता जहां से गरीबी, बेकारी, भुखमरी, कुपोषणा, बदहाल व्यवस्थाऐं आदि तो कुछ भी महसूस नही होता । बचपन मे याद की हुई एक कविता का स्मरण मुझे इस संदर्भ में हो रहा है-
                            यदि होता किन्नर नरेश मैं, राजमहल में रहता।
                            सोने का सिंहासन होता, सिर पर मुकुट चमकता।।
                                                                                    -आमीन
पता-
द्वारा श्री चन्द्रवल्लभ पाण्डे
टनकपुर रोड चन्द्रभागा
पत्रालय-ऐंचोली
जनपद-पिथौरागढ़