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शनिवार, 5 सितंबर 2015

संस्मरण-जब मैं बीड़ी पीता था-रणीराम गढ़वाली



     समकालीन रचनाकारों में अपनी पहचान बना चुके रणीराम गढ़वाली का जन्म 06 जून 1957 को ग्राम मटेला जिला पौड़ी गढ़वाल , उत्तराखण्ड में हुआ था। इनकी कहानियां देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रही हैं। अब तक इनकी प्रकाशित कृतियों में -पखेरू, पतली गली का बंद मकान, खण्डहर, बुराँस के फूल, देवदासी, व शिखरों के बीच (कहानी संग्रह) प्रकाशित। आधा हिस्सा ( लघु कथा संग्रह)  तथा  दो बाल कहानी संग्रह। शीघ्र ही दो कहानी संग्रह मेरी चुनिंदा कहानियां व पिता ऐसे नहीं थे, जनवरी विश्व पुस्तक मेले तक प्रकाशित।

अनुवाद-  कन्नड़, तेलगू ,व असमिया भाषाओं में रचनाओं का अनुवाद।
सम्प्राप्ति- उत्तरांचल जनमंच पुरस्कार व साहित्यालंकार की उपाधि से सम्मानित।
सम्पादन-  काव्य संग्रह हस्ताक्षर का सम्पादन।
     अभी हाल ही में श्री गढ़वाली जी के बड़े भाई का आकस्मिक निधन हुआ है । शिक्षक दिवस पर शिक्षक सदृश्य भाई को पुरवाई परिवार नमन करता है । प्रस्तुत है संस्मरण- जब मैं बीड़ी पीता था


                      कवि मित्र गणेश गनी की वाल से साभार

      यह घटना तब की है जब मैं स्कूल पढ़ता था। तब मुझे बीड़ी पीने की लत लग गई थी। उस वक्त मुझे यह पता नहीं था कि बीड़ी पीना सेहत के लिए कितनी हानिकारक होती है। ;इसे पीने से कैंसर, टी. बी. व दमा जैसी गम्भीर बीमारियां लग जाती हैं।द्ध जब मेरे पास बीड़ी नहीं होती थी तो मैं चुपके से अपने पिता की जेब में से बीड़ी चुरा लिया करता था। सुबह स्कूल जाते हुए मै आधी बीड़ी पीता और फिर उसे बुझाकर आधी बीड़ी मैं हाफ टाइम में पीता था। पिता के जेब से बीड़ी चुराने की खबर न तो कभी पिता को ही लगी और न ही घर में किसी को पता चला कि मैं बीड़ी पीता हूँ। लेकिन एक बार मेरे बड़े भाई साहब दिलाराम गढ़वाली गाँव आए हुए थे। वे दिल्ली रेलवे में नौकरी करते थे। एक दिन जब वे अपने ससुराल जाने लगे तो उन्होंने मुझे भी साथ चलने को कहा। मैं बड़ा खुश हुआ और उनके साथ चलने के लिए जल्दी से तैयार हो गया था। क्योंकि इससे पहले मैं कभी भी उनके ससुराल नहीं गया था। जब हम दोनों भाई बाजार में पहुँचे तो उन्होंने मुझसे कहा, ‘‘यहाँ सिगरेट मिलती हैं?’’
    ‘‘हाँ...।’’ मैंने कहा।
    ‘‘कौन-कौन सी...?’’

    मैंने तुरन्त ही उन्हें कुछ नाम बताते हुए कहा, ‘‘पनामा, गोल्डन गोल्ड फ्लैक, कवैंडर्स...विल्स...।’’ और भी कई नाम थे जो अब मुझे याद नहीं हैं। लेकिन जितनी बिकती थी वे सभी बता दिए थे।

    मेरे शब्दों को सुनकर वे मुस्कराते हुए बोले, ‘‘इनमें सबसे अच्छी सिगरेट कौन सी है?’’
    ‘‘गोल्डन गोल्ड फ्लैक।’’ मैंने तत्परता से जवाब दिया।
    भाई साहब ने मेरे बताए अनुसार गोल्डन गोल्ड फ्लैक की एक डिब्बी ले ली थी। बाजार से भाई साहब के ससुराल के लिए चढ़ाई का रास्ता था। इसलिए चढ़ाई चढने के बाद पहाड़ की चोटी पर पहुँचकर जब हम सुस्ताने के लिए बैठे तो भाई साहब ने मेरी ओर सिगरेट की डिब्बी बढ़ाते हुए कहा, ‘‘ले सिगरेट पी।’’

    उनके इस ब्यव्हार को देखकर मैं घबरा गया था। मेरे चेहरे का रंग उतर गया था। अपनी घबराहट पर काबू पाने की कोशिश करते हुए मैंने कहा, ‘‘दद्दा मैं सिगरेट नहीं पीता।’’
    ‘‘अगर तू सिगरेट नहीं पीता तो बाजार में बिकने वाली सिगरेटों के बारे में तुझे कैसे पता कि गोल्डन गोल्ड फ्लैक अच्छी है? इसका मतलब यह है कि तू सिगरेट पीता है। ले सिगरेट पी? डर मत...। जो काम करना है वह सामने करो। चोरी-चोरी नहीं। पीता है तो पी।’’

   मैंने एक बार दद्दा की ओर देखा और फिर मैं डिब्बी में से सिगरेट निकाल कर पीने लगा तो दद्दा मुस्कराते हुए बोले, ‘‘इसका मतलब है कि तू पिता की जेब में से भी बीड़ियां चुराकर पीता होगा।’’
   मैंने हाँ में अपना सिर हिला दिया था।
   ‘‘चोरी करना बुरी बात है। बीड़ी पीनी है तो पिता से मांगो। छोटी-छोटी चीजें चोरी करते-करते आदमी बड़ी-बड़ी चोरियां करने लगता है। आज के बाद कभी भी पिता की जेब से बीड़ी मत चुराना। मैं तुम्हारे लिए दिल्ली से तुम्हारे नाम पर, तुम्हारे स्कूल के पते पर खर्चा भेज दिया करूँगा।’’

   दद्दा की बातें सुनकर मेरी नजरें झुक गई थी। मैंने सिगरेट तो ले ली थी। लेकिन अब मेरी हालात ऐसी हो गई थी कि न तो मैं सिगरेट ही फेंक पा रहा था और न ही मेरा सिगरेट पीने का मन ही कर रहा था। मैं दद्दा की नजरों में अपने आपको एक अपराधी महसूस करने लगा था। उस वक्त तो जैसे-तैसे मैंने वह सिगरेट पी ही ली। लेकिन मैंने उसी वक्त अपने मन में निश्चय किया कि आज के बाद मैं कभी बीड़ी नहीं पियूँगा, और न ही मैं पिता की जेब से बीड़ी चोरी करूँगा। जब तक दद्दा गाँव में रहे। मैं उनसे दूरियां बनाए रहा। हमेशा एक ही डर रहता था कि वे अन्य लोगों के सामने मुझे बीड़ी पीने के लिए न कह दें।

   उसके बाद जब दद्दा छुट्टियाँ बिताने के बाद वापस दिल्ली लौटे मैंने राहत की सांस ली। लेकिन उसके बाद मैंने आज तक कभी बीड़ी नहीं पी। अब से छः महीने पहले जब मैं दिल्ली में दद्दा के घर उनसे मिलने जाता तो वे इस बात को छेड़ते हुए हँसने लगते थे। उस वक्त मैं उनसे कहता, ‘‘दद्दा...कोई भी बड़ा अपने से छोटे के लिए यह नहीं कहता कि बीड़ी पी और आपने मुझे सिगरेट पिलवा दी।’’

   दद्दा हँसते हुए कहते, ‘‘समझदार के लिए इशारा ही काफी होता है। प्यार से जो काम होता है वह जोर-जबरदस्ती से नहीं होता। मैं तुझे थप्पड़ मारता तो तू आज भी बीड़ी पी रहा होता। मुझे पूरा यकीन था कि तू अब फिर कभी बीड़ी नहीं पिएगा। और वही हुआ जो मैं चाहता था।’’

   आज दद्दा नहीं हैं। लेकिन दद्दा की बातें व उनकी यादें मेरे लिए प्रेरणास्रोत बनकर मेरे जीवन को सींच रही हैं।

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