शनिवार, 24 मई 2014

किसने सोचा था-बिजेन्द्र सिंह






          2 अक्टूबर1995 को टिहरी गढ़वाल के खासपट्टी पौड़ीखाल के बाँसा की खुलेटी(गौमुख) नामक गांव में दलित परिवार में जन्में बिजेन्द्र सिंह ने राज्य स्तर पर खेल के अलावा विभिन्न क्षेत्रों में सराहनीय कार्य किया है।स्कूल में हमेशा पढ़ाई में प्रथम  आने पर सम्मानित भी हुए हैं। प्रवाह ,भाविसा और पुरवाई पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित वर्तमान में श्री गुरूराम राय पब्लिक स्कूल देहरादून में अध्ययनरत। आप सुधीजनों के विचारों की हमें प्रतीक्षा रहेगी।







बिजेन्द्र सिंह की कविता



किसने सोचा था कि
जो हाथ कल तक
दूसरे को बधाइयां देते
मिल रहे थे
वो एक दूसरे को
काटने के लिए तैयार हैं


जो लोग कल तक
एक दूसरे को गले लगाकर
खुशी मना रहे थे
वे एक दूसर का
गला काटने के बाद भी
दुखी थे

आखिर ऐसा क्या हुआ कि
इंसानियत को पीछे छोड़
ये लोग धरम को भगवान मान बैठे हैं
और दुश्मन बन बैठे हैं
उन तमाम लोगों के
जिन्हें शायद ये
पहचानते भी होंगे

आखिर क्यों
हल्के मनमुटाव पर भी
जला बैठते हैं कहीं घर
और उजड़ जाता है
तमाम इंसानियत का बसेरा

आखिर कब समझेंगे ये लोग
कि सालों से चलती रही
इन हिंसाओं से कोई लाभ नहीं हुआ
हुआ है तो सिर्फ
इंसानियत का नाश

अब वक्त गया है
समझने का
एक दूसरे का दुख दर्द बांटने का
नहीं तो वह दिन दूर नहीं
जब इंसानियत लोगों को
छू तक नहीं पायेगी

संपर्क. खासपट्टी पौड़ीखाल के बाँसा की खुलेटी(गौमुख)
       टिहरी गढ़वाल
       Mo-8171244006 

शुक्रवार, 9 मई 2014

कर गुजरना है कुछ ग़र :उमेश चन्द्र पन्त "अज़ीब"



उमेश चन्द्र पन्त

कर गुजरना है कुछ ग़रतो जुनूं” पैदा कर
हक को लड़ना हैरगों में खूं” पैदा कर
वतन की चमक को जो बढ़ाये
तेरी आँखों में ऐसा नूर” पैदा कर  
वतन पे कुरबां होना शान हैमाना
तू बस अरमां” पैदा कर
शम्सीर” बख़ुदा मिलेगी तुझे तू
तू हाथों में जान” पैदा कर
अहले वतन को जरूरत है तेरी
तू हाँ कहने का ईमान” पैदा कर  
सीसा नहींहौसला-ए-पत्थर है उनका
तू साँसों में बस आंच” पैदा कर 
फ़तह मिलकर रहेगी तुझे  
हौसला पैदा कर
रौंद न पाएंगे तुझे चाह कर भी वे
कुछ ऐसा मंज़र” राहों में पैदा कर
होंगे "ख़ाक" वे, सामने जो आयेंगे
तू सीने में बस, "आग" पैदा कर..



मेरे हमसफ़र आ

तुझे ले के चलूँ

इन फिज़ाओं मै कहीं....


इन हवाओ क साथ 
तुझे कहीं उड़ा के ले के चलूँ

मेरे हमसफ़र आ


तुझे ले के चलूँ

हुस्न की वादियों मैं


चाहत के समंदर मैं


बहाता ले चलूँ


मेरे हमसफ़र आ


तुझे दूर ले क चलूँ

तुझे एहसास दिलाऊं....


तुझे ये बताऊँ.....के तू मेरा है....


तू आया जब से..


मेरे जिन्दगी मैं नया सवेरा है

मेरे हमसफ़र आ


तुझे ले के चलूँ

पर्वतों के पार..


एक घाटी मैं


जो है वादे-वफ़ा से सरोबार


मेरे हमसफ़र आ


तुझे ले के चलूँ....

गुरुवार, 1 मई 2014

‘सूरज के बीज’ में जीवन के कई रंग




आज मई दिवस पर प्रस्तुत है काव्य संग्रह ‘सूरज के बीज’ की समीक्षा




             हिन्दी कविता में पूनम शुक्ला ने अपनी पहचान बना ली है इधर वे लगातार लिख रही हैं और अच्छी बात यह है कि छप भी रही है पूनम शुक्ला की कविताएँ हमारे जीवन और समाज की अक्कासी करती हुई एक बड़ी और विशाल दुनिया से हमारा नाता जोड़ती हैं उनकी कविताओं में प्रेम भी है,जीवन के स्याह- सफ़ेद रिश्ते भी हैं और एक महिला के सुख दुख भी हैं हालांकि वे स्त्री विमर्श को नारों की तरह इस्तेमाल नहीं करतीं,फिर भी वे महिलाओं की उस पीड़ा को बहुत ही शिद्दत के साथ अपनी कविताओं में उतारती हैं जो कहीं कहीं उनके जीवन को प्रभावित करती हैं उनके उस रंग को उनके पहले संग्रह "सूरज के बीज" में भी देखा जा सकता है "सूरज के बीज " का प्रकाशन हाल ही में हुआ है और अपने इस पहले काव्य संग्रह में पूनम शुक्ला जीवन के उन स्याह सफेद रंगों को हमारे सामने रखती हैं ।फ्लैप पर कवि मित्र श्याम निर्मम नें सही ही लिखा है कि पूनम शुक्ला नें कविता लिखना किसी पाठशाला में नहीं सीखी है बल्कि जीवन की पाठशाला नें उन्हें जो सिखाया पढ़ाया पूनम शुक्ला ने उसे अपनी कविताओं में पिरोकर पाठकों के सामने पेश किया
 
                         पूनम शुक्ला भाषा के स्तर पर प्रयोग करती हैं,नए बिंब रचती हैं और नए मुहावरे भी गढ़ती हैं संग्रह की कविताओं में इसे देखा समझा जा सकता है उनकी कविताओं में महिला की पीड़ा तो है ही,प्रकृति के रंग भी शिद्दत से बिखरे दिखाई पड़ते हैं कुछ कविताओं में वो खुद से भी मुख़ातिब हैं लेकिन ये खुद से मुख़ातिब होना दरअसल उस स्त्री से मुखातिब होना है जो अक्सर भीड़ में खुद को अकेली और असहाय खड़ा पाती है

 
                 'पहचानों' शीर्षक कविता में वे बहुत ही सहजता के साथ सवाल करती हैं- ' क्या आंसुओं से लिपटी/ उस आवाज़ को/ सुन सके हो तुम,/ नारी के आंसुओं की आवाज़ / जिनमें ममता छिपी है/और आदर्श भी/जिनमें विनम्रता है असीम/ और सहज कोमलता भी ' बहुत ही सहजता से वे ऐसे सवाल बार-बार अपनी कविताओं में उठाती हैं औरत और मर्द के सवालों से वे बार- बार जूझती हैं एक दूसरी कविता में वे कहती हैं ' फिर कहीं/ औरत झुकी है/ फिर कहीं/ इज्जत लुटी है/ आज दो हैं / कल चार होंगे / रोज ही औरत/ पिटी है ' समाज में औरत की आज जो स्थिति है पूनम शुक्ला उसे साफ़गोई से कविताओं के ज़रिए हमारे सामने रखती हैं संग्रह में और भी ऐसी कविताएँ हैं जो जीवन के कड़वे और तल्ख़ हक़ीक़त को बहुत ही शिद्दत के साथ बयां करती हैं लेकिन संग्रह में इससे इतर मूड की भी कविताएँ भी हैं,जिनमें प्रकृति के कई- कई रंग दिखाई देते हैं ये कविताएँ उम्मीद की हैं,विश्वास की हैं और जीवन की हैं

फ़ज़ल इमाम मल्लिक
उप संपादक जनसत्ता दिल्ली
संपादक सनद पत्रिका

 


                          पूनम शुक्ला

 सूरज के बीज ( काव्य संग्रह ) : कवयित्री : पूनम शुक्ला,प्रकाशक : अनुभव प्रकाशन, - 28, लातपत नगर,साहिबाबाद, गाजियाबाद ( उत्तर प्रदेश ) मूल्य : एक सौ पचास रुपए