उमेश चन्द्र पन्त
कर गुजरना है कुछ ग़र, तो “जुनूं” पैदा कर
हक को लड़ना है, रगों में “खूं” पैदा कर
वतन की चमक को जो बढ़ाये
तेरी आँखों में ऐसा “नूर” पैदा
कर
वतन पे कुरबां होना शान है, माना
तू बस “अरमां” पैदा कर
“शम्सीर” बख़ुदा
मिलेगी तुझे तू
तू हाथों में “जान” पैदा कर
अहले वतन को जरूरत है तेरी
तू हाँ कहने का “ईमान” पैदा
कर
सीसा नहीं, हौसला-ए-पत्थर है
उनका
तू साँसों में बस “आंच” पैदा
कर
फ़तह मिलकर रहेगी तुझे
हौसला पैदा कर
रौंद न पाएंगे तुझे चाह कर भी वे
कुछ ऐसा “मंज़र” राहों
में पैदा कर
होंगे "ख़ाक"
वे, सामने जो आयेंगे
तू सीने में बस, "आग" पैदा कर..
तू सीने में बस, "आग" पैदा कर..
मेरे
हमसफ़र आ
तुझे ले के चलूँ
इन फिज़ाओं मै कहीं....
इन हवाओ क साथ
तुझे ले के चलूँ
इन फिज़ाओं मै कहीं....
इन हवाओ क साथ
तुझे
कहीं उड़ा के ले के चलूँ
मेरे हमसफ़र आ
तुझे ले के चलूँ
हुस्न की वादियों मैं
चाहत के समंदर मैं
बहाता ले चलूँ
मेरे हमसफ़र आ
तुझे दूर ले क चलूँ
तुझे एहसास दिलाऊं....
तुझे ये बताऊँ.....के तू मेरा है....
तू आया जब से..
मेरे जिन्दगी मैं नया सवेरा है
मेरे हमसफ़र आ
तुझे ले के चलूँ
पर्वतों के पार..
एक घाटी मैं
जो है वादे-वफ़ा से सरोबार
मेरे हमसफ़र आ
तुझे ले के चलूँ....
मेरे हमसफ़र आ
तुझे ले के चलूँ
हुस्न की वादियों मैं
चाहत के समंदर मैं
बहाता ले चलूँ
मेरे हमसफ़र आ
तुझे दूर ले क चलूँ
तुझे एहसास दिलाऊं....
तुझे ये बताऊँ.....के तू मेरा है....
तू आया जब से..
मेरे जिन्दगी मैं नया सवेरा है
मेरे हमसफ़र आ
तुझे ले के चलूँ
पर्वतों के पार..
एक घाटी मैं
जो है वादे-वफ़ा से सरोबार
मेरे हमसफ़र आ
तुझे ले के चलूँ....
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें