शुक्रवार, 29 सितंबर 2017

सतीश कुमार सिंह की कविताएं




  
                      05 जून सन 1971

    इनकी कविताओं का प्रकाशन वागर्थ, अतएव , अक्षरा , अक्षर पर्व , समकालीन सूत्र , साम्य , शब्द कारखाना , आजकल , वर्तमान साहित्य सहित प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में ।
आकाशवाणी भोपाल , बालाघाटरायपुर , बिलासपुर केंद्रों से रचनाओं का प्रसारण ।
संप्रति - शासकीय बहुउद्देशीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय जांजगीर क्रमांक -2 में अध्यापन ।

    सतीश कुमार सिंह  की कविताएं जहां अनुभव की गहन आंच में रची पगी हैं वहीं अनगढ़ आत्मीयता की मौलिक मिठास लिए हुए हैं। सतीश कुमार सिंह  के कवि की सबसे मूलभूत ताकत अपनी माटी, अपने अनमोल जन, गांव-जवार और बाग -बगिचे हैं। जहां कवि पला बढ़ा है वहीं की चीजों से कविता का नया शिल्प गढ़ता है और भाषा को तेज धार देता है जिससे कविता जीवंत हो उठती है। सभी देशवासियों को विजय दशमी की ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ आज पढ़ते हैं सतीश कुमार सिंह  की कविताएं-

1- सिक्का

 इसके साथ जुड़े हैं
कुछ इंसानी करतब और
 तरकीबें
 इसलिए यह चलता भी है
 उछलता भी ।

 जाने कबसे कायम है
 कुछ खास खास जगह
 खास खास लोगों का सिक्का ।

 कहते हैं सिक्का जम जाने पर
 अपने आप फलने फूलने लगता है
 अंधेरे में कारोबार
 कई कई तरह के क्रिया व्यापार ।

 जनता इसे नहीं उछालती
 इसके साथ उछलती है ज्यादा
 तलाशी जाती हैं
 उसके इस तरह उछलने की वजहें ।

 किसी निर्णय पर पहुँचने
 जरूरी है सिक्के का उछलना ।

 शोले फिल्म के जय बीरू
 हेड और टेल पर
 जान की बाजी लगाते हैं
 सिक्के को
 बाजार में नहीं
 हवा में चलाते हैं ।

 चिल्हर नहीं है कहकर
 चॉकलेट या टॉफी थमाने वाले
 हमें बाजार का असली चेहरा दिखाकर संतुष्ट करने की
 कोशिश में लगे होते हैं ।

 इस बार जरूर चलेगा
 जनता का सिक्का
 इस उम्मीद में हम बार बार
 चुनाव चिन्ह में
 मुहर लगाते हैं
 वे फिर से अपना सिक्का
 बेखौफ होकर चलाते हैं ।



2- सोचते ही

 यह सोचते ही कि
 वह नहीं आएगा अब
 इंतजार की उत्कंठा खत्म हो गई ।

 यह सोचते ही कि
 आज बादल बरसेगे जरूर
 भीतर हरिया गया बहुत कुछ ।

 यह सोचते ही
 कि रोपूंगा गमले में
 मधुमालती के पौधे
 मेरे बगीचे में फूलों से लदी
 रातरानी बिहँस उठी ।

 यह सोचते ही कि
 सर्दी बढ़ गईं हैं इस बार
 दांत किटकिटाने लगे
 ठिठुरने लगी उंगलियां ।

 सोचते सोचते कितना कुछ
 होता है महसूस
 कितना कुछ घट जाता आसपास
 सोचते सोचते ।
संपर्क-
सतीश कुमार सिंह
पुराना कालेज के पीछे  ( बाजारपारा ) जांजगीर 
जिला - जांजगीर -चांपा ( छत्तीसगढ़ ) 495668 मोबाइल नं . 094252 31110


मंगलवार, 12 सितंबर 2017

आशीष बिहानी की कविताएँ



   

   आशीष बिहानी बीकानेर से आते हैं और वर्तमान में कोशिका एवं आणविक जीव विज्ञान केंद्रए हैदराबाद में पीएचडी कर रहे हैं।
इनका पहला काव्यसंग्रह अंधकार के धागे, हिन्दण्युग्म द्वारा 2015 में प्रकाशित । समालोचन, पहलीबार, पूर्वाभास,स्पर्श आदि ई पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित ।
         इनकी पिता पर लिखीं कविताएँ आशा है आपको अच्छी लगेंगी। पुरवाई में आपका स्वागत है।


मेरे पापा बहुत अच्छे पेड़ हैं
1-
 
मेरे पापा बहुत अच्छे पेड़ हैं  
उनका हमेशा से सपना था 
 कि हम अच्छे पेड़ बनें  
पर कभी हमसे कहा नहीं

उन्होंने कहा 
कि तुम विद्रोह करो  
पर शांति से

उनके उघड़ेपन ने हमें भीगने नहीं दिया  
उनके कठोर हाथों ने हमारे जीवन में घर्षण नहीं पैदा किया  
उनके बाल हवा में सरसराकर भी बिखरते नहीं  
उनकी मूंछ कभी चाय से गीली नही होती.
2-
 
मेरे पापा बहुत अच्छे पेड़ हैं  
घंटों भारी भरकम रजिस्टर लिए बैठे-बैठे  
उनके पैर लकड़ी के काउंटर में जड़ें जमा लेते हैं

सहज कर देते हैं वो  
लोगों का आना और बैठना  
और प्रलाप करना
 
वो सुबह जम्हाई लेते हैं तो  
शेष बची थकान  
पीठ से जड़ों की मिट्टी बांधे निकल आती है
3-
 
मेरे पापा बहुत अच्छे पेड़ हैं 
 वो टस से मस नहीं हुए 
 मृत्यु और ऊब की डूब में

उनकी जड़ों में गांठें हैं  
संस्थागत ऋण  
रीति-रिवाज़
भूमंडलीकरण और व्यक्तिवाद
नियम-कानून व्यापार और विचार
 
कहीं गहरे दबे हैं 
भयावह युद्ध की राख  
किसी के धुंधले कड़वे बोल  
कई समानांतर विश्व

जमाए हुए पकड़
पानी की खोज में  
बहुत गहरे

Email-ashishbihani1992@gmail.com

शुक्रवार, 1 सितंबर 2017

पहाड़ पर बचपन.....जगमोहन सिंह जयाड़ा ‘जिज्ञासू’,






उत्तराखण्ड के टिहरी जनपद, चन्द्रवदनी क्षेत्र के नौसा-बागी गांव में 21 जुलाई, 1963 को जन्में जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासू ने अपनी साहित्यिक यात्रा गढ़वाली कविताओं के सृजन से की। इनका पहला गढ़वाली कविता संग्रह अठ्ठैस बसंत हिमवंत कवि चन्द्र कुंवर बर्त्वाल जी को समर्पित है।  इनकी रूचियां -छायाकारी, उत्तराखण्ड भ्रमण, कविता सृजन, बांसुरी वादन में है। पहाड़ से दूर दर्द भरी दिल्ली प्रवास ने इनके मन में कवित्व पैदा किया और 1997 से गढ़वाली कविताओं का सृजन लगातार जारी है। अब तक लगभग एक हजार से भी ज्यादा गढ़वाली कविताओं का इन्होंने सृजन किया है।  इनकी गढ़वाली कविताएं हिलवाणी, हिमालय गौरव उत्तराखण्ड, जागो उत्तराखण्ड, स्टेट एजेंडा, रंत रैबार, यंग उत्तराखण्ड, कुमगढ़, मेरा पहाड़, पहाड़ी फोरम और फेसबुक पर प्रकाशित हैं। पुरवाई में आपका स्वागत है।

पहाड़ पर बचपन.....

पहाड़ से ऊंचा उठने की,
प्रेरणा लेते हुए बीतता है,
तभी तो पर्वतजन,
जिंदगी की जंग जीतता है।

पहाड़ पर बहती नदी भी,
प्रेरणा प्रदान करती है,
किनारे कितने ही कठोर हों,
ऐसे ही जिंदगी में,
बाधाएं आएंगी और जाएंगी,
जिंदगी में जीतना है,
हारना मंजूर नहीं,
सीख लेता है बचपन।

पहाड़ की पीठ पर,
पगडंडी पर चढ़ते हुए,
दूर धारे से पानी,
भरकर लाते हुए,
बुरांस के फूल निहारते हुए,
काफल खाते हुए,
पहाड़ पर दूर दूर,
बिखरे हुए गांवों में,
रात्रि में टिमटिमाती,
रोशनी को निहारते हुए,
मधुर लोकगीत गाते,
ग्रामवासियों के संग,
बीतता है बचपन।

बांज बुरांस के सघन वन,
पक्षियों का कोलाहल,
मंद मंद बहती ठंडी हवा,
बहती जल धाराएं,
भागता हुआ कोहरा,
प्रकृति का सौन्दर्य,
देखता और अहसास करता है,
पहाड़ पर बचपन।
 
संपर्क सूत्र-
जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासू,
सहायक अनुभाग अधिकारी,
उर्वरक उद्योग समन्वय समिति,
सेवा भवन, आर.के.पुरम,
नई दिल्ली-110066

मोबा0 - 09654972366