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मंगलवार, 30 जून 2015

लोक का आलोक- पहाड़ से : चिन्तामणि जोशी


एक

साहित्य की परिवर्तनकारी भूमिका पर चिन्तन-मनन एवं समकालीन कविता, कहानी एवं आलोचना पर गम्भीर चर्चा-परिचर्चा के उद्देश्य से देश के विभिन्न हिस्सों से प्रतिष्ठित कवियों, कथाकारों, आलोचकों व चित्रकारों का एक सप्ताह के लिए निजी संसाधनों से पिथौरागढ़ में जुटना, ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर पहाड़ की लोक संस्कृति और जीवन संघर्ष से अवगत होना और लोक जीवन तथा संस्कृति में आ रहे परिवर्तनों का अध्ययन करना सीमान्त पिथौरागढ़ के लिए तो एक ऐतिहासिक अवसर था ही, साहित्यकारों की लोक प्रतिबद्धता का भी अनूठा उदाहरण था। स्थानीय साहित्यकारों के ‘उत्तराखण्ड लोकतांत्रिक साहित्य-संस्कृति मंच, पिथौरागढ़’ की इस आयोजन के साथ उक्त से इतर भी एक सोच थी कि स्थानीय प्रतिभाओं को राष्ट्रीय स्तर के साहित्यकारों से संवाद का अवसर मिलेगा, विभिन्न हिस्सों से आए साहित्यकार यहां के अनुभवों को लेकर लौटेंगे तो उन्हें अपनी रचनाओं में दर्ज करेंगे जिससे हमारे अंचल की नैसर्गिक सुषमा एवं सांस्कृतिक सम्पन्नता को पर्यटन के मानचित्र में एक नई पहचान मिल पाएगी और स्थानीय साहित्यकार संगठित होकर भविष्य में जनपद में बेहतर साहित्यिक वातावरण सृजित कर सकेंगे। सुखद है कि आयोजन की सफलता के साथ ही इस सोच की सार्थकता भी दिखाई देने लगी है।

08 जून 2015 को ठीेक 11.00 बजे पहाड़ी स्थापत्य कला में निर्मित ‘बाखली’ के वृहद् कक्ष में सात दिनी लोक-विमर्श शिविर का आरंभ 17,000 से अधिक चित्रों को अपनी तूलिका से सजा चुके चर्चित चित्रकार कुंवर रवीन्द्र की एकल चित्र एवं कविता-पोस्टर प्रदर्शनी के साथ होना अपने आप में एक रोमांचित करने वाला अनुभव था। उद्घाटन अवसर पर जैसे ही स्थानीय किसान श्री मोहन चन्द्र उप्रेती के हाथ में रिबन काटने के लिए कैंची दी गई और स्थानीय चित्रकार श्री ललित कापड़ी ने किसान के हाथ को सहारा दिया तो लोक-विमर्श लिखे लिफाफे का मजमून सबके लिए खुलता चला गया।

      ‘बाखली’ में 60 चित्रों से सजी जगमगाती चित्र वीथिका साहित्यकारों के साथ ही नगरवासियों के लिए भी आकर्षण का केन्द्र बनी रही। 08 से 13 जून तक इसे देखने के लिए भीड़ जुटी रही। कला-साहित्य प्रेमियों, प्रिंट तथा इलेक्ट्रानिक मीडिया के साथियों के साथ ही माध्यमिक विद्यालयों के विद्यार्थी समूहों एवं महाविद्यालय के विद्यार्थियों ने भी प्रदर्शनी का अवलोकन किया। धूमिल, मुक्तिबोध, नागार्जुन, रघुवीर सहाय, शील, मान बहादुर सिंह, केशव तिवारी, नवनीत पांडे, महेश पुनेठा, रेखा चमोली सहित हिन्दी के तमाम कवियों के कैनवास पर जीवन के विविध रंग बिखेरते शब्दों की तपिश सभी के अंतस तक पहुँच रही थी। शील की कविता ‘फिरंगी चले गए’ का पोस्टर हो या मान बहादुर सिंह की पंक्तियां- उनकी जिद वेद है/बाइबिल और कुरान है/उनकी जिद गोला और बारूद है; महेश पुनेठा कह रहे हों- ‘जिस वक्त में/कुचले जा रहे हैं फूल/मसली जा रही हैं कलियां/उजाड़े जा रहे हैं वन कानन/वे विमर्श कर रहे हैं/फूलों के रंग- रूप पर’ या फिर धूमिल की ‘अंतर’ हो-‘कोई पहाड़/संगीन की नोक से बड़ा नहीं है/और कोई आंख छोटी नहीं है समुद्र से/यह केवल हमारी प्रतीक्षाओं का अंतर है/जो कभी हमें लोहे या कभी लहरों से जोड़ता है’-सहज ही दिल-दिमाग-दृष्टि पकड़ रहे थे। लोग बरबस ठहर रहे थे। सोच रहे थे। चित्रों में प्रदर्शित स्याह-धूसर रंग पर बातें कर रहे थे। इनमें उन्हें जीवन का संघर्ष दिख रहा था सो ये चित्र लोगों को उदास कतई नहीं कर रहे थे।

      बाद में डॉ0 जीवन सिंह ने कुछ चित्रों की काली पृष्ठभूमि को उद्धृत करते हुये अपने ब्याख्यान में कहा कि हमारे जीवन में अंदर तक पुत चुका काला रंग वास्तव में चिन्ता का विषय बन चुका है। फतेहपुर से आये साहित्यकार प्रेमनन्दन का कहना था कि कुंवर रवीन्द्र के कविता-पोस्टर, कविता की प्रभावशीलता को बहुगुणित कर देते हैं। शब्दों में निहित ताप जब कैनवास पर रंगों को तपाता है तो मानो कविता में बिम्ब खिल-खिल उठते हैं और उनकी तपिश महसूस की जा सकती है।

      चित्र प्रदर्शनी ने स्थानीय मीडिया का ध्यान भी बखूबी आकृष्ट किया। जहां एक ओर इलेक्ट्रानिक मीडिया के विजयवर्धन, मंकेश पंत आदि रवीन्द्र जी से संवाद करते देखे गये तो अमर उजाला ने लिखा- यह प्रदर्शनी कला और कविता को जोड़ने का प्रयास है जो लोगों को सच्चाई का बोध कराती है। दैनिक जागरण के अनुसार प्रदर्शनी कलात्मक एवं सृजनात्मक दोनों पक्षों को आवाज देने में सफल रही और दैनिक हिन्दुस्तान ने इस प्रदर्शनी को साहित्य के विद्यार्थियों के लिए बेहद उपयोगी बताया।
      

वरिष्ठ श्रमजीवी पत्रकार श्री बद्री दत्त कसनियाल की अध्यक्षता एवं स्थानीय कवि चिन्तामणि जोशी के संचालन में सम्पन्न द्वितीय सत्र में कवि-आलोचक महेश चन्द्र पुनेठा ने शिविर में प्रतिभाग कर रहे साहित्यकारों का साहित्यिक परिचय देते हुए शिविर की रूपरेखा प्रस्तुत की। हमीरपुर से आये युवा कवि-समीक्षक अनिल अविश्रान्त ने महानगर केन्द्रित छद्म साहित्यिक गतिविधियों एवं साहित्यकारों के नैतिक अवमूल्यन को साहित्य द्वारा परिवर्तनकारी भूमिका न निभा सकने का कारण बताया। इस अवसर पर मुख्य वक्ता अलवर से आये वरिष्ठ आलोचक डॉ0 जीवन सिंह का ‘‘साहित्य की परिवर्तनकारी भूमिका’’ पर लगभग सवा घंटे का व्याख्यान बहुत उपयोगी एवं जानकारीपरक रहा। उन्होंने कहा- सत्ता(राजा) के प्रभाव में रचे गए साहित्य ने सदैव साहित्यकार को ही नहीं समाज को भी पीछे धकेला है। इससे समाज स्वजीवी के वजाय परोपजीवी बना है। जो साहित्यकार जीवन के जितना पास रहेगा, जिन्दगी की जितनी अधिक चिन्ता करेगा, वह उतना ही बड़ा साहित्यकार बनेगा। मुक्तिबोध को याद करते हुए उन्होंने कहा कि हमारी कविता को फैलना जरूरी है। कबीर और तुलसी के सृजन से उन्होंने  साहित्य की परिवर्तनकारी भूमिका के विविध स्वरूपों को स्पष्ट किया। साहित्यकारों एवं मसिजीवियों से उन्होंने अपेक्षा की कि उन्हें अपने प्रति निरंतर असुविधाजनक प्रश्न उठाने चाहिए। पढ़ा-लिखा वर्ग परिवर्तनकारी भूमिका में हो न कि लुटेरी। संवाद प्रक्रिया में वरिष्ठ आलोचक ने युवा रचनाकारों दिनेश चन्द्र भट्ट, आशा सौन, विनोद उप्रेती आदि की शंकाओं का समाधान करते हुए कहा कि यदि सामाजिक समानता, स्वतंत्रता एवं मूल्यों को केन्द्र में रखकर साहित्य सृजन किया जाय तो वह परिवर्तनकारी भूमिका निभा सकता है।

      अध्यक्षीय संबोधन में श्री बद्री दत्त कसनियाल ने आदमी और आदमी के बीच भेद पैदा करने वाली सृजन धारा की कठोर निन्दा की। उन्होंने कहा कि जिन साहित्यकारों को हमारी भावी पीढ़ी अपने पाठ्यक्रम में पढ़ती-समझती है उन्हें अचानक अपने मूल्य परिवर्तित कर सत्ता से बड़े-बड़े पुरस्कार प्राप्त करते देखना बहुत दुखद होता है। रचनाकार का जीवन एवं रचनाकर्म ऐसा हो कि अध्येता उसे लीक से हटकर देखें।
लोक-विमर्श में कुंवर रवीन्द्र और उनके कविता-पोस्टरों ने जहां  शिविर को एक विशिष्ट ऊंचाई प्रदान की वहीं डॉ0जीवन सिंह और श्री कसनियाल के उद्बोधन ने एक संतुलित गहराई का अहसास कराया। कहा जा सकता है कि एक अच्छे आरंभ ने पहले ही दिन कार्यक्रम को एक बेहतरीन दिशा प्रदान की।

दो
9 जून को प्रातः विभिन्न प्रांतों से आए 19 साहित्यकारों के दल का राजकीय इण्टर कालेज देवलथल पहुँचने पर बाराबीसी उत्थान समिति, स्थानीय जनता तथा विद्यार्थियों द्वारा उत्साहपूर्वक स्वागत किया गया। परिचयादि संक्षिप्त औपचारिकताओं के पश्चात् साहित्यकारों ने रचना प्रक्रिया पर बच्चों के साथ विस्तार से चर्चा-परिचर्चा की एवं उनकी जिज्ञासाओं को शांत किया। भोजन के उपरांत साहित्यकारों ने आस-पास के गाँवों का भ्रमण कर ग्रामीणों से संवाद किया। इस दौरान उन्होंने ग्राम्य जीवन, रहन-सहन, खान-पान, संस्कृति-परंपरा आदि को नजदीक से जानने-समझने का प्रयास किया। एक विवाह समारोह में पारंपरिक छलिया लोक नृत्य का आनन्द लिया। हल-बैल, खेत-बटिया, हिसालू-किरमोड़ा, धारा-नौला-डिग्गी से साक्षात्कार किया।

तीन
10 जून को आचार्य उमाशंकर सिंह परमार ने लोक के आलोक में प्रथम सत्र की भूमिका प्रस्तुत की और ‘‘साहित्य की लोकधर्मी चेतना’’ पर डॉ0 जीवन सिंह का व्याख्यान हुआ। श्री सिंह ने स्पष्ट किया कि लोकधर्मी चेतना के साथ सृजित साहित्य जीवन के बहुत बड़े और विस्तृत फलक पर अंकित साहित्य है। रीति कविता एक सिमटी-सिकुड़ी दुनियां की कविता है जबकि उससे ठीक पहले की भक्ति कविता में केवल राजा का ही नहीं प्रजा का जीवन भी उतनी ही महिमा और महत्व के साथ चित्रित है। श्री सिंह ने संस्कृति को संवारने में पहाड़ों की भूमिका का उल्लेख करते हुए कहा कि पहाड़ ही नदियों के जनक हैं और नदियों के परितः ही साहित्य, संस्कृति व सभ्यता विकसित हुई है। 

द्वितीय सत्र में श्री रमेश भट्ट की अध्यक्षता एवं मृदुला शुक्ला के संचालन में केशव तिवारी, महेश पुनेठा, प्रेम नंदन, चिन्तामणि जोशी, मृदुला शुक्ला, रश्मि भारद्वाज, कुंवर रवीन्द्र, अनिल अविश्रांत, जनार्दन उप्रेती, नवनीत पांडे, आशा सौन, जयमाला देवलाल एवं प्रकाश जोशी ने अपनी पांच-पांच कविताओं का पाठ किया।

राजकुमार राकेश की अध्यक्षता में तृतीय सत्र में कविताओं की समीक्षा की गई। डॉ0 जीवन सिंह ने समीक्षा सत्र का प्रारंभ करते हुए कहा कि ज्यादातर कविताएं सामान्य जमीन पर लिखीं गईं हैं। कवि की अपनी विशिष्ट जमीन होनी चाहिए। आलोचक आपकी कविता में जिन्दगी को तौलता है। आज के कवि कविता के डिक्शन पर कम मेहनत करते हैं। निराला का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि जिसको कवित्त छंद का अभ्यास होगा वह ही मुक्त छंद में रचना कर सकता है।

अजीत प्रियदर्शी, उमाशंकर परमार एवं संदीप मील ने भी पढ़ी गई कविताओं की अलग-अलग समीक्षा प्रस्तुत की। अजीत प्रियदर्शी का मत था-आज कविता एक खास तरह के फॉर्मेट में जकड़ गई है। लगभग एक जैसी भाषा एक जैसा शिल्प उस पर विषय की एकरूपता सब कुछ एक कर देती है। यही कारण है कि हर कविता पहले की कविता का दोहराव नजर आती है। संभावनाशील कवियों के लिए यह सत्र महत्वपूर्ण साबित हुआ।

चार
11 जून का प्रथम सत्र वरिष्ठ कथाकार राजकुमार राकेश की अध्यक्षता में कथा साहित्य पर चर्चा-परिचर्चा का रहा। आउटलुक पत्रिका के श्री भूपेन सिंह इस सत्र में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहे।  राजकुमार राकेश के उपन्यास कन्दील पर चर्चा की गई। अजीत प्रियदर्शी ने कहा- कन्दील आजाद हिन्दुस्तान की दर्दनाक गाथा है। शिवेन्द्र और संदीप मील ने बहुत प्रभावशाली ढंग से अपनी-अपनी कहानियों का पाठ किया। संवादों के माध्यम से कहानी के पात्रों का लोक जीवन एक बारगी शिविर में सजीव हो उठा। अजीत प्रियदर्शी, उमाशंकर परमार एवं राजकुमार राकेश ने पढ़ी गई कहानियों पर परिचर्चा की। अजीत प्रियदर्शी ने कहा-संदीप मील की कहानियां डायलैक्टिक नजरिए से व्यवस्था का मूल्यांकन हैं। ये फिरकापरस्ती के खिलाफ संदेश देती हैं। राजकुमार राकेश ने कहा- संदीप मील की कहानियों को आवारा पूंजी व सत्ता के गठजोड़ से तथा साम्प्रदायिक एजेण्डे से जोड़कर देखा जाना चाहिए।

द्वितीय सत्र में महेश पुनेठा के संचालन में दीवार पत्रिका अभियान पर चर्चा हुई। श्री पुनेठा ने बच्चों की रचनात्मकता को मंच देने एवं उनकी भाषायी दक्षता बढ़ाने के उद्देश्य से विद्यालयों में प्रारंभ किए गए नवाचारी दीवार पत्रिका अभियान की जानकारी साहित्यकारों को दी। असिस्टेंट प्रोफेसर विधांशु कुमार के साथ साहित्यकारों ने विद्यार्थियों द्वारा तैयार दीवार पत्रिकाओं का अवलोकन किया। दीवार पत्रिका पर साहित्यकारों की प्रतिक्रियाएं अभियान को ऊर्जा प्रदान करने वाली हैं। बांदा से आए नारायण दास ने कहा- दीवार पत्रिका में अपने क्षेत्र की संस्कृति पर बच्चों का लेखन बहुत प्रभावित करता है। दिल्ली की रश्मि भारद्वाज ने इसे रचनात्मकता के विकास के लिए बेहतरीन प्रयास बताया तो फतेहपुर से पधारे प्रेमनंदन ने लिखा- दीवार पत्रिका बच्चों को सृजनशील, संवेदनशील, कर्मठ एवं जिम्मेदार बनाने का एक सार्थक प्रयास है। हमीरपुर डिग्री कालेज के असिस्टेंट प्रोफेसर अनिल अविश्रांत अपनी प्रतिक्रिया में लिखते हैं कि यह कार्य विद्यार्थियों को पाठ्यक्रम से इतर भी बहुत कुछ पढ़ने-समझने का अवसर प्रदान करता है। बीकानेर के नवनीत पांडे ने दीवार पत्रिका अभियान को आज के कठिन समय में बहुत जरूरी और प्रासंगिक बताया। उल्लेखनीय है कि विद्यालयों में दीवार पत्रिका के नवाचार को वर्ष 2013 में  पिथौरागढ़ जनपद के नवाचारी शिक्षकों चिन्तामणि जोशी, राजीव जोशी, योगेश पांडेय ने शिक्षक एवं ‘शैक्षिक दखल’ के संपादक महेश चन्द्र पुनेठा के मार्ग निर्देशन में एक अभियान के रूप में प्रारंभ किया था। वर्तमान में यह अभियान सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में प्रसार पाते हुए देश के विविध हिस्सों से होते हुए मलेशिया तक जा पहुँचा है। प्रशिक्षण संस्थानों, महाविद्यालयों सहित लगभग 500 विद्यालयों से नियमित दीवार पत्रिकाएं निकल रहीं हैं। महेश चन्द्र पुनेठा द्वारा लिखित एवं लेखक मंच प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित पुस्तक ‘‘दीवार पत्रिका एवं रचनात्मकता’’ के आने के बाद इस अभियान में सहज ग्राह्यता एवं गतिशीलता आई है। इस शिविर के माध्यम से चूंकि साहित्यकार भी इस अभियान में शामिल हो रहे हैं। आशा की जा सकती है दीवारें साहित्यकारों की नई पीढी को तैयार करेंगी।

पांच
11 जून की रात भोजनोपरांत 11.00 बजे बाद साहित्यकार साथियों द्वारा रंगमंच से जुड़े कवि नवनीत की कविताओं पर परिचर्चा शायद उस सपने की तरह थी जिसे हम नींद में तो नहीं देखते, पर जो हमें सोने भी नहीं देता। बहरहाल 12 जून को प्रातः तड़के ही साहित्यकारों का दल शैक्षिक दखल के साथी श्री राजीव जोशी के मार्गदर्शन में मुनस्यारी की ओर रवाना हो गया। इस यात्रा में जहां एक ओर साहित्यकारों को हर मोड़ पर पहाड़ के समृद्ध प्राकृतिक सौन्दर्य से दो-चार होने का अवसर मिला वहीं मुनस्यारी पहुँचने पर उन्हें स्थानीय लोक कलाकारों से संवाद एवं लोक गीतों का आनन्द उठाने का अवसर भी प्राप्त हुआ। मुन्स्यारी में साहित्यकारों  ने श्री शेर सिंह पांगती के ट्रायबल हैरीटेज म्यूजियम पहुँचकर जोहार-मुनस्यार की लोक संस्कृति पर विस्तृत जानकारी एकत्र की एवं सायंकालीन सत्र में  जोहार लोक कला एवं भाषा पर परिचर्चा की।

छः
शिविर के समापन दिवस 13 जून को साहित्यकारों ने मुनस्यारी से पिथौरागढ़ पहुँचकर स्थानीय मिशन इण्टर कॉलेज में दोपहर 1.00 बजे से 3.00 बजे तक अपने श्वििर अनुभवों पर आधारित दीवार पत्रिकाएं लोक-विमर्श - 1 , 2 एवं 3 तैयार कीं जो कि लोक-विमर्श: 1 के महत्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में संरक्षित की जाएंगी।

लोक-विमर्श: 1 का समापन सत्र सायं 4.00 बजे से स्थानीय जिला पंचायत सभागार में सम्पन्न हुआ। जनकवि जनार्दन उप्रेती एवं उमाशंकर परमार के संचालन में रात्रि 9.00 बजे तक चली काव्य संध्या में 30 कवियों ने कविताओं के माध्यम से अपने-अपने लोक के रंग बिखेर कर श्रोताओं को आनन्दित किया। कवियों ने तमाम सामाजिक विसंगतियों एवं कुरीतियों पर भी तंज कसे। वरिष्ठ कवियों केशव तिवारी, नवनीत पांडे, महेश पुनेठा के साथ कुंवर रवीन्द्र, मृदुला शुक्ला, रश्मि भारद्वाज प्रेम नन्दन, प्रद्युम्न कुमार, चिन्तामणि जोशी, गिरीश पांडेय ‘प्रतीक’ आशा सौन, अनिल कार्की,प्रमोद श्रोत्रिय, प्रकाश जोशी ‘शूल’, विक्रम नेगी ने हिन्दी कविताएं पढ़ीं तो जनार्दन उप्रेती ‘जन्नू दा’ व प्रकाश चन्द्र पुनेठा ने कुमांऊनी कविताओं एवं नवीन गुमनाम, प्रो0 आशुतोष, बी0 एल0 रोशन ने गजल से समां बांधा। समापन सत्र के मुख्य अतिथि वरिष्ठ कहानीकार राजकुमार राकेश ने लोक-विमर्श शिविर को सफल बताते हुए उत्तराखण्ड लोकतांत्रिक साहित्य-संस्कृति मंच पिथौरागढ़ का आभार ज्ञापित करते हुए कहा कि यह लोक-विमर्श यात्रा रचनाकारों एवं समाज के लिए भविष्य में मील का पत्थर साबित होगी। मंच के संयोजक जनार्दन उप्रेती ने शिविर की सफलता में सहयोग के लिए नगर के साहित्य प्रेमी नागरिकों, मीडिया तथा सभी सहयोगियों के प्रति आभार ज्ञापित किया। अध्यक्षीय संबोधन में वरिष्ठ कवयित्री डॉ0 आनन्दी जोशी ने अतिथि साहित्यकारों के प्रति आभार ज्ञापित करते हुए कहा कि कवि महेश पुनेठा के समन्वयन में सभी के सहयोग से सृजन यात्रा चल पड़ी है जो अनवरत चलती रहेगी और वरिष्ठ साहित्यकारों के सान्निध्य में नवोदित रचनाकारों का शिल्प और उनकी कला भी विकसित होती रहेगी। संवाद बनाये रखने एवं पुनः मिलने के संकल्प के साथ यह एक शुरूआत थी - उस यात्रा की - जिसमें अनवरत तलाशा जाएगा- लोक का आलोक.....

                               : चिन्तामणि जोशी:
                                  संयोजक सचिव
               उत्तराखण्ड लोकतांत्रिक साहित्य-संस्कृति मंच, पिथौरागढ

                             संपर्कः ‘देवगंगा’ जगदम्बा कॉलोनी,
                                     पिथौरागढ़-262501
                              संपर्क सूत्र - 9410739499 

बुधवार, 23 अप्रैल 2014

चिन्तामणि जोशी की कहानी : भाषेनाना




                                                      चिन्तामणि जोशी

             3 जुलाई 1967 को पिथौरागढ (उत्तराखण्ड)में बड़ालू ग्राम में  जन्में चिन्तामणि जोशी ने बी. एड. व एम. ए. (अंग्रेजी) में शिक्षा प्राप्त की है। अब तक इनकी हिन्दी की तमाम पत्र-पत्रिकाओं में शताधिक कविताएँ व लेख प्रकाशित हो चुके हैं। विद्यार्थी जीवन से ही छात्र-राजनीति, जन चेतना कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी एवं पत्रकारिता।कुछ समय तक साप्ताहिक समाचार पत्र ‘कुमाँऊ सूर्योदय’ में सम्पादन सहयोग। शिक्षा संबंधी अनेक कार्यशालाओं में प्रतिभाग एवं शैक्षिक प्रशिक्षणों में सन्दर्भदाता की भूमिका।                                              
प्रकाशित पुस्तक  : क्षितिज की ओर (कविता-संग्रह)
सम्प्रति          : अध्यापन


                वर्तमान शिक्षा पद्धति की विशेषताओं को उजागर करती यह कहानी करारा तमाचा है सरकारी नीतियों पर। एक तबके को पुरी तरह हाशिये पर धकलने की गहरी साजिस है जिसका शिकार भाषेनाना जैसे न जाने कितने किशोर व युवक हैं जो इतिहास के अनाम पन्नों में गुमनाम हैं।यथार्थ के धरातल पर लिखी गयी यह कहानी मानवीय संवेदना को तार तार करती है और हमारी समाजिक चेतना को जैसे लकवा मार गया है और हम असहाय मूकदर्शक की भूमिका में काठ बने हुए हैं। प्रस्तुत है कहानीकार चिन्तामणि जोशी की यह कहानी। आप सुधीजनों के विचारों की प्रतीक्षा रहेगी।





चिन्तामणि जोशी की कहानी
:भाषेनाना
             “कमल दा प्रणाम ! रामनगर से चिट्ठी आयी है। भाषेनाना वहीं है। लिखा है, उसकी हालत बहुत खराब हैै। इजा कह रही है,मास्टर के साथ जाकर भाषेनाना को कैसे ही भी ढूंढ कर ला। जब से चिट्ठी आयी है, रोती ही रहती है। परसों ही हमने अपनी ब्यायी हुई गाय तीन हजार रुपए में बेच दी है। आने-जाने का खर्च हो जाएगा।“ शंकर एक ही साँस में यह सब कह गया और फिर उसने आँखों में आँसू भरते हुए एक अन्तर्देशीय पत्र कमलकान्त की ओर बढा दिया।


                कमलकांत दुर्गम पर्वतीय क्षेत्र में अवस्थित उस छोटे से गाँव का एक ऐसा युवक था जिसने गरीबी के साथ अनवरत संघर्ष करते हुए अथक प्रयासों से अपनी शिक्षा पूर्ण की और उसी वर्ष उसे एक सरकारी विद्यालय में शिक्षक के पद पर नियुक्ति मिल गई। पाँच माह तक परिजनों से दूर रहकर लगभग दो सौ किलोमीटर की दूरी तय कर अभी-अभी पहुँचा ही था। पर्वतीय क्षेत्र की दुरूह यात्रा से थकित तन पर, मन में अपनों के बीच कुछ समय बिताने की उमंग एवम् उत्साह हावी थे। शंकर की पलकों से टपके मात्र दो बूँद अश्रुओं ने उसके उत्साह को बहाकर अवसाद की गहरी झील में डुबो दिया। उसने शंकर को ढाढस बंधाया और पत्र खोलकर पढने लगा।


                पत्र रामनगर से, मूलतः अल्मोड़ा जनपद के दनियाँ निवासी गावर्धन पाण्डे नामक व्यक्ति ने लिखा था, जिनका वहाँ पर अपना भोजनालय था। लिखा था- पूर्णानन्द जी ! यह इक्कीस-बाईस साल का लगभग साढे पाँच फिट लम्बा, गोरा-चिट्टा युवक जिसके दाँए गाल पर एक बड़ा सा काला तिल है, आपको अपना पिता बताता है। यह पिछले सात-आठ माह से यहाँ भटक रहा है। एक माह मेरे पास भी रहा। लेकिन इसकी हरकतें अजीबोगरीब हैं। शायद नशे का भी आदी है। अलग-अलग होटलों में भटकता रहा। शायद इसके साथ मार-पिटाई भी हुई। किसी ने गरम तेल फैंककर इसकी पीठ जला दी है। सिर पर भी घाव हैं। यह चीखता-चिल्लाता, इधर-उधर भागता रहता है। कभी शांत होता है तो मेरे पास आकर खाना माँगता है। इसकी हालत देखकर बहुत दर्द होता है। यदि इसने अपना पता सही बताया है तो आप तुरन्त आकर इसे ले जायें। शीघ्रता करें, जाड़े में बच नहीं पायेगा।
   

                    कमलकान्त की मनःस्थिति अजीब हो गई। पेशोपेश में पड़ गया। लिफाफे पर गाँव के डाकघर की आठ दिसम्बर की तारीख मोहर थी। पूरे सत्रह दिन बीत चुके थे। अन्ततः उसने माता-पिता से विचार विमर्श किया और सुबह पहली बस से रामनगर जाने की योजना बनाकर शंकर को घर भेज दिया। खाने के लिए बैठा तो रोटी का कौर कमलकान्त के गले से नीचे नहीं उतर पाया। माँ का मन रखने के लिए जबरन एक गिलास दूध पीकर निढाल हो गया बिस्तर पर। नींद न सहजता से आनी थी न आई। सोचने लगा आँखिर कौन जिम्मेदार है भाषेनाना की इस स्थिति के लिए ? उसका परिवार, परिवार की गरीबी, उसका समाज या उसके शिक्षक ? बुरी तरह उलझ गया कमलकान्त और पहुँच गया अपने व्यतीत अतीत के कालखण्ड में।कमलकांत व भाषेनाना के दादा विष्णुदत्त और महादेव दो सहोदर भाई हुए। पीढी आगे बढी। विष्णुदत्त के तीन बेटे एवम् महादेव के एक बेटा एक बेटी कुल मिलाकर चार परिवार हो गए। चारों परिवार एक लम्बी बाखली में रहते थे। पूर्णानन्द का परिवार बड़ा था। पति-पत्नी और तीन बेटियों के साथ उनकी बहिन भी उनके ही साथ रहती थी। सभी की हंसा बुआ। जन्म से ही आँखें कमजोर। गर्दन के ऊपर सिर दोनों तरफ लगातार घूमता रहता था। एक बार वामावर्त एक बार दक्षिणावर्त। इसी कारण हंसा बुआ अविवाहित रह गई। पूर्णानन्द को गाँव के लोग गोबर गणेश की संज्ञा देते थे तो उनकी पत्नी को पीठ पीछे चांडालिनी, चुड़ैल, कर्कशा जैसे विशेषणों से नवाजते थे। परिवार में तीन बेटियों के बाद बेटे का जन्म हुआ तो खूब खुशियाँ मनायी गयीं। हंसा बुआ तो अब सातवे आसमान पर ही रहती थी। गाती, गुनगुनाती, भाषे के नखरे उठाती। उसे कभी अपने से दूर नहीं रखती थी।

                 जून का महीना था। कमलकांत की उम्र तब छह साल की रही होगी। बाखली के आगे आम का एक बड़ा पेड़ था। दोपहर बाद जब सभी बच्चे आम के पेड़ की छाँव में खेल रहे होते तो हंसा बुआ भाषे को लाकर आती और कहती, “ मार भाषे हरिया को मार, लकड़ी से नरिया को मार “ और तीन साल का भाषे एक हाथ में छोटी सी लकड़ी लेकर दूसरे हाथ से पत्थर उठा-उठाकर बच्चों पर फैंकता। हंसा बुआ ही..ही..ही..हँसने लगती।फिर हंसा बुआ कटोरे में दही भरकर लाती और सभी बच्चों को चिढा-चिढाकर भाषे को खिलाती। पेटभर दही खाकर ऊँघने लगता था भाषे और हंसा बुआ उसे अपने घुटने पर सुलाकर चक्की पीसने लगती थी। उसकी गर्दन चक्की के साथ दाँए-बाँए घूमती रहती और वह गाती रहती- “ भाषेनाना... भाषेनाना..., भाषेनाना... भाषेनाना...”। इस तरह भाष्करानन्द तिवारी भाषे और फिर भाषेनाना बन गया।


                     पूर्णानन्द बीड़ी बहुत फूँकते थे। दो कश लगाते और फैंक देते। भाषेनाना अनुकरण अच्छा कर लेता था। सट से बुझती हुई बीड़ी उठाकर मुँह से लगा लेता और उसमें दुबारा जान फूँक देता। हंसा बुआ उसके हाथ से बीड़ी छुड़ाती और फिर से ही... ही... करके गाने लगती-“उठ जा भाषेनाना, बाबू जैसा बड़ा हो जल्दी, फिर तू बीड़ी खाना।”


                      जरूरत से अधिक लाड़-प्यार का आदी भाषेनाना जब स्कूल आने लगा तो स्कूल में उसका मन कम ही लगता था। कमलकांत तब कक्षा पाँच में पढता था। एक दिन उसने बड़ी बहिन जी से पूछ ही लिया,“ बहिन जी, यह भाषेनाना कक्षा तीन में पहुँच गया है और इसे तीन का पहाड़ा तक नहीं आता फिर भी पार्वती ताई रोज हाफ टाइम में ही इसे उठा ले जाती हैं। आप इसे छुट्टी क्यों देती हैं ?”
”नेता मत बन, अपने सवाल हल कर।” बहिन जी ने आँखें तरेरते हुए उसे डपट दिया था और स्वेटर बिनने में मसगूल हो गई थीं।
उस दिन थोड़ी देर बाद बहिन जी ने कमलकांत का कान उमेठते हुए उसके गाल पर दो थप्पड़ जड़ दिये थे। कमलकांत को कारण आधे घंटे बाद समझ में आया, जब बहिन जी स्वेटर उधेड़कर ऊन का गोला बना रही थीं। उसके प्रश्न पूछने पर बहिन जी का ध्यान भटकने से एक फंदा छूट गया था।
अगले पाँच वर्ष काफी उथल-पुथल भरे रहे। इस बीच भाषेनाना की दो बड़ी बहिनों का विवाह तो हो गया लेकिन शनि की क्रूर दृष्टि भी परिवार पर पड़ गयी।

                       हंसा बुआ की आँखों की बची-खुची रोशनी जाती रही। पूर्णानन्द पहाड़ी से फिसलकर टखने की हड्डी तुड़ा बैठे। मेहनत-मजदूरी बंद हो गई। छोटा भाई शंकर निमोनियाँ से मरते-मरते बचा। पहाड़ी से लुढक कर दूध देने वाली गाय चल बसी। दो भैंस बेचनी पड़ी। दो बकरियाँ बेच कर शेष दो का ईष्ट देवता के मन्दिर में बलिदान किया गया। लेकिन घर की माली हालत बद से बदतर होती गयी। भाषेनाना आठवी कक्षा में पहुँच गया था। इस वर्ष गाँव के हाईस्कूल में नये पी टी आइ सर की नियुक्ति हुई थी। युवा अध्यापक। आते ही उन्होंने अनुशासन का डंडा अपने हाथ में थाम लिया था। स्वतंत्रता दिवस की तैयारी जोरों पर थी। ब्लॉक प्रमुख सांस्कृतिक कार्यक्रमों के मुख्य अतिथि थे। पी टी आइ सर ने प्रभातफेरी से पहले ही भाषेनाना को चार डंडे जड़ दिये। फिर पूछा-
    “नई ड्रेस में क्यों नहीं आया ?”
    “सर, पिताजी बीमार हैं, अभी नहीं...” 
    “तड़ाक ” पी टी आइ सर का हाथ गाल पर पड़ा और...
    “थू...ऽ...ऽ...” भाषेनाना ने स्कूल परिसर से नीचे की ढलान पर दौड़ लगा दी।


                      इसके बाद भाषेनाना सुबह घर से स्कूल को तो आता लेकिन दिन बिताता रास्ते के बुरूँजानी के जंगल में या जंगल की तलहटी में गाड़ के किनारे मंदिर के पास बाबा की कुटिया में। यहाँ उसे कुछ उम्र में बड़े एवम् अनुभवी सहपाठियों का समूह भी मिला और समूह में उसने “बम भोले” का कौशल अर्जित किया। कमलकांत के मन में उस दिन वह दुःखद, घृणित अनुभूति हमेशा के लिए बैठ गई थी जब उसने छुट्टी के बाद बाबा की कुटिया के पास से गुजरते हुए भाषेनाना को गाँजे की चिलम मुँह से लगाये देखा था और आस-पास के गाँवों में पुरोहिताई करने वाले चन्दन काका कह रहे थे-
      “चल बेटा, जला दे चिलम पर आग की लपट, तब कहूँगा पूर्णानन्द दा का असली बेटा है।”
    और भाषेनाना ने सचमुच पूरी ताकत लगा दी चिलम के ऊपर आग की लपट उठाने को और खाँसते-खाँसते लोटपोट हो गया।


                 उस दिन कमलकांत की शिकायत पर भाषेनाना को घर में खूब मार पड़ी थी। पार्वती ताई ने दूसरे दिन विद्यालय आकर पी टी आइ सर से माफी माँगी और प्रधानाचार्य के सम्मुख अपनी हालात का रोना रोकर भाषेनाना का पुनः प्रवेश करवाया।


                    आठवीं में तो भाषेनाना जैसे-तैसे कक्षोन्नति पा गया लेकिन नवीं कक्षा में गणित, विज्ञान, अंग्रेजी का बोझ उसे फिर भारी लगने लगा। वह चाहकर भी इन विषयों का गृहकार्य नहीं कर पाता और रोज शिक्षकों का कोपभाजन बनता। ऊपर से दमची का मुलम्मा उस पर और चढ चुका था। वह शिक्षा के सूत्रों के कोप एवम् गुरुजनों के क्रोध से बचने के रास्ते फिर से ढूँढने लगा और घर से स्कूल के बीच रास्तों के किनारे बैठने लगा। काश! उसे पता होता कि रास्ते चलने के लिए होते हैं किनारे बैठने के लिए नहीं। भाषेनाना कभी बुरूँजानी के जंगल में सोया रहता तो कभी बाबा की कुटिया में। कभी गाँव की छोटी सी बाजार में ताश खेलते लोगों के पीछे खड़ा होकर सारा दिन बिता देता। अब तक तो उसे इस पथ के दो-चार सहयात्री भी मिल चुके थे।
   
                      एक दिन भाषेनाना और उसके साथी झाड़ियों की आड़ में बैठकर ताश खेल रहे थे। एकाएक उनकी नजर नरपांडे पर पड़ी। नरपांडे कच्ची शराब बनाकर कस्बाई बाजार में बेचता था। उसने शराब की केन हिसालू की झाड़ी के अन्दर छुपायी और ग्राहकों की तलाश में चला गया। फिर क्या था। भाषेनाना और उसके साथी कच्ची शराब का केन चुरा लाये और लगातार तीन दिन तक उसका तीखा स्वाद आत्मसात कर एक नया कौशल अर्जित किया। छोटी सी जगह हुई। देर-सवेर कलई खुलनी ही थी। भेद खुला और नरपांडे ने भाषेनाना की पिटाई कर, अपने नुकसान की भरपायी कर ली। 


                    भाषेनाना के जंगलवास को काफी दिन हो गए थे। कमलकांत अब गाँव से पाँच किलोमीटर दूर इण्टरमीडिएट कॉलेज में पढने जाता था। छोटे भाई शंकर और अन्य बच्चों को भाषेनाना और उसके साथियों ने ठोक-पीटकर धमका रखा था कि जिसने भी घर में शिकायत की , उसकी खैर नहीं। कक्षाध्यापक ने तो भाषेनाना का नाम पृथक करते ही संतोष की साँस ली-
“चलो एक मिट्टी का माधो कम हुआ।” 
गणित के सर भी प्रसन्न थे। उन्होंने भी अपना अति महत्वपूर्ण विचार व्यक्त कर दिया-
    “ऐसे दो-चार और हैं कक्षा में। उनका भी पत्ता साफ करना है और किसी भी हालत में पुनः प्रवेश नहीं करना है। ये तो ऐसे हैं कि बिना दो साल हमारा बोर्ड का रिजल्ट खराब किए घर नहीं बैठेंगे।”


                   खबर अंततः घर तक पहुँची। माँ ने डंडे से पीट-पीट कर भाषेनाना को  अधमरा कर दिया। बेचारे शंकर की भी अच्छी-खासी धुनाई हुई। पार्वती ताई ने पास-पड़ोस के विद्यार्थियों को भी जी भर कर कोसा। दूसरे दिन भाषेनाना को लेकर फिर स्कूल पहुँची। लेकिन इस बार उसके आँसू भी व्यर्थ गए और मिन्नतें भी बेअसर। पूरा स्कूल भाषेनाना की कमियाँ उजागर करने को लालायित दिखा। एक माँ, कुसंस्कारी बालक को जन्म देने की लानत-मलानत ओढकर उल्टे पाँव वापस लौटी। 


                  माँ ने अंततः परिस्थितियों से समझौता कर लिया। भाषेनाना की स्कूली दुनियाँ हमेशा के लिए खत्म हो गयी। सुबह जब गाँव के बच्चे पीठ में पुस्तकों का झोला लटकाए स्कूल को जाते तो भाषेनाना दो गाय, एक बछिया और एक बकरी को हाँकता हुआ जंगल की तरफ जा रहा होता। मक्के की फसल के साथ गाँव के लोग भांग भी बोते थे। दाने अलग करके पत्तियों का चूरा (गाँजा) सुखाकर पोटलियों में छत से लटका देते थे। कभी-कभी गाँजा पीने के आदी खरीददार भी मिल जाते थे अन्यथा जानवरों की कुछ बीमारियों में भी यह काम आता था। भाषेनाना की जेब में गाँजे की पुड़िया और मारचीस हमेशा रहती थी। बाँज की हरी पत्तियों से शुल्फा तैयार कर गाँजा पीना उसकी दिनचर्या में शुमार हो चुका था।


                   इसी बीच हंसा बुआ भी स्वर्ग सिधार गई। उसका अन्तिम संस्कार कैसे हो? एक गाय और बेचनी पड़ी। अब अकेली गाय को वन क्या भेजें। गाँव में सूबेदार चाचा का नया मकान बन रहा था। दो पैसे कमाएगा तो कुछ मदद हो जाएगी। पार्वती ताई ने भाषेनाना को मजदूरी करने भेज दिया। भाषेनाना चार-छः दिन काम करता और फिर लड़-झगड़कर मजदूरी का पैसा लेकर जुआरियों की मण्डली में पहुँच जाता। धीरे-धीरे भाषेनाना एक अलग ही दुनियाँ का प्राणी हो गया-गाँजे, चरस, शराब, ताश, चोरी-चकारी और लड़ाई-झगड़े की दुनियाँ।


                     समय की गति के साथ दुर्व्यसनों एवम् कुसंगति का प्रभाव भाषेनाना पर स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगा था। समाज के साथ परिवार भी धीरे-धीरे उसे नकारने लगा था। दिन भर न जाने कहाँ-कहाँ भटकता। देर रात घर पहुँचता तो एक-आध रोटी मिलती भी नहीं भी। आहार नहीं मिला, व्यवहार बदलने लगा। लोग चर्चा करने लगे- भाषेनाना पागल हो गया है। कुछ लोग तो यहाँ तक खुसुर-फुसुर कर रहे थे कि गोबिन्दी चाची ने अपनी पोटली के गाँजे में लाल सिन्दूर मिला दिया था और उसी गाँजे को पी कर भाषेनाना पागल हो गया है। बच्चे उसे पागल बुलाते और वह भद्दी-भद्दी गालियाँ निकालता हुआ उन्हें मारने को दौड़ता।


                 जुबानें बजने लगी थीं। लोग अपनी बहू-बेटियों, बच्चों को असुरक्षित महसूस करने लगे थे। और उस दिन अति हो ही गई। खेत में धान की गुड़ाई करती सूबेदार चाचा की बहू पर भाषेनाना ने एकाएक झपट्टा मार दिया। हो हल्ला मचा। भाषेनाना ने एक नुकीला पत्थर उठाया और सुर्र सुबेदारनी चाची के कपाल पर दे मारा। पाँच टाँके लगे। गाँव के सयाने इकट्ठे हुए और पार्वती ताई को अल्टीमेटम दे डाला- अपने बिगड़ैल लड़के को संभाले वरना उचित न होगा। बात भी ठीक ही थी। बेचारी पार्वती ताई अपना माथा पीटकर रह गई।


                   उस शाम गाँव के दो-तीन युवकों ने पकड़कर बाँज के फड़ियाठ से भाषेनाना की धुनाई भी कर दी। पिता तो खटिया पकड़ चुके थे। माँ और शंकर ने पकड़कर भाषेनाना को एक छोटी कोठरी में बन्द कर दिया। बड़े जमाई को संदेश भेजकर बुलाया गया। उनके एक भाई गाँव से जाकर हल्द्वानी में बस गये थे। उनसे बातचीत कर तय किया गया कि भाषेनाना को हल्द्वानी के सुशीला तिवारी अस्पताल में दिखाया जाय।


                     जीजा लक्ष्मीदत्त भाषेनाना को ले जाकर हल्द्वानी पहुँचे। चिकित्सकीय परीक्षण व परामर्श के उपरान्त उपचार प्रारम्भ हुआ। भाषेनाना तुलनात्मक रूप से शान्त था। दस दिन के बाद फिर से मनोचिकित्सक को दिखाना था। लक्ष्मीदत्त पाँचवे दिन भाषेनाना को भाई के पास छोड़कर धन-पानी की व्यवस्था के नाम पर गाँव वापस आ गये। यहीं पर चूक हो गई थी। उनके पीछे-पीछे खबर आयी कि भाषेनाना को उसी रात अजीब दौरा पड़ा। वह हिंसक हो उठा और घर में तोड़-फोड़ कर कहीं भाग गया। अचानक पार्वती ताई की चीख पूरी बाखली में गूँज उठी-
    मेरा....ऽऽ... भाषे...ऽऽ... ना...ना...


                  और कमलकांत की तंद्रा टूट गई। उसने घड़ी की ओर देखा। सुबह के साढे तीन बज चुके थे। उसे अब ध्यान आया कि उसे नींद तो आयी ही नहीं थी। साढे चार बजे की बस से रामनगर रवाना होना था। शंकर आता ही होगा। पन्द्रह मिनट सड़क तक पहुँचने में लगेंगे। चूल्हे पर पानी चढाकर निवृत्ति का असफल प्रयास किया। स्नान करने तक शंकर भी पहुँच गया था। पार्वती ताई भी साथ में थी। फिर पूस की निस्तब्ध निशा का सीना चीरते हुए दो आकृतियाँ ज्यों-ज्यों धुंधली होती गईं पार्वती ताई की सिसकियाँ रुदन में बदलतीं
गईं। 

                 रामनगर पहुँचते-पहुँचते शाम धुंधला गयी थी। जाड़े का मौसम था। रात जल्दी गहराने लगी थी। गोबर्धन पाण्डे जी का भोजनालय आसानी से मिल गया तो क्षणिक खुशी हुई। लेकिन परिचय के साथ ही सारी आशाओं पर तुषारापात हो गया। 


             “तिवारी जी, आपने देर कर दी।” उन्होंने कहा, “मैंने तो एक दिसम्बर को ही चिट्ठी लिख दी थी। आज छब्बीस दिसम्बर हो गयी है। वह पन्द्रह दिसम्बर को सुबह अन्तिम बार यहाँ दिखा था। उसके सिर का घाव लगातार सड़ रहा था। दुर्गन्ध आने लगी थी। मैंने उसे खाने के लिए रोटी दी। कहा अस्पताल ले जाता हूँ, तेरे घर से भी लोग आने वाले हैं। रोकना चाहा, लेकिन वह रुका नहीं। लोगों को देखकर वह भागने लगता था। उस दिन ऐसा भागा कि लौटकर फिर दिखा नहीं। कौन जाने इस कड़कड़ाती ठंड में...”


               हम चार दिन रामनगर में रुके। पाण्डे जी ने खूब मदद की। संभावित जगहों के बारे में भी बताया। पुलिस में सूचना दी। वन विभाग से भी संपर्क साधा। लेकिन भाषेनाना नहीं मिला। न जिन्दा और न ही...
    आज पूरे चौदह बरस हो गए हैं। अब कोई भाषेनाना की चर्चा नहीं करता। हाँ, बाखली के सामने मन्दिर के पास की ढलान पर जब भी कोई धुंधली आकृति ऊपर को आती दिखती है तो दो आँखें हमेशा उस पर टिक जातीं हैं- पार्वती ताई की आँखें...। 


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