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शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

जीवनधर्मी कवि केशव तिवारी की कविताएं

जीवनधर्मी कवि
केशव तिवारी की कविताएं

 

      केशव तिवारी एक ऐसे कवि हैं जिनके रोम-रोम में लोक बसा हुआ है। इनकी कविता के  कथ्य ,शिल्प और भाषा में लोक के रंग गहरे तक पैठे हैं इनकी कविताओं को पढ़ते या सुनते हुए लगता है जैसे हम उस लोक विशेष में प हुंच गए हों लोक की प्रकृति ,लोक के नर -नारी , लोक के रीति-रिवाज ,लोक की बोली-भाषा ,लोक की वेश-भूषा ,लोक के गीत -संगीत ,लोक के गायक ,लोक के वाद्य ,लोक के सं घर्ष ,दुख-दर्द , हर्ष-विषाद आदि सभी रंग उनकी कविताओं मे पूरी सहजता एवं सरसता के साथ चित्रित हैं।
            मृदु स्वभाव के धनी कवि  केशव तिवारी की  कविताओं में व्यक्त लोक की विशिष्टता है कि वह किसी भी अंचल का हो उसी आत्मीयता एवं जीवंतता के साथ प्रकट होता है जैसे उनके अपने अंचल का उन्हें रसूल हमजातोव के दागिस्तान से  भी उतनी ही रागात्मकता है जितनी अपने अवध या बुंदेलखंड से इसी लिए तो उनकी सबसे प्रिय पुस्तकों में से एक है- रसूल हमजातोव की पुस्तकमेरा दागिस्तान यह कवि की लोक के प्रति वैश्विक दृष्टि का परिचायक है हो भी क्यों ना लोक चाहे कहीं का भी क्यों ना हो ,रंग भले उसके अलग-अलग हों रूप कमोवेश एक ही होता है अर्थात सभी के दुख-दर्द एवं संघर्ष एक समान होते हैं। सोचने विचारने का तरीका एक होता है। ऐसे में एक सच्चा जनकवि  किसी भी अंचल की आम जनता के कष्टों एवं संधर्षों से उद्ववेलित हुए बिना भला कैसे रह सकता है।
               जनवादी लेखक संघ की उत्तर प्रदेश इकाई के महासचिव तथा राष्ट्रीय कार्यकारणी के सदस्य केशव तिवारी का लोक केवल गॉवों तक सीमित नहीं है बल्कि कस्बों ,नगरों तथा महानगरों में रहने वाला लोक भी उनकी नजरों से ओझल नहीं है। साथ ही उन्हें लोक में सब कुछ अच्छा ही अच्छा नहीं दिखाई देता है वे लोक की गड़बडियों को भी नजरदांज नहीं करते ।इस तरह केशव लोक को द्वंद्वात्मक दृष्टि से देखने वाले कवि हैं।

 

         कुमाऊॅ

मैं बहुत दूर से थका हरा आया हूं
मुझे प्रश्रय दो कुमाऊॅ ये तुम्हारे ऊॅचे पर्वत
जिन पर जमा ही रहता है
बादलों का डेरा
कभी दिखते कभी विलुप्त होते
ये तिलस्मी झरने तुम्हारे सप्तताल 
तुम इनके साथ कितने भव्य लगते हो कुमाऊॅ
शाम को घास का गट्ठर सर पर रखे
टेढ़े-मेढ़े रास्ते से घर लौटती
घसियारी गीत गाती औरतें
राजुला की प्रेम कहानियों में डूबा
हुड़के की धुन पर थिरकता
वह हुड़किया नौजवान
उस बच्चे की फटी झोली से उठती
हींग की तेज महक
तुम उसकी महक में बसे हो कुमाऊॅ
यह मैासम सेबों के सुर्ख होने का है
आडुओं के मिठास उतरने का है
और तुम्हारी हवाओं में कपूर की
तरह घुल जाने का है
उनके भी घर लौटने का मैासम है
जिन्हें घर लौटते देखकर मीलों दूर से
पहचान जाती है तुम्हारी चोटियॉ
 कुमाऊॅ !

 पाठा की बिटिया

गहरा सॉंवला रंग
पसीने से तर सुतवॉ शरीर
लकड़ी के गट्ठर के बोझ से
अकड़ी गर्दन
कहॉं रहती हो तुम
कोल गदहिया ,बारामाफी ,टिकरिया
कहॉं बेचोगी लकड़ी
सतना ,बॉंदा ,इलाहाबाद
क्या खरीदोगी
सेंदुर ,टिकुली ,फीता
या आटा ,तेल ,नमक
घुप्प अंधेरे में
घर लौटती तुम
कितनी निरीह हो
इन गिद्धों भेड़ियों के बीच
तुम्हारे दुःखों को देखकर
खो गया है मेरी भाषा का ताप
गड्डमगड्ड हो गये हैं बिम्ब
पीछे हट रहे हैं शब्द
इस अधूरी कविता के लिए
मुझे माफ करना
पाठा की बिटिया  

 किले होते महल होते

रवण हत्था बजाता यह भोपा
क्या गा रहा है
ठीक ठीक कुछ भी समझ नहीं रहा
इस निपट वीराने में इसका स्वर
इस मरुभूमि में
इसकी रंग विरंगी पगड़ी
बता रही है
एक बूढ़े भोपा ने यहॉ
छेड़ रखी है मुहिम
वीरानगी के खिलाफ
लोहा लेना तो यहॉ के पानी में है
एक स्त्री ने भी लिया था लोहा
राना जी के खिलाफ
और ढोल बजा बजा कर
कर दी थी मुनॉदी
मैंने लीनो गोविंद मोल
तराजू के एक पलड़े पर था गोविंद
दूसरे पर राना का साम्राज्य
यह सुरों में डूबा भोपा
एकतारा लेकर महल त्याग चुकी वह स्त्री
उॅटगाड़ी में पानी की तलाश में
निकले लोग
रेवणों के पीछे मस्त गड़रिये
इनके बिना यह प्रदेश
सामंती अवशेषों के सिवा
क्या होता
जहॉं किले होते, महल होते
पर अपने समय को
ललकारते लोग होते

जन्म- 4 नवम्बर, 1963; अवध के जिले प्रतापगढ़ के एक छोटे से गाँव जोखू का पुरवा में।
‘इस मिट्टी से बना’ कविता-संग्रह, रामकृष्ण प्रकाशन, विदिशा (म.प्र.), सन् 2005; ‘संकेत’ पत्रिका का ‘केशव तिवारी कविता-केंद्रित’ अंक, 2009 सम्पादक- अनवर सुहैल। देश की महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, समीक्षाएँ व आलेख प्रकाशित। ‘आसान नहीं विदा कहना’ कविता-संग्रह, रॉयल पब्लिकेशन, जोधपुर
सम्प्रति-
बांदा (उ.प्र) में हिन्दुस्तान यूनीलीवर के विक्रय-विभाग में सेवारत।
सम्पर्क-
द्वारा पाण्डेये जनरल स्टोर, कचेहरी चौक, बांदा (उ.प्र)
मोबाइल- 09918128631
ई-मेल- keshav_bnd@yahoo.co.in