शनिवार, 31 अक्तूबर 2015

यदि तुम नंगे हो : प्रेम नंदन



     

                                                                                             प्रेम नंदन
      हमारे समय के संभावनाशील कवि प्रेम नंदन ने इधर बहुत ही बेहतरीन व सधी हुई कविताएं लिखी हैं । आज कल अपने कविता संग्रह की तैयारी में लगे हैं । कविताओं को चुनने में व्यस्त। उनमें से दो कविताएं पुरवाई में पढ़ें आप भी।

1-संभावनाएं

यदि तुम नंगे हो
तो तुम्हें इसका उचक उचक कर
प्रदर्शन करना भी आना चाहिए
और यदि तुम ऐसा नहीं कर पाते
तो अपने सारे नंगेपन के बावजूद
तुम में नंगे होने की
अभी भी
बहुत सारी संभावनाएं हैं।

2-तुम्हारा रंग

हर पल ,
हर दिन ,
हर मौसम में
बदलते रहते हो रंग ,
मेरे दोस्त !
पता है तुम्हे ...
आजकल,
क्या है तुम्हारा रंग ?

संपर्क-
उत्तरी शकुननगर,

सिविल लाइन्स ,फतेहपुर,0प्र0

मो0 & 9336453835

bZesy&premnandan@yahoo.in

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2015

कथासाहित्य में उभरते समकालीन प्रश्न और परमानन्द श्रीवास्तव के उत्तरआधुनिक जबाब-अंगद कुमार सिंह



                                                        अंगद कुमार सिंह

संक्षिप्त परिचय                                  
डॉ. अंगद कुमार सिंह का जन्म 15 अक्टूबर, 1981 को गोरखपुर जिलान्तर्गत माल्हनपार गाँव में हुआ था | इन्होंने 2003 में हिन्दी साहित्य में एम. ए. किया तथा 2009 में पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की | इनकी ‘समकालीन हिन्दी पत्राकारिता और परमानन्द श्रीवास्तव’, ‘प्रतिमानों के पार’(संयुक्त लेखन), ‘शब्दपुरुष’(संयुक्त लेखन), ‘दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’(संयुक्त लेखन) पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है | इनके लेख परिकथा, नवसृष्टि, मगहर महोत्सव, आज, मुक्त विचारधारा, चौमासा, कथाक्रम, लाइट ऑफ नेशन जैसी अनेक पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित होते रहते हैं | सम्प्रति ये वीरबहादुर सिंह पी. जी. कॉलेज, हरनही, गोरखपुर में हिन्दी विभाग के प्रभारी तथा असिस्टेण्ट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं तथा पूर्वांचल हिन्दी मंच, गोरखपुर के मन्त्री के दायित्त्व का निर्वहन कर रहे हैं |

कथासाहित्य में उभरते समकालीन प्रश्न और परमानन्द श्रीवास्तव के उत्तरआधुनिक जबाब 

     परमानन्द श्रीवास्तव ऐसे कथालोचक थे जो न कभी कथा का सार-संक्षेप देते थे न उस पर अन्तिम फैसला ही सुनाते थे | वे कृति के मर्म को उजागर करते थे और अपेक्षा करते थे कि पाठक खुद भी रचना का सहयात्री बने | इसीलिए वे औसत कथालोचना के पक्ष में नहीं रहते थे | अगर उन्होंने कवि-कथाकार उदयप्रकाश की कृति ‘रात में हारमोनियम’ पर लिखने के लिए कलम उठाया तो उदयप्रकाश के समग्र लेखन को ध्यान में रखकर |1

       परमानन्द श्रीवास्तव तसलीमा नसरीन के आत्मकथात्मक उपन्यास ‘द्विखण्डित’ पर अपनी लेखनी चलाते हुए लिखा है कि, “उसे प्रेमकथा की तरह न पढ़कर प्रेमहीनता या अप्रेम के वाचाल विस्फोट के रूप में भी पढ़ा जाना चाहिए | प्रेम कथाओं की स्निग्धता की जगह यही दैहिक शोषण और स्त्री उत्पीड़न के प्रसंग बेशुमार हैं और उनसे यौनिकता की जटिलता का भी अता-पता नहीं चलता | और तो और, यह पोर्नोग्राफी भी नहीं है जिसे मनोहरश्याम जोशी जैसे बड़े लेखकों की भी एक कसौटी बनाते हैं |”1 आगे भी वे इसी लेख में कहते हैं, “तसलीमा और उनकी सहेलियों का सामना मर्दांगिनी जनाने वाले नरपशुओं पर है | तसलीमा की कृतियों का साहित्यिक महत्त्व न हो सनसनी पैदा करने में वह अद्वितीय हैं | यह भयावह है, आघातप्रद है | यहाँ सेक्सुअललटी भी निरर्थक है | नंगई को क्या कहेंगे- अश्लीलता भी अपने आप में अपर्याप्त शब्द है | पर यह है तसलीमा की आपबीती जो जगबीती से भयावह है, बिद्रूप है, त्रासद है | सनसनी का भी परिप्रेक्ष्य उतना सीमित नहीं है जितना मान लिया जाता है |”2 

     परमानन्द श्रीवास्तव की नज़र में रशीद जहाँ की कहानी ‘बेज़ुबान’ ऐसी है जो पितृसत्तात्मक समाज के धौंस को बेनक़ाब करती है | जहाँ लड़की दिखायी नहीं जा सकती भले ही वह कुँवारी बैठी रहे | यह मानसिकता धार्मिक नैतिकता के कारण बनी थी | मुसलिम समाज में स्त्रियाँ देह में बन्द हैं- वे अपने हुस्न से बेपरवाह एक ढर्रे की ज़िन्दगी जिये जाती हैं | यह सामन्तवाद की ठसक है कि लड़की जान-पहचान वालोँ को भी दिखायी नहीं जा सकती |3                            

    परमानन्द श्रीवास्तव ने गीतांजलिश्री के उपन्यास ‘माई’(1993) और ‘हमारा शहर उस बरस’(1988) पर अपनी लेखनी चलाते हुए बहस छेड़ा है कि, “स्त्री स्वभाव की रहस्यमयता को भेदकर विस्फोटक सच्चाईयों तक पहुँचने की प्रक्रिया का एक अपना अन्तरंग रहस्य भी हैं | खिलन्दड़ेपन में इस रहस्य को खोजने का साहस गीतांजलिश्री की खास पहचान बनता है | अपने ही खाल के नीचे देखने का साहस | अपने ही खाल के बाहर आकर बड़े फलक पर देश में घटित साम्प्रदायिकता के उन्माद और ट्रेजडी को प्रत्यक्ष करने का जो साहस गीतांजलिश्री ने ‘हमारा शहर उस बरस’(1998) में दिखाया है उसमें इतिहास की समझ के साथ गहरी नैतिक मानवीय पीड़ा भी शामिल है |”4                                        

      परमानन्द श्रीवास्तव ने माना है कि, ‘कब तक पुकारूँ’ में स्त्रियाँ पुरूषों पर भारी पड़ती हैं | बाँके और रुस्तम खाँ की हत्या प्यारी-कजरी ने की है | यह स्त्री सशक्तिकरण के दौर का नया यथार्थ है, जिसे छठे दशक में राज्ञेय राघव ने रेखांकित किया था | प्यारी की मृत्यु पर कजरी का विलाप सर्वभक्षी सामन्ती क्रूरता पर चीख़ की तरह है |5

   आज़ादी के बाद कुछ ही क्लासिक उपन्यासों में एक ‘कब तक पुकारूँ’ राजस्थानी आँचलिक समाज को केन्द्रीयता देता है | आपराधिक जीवन में यौनिकता केवल एक पहलू है | कथानक की नैतिकता प्रतिरोध का साक्ष्य है |6 
                                           
     परमानन्द श्रीवास्तव ने मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास ‘कहीं ईसुरी फ़ाग’ पर साहित्यिक टिप्पणी के साथ जो कहा, वह है- “लोक आख्यान को शोधपरियोजना का हिस्सा बनाकर मैत्रेयी पुष्पा ने जाने-माने फगवारे ईसुरी की प्रेमकथा का ऐसा अन्वेषण किया है जो सृजनधर्मी है | यह प्रेरणा ऋतु जैसे शोध अभ्यर्थी से मिली हो या बुन्देलखण्ड के जीवन से, उपन्यास के लिए सार्थक सिद्ध हुई है | यह किसी शोधकर्मी का प्रोजेक्ट नहीं, चरित्रों के अन्त: रस में बैठने वाली लेखिका का एक सम्यक स्त्री-विमर्श है | निर्देशक की आपत्ति और स्वीकृत से ही उपन्यास शुरू होता है और लगभग पहली ही बार में ही पढ़ लिया जाता है | स्त्री, लोक और आख्यान के इस ताने-बाने में स्त्री ही प्रधान है |”7

   आगे इसी लेख में स्थिति को और अधिक स्पष्ट करते हुए वे अपने विचार व्यक्त करते हैं, “मैत्रेयी पुष्पा ने काल कथा क्रम से नहीं कही है- सुदूर अतीत से साम्प्रदायिक उन्माद वाले मौजूदा दौर से जोड़ा है | इस रूप में शायद पहली बार | कार सेवकों का उन्माद | मुसलमानों का उन्माद | फिर अतीत में झाँसी की रानी की विद्रोहिणी सेना | समानान्तर रूप से एन.सी.सी. की महिला सेना | आक्रमण का अभ्यास | इन दिनों रज्जो के जीवन में एक वागी आ गया था | सन्देश लाने वाली एक बेड़िन थी | ईसुरी देख रहे थे कि झाँसी की रानी का हारना पूरे देश का हारना था | ईसुरी अब भी निर्मोही स्त्री रज्जो को भूल नहीं पा रहे थे | रज्जो देशपत नाम से वागी के यहाँ चली गयी है |”8   
                                         
         परमानन्द श्रीवास्तव ऐसे नायब आलोचक थे जो कई कथाकारों पर एक साथ लेखनी चलाने की कूबत रखते थे | उन्होंने विमल कुमार के ‘चोरपुराण’, क्षमा शर्मा के ‘नेमप्लेट’, कुणाल सिंह के ‘सनातन बाबू का दाम्पत्य’ और संजय खाती के ‘बाहर कुछ नहीं था’ कहानी-संग्रह पर एक साथ कलम चलायी और लिखा, “ये ऐसे संग्रह हैं जो कहानी के बहुरंगी यथार्थ को कभी छायाभासी यथार्थ, कभी भयानक यथार्थ को प्रकट करते हैं | इनमें कई बार एक ही संग्रह की दो कहानियाँ एक जैसी नहीं हैं | वे विमल कुमार के यहाँ एक थीम है पर खिलन्दड़ापन वहाँ भी वैविध्य की झलक देता है | ‘युवतर’ कहानी-लेखक कुणाल सिंह संजय से सीख सकते हैं कि कहानी में वक्रताएँ अनिवार्य नहीं हैं | इक तो संजय खाती के यहाँ भी नहीं है, पर विन्यास में सचेष्ट जटिलता भी नहीं है | क्षमा शर्मा सीधे-सीधे अपने समय को  सम्बोधित करती हैं | एक बेलाग स्मार्टनेस उनका ढंग है | विमल कुमार के व्यंग्य-दृष्टि के पीछे कवि-दृष्टि मौजूद है | विमल कुमार के व्यंग्य के भ्रामक सरलता के पीछे राजनीतिक समझ भी सक्रिय है | कहना न होगा कि यहाँ चुने गये कहानी-संग्रह हमारे समय की विडम्बना को ग्राह्य बनाते हैं | कहानी अब कहानी के फार्म तक सीमित नहीं है | यह खबर भी है, विचार भी, हस्तक्षेप भी |”9 

      अलका सरावगी के उपन्यास ‘शेष कादम्बरी’ पर जब परमानन्द जी विचार करते हैं तब पता चलता है कि, “अलका सरावगी की यह ताकत है कि बहुत नजदीक की दुनिया पर एक तरह की फन्तासी का पर्दा डालकर वे व्यक्तिगत वृतान्त भी इस तरह लिख जाती हैं कि उसमें एक पूरे समाज या राष्ट्र की पीड़ा का पुनराख्यान भी सम्भव हो | इसलिए दुहराव का खतरा ‘शेष कादम्बरी’ में बचा ली गयी है | शायद इसीलिए उन्हें एक साथ अनेक शिल्प युक्तियों को साधने और इस्तेमाल करने की जरूरत होती है|”10                            

     परमानन्द श्रीवास्तव ने भगवान सिंह के उपन्यास ‘उन्माद’ की आलोचना करते हुए लिखा है कि, “भगवान सिंह ने ‘उन्माद’ में एक और तरह का अधिक गहन तार्किक सूक्ष्म पाठ गढ़ा है और साम्प्रदायिकता को ‘मनोरुग्णता’ के रूप में देखने की माँग की है | अब ऐसे उपन्यास कई हैं जिनमें साम्प्रदायिकता की समस्या को, उसके ऐतिहासिक, सामाजिक या राजनीतिक पहलुओं को समझने और विश्लेषित करने की कोशिश की गयी है | इस समस्या का समाजशास्त्र समझने-समझाने वाले कई महत्त्पूर्ण ग्रन्थ या दस्तावेज़ भी हमारे सामने हैं | समस्या ऐसी है कि जितना सुलझाए, उलझन बढ़ती ही जाती है | इधर इतिहास और उपन्यास के सम्बन्ध-विश्लेषण के क्रम में प्राय: उपन्यास को राष्ट्रीय रूपक के रूप में देखने की कोशिश की जाती है और उसकी एक से अधिक व्याखाएँ हैं | भगवान सिंह का ‘उन्माद’ इतिहास नहीं, उपन्यास है पर वह केन्द्रित है, उसका लम्बा इतिहास है|”11 
                                                  
      परमानन्द श्रीवास्तव आलोक मेहता के कहानी-संग्रह ‘चिड़िया फिर नहीं चहकी’ के बारे में अपनी टिप्पणी देते हुए कहा कि, “ये कहानियाँ समय के वीभत्स सच को खोलती हैं और हमें उत्पीड़न के यथार्थ से रू-ब-रू कराती हैं | यहाँ सत्ता के गलियारे में पूँजी और विलास का खेल प्रकट है | महत्वकांक्षाएँ जहरीली हो जाती हैं | स्मृति वर्तमान तक कथा में जो चरित्र आते हैं वे काल्पनिक होकर भी यथार्थ हैं | स्त्री सिर्फ़ सेवा-समर्पण में अपने को नहीं खपाती, एक दिन बलात्कारी राजनीतिक की हत्या कर देती है |”12 
                                   
        दरअसल परमानन्द श्रीवास्तव कथापाठ के दौरान किसी भी कृति को ‘वाह-वाह’ के रूप में नहीं देखते बल्कि आलोचनात्मक दृष्टि में उसे उतारते हुए आगे बढ़ते हैं | उनकी नज़र समकालीन कथा-साहित्य में कोई कहानी मात्र नहीं कहता, अपितु अपने समय और समाज के तमाम प्रश्न भी खड़े करता है | सभी प्रश्नों के जबाब कथालेखक की नियति नहीं होती | जबाब का हकदार विवेक-सम्पन्न आलोचक होता है | यह दौर उत्तरआधुनिक पीठ का है | अत: समय के साहित्यपीठ पर बैठकर किसी कथाबन्ध का आलोचनात्मक अन्वेषण करना वास्तविक मुकाम तक पहुँचना होता है | इस लिहाज से परमानन्द श्रीवास्तव की कथाविषयक समस्त आलोचनात्मक टिप्पणियों की पड़ताल करने के उपरान्त इस निष्कर्ष पर पहुँचना वाज़िब प्रतीत हो रहा है कि आलोचक के रूप में परमानन्द श्रीवास्तव समकालीन कथासाहित्य के भीतर से उठने वाले प्रश्नों का बेबाक   उत्तरआधुनिक जबाब देते     हैं|

सन्दर्भ-सामग्री:   
       
1. कथादेश (सं. हरिनारायण), अतल का अन्तरीप उर्फ वाचाल प्रेम का विस्फोट, परमानन्द श्रीवास्तव             
2. वही
3. कथाक्रम, कहानी का पुनर्पाठ, (रशीद जहाँ के सन्दर्भ में), परमानन्द श्रीवास्तव   
4. अपनी ही हाल के नीचे, परमानन्द श्रीवास्तव   
5. कब तक पुकारूँ : एक कालजयी उपन्यास, परमानन्द श्रीवास्तव   
6. वही 
7. सहारा समय, शब्दलोक, स्त्रीलोक और आख्यान, परमानन्द श्रीवास्तव 
8. वही
9. यथार्थ से अनहोनी, परमानन्द श्रीवास्तव 
10. स्मृति और प्रत्यक्ष के तनाव में अधूरेपन की कथा, परमानन्द श्रीवास्तव 
11. साम्प्रदायिकता का अन्तर्पाठ, परमानन्द श्रीवास्तव 
12. कथादेश, यथार्थ की विडम्बना और आलोक मेहता की कहानियाँ, परमानन्द श्रीवास्तव
सम्पर्क: 
डॉ. अंगदकुमार सिंह                                                  
असिस्टेण्ट प्रोफेसर : हिन्दी 
वीरबहादुर सिह पी.जी.    कॉलेज  हरनही,
गोरखपुर- 273412 उत्तर प्रदेश, भारतवर्ष                                           
मोबाइल नं. 09794439085                                         
Email – anagadkumarsingh01@gmail.com  
                                 

रविवार, 4 अक्तूबर 2015

विक्रम सिंह की कहानी : पसंद - नापसंद





     वह सिगरेट का कश लेकर धुएं को छोड़ता जा रहा था। मोबाइल को कई बार उठाता है। फिर रख देता है।'' क्या इतने सालों बाद उसे फोन करना अच्छा होगा।'' आखिर कार उसने नम्बर डायल कर मोबाइल को अपने कानों से लगा लिया था। माथे में पसीने की बूंदे आ गई थीं। मोबाइल की घंटी लगातार बजते जा रही थी। मगर कोई रिसीव नहीं कर रहा था। घंटी पूरी होने के बाद आवाज आई, आप जिससे बात करना चाह रहे हैं अभी फोन नहीं उठा रहा है। फोन काट मोबाइल को दोबारा मेज पर रख देता है। फिर से सिगरेट जला लेता है 'उसे तो अब मेरा नाम भी याद नहीं होगा। लेकिन उसी ने तो मेरा नाम रखा था मिट्ठू। वह हंसा,मिट्ठू। उसे याद आता है वह दिन जब पार्क में बैठी उसकी प्रेमिका उसके चेहरे को गौर से देखते हुए यह कहती है तुम्हारी शक्ल मिथुन चक्रवर्ती से एकदम मिलती है। मैं तुम्हें मिट्ठू कह कर बुलाया करूंगी। आज से तुम्हारा नाम मिट्ठू है। उस दिन वह अभिलाश से मिट्ठू हो गया था। उसने सोच लिया है आज उसे फोन पर भी यही नाम कहूँगा । उसके मोबाइल की घंटी बजने लगी। वह नम्बर देख खुश हो जाता है। झट से रिसीव कर वह अपने कानों में लगा लेता है। उधर आवाज आई,'' जी आपका मिसकॉल आया था।'' 

मैं मिट्ठू बोल रहा हूँ।''
यह सुनते ही उसकी सांसें जोर जोर से चलने लगी थी। जैसे किसी ने उसे डरा दिया हो। ''हाँ बोलो''
''क्या तुमने मुझे पहचान लिया?'
''नाम तो दूर तुम्हारी आवाज से ही पहचान लिया था'''
''कैसी हो तुम''
''मैं ठीक हूँ 'तुम कैसे हो?''
''बस चल रहा है।''
'' क्या चल रहा है?''
''मेरा एक उपन्यास प्रकाशित हुआ है। वह मैं तुम्हें भेजना चाहता हूँ। तुम्हारा घर का पता चाहिये था। ठीक है मैं तुम्हें मैसेज कर दूंगी।''
''ठीक है कर देना''
''अच्छा ठीक है'' कह दोनों ने मोबाइल काट दिया था।
 
फिर कोई मैसेज नहीं आया था। वह इतंजार करता रहा मैसेज का मगर उसका मैसेज नहीं आया। कई मैसेज इस बीच आये भी मगर वह जब भी मैसेज टोन बजने के बाद मोबाइल को देखता मैसेज किसी और का होता था। वह सोचता कही वह भूल तो नहीं गई। या उसका मेरे उपन्यास पर कोई दिलचस्पी नहीं है। रात दस बजे तक वह ना जाने क्या- क्या सोचता जा रहा था। बिस्तर पर लेटा उसका ध्यान बार- बार मोबाइल पर भी चला जा रहा था। उसे कई बार ऐसा लगा जैसे मैसेज टोन बजा है। अभी उसने फोन हाथ पर रखा ही था कि मोबाइल की घंटी बज उठी थी। वह खुश हो जल्द से रिसीव करता है। कहता है,तुम्हारा मैसेज नहीं मिला अभी तक''
''सुनो तुम मुझे अपनी किताब मत भेजना। क्योंकि मैंने तुम्हारे बारे मैं अपने पति को सब कुछ बता दिया था। अगर उसने तुम्हारी किताब देख लिया तो वह बहुत गुस्से में आ जायेंगे। वह सोचेंगे मैं अभी भी तुमसे बात करती हूँ।'' 

''तुमने मेरे बारे में उसे बताया क्यों था?''
''लड़की जात हूँ ना बात पेट में पची नहीं।''
मिट्ठू मुस्कुराता है।'' सुनो मैं अपनी किताब पोस्ट तुम्हारे घर तुम्हारे भईया के नाम से भेज दूंगा। फिर तुम उसे छुपा कर रख लेना जब मौका लगे पढ़ना।''
''अच्छा ठीक है जब मैं कहूँगी तब भेजना ठीक है। क्योंकि वह तो बनारस में रहते हैं। बीच बीच में आते रहते हैं।''
''तुम बनारस में अपने पति के साथ क्यों नहीं रहतीं हो?''
वह कहते हैं तुम पापा मम्मी के साथ रहो।''
''तुम्हारा मन लगता है।''
''मन लगाना पड़ता है।''
''तुमने कभी नहीं कहा कि मैं आप के साथ रहूँगी।''
''क्या बताउॅ? घर में मुझे बारह लोगों का खाना बनाना पड़ता है।''
''कौन-कौन है घर में।''
''दरअसल क्या है मेरी ननद और उसके तीन बच्चे हैं। और दो ननद भी हैं। देवर है। पापा मम्मी हैं।''
''यह तो कुल मिलाकर दस लोग हुए।''
''मगर खाते तो बारह लोगों के बराबर हैं।''
मिट्ठू को हँसी आई मगर उसने हंसी को रोक लिया। ''बना लेती हो इतने लोगों का खाना।''
''जब मैं नई- नई आई थी तो मेरी सासू माँ मेरा बना हुआ खाना फेंक दिया करती थीं। फिर दोबारा बनाती थीं।''
''वह क्यों?''
''क्या है यह लोग बहुत मसाले दार खाना पसंद करते हैं। तुम्हें तो पता ही है। हम लोग मसाला कितना कम खाते थे। इसलिए मेरी आदत थी मसाला कम डालने की, तो इस वजह से इन लोगों को मेरा खाना पसंद नहीं आता था।''
''तुमने अपने पति को यह सब बाते नहीं बताई थीं।'' 

''बताई थी और खूब झगड़ी भी थी कि शादी कर के मुझे यहां लाकर पटक दिये हैं। मुझे अपने साथ क्यों नहीं रखते हो। वह मुझसे कहते हैं कि मैं तो काम पर निकल जाता हूँ। तुम घर पर अकेली कैसे रहोगी। फिर आज का जमाना भी तो ठीक नहीं हैं। तुम तो देखती हो कि क्राइम पेटोªल में सब कुछ। मैं फिर भी नहीं मानी तो बाप रे उसने मुझे इतनी जोर का चाटा लगा दिया। इतने गुस्से में आ गया कि क्या कहूँ। उस दिन के बाद से मैंने फिर कभी नहीं कहा। क्या है ना मेरी सासू माँने इन सब को यह सिखाया है कि पत्नी को कभी अकेले लेकर नहीं रहना चाहिए नहीं तो किसी से भी चक्कर चला लेंगी। अब तुम ही बताओ यह कोई मेरी उम्र रह गई्र है यह सब करने की''


''कभी बनारस घुमाने भी नहीं लेकर गये।''
''नहीं, कभी नहीं लेकर गये।''
''शादी को तो चार साल हो गये और चार साल में एक बार भी नहीं लेकर गये तुम्हें बनारस।''
वह चुप रही। फिर बोली,''बाद मैं कई बार फिर बोलने लगे ठीक है अगर तुम्हारी यही इच्छा है तो चलो मैं तुम्हें वही लेकर चलता हूँ। मगर मैंने मना कर दिया था। क्योंकि जब मैं मायके गई थी माँ  पापा को यहॉं की सारी बात बताई थी तो उन सब ने मुझसे यही कहां बेटा अब जैसा भी है समय काटो,अपने आप सब ठीक हो जाएगा। 

''खैर छोड़ो तुम्हारी बीबी कहाँ है।''
''वह लुधियाना अपनी बहन के घर गई है।''
''तुम नहीं गये साथ में।''
''नहीं मैं नहीं गया कम्पनी में कुछ काम था।''
''तुम्हें मेरा नम्बर कहाँ से मिला''
''मैं कुछ दिन पहले ही रानीगंज गया था। वहां मैंने यह नम्बर तुम्हारी सहेली बीना से लिया था।''
''मेरी तो खुद तुमसे बात करने की बहुत इच्छा थी। मैं खुद तुम्हारा नम्बर खोज रही थी।'
तुम एक बार बीना से कह रही थीं, देख सब लड़के एक जैसे होते हैं। शादी के बाद मुझे मिटठू भूल गया।''
''और नहीं तो क्या?''
''मगर देखो मैंने तुम्हें फोन किया ना।''
''अच्छा सुनो तुम मुझे फोन मत करना जब मैं तुम्हें मिसकाल या फोन करूं तब तुम मुझे फोन करना। और दोपहर के दो बजे मेरा सारा काम खत्म हो जाता है। रात दस बजे के बाद मैं फ्री हो जाती हूँ। और कभी मेरा सप्ताह- पन्द्रह दिन अगर फोन नहीं आया तो यह नहीं की तुम फोन कर देना। बस तुम इंतजार करना मैं जरूर करूंगी। '' 


और सुनो अगर कभी तुम्हारा फोन आये और मैं ना उठाउं तो समझ जाना मेरी पत्नी मेरे साथ है। अभी हम रात में ही बात करेंगे। क्योंकि मेरी डयूटी अभी जरनल शिफ्ट चल रही है। तो हम अभी रात में ही बात करेंगे।
''अच्छा ठीक है अब मैं रखती हूँ।''
अगले दिन रात दस बजे बिस्तर पर लेटा हुआ मिट्ठू फिर से फोन का इंतजार करने लगा था। आज फिर उसे नींद नहीं आ रही थी। खैर मोबाइल में शेयरिंग होने लगी। मिट्ठू ने झट-पट मोबाइल रिसीवर कानों में लगा लिया था। हाँ हेलो,
''कैसे हो?'
मैं ठीक हूँ काम हो गया क्या?
''हाँ, अभी बाबू को सुला कर' हटी हूँ''
''खाना खा लिया तुमने''
''हाँ खा लिया। और तुमने क्या बनाया था आज?'
''टमाटर की चटनी,गोभी की सब्जी,रायता,रोटी''
''अच्छा,बहुत कुछ बनाया था। सब मसालेदार था।''
वह हॅंस पड़ी
''नहीं मैं जानता हूँ तुम अच्छा खाना बनाती हो। मैंने तुम्हारे हाथ का बना मछली चावल खाया है। बहुत अच्छा बनाती हो।''
मैंने सुना है तुम्हारी बीबी भी बहुत स्वादिष्ट खाना बनाती है। मुझे बीना ने बताया था।''
'हाँ अच्छा बनाती है।''
''तुम अपनी शादी से खुश हो।''
''क्या तुम अपनी शादी से खुश हो।''
''अब खुश होने के सिवा चारा भी क्या है।''
''क्योंकि तुम्हारा पति सरकारी नौकरी करता है?'' 

''मेरे मन मैं कभी ऐसा नहीं था। कि मैं नौकरी वाले लड़के से शादी करना चाहती थी। तुम एक जगह स्थिर नहीं थे।''
''क्या करता कही अच्छी नौकरी नहीं मिल रही थी। जब मैकेनिकल डिप्लोमा कर के निकला तो पता चला साला भारत देश में पढ़े लिखे बेरोजगार लड़कों की कमी नहीं है। उसमें एक में भी शामिल हो गया हूँ। फिर ना जाने मैं दिल्ली,मुम्बई,राजस्थान,गुड़गॉव ना जाने कितने इंडस्टियल शहर में घूमता रहा इस बीच कितनी नौकरी पकड़ी फिर छोड़ दी। क्योंकि मैं अपना शोषण नहीं करवाना चाहता था। और होने भी क्यों देता। जानती हूँ कम्पनी के बड़े बड़े उद्योगपति खुद तो करोडों रूपये की गाड़ी में घूमते हैं। आलीशान बंगलों में रहते है। हमें महीने में चार हजार रूपये की तनख्वाह पर काम करवाते है। और फिर मैं यह चाहता था मुझे ऐसी नौकरी मिले जहाँ तनख्वाह अच्छी हो। ताकि मैं तुमसे शादी कर संकू।'' 

वह रो कर कहने लगी,मुझे पता था जल्द से जल्द कामयाब हो मुझसे शादी करना चाहते थे। क्योंकि तुम हमेशा डरते थे कही मेरी शादी ना हो जाये।''
''सब कुछ जानते हुए भी तुमने मुझसे शादी से इनकार कर दिया था।''
''क्योंकि मैं डरती थी कही शादी के बाद तुम्हारा कैरियर ना खराब हो जाये। क्योंकि उस वक्त तुम अपना कैरियर बनाने के लिये संघर्ष कर रहे थे ''
''जानती हो संगीता जब तुम मेरे साथ पार्क में बैठी होती थीं। तो मुझे लगता था मेरे पास सब कुछ है। मुझे किसी चीज की कमी नहीं महसूस होती थी जैसे पूरा ब्रम्हांड जीत लिया हो। पर मुझे क्या पता था उसे ही पाने के लिये एक छोटी सी नौकरी पाने की जरूरत है। इसलिए फिर मैंने एक कम्पनी में नौकरी करनी शुरू कर दी थी। आज जब मल्टीनेशनल कम्पनी में नौकरी कर रहा हूँ फ्लैट में रह रहा हूँ' गाड़ी से घूम रहा हूँ। मगर ना जाने मुझे ऐसा लगता है मेरे पास कुछ नहीं है।

'जानते हो मिट्ठू जब तुमने मुझे भाग कर शादी करने के लिए कहा था। मैंने तुम्हें हाँ भी कर दिया था। मगर मैं जब अपनी मां का चेहरा देखती कि मेरे जाने के बाद उसके साथ क्या होगा। कहीं पापा उसे जान से न मार दें। फिर मैं पापा का चेहरा देखती तो मुझे लगता था कहीं पापा इस बदनामी से आत्म हत्या ना कर ले। जब मैं भाइयों को देखती तो सोचती कही मेरे ऐसा करने से यह शर्म से कालेज जाना ना छोड़ दे। बस यह सब सोच मैं डरती थी। एक तरफ तुम थे मेरा प्यार जो मुझे दिलो जान से चाहता है और दूसरी तरफ मेरे माँ  पापा जिन्होंने मुझे पाल पोस कर इतना बड़ा किया था। कुछ समझ नहीं आता था ऐसा लगता था आत्म हत्या कर लो पर उसमें भी मैं रूक जाती थी। क्योंकि मेरी आत्म हत्या करने से भी लोगों के बीच कई तरह के सवाल होते लोग कहते जरूर प्रेगनेन्ट होगी किसी से चक्कर होगा तभी आत्म हत्या कर ली। फिर पुलिस वाले भी सवाल जवाब करते क्या हुआ था लड़की ने क्यों आत्म हत्या की। इसलिए आत्म हत्या भी नहीं कर पाई। घुटन भरी जिन्दगी जीने लगी। सोचती थी माँ से तुम्हारे बारे में बताओ मगर मैं जानती थी माँ  पिताजी के पास इस रिश्ते का खुलासे का मतलब था यह रिश्ता हमेशा के लिए खत्म'' 

''पर तुमने तो मिलना तो दूर मुझसे बात करना भी छोड़ दिया था। फिर बाद में तुम्हारी शादी का निमंत्रण कार्ड अपने घर में देखा ।''
''हाँ क्योंकि मैं तुम्हें भुलाने कि कोशिश करने लगी थी। मैं सोचती थी अपने आप तुम भी मुझे भूल जाओगे। क्या तुम मुझे माफ कर दोगे?'' 

''अच्छा तुमने अपना पता मैसेज नहीं किया'' बात पलटते हुए कहा।
''हाँ कर देती हूँ। कब पोस्ट करोगे?''
''जब तुम कहो''
'' अभी ही भेज दो वह घर पर नहीं है।''
''कल ही पोस्ट कर देता हूँ।''
''अब समय भी बहुत हो गया है तुम सो जाओ। कल बात करेंगे।''
अगले दिन सुबह मिट्ठू ने अपने उपन्यास को संगीता को पोस्ट कर दिया था।
रात के दस बजते ही मिट्ठू का मोबाइल बजने लगा। उसने मोबाइल को झट रिसीव कर लिया था। मोबाइल रिसीव करते ही मिट्ठू ने कहा,'' हाँ मैंने अपनी किताब आज पोस्ट कर दी है।''
''ठीक है।' उसने बड़े धीमे से कहा था।
''क्या हुआ उदास लग रही हो?''
''एक बात बोलूं बुरा तो नहीं मानोगे।''
''नहीं बताओ''
''आज मैं तुमसे आखिरी बार बात करूंगी।''
''वह क्यों?' 

क्योंकि कल जब तुम्हारी पत्नी को यह सब पता चलेगा तो मैं उसकी नजरों में गिर जाउॅगी। और अगर मैं तुमसे इसी तरह बात करती रहूँगी तो मेरा काम मैं यहाँ मन नहीं लगेगा। फिर तुम्हारा भी वही हाल होगा। इसलिये हमें एक दूसरे को भुला देना चाहिए।''
''हम दोनो अच्छे दोस्त की तरह भी तो बात कर सकते हैं।''
''वह हम और तुम मान सकते हैं। मगर समाज इसे नजायज रिश्ता ही कहेगा।'' 

''क्यों हर बार तुम दूसरों के लिए मुझे त्याग देती हो कभी मेरे बारे में क्यों नहीं सोचती। क्यों नहीं मेरे लिए दूसरों को त्याग देती हो।''
''अपने लिए जीना कोई जीना नहीं होता जो दूसरों के लिए जीता है वही जीना हुआ। फिर जब प्यार के लिए त्याग करते हैं वही सच्चा प्यार है।'' इतना कह उसने फोन काट दिया था।
पॉच दिन बाद संगीता को मिट्ठू का पोस्ट मिला था। उसने किताब को देखा उसे अपने अटैची में छुपाकर रख दिया था।
मिट्ठू सोचता है संगीता को जब भी मेरी याद आती होगी तो वह मेरी किताब जरूर पढ़ती होगी। कभी ना कभी वह मुझे फोन पर मेरी किताब के विषय में कहेगी।
 
संगीता ने किताब को कभी अटैची से नहीं निकाला था। वह हमेशा डरती रही थी कही मेरे पति इस किताब को देख ना ले। वह पेपर बेचने वाले का इंतजार कर रही थी जब कभी भी वह आयेगा तो पेपर के साथ इस किताब को भी दे दूंगी। मगर सप्ताह भर बीत गया था। पेपर वाला नहीं आया था। उसने सोच लिया किताब को जला दूंगी
 
इसी बीच संगीता का पति राकेश आ गया था। तीन दिन रहने के बाद वापस चला गया था।
अगले दिन पेपर वाला आ गया था। संगीता पेपर को वजन करने को देकर अंदर कमरे में अटैची से किताब लेने चली गई थी। वह अटैची में देखती है वह किताब नहीं है। वह पूरी अटैची के कपड़े उलट देती है। मगर किताब नहीं मिलती है। संगीता को काटो तो खून नहीं। कुछ ऐसी स्थिति हो गई थी। वह घर का पूरा कोना- कोना छान मारती है पर किताब नहीं मिलती है। वह सोच में पड़ जाती है आखिर किताब गई कहा। हालत ऐसी की वह किसी से पूछ भी नहीं सकती थी। सो चुप हो गई थी।
पेपर वाला वजन के हिसाब से पैसे देकर चला जाता है।
 
वह उस दिन बार -बार याद करती है कि किताब तो मैंने अटैची में ही रखी थी। ऐसा तो नहीं किसी ने किताब को अटैची से निकाल लिया है। पर मेरी अटैची को मेरे सिवा कोई हाथ नहीं लगाता है।
करीब पन्द्रह दिनों बाद संगीता के पति दोबारा वापस आते है। रात के भोजन के वक्त कहते है,मैंने वह किताब पढी बहुत अच्छा उपन्यास था।'' इतना सुनते ही संगीता दंग रह गई। उसकी इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि वह पूछती आप किताब को कब लेकर चले गये। वह चुप रही। वह किताब की तारीफ करते जा रहे थे। वह संगीता को कहने लगे इस किताब को तुम भी पढना,एक लड़की जो एक लड़के से बेहद प्यार करती है मगर अपने मां-पिता से कुछ नहीं कह पाती है। और मां-बाप की एक ऐसे पसंद के लड़के से शादी करती है जिसे वह जानती नहीं और कभी देखा नहीं। उसे अपनी पूरी जिंदगी सौंप देती है। जैसे लड़के लड़की की अपनी कोई पसंद ना पसंद होती ही नहीं है। मां-बाप जिसके साथ हाथ बांध दे उसके साथ जिंदगी बितानी पड़ती है। आज भी हमारा समाज कितनी पुरानी सोच रखता है।

सम्प्रति- मुंजाल शोवा लि.कम्पनी में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत
सम्पर्क- बी ब्लाँक-11,टिहरी विस्थापित कालोनी,ज्वालापुर,न्यू शिवालिकनगर,हरिव्दार,उत्तराखण्ड,249407
मोबा0- 9012275039