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शनिवार, 31 अगस्त 2019

कहानी : दादा जी का बंगला उर्फ फैमिली ट्री -विक्रम सिंह


                                                      
                    
         ’’बेवकूफ लोग घर बनाते हैं समझदार लोग उसमें रहते हैं ’’
                                       (एक पुरानी कहावत)
 दादा जी का बंगला उर्फ फैमिली ट्री -विक्रम सिंह

  इस दुनिया में हर एक मध्यवर्गीय परिवार अपने जीवन की आधी से ज्यादा कमाई एक सपनों का घर बनाने में लगा देता है या अपनी सारी उम्र एक घर का लोन चुकता करने में बीता देता है। खास कर हमारे मघ्यवर्गीय परिवार अपनी आधी जिंदगी घर बनाने के लिए पैसे जोड़ने में बीता देते है और आधी यह सोचने में कि हम अपने पैसों से सही जगह सही घर नहीं बना पाए। ना जाने कितने तो एक घर के लिए जीवन भर कोर्ट में केस लड़ते फिरते हैं। ऐसी ही एक कहानी हमारे भी परिवार की है।
 पर यह एक ऐसे मध्यवर्गीय परिवार की कहानी है जहाँ एक घर नहीं कुल चार घर थे। नहीं-नहीं....नहीं, पाँच घर थे। नहीं, अभी भी गलत बोल रहा हूं। पाँचवा घर नहीं  आलीशान बंगला था। पाँचवा घर शिमला में था। जो 11 एकड़ में फैला था। उसके अंदर रखे कई सामान कई राजा महाराजाओं के समय के थे। उसके चारों तरफ खूबसूरत बगीचा था।  हाँ फिलहाल पाँचवे को घर ही मान कर चलते हैं, क्योंकि मेरा मानना है की एक गरीब की झोपड़ी,कुटिया, या मध्यवर्गीय व्यक्ति का फ्लैट,या फिर किसी अमीरजादे का बंगला,हवेली या फिर महल हो आखिर सबकी अपनी‘-अपनी नजर में घर ही होता है। हाँ तो मालिक मेरे दादा जी थे। जो 1962 में इस दुनिया को छोड़ कर चले गये थे। फिलहाल अब इस बंगले का कौन मालिक है या भविष्य में इसका मालिक अर्थात कौन वारिस होगा? यह एक रहस्य की तरह हो गया है। यहाँ से मेरी कहानी षुरू होती है।
   चलिए तो अब पाँच घरों की कहानी पर विस्तार से जाते हैं। मेरे दादा जी की मृत्यु के बारे में तो मुझे पता है जो मैं पहले ही बता चुका हूँ। मगर जन्म की तारीख का मुझे पता नहीं है। हाँ घर में फिलहाल जो तस्वीर टंगी हुई है, उस तस्वीर को देख कर मैं यह अनुमान लगा सकता हूँ कि दादा जी जब इस दुनिया को छोड़कर मेरा मतलब जब उनका स्वर्गवास हुआ होगा, 75 से 80 साल के रहे होंगे। कद काठी से लम्बे चौड़े दिखते होंगें। मैं दादा जी के जन्म के बारे में भी बता देता, अगर पापा जिंदा होते तो। अब वह भी इस दुनिया में नहीं रहे, मगर कहानी दादा जी के मरने के बाद से ही शुरू हुई थी। दादा जी के जाने के बाद अपने पीछे छोड़ गये थे 11  एकड़ में बना बंगला। अपने पीछे अपने सात सन्तान और पोते पोती। जिसमें दादा जी के पाँच बेटे और दो बेटियाँ हैं।
कहानी दादा जी की 
    बंगले की कहानी के विस्तार में जाने से पहले हम दादा जी के जीवन के बारे में कुछ जान लेते हैं, क्योंकि दादा जी ना होते तो यह बंगला भी ना होता। यूँ तो किसी के जीवन के बारे में किसी कहानी और उपन्यास में समेटना आसान नहीं, नामुमकिन है, क्योंकि इंसान अपने जीवन में अपने मन और अंतरात्मा में बहुत कुछ समेटे रहता है। क्या सब कुछ बाहर आ पाता है? क्या वाकई किसी के जीवन को कुछ कागजी पन्नो में उतारा जा सकता है? हाँ ऐसा सम्भव है। फिर मेरी भी इस कहानी को दादाजी का जीवन ही समझ लीजिए। दादा जी का जन्म लाहौर में हुआ था। दादा जी के पिता अर्थात मेरे परदादा एक मामूली से किसान थे। दादा जी का नाम जीत सिंह था, पर प्यार से उन्हे गाँव में जीतू भी बुलाते थे। दादाजी बचपन से ही पढने-लिखने में काफी होशियार थे। यूँ तो दादा जी की पढाई गाँव के एक छोटे से स्कूल से षुरू हुई थी।  फिर गाँव के स्कूल से होते हुए शहर के बड़े कॉलेज में खत्म हुई। अर्थात दादा जी जीत सिंह से ग्रेजुएट जीत सिंह हो गये। यह वह समय था, जब देश गुलाम था। 
   हर इंसान गुलाम था हिंन्दू,सिख,मुस्लिम,ईसाई।  तब हिन्दुस्तान पाकिस्तान नाम के दो देश नहीं थे। सिर्फ  एक देश था हिन्दुस्तान। हर एक का यही नारा था आजादी चाहिये।  हाँ,दादा जी ने पढाई खत्म करते ही अंग्रेज सरकार के अंडर लैंड रेवन्यू की नौकरी मिल गई थी। मैं दादा जी के बारे में यह झूठ नहीं कहूंगा कि वह देश की आजादी के लिए क्रांतिकारी बन गये थे, मगर देश की आजादी वह भी चाहते थे, क्योंकि गुलाम तो वह भी अपने आपको समझते थे। दादा जी ने नौकरी के दौरान लाहौर मैं कई जगह घर हो गये थे। और देश आजाद होते‘-होते दादा जी ने लाहौर में करीब बारह घर खरीद लिए थे।  अंत समय जब देश की आजादी की माँग पूरे जोर-षोर से की थी, अंग्रेज यह समझ गए थे कि उन्हें भारत छोड़ना पड़ेगा। मगर दादा जी ने यह  पहले ही भांप लिया था कि देश का बंटवारा निष्चित है। सो वे पहले ही लाहौर छोड़ कर चले आये। वे हिमाचल के एक राजा के यहाँ लैंड रेवन्यू (भूमि प्रबंन्घक) के तौर पर लग गए, मगर उनके बीवीबच्चे और उनकी बीवी  लाहौर में ही रह गये। क्योंकि दादा जी के बच्चे पढ़ रहे थे।  राजा ने दादाजी को रहने के लिए एक आलीशान बंगला दे दिया था । राजा दादा जी के काम से बहुत खुश थे। फिर दादा जी को राजा ने बड़े कम दाम में वह बंगला बेच दिया था।
     दादा जी ने जो सोचा था वही हुआ। देश का बंटवारा पहले हुआ और आजादी बाद में मिली। बंटवारे के बाद भारत में रिफ्यूजी कैंम्प लगा कर वहाँ से आये हिन्दुओं को उसमें  रखा गया। अच्छे-खासे लोग बेघर हो गये थे। उसी समय सरकार ने फैसला किया कि बेघर हुए लोगों को घर दिया जाए। सरकार ने लोगों से पाकिस्तान के प्रॉपर्टी के कागजात मांगे। बंटवारे के बाद पाकिस्तान में दादा जी के बारह घर के बदले भारत में उन्हें चार ही घर मिले। दादा जी चाहते थे कि सात घर सात औलाद के नाम से अलग‘-अलग हो जाये, मगर सरकार का कहना था कि जिस बच्चे की उम्र 21 साल है उसी के नाम घर हो सकता है। तो बस दादा जी के तीन लड़कों को छोड़ कर सब छोटे थे जिसमें मेरे पापा भी शामिल थे। मेरे पापा भी उस वक्त 21 साल के नहीं हुए थे।  इस वजह से एक घर दादा जी को और उनके तीन बेटों को भारत में घर मिला। हाँ, एक सबसे बड़ी बात यह थी कि दादा जी की दो बेटियाँ थी अगर वह 21 की होतीं भी तो उन्हें कोई पॉ्रपर्टी नहीं मिलती, क्योंकि उस वक्त ऐसा कोई प्रावधान नहीं था कि स्त्रियों को जायदाद में हिस्सा दिया जाये। खैर बंटवारे के बाद उन घरों में ताला लग गया, क्योंकि अभी उस वक्त दादा जी के सभी बच्चे पढ़ रहे थे। पूरा परिवार शिमला चला गया।
दादा जी के जाने के बाद की कहानी
     दादा जी के सभी लड़के पढ लिखकर अच्छे पदों पर लग गये। मगर घर से दूर-दूर.....। मगर दादी सबसे कहती,चाहे तुम सब जहाँ भी काम काज करो मगर साल में सारे त्यौहारो में एक साथ घर में आया करो। इसी दौरान दादा जी का र्स्वगवास हो गया। मगर दादी के रहने तक शिमला के घर में सभी होली, दिवाली में आया करते थे।  एक दिन दादी भी चली गई और फिर सबका आना जाना बंद हो गया। उसके पष्चात शिमला वाले घर में बस घर का एक नौकर ही रह गया। अब वह हम सबकी नजर में नौकर था। पर शिमला के लोगों की नजर में वह मालिक था। अब बंगला उसके हवाले था। बाकी दिल्ली में मिले दादा जी के घर को किराये पर चढ़ा दिया गया था।  दादी के जाने के बाद किरायेदारो ने किराया देना बंद कर दिया। दरअसल दादा  और दादी के जाने के बाद उन घरो का मालिक कौन है यह अभी विचाराधीन था। चूंकि उन दिनों पापा से लेकर ताऊ तक सभी अच्छे पदो पर थे। उन्हें घर की जरूरत नहीं थी। क्योंकि सरकार की तरफ से उन्हें भी बंगले मिले थे, और हम सब भी पढ लिख रहे थे। अंततः हम सब भी पढ़ लिख कर नौकरियों पर लग गये थे।  खैर दादा जी के एक एक बेटा और दोनो बेटियों को छोड़ कर सब स्वर्ग सिधार गए, जिसमें मेरे पापा भी थे। हाँ मैं यह बता दूँ कि चाचा जी दादा जी के सबसे छोटे पुत्र थे। दो फूफी उनसे भी छोटी। चाचा के भी पाँच संताने थी। जिसमें उनके चार लड़के एक लड़की। वह सब भी अच्छे पदो पर विराजमान थे। हम सब भी दो भाई बहन थे। हम दोनो भाई बहन भी सरकार के अच्छे पदो पर थे। वैसे और सब भी नौकरी में थे।  परिवार के एक दो विदेश नौकरी  में निकल गये थे।
    खैर्! मैं और मेरी बहन भी सेटल थे। माँ दिल्ली के फ्लैट में रह रही थी, जो पापा ने खरीदा था। हम सब अपने‘-अपने जीवन में व्यस्थ्त थे।
    आपको यह जान कर आष्चर्य होगा हो सकता है विश्वास भी ना हो। हम सब जब अपने‘-अपने जीवन में व्यस्थ थे, उन्ही दिनो मेरे एक चाचा जी जिनकी उम्र 60 पार हो चुकी थी। वह रिटायरमेंट के बाद वकालत पढ़ने चले गये। दरअसल वह शौकिया वकालत पढने गये थे। उनको जवानी में वकील बनने का शौक नहीं चढ़ा। यह शौक उन्हें बैंक में नौकरी करते‘-करते अचानक चढ़ गया। खैर्! यह तो उनके खुद के परिवार को भी नहीं पता चला कि उन्हें वकील बनने का भूत कब चढा। बस मैं अनुमान लगा रहा हूँ। अब आप सब सोच रहे होगे इसका कहानी से क्या लेना देना। मगर है उसके लिए आप को धैर्य रखना होगा, क्योंकि किसी भी बात की तह तक पहुंचने के लिए धैर्य रखना जरूरी है। हाँ तो जब चाचा जी 60 के बाद वकालत पढने गये तो कुछ मित्र तो हंसे’’यार्! यह पोते‘-पोती खिलाने के समय तुम्हें पढ़ाई का शौक कैसे चढ़ गयाकुछ माँ‘-बाप तो चाचा जी को आदर्ष मान अपने बच्चे को चाचा जी का उदाहरण देती। ’’देखो इस उम्र में भी वह पढ़ रहा है।’’ खैर जब उन्होंने वकालत की पढ़ाई पूरी कर ली तो हर तरफ उनकी तारीफ ही हुई।
     वकालत करने के बाद एक दिन उन्होंने परिवार के लोगों को अपने घर बुलाया। हम सब तो बस यही सोचकर गये थे कि अपनी वकालत की पढ़ाई पूरी करने की खुषी में कुछ पार्टी वार्टी देंगे। मगर जब हम सब घर पहूँचे तो ऐसा कुछ नहीं था। घर का माहौल साधराण था। बस उनके आस पास टेबल पर कानून की किताबे रखी हुई थी।
’’देखिए मेरे कुछ भाई तो गुजर गये और अब बचे मैं और मेरी दो छोटी बहनें। और आप सब हैं।’’ उन्होंने आगे की बात जारी रखते हुए कहा‘-’’देखिए पिता जी का शिमला वाला बंगला ऐसे ही पड़ा हुआ है। साथ ही दिल्ली वाला मकान भी। अब हम सबको मिल जुलकर बंटवारा कर लेना चाहिए’’। हम सब एक दूसरे का चेहरा देखने लग गए। खैर, फिर दोनों फूफी ने पूछा,’’फिर आप ही बतायें कैसे क्या करना है’’ फिर उन्होने कई साल पुरानी बंटवारे के बाद की कहानी सुनाई। जो मैं आप सब को पहले ही बता चुका हूँ। उन्होंने पूरी कहानी बताने के बाद कहा कि देखिए बटवारे के बाद पापा और मेरे तीन भाइयों को सरकार ने घर दे दिया था। बचा मैं और मेरे स्वर्गीय भाई (अर्थात मेरे पिता)। उन्होंने जैसे ही मेरे पिता का नाम लिया तो मैं खुश हो गया। और मेरी दोनों बहनें अब चूंकि संविधान में आए बदलाव के हिसाब से अब स्त्री भी जायदाद के हिस्से की दावेदार है, हम यही चाहते हैं कि अब दादा जी के घर को हम चारों के हिस्से बांट दिया जाये।’’ अपनी बात को उन्होंने वही विराम दे दिया। सब एक दूसरे का मुँह देखने लगे। न कोई हंसा न रोयां। न ही किसी ने कोई प्रतिक्रिया दी। कुछ देर में ही सब अपने‘-अपने घर चले गए।
   उस दिन बंटवारे की बात को चिंगारी मिली। सप्ताह भर होते‘-होते हर एक का फोन चाचा जी को आना शुरू हो गया। सबने यही कहा,’’यह दादा जी की सम्पत्ति है। इसका सबके साथ बराबर‘-बराबर  हिस्सा सबको मिलना चाहिए।’’
लेकिन हिस्सा भी कैसे हों? किसी ने कहा मैं ऊपर नहीं लूंगा,किसी ने कहा मैं नीचे नहीं लूंगा। किसी ने कहा मैं पीछे वाला हिस्सा नहीं लूंगा। किसी ने कहा,मैं आगे वाला हिस्सा नहीं लूंगा। वगैरा.....वगैरा। बटवारे की योजना धरी की धरी रह गई। बात हुई इसे बेच देते हैं। मगर उसमें बात नहीं बन पाई क्योंकि हमारे ही परिवार का एक पाँपर्टी डीलर भी था, जिसने इसका जिम्मा लिया। मगर कुछ को यह बात पची नहीं। उनका यह सोचना था कि उसमें यह खुद बहुत पैसे कमा लेगा। फिर कुछ ने तो बेचनेे में ही अपनी रजामंदी नहीं दी। बंगले को लेकर सबने अपने‘-अपने सपने सजा लिए थे। कोई चाहता था इसे फिल्म शूटिंग का बंगला बना दिया जाए। कुछ इसे अस्पताल बनाना चाहता था। जो जिस पेशे से था वह उसी तरह उसे इस्तेमाल करना चाहता था। फिर मामला इस तरह बिगड़ा कि  रिश्तेदारों ने एक एक कर अपना‘-अपना वकील रख लिया। हमने भी अपना एक वकील रख लिया। हमारे वकील ने सर्वथप्रथम हमारे पूरे खानदान का फैमिली ट्री बनाया। फैमिली ट्री  बनने के बाद मैं, मेरी बहन,माँ  और रिश्तेदारों को मिलाकर पूरे 29 लोग उस घर के दावेदार निकले। वकील ने कहा कि अगर दादा जी कोई वसीयत लिख कर गये होगे फिर तो झमेले की कोई बात ही नहीं है। जिसके नाम उन्होंने यह वसीयत लिखी होगी उस प्रॉपर्टी का मालिक वही होगा। मगर पूरी खोज बीन के बाद पता चला दादा जी ने कोई वसीयत ही नहीं लिखी थी। 
   खैर, हम सब केस लड़ते रह गये।  बंगले का नौकर मालिक बन कर रहता रहा।, हमने उस पुरानी कहावत को सही सिद्ध कर दिया‘-’’बेवकूफ लोग घर बनाते हैं समझदार लोग उसमें रहते हैं
लेकिन केस लड़ते हुए मैने यह जाना कि बेवकूफ वह होता है जो पॉपट्री/घर‘-मकान बनाने के बाद वसीयत लिख कर नहीं जाता है। और जिन्हें विरासत में मुफ्त की जायदाद मिलती है वो बिल्लियों की तरह आपस में लड़कर बाहरी बंदर को अपने‘-अपने हिस्से की रोटी सौंप देते हैं।

  
सम्पर्कः बी-11,टिहरी विस्थापित कॉलोनी,ज्वालापुर,हरिव्दार,उत्तराखंड,249407
मो-9012275039

सोमवार, 4 जून 2018

कहानी :आवारा अदाकार -विक्रम सिंह



     विक्रम सिंह का जन्म  01 जनवरी 1980 को  जमशेदपुर (तत्कालीन  बिहार,  अब झारखंड) के एक सिख परिवार में।  प्रारम्भिक शिक्षा पश्चिम बंगाल में। शिक्षाः आटोमोबाइल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा। संप्रति.  मुंजाल शोवा लिमिटेड कम्पनी ( हीरो ग्रुप) में बतौर अभियंता कार्यरत। देश भर के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छपी अपनी कहानियों के लिए चर्चित।अब तक  दो कहानी संग्रह- ’वारिस’’एंव ’’,और कितने टुकड़े’ प्रकाशित।
       युवा लेखक विक्रम सिंह का अद्यतन प्रकाशित कहानी संग्रह
’’और कितने टुकड़े’’ में सारी कहानियों की अलग-अलग पृष्ठभूमि लेखक की बहुआयामी सोच एवं व्यक्तित्व को रेखांकित तो करती ही हैं बल्कि लेखक के मनोभावों को समझने में भी मदद करती हैं। कहानी ’’आवारा अदाकार’’ में विक्रम सिंह ने बेरोजगारी की दंश को झेल रहे उन तमाम बेरोजगारों के अंतर्मन की पीड़ा को पर्त दर पर्त उघाड़ने के उपक्रम में उनके टूटते मनोबल को प्रेम के बारीक धागों से जोड़ने की पुरजोर कोशिश की है। गुरुवंश और बबनी के माध्यम से कहानी रफ्ता रफ्ता आगे बढ़ती है जैसे स्कूल के दिनों में अक्सर पढ़ाई के साथ साथ प्रेम अंखुआते हुए आगे बढ़ता है। यहां भी कुछ ऐसा ही धीरे धीरे होता है और पाठक कहानी में पूरी तरह से डूबता चला जाता है और आवारा अदाकारा से साक्षात्कार करने में सफल हो जाता है। अंत में एक टिस की हूक दिल में बहुत देर तक महसूस होती है और आप  विचलन की स्थिती में पहुॅच जाते हैं । बाकी निर्णय तो आप कहानी पढ़ने के बाद ही कर पाएंगे।

कहानी :आवारा अदाकार -विक्रम सिंह
 
 ’’ मुश्किलें दिल के इरादे आजमाती हैं, स्वप्न के परदे निगाहों से हटाती हैं।
हौसला मत हार गिरकर ओ मुसाफिर,ठोकरें इन्सान को चलना सिखाती हैं।
                                                        (रामधारी सिंह ’दिनकर’)

       आप लोगों ने अखबार में कई बार पढ़ा होगा कि फलां जी पहले बस कन्डक्टर हुआ करते थे।  इत्तेफाक से ऐसे ही एक बस में एक बार कोई फिल्म निर्देशक जा रहा था। बस कन्डक्टर के टिकट काटने के अंदाज से निर्देशक इतना प्रभावित हुआ कि उसे अपनी फिल्म में ले लिया........ या अपनी माँ के साथ वो पार्टी में गई थी। वहीं डायरेक्टर साहब ने उसे देखा और फिर  अपनी फिल्म में हीरोइन ले लिया आदि... आदि। अभी-अभी मैंने अपने एक मित्र के बारे में पढ़ा  कि वो किसी फॉइव स्टार होटल में वेटर की नौकरी कर रहा था। वहीं खाना सर्व करते समय डारेक्टर से मुलाकात हुई और उसे फिल्मों में काम मिल गया। पढ़ कर ऐसा लग रहा था जैसे मुम्बई में हलवा बट रहा हों। मुझे मन ही मन हंसी आ रही थी। आप भी यही सोच रहे होंगे कि सारे लोग इतना पढ़-लिख कर नौकरी के लिए जूते घसीटते रहते हैं, फिर भी कुछ नहीं होता। खैर,अचानक ही आज मुझे मेरे मित्र की याद आ गई। 

      यह उन दिनों की बात है, जब मल्टीप्लेक्स सिनेमा नहीं होता था। ऑनलाइन टिकट की बुकिंग भी नहीं होती थीं। उल्टा टिकट का ब्लैक होता था। एक हॉल में एक ही सिनेमा चलता था और टिकट के लिए क्या मारा-मारी होती थी। देखते ही बनता था। हॉल के अंदर एक सिनेमा और बाहर एक और सिनेमा। उन दिनों मैं कोलियरी के कॉलोनी में रहा करता था। मेरा मित्र भी उसी कॉलोनी में रहता था। हम दोनांे के पिता एक ही कोलियरी में काम करते थे। मित्र क्या था, समझिये एक कलाकार था। वह शौकिया तौर पर मंच पर नाटक किया करता था। वो भी साल में एक बार ही होता था जिसमें उसे अभिनय का मौका मिल जाता था। दरअसल हम प.बंगाल के छोटे से शहर रानीगंज में रहा करते थे। वहाँ हर साल माँ दुर्गा के विर्सजन के बाद नाटक प्रतियोगिता हुआ करती थी। इस प्रतियोगिता में कॉलोनी के लड़के भी भाग लिया करते थे, जिसमें मैं भी होता था। हम सब शौकिया तौर पर महीने भर पहले ही नाटक की तैयारी करने लगते थे। शौकिया तौर पर ही सही, मगर मेरा मित्र गुरूवंश मंच पर अपनी छाप जरूर छोड़ जाता था। फिर उसने कई थियेटर ग्रुप के साथ भी काम किया।     
खैर मेरा मित्र हमेशा ही कॉलोनी में चर्चा का विषय हुआ करता था। मुम्बई में फिल्मों में काम तलाशने की वजह से। उसे मुम्बई में काम के सिलसिले में घूमते हुए करीब दो साल हो गये थे। फिर भी उसकी हालत वैसी ही थी जैसे दो साल पहले थी। इन दो सालों में उसके मुम्बई में कई जानने वाले भी हो गये थे ,मगर वो उसके किसी काम के नहीं थे। ऐसा मैं नहीं वह खुद कहा करता था। जब उसे मैं यह कहता,’’यार दो साल हो गये तुझे मुम्बई में घूमते हुए। बहुत सारे लोग तुझे जान भी गये होंगे। फिर भी काम नहीं मिल रहा।’’  वह कहता,’’क्योंकि वो भी वहीं खड़े है जहाँ मैं।’’ लेकिन उसने अभी तक हार नहीं मानी थी। अपने मुकाम तक पहुँचने के लिए उसने एक फॉइव स्टार होटल में वेटर की नौकरी पकड़ ली थी। बस यही वजह थी कि कॉलोनी में उसकी चर्चा जोरो से शुरू हो गई थी कि चला था हीरो बनने और बन गया वेटर। वैसे मुम्बई जैसे शहर में यह कोई नई बात नहीं थी। कई लड़कियाँ भी यहाँ हीरोइन बनने आती हैं मगर बार डॉन्सर बन कर रह जाती हैं। दरअसल लोगों का मानना है कि वह हीरो बनने की वजह से नहीं, प्यार की वजह से वेटर बन गया था। इसका मुख्य कारण यह था कि प्यार की वजह से उसकी पढ़ाई भी अधूरी रह गई थी। उसके अधूरे प्यार और अधूरी पढाई के पीछे एक लम्बी कहानी है। तो चलिए इस लम्बी कहानी को परत दर परत खोलतेे हैं।
          जैसा कि मैंने पहले ही कह दिया था कि वह हमेशा कॉलोनी में चर्चा का विषय हुआ करता था, सही मायने में वह कॉलोनी में उसी दिन से चर्चा में आ गया था जब वह हैवी ड्राइविंग लाइसेन्स बनवाने गया था और उस दिन उसके दलाल ने उसे धोखा दिया और लाइसेन्स बनने के पहले उसे ट्रक पर चढ़ा दिया गया। दरअसल हुआ यूँ कि गाड़ी स्ट्रार्ट कर  पिकअप ज्यादा दे दिया। गाड़ी सामने के एक पेड़ से टकरा गई। उस दिन खूब हो-हल्ला हुआ था। वह चर्चा का विषय बन गया। कॉलोनी  में  सब यह कहने लगे कि यह भी प्यार की वजह से हुआ है। मैं जानता हूँ आप उत्सुक हो रहे होेंगे कि आखिर मुम्बई, हैवीड्राइविंग लाइसेन्स और प्यार के बीच क्या कनेक्शन है? चूंकि यह सब बताने के पहले थोड़ा मैं अपने मित्र का परिचय आप लोगों से करा दूँ।  मित्र का जन्म एक सिख फैमिली में हुआ था।। मगर उसके सिर पर केश पगड़ी नहीं थी। शुरूआत में कुछ दिनों तक उसके सिर पर केश रहे। जब भी स्कूल जाने के वक्त माँ (जिसे वह मम्मी कह कर पुकारता था।)  उसके केश संवारती थी वह  मम्मी के पास ठीक से टिकता नहीं था। उसके बाल संवारने में मम्मी के पसीने छूट जाते थे। अर्थात जितना संवारने की कोशिश करती उतने ही उसके बाल और मम्मी दोनों ही उलझ जाते थे। यह तमाशा हम देखते सुनते रहते थे। जब हम सब तैयार होकर स्कूल के लिए रिक्शे में बैठ जाते तो हर दिन वह सबके बाद में लेट मुँह फुलााये आता और चुपचाप रिक्शे में बैठ जाता। सो मम्मी ने अपना पसीना सुखाने का उपाय यह निकाल लिया कि उन्होंने उसके बाल कटवा दिये। उन दिनों इस पर कोई सवाल खड़ा नहीं हुआ। मगर जब वह बड़ा हुआ और लोगों को पता चला कि वे सरदार है तो लोग उसके केश के बारे में कहते-पूछते अच्छा तो इंदिरागाँधी के मर्डर के समय तुमने भी केश कटवा लिया होगा।’’ उसके पास इस सवाल का कोई जबाव नहीं होता था। खैर वो मौना सरदार हो गया था। केश न रखने के पीछे जो कहानी उसने मुझे बताई थी उसका ही जिक्र मैंने ऊपर किया है। खैर पापा (जिन्हें वो डैडी कहकर पुकारता था) मैकेनिकल फिटर थे। कुल मिलाजुलाकर वो मात्र दसवीं तक ही पढ़े थे। अब यह भी बता दूँ कि इस कॉलोनी में सबके पिता नॉन  मैट्रिक ही थे । कोई-कोई तो अगूंठा छाप भी थे। खैर उन दिनों सरकार की तरफ से एक साक्षरता अभियान चलाया गया था। हर रात किसी ना किसी जगह लोगों को बैठा कर कम से कम इतना पढ़ाया जा रहा था कि वो अपना सिगनेचर करना सीख जांए। इस मुहिम के तहत वह कुछ हद तक क,ख,ग सीख भी गये। सही मायने में  उसके पापा चाहते थे कि वो सभी खूब पढ़ें-लिखे। इसके लिए वो पैसे खर्च करने के लिए भी तैयार थे। वो तीन भाई थे। तीनों भाईयो में बस उम्र को छोड़ कर इतना फर्क था कि छोटा भाई दोनो भाईयों से तेज था। वो पढने-लिखने में कमजोर जरूर था पर मेहनती था। उसने दसवीं और बारहवीं में भी खूब मेहनत की। हाँ,उसने दो-दो टयूशन भी लगा रखा था। टयूशन तो वो सातवीं से ही पढ़ रहा था। उन दिनों कॉलोनी में राजनारायण नाम के एक टीचर थे। कॉलोनी के सारे बच्चे उनके पास टयूशन पढ़ने जाते थे। मैं भी उनके पास ही जाता था। हाँ राजनारायण सर के टयूशन पढ़ने के दौरान ही उसने पहली बार ’’बबनी कुमारी’’ को देखा था। इसी तरह उसने भी उसे देखा था। पहली बार देखने का नतीजा यह था कि  दोनों एक दूसरे को बार-बार देखने लगे। वो एक दूसरे को क्यों देख रहे हैं? यह न उसे पता था न बबनी  को । बात बस इतनी थी कि आँखें हैं तो देखेगे ही। मगर कुछ दिनों बाद मित्रों ने गुरूवंश से कहा, ,’’ अबे बबनी तो तुझे लाइन दे रही है।’’ इस लाइन मारने की अफवाह तब पुख्ता हुई जब वो आठवीं में था और राजनारयण से टयूशन पढ़ना छोड़ दिया था। उसे घर पर ही माधव पाल नाम के शिक्षक पढ़ाने आने लगे थे। वह बबनी के बारे में कुछ भी नहीं सोचता था। ऐसे ही वक्त में मेरी पड़ोस की एक लड़की जिसका नाम रीता था, उसके पास गई और  कहा,’’सुनो तुमसे एक बात करनी है।’’
 उसने कहा,’’हाँ बोलो।’’
’’सुनो’’
’’सुनाओ’’
’’बबनी के पीछे एक लड़का हाथ धोकर पड़ा है।’’
’’तो’’
’’तो का जवाब यह है कि बबनी ने उस लड़के से कहा है कि वह तुमसे प्यार करती है।’’
’’ वो मुझसे प्यार करती है ऐसा क्यों कहा?’’
’’उससे पीछा छुडाने के लिए’’
’’तो  क्या वो इससे उसका पीछा छोड़ देगा?’’
’तुम बेवकूफ हो’’
’’क्या कहा?,’’
’’कुछ नहीं,जैसे शादीशुदा कह देने से कोई लड़का किसी लड़की के पीछे नहीं पड़ता, वैसे ही पहले से बॉयफ्रैन्ड है बता देने से पीछा छूट जाता है।’’
’’ठीक है उससे कह दो कि हम उससे प्यार करते हैं।’’
फिर वह चली गई थी। दरअसल वह इस बात की टोह लेने आई थी कि मित्र  सही में कही उससे प्यार तो नहीं करता।
             उस दिन के बाद से  दोनो एक दूसरे को कुछ ज्यादा ही देखने लगे थे। उसे देख कर वह ऐसा महसूस करता जैसे वह बबनी की मदद कर रहा है। इसी देखने-दिखाने के क्रम में वो उसकी आँखो में समा गई। फिर उसे बार-बार देखने की आदत हो गई। चूकि गुरूवंश की छत से उसके घर का बरामदा दिखता था इसलिए  छत पर चढ-चढ कर वो उसे देखने लगा। इसी चक्कर में अब तो सुबह उठते ही वह ब्रश लेकर छत पर चला जाता। खूब देर तक दाँतों में ब्रश रगड़ता रहता। छत पर ही इधर-उधर थूकता भी जाता। बस इसी ध्यान में रहता कि कब वो बरामंदे में आये और वो उसे देखे। सही मायने में वह सुबह में  दिखती ही नहीं थी। क्योंकि वह सुबह देर  से उठती थी। दरअसल वो सुबह से ही उसे तलाशने लगता था। हालत तो यह हो गई थी कि ठंड के मौसम में भी किताब लेकर छत पर हाजिर हो जाता। धूप सेंकते हुए  किताब की हर चार लाइन पढने के बाद उसे बरांमदे में देखता अर्थात पाँचवी लाईन बरांमदा हो जातीा। हाँ, वह कई बार बरामंदे में आती भी। वो भी हल्के-फुल्के काम के लिए। जैसे कभी जूठे बर्तन बाहर रखने,कपड़े रखने इत्यादि। दरअसल उसके घर के बरामदे में एक छोटी सी पानी की टंकी थी जिसमें प्लॉस्टिक की टंोंटी लगी हुई थी। उसके घर एक काली,दुबली सी मैली सी साड़ी पहने एक बंगालन कामिन आती थी जो टंकी के टोंटी के पास बैठकर सारे काम करती रहती थी। वह काफी तेजी से काम करती रहती थी। उसे अपना काम निपटा कर दूसरे घर जाने की जल्दी रहती थी। दरअसल हमारे कॉलोनी के पास मांझियों की छोटी सी बस्ती थी। यहाँ के लोग सुअर पालने का काम करते थे। वो छोटा-मोटा काम कर के अपनी जीविका चलाते थे। खैर अब कहानी की तरफ रुख करते हैं। यूँ तो बबनी उसे कभी देखती नहीं थी। मेरा मतलब छत की तरफ। हो सकता है उसे पता ही नहीं चलता हो कि वह छत पर खड़ा है। मगर गुरूवंश की सोच एक दिन बदल गई।  इत्तेफाक से उस दिन वह टयूशन पढ़ रहा था। रीता उसके घर आकर उसकी बहन के साथ गप मारने लगी। तब तक मारती रही जब तक गुरूवंश टयूशन पढ़ कर उठ नहीं गया। उसके टयूशन से उठते ही वह उसके पास आई और कहा,’’आज कल छत पर बहुत पढ़ रहे हो।’’ यह सुनते ही उसकी हक्का-बक्का रह गया। वह सोच में पड़ गया कि इसे कैसे पता चला? जब कि यह तो बबनी को भी पता नहीं होगा। खैर वो झट से उसके हाथ में एक कागज का पर्चा थमा कर चलती बनी। उसने जब उस पर्चे को खोल कर देखा तो उस पर मात्र तीन शब्द लिखे थे। वही तीन शब्द जिसे पूरी दुनिया बनी थी। यही तीन शब्द किसी भी जोड़े को एक दूसरे के करीब लेकर आते हैं। जब तक पृथ्वी में मेल फीमेल हैं। तब तक यह तीन शब्द जिन्दा रहेेंगे। और वो तीन शब्द थे। आई.लव.यू। गुरूबंश ने भी उसे तीन शब्द ही लिखकर भेजा था। आई.लब.यूँ। इन तीन शब्दो ने फिर प्यार को विस्तार दिया। जब वो पहली बार मिले तो बबनी ने गुरूवंश से कहा,’’तुमने जो मुझे लिखकर भेजा था ,वह मैं तुम्हारे मुँह से एक बार सुनना चाहती हूँ। फिर उसके मुँह से दबी सी आवाज निकली थी। ’’आई.लव.यूँ।’’ बबनी ने झट गुरूवंश से कहा,’’नहीं ठीक से कहो।’  गुरूवंश ने धीरे-धीरे विराम दे-दे कर सांसें ले-लेकर कहा, आई.........लव......यू.......। फिर गुरूवंश ने पूछा,’’अब ठीक’’ वह मुस्कुराई। शायद उसे गुरूवंश के लिखे पर उतना विश्वास नहीं था जितना उसके मुँह से सुन कर हुआ था। वह भी उसके मुँह से सुनना चाहता था। उसने भी उसे वही लाइन बोलने के लिए कहा, जो उसने कहीं थीं।  वह थोड़ा शर्माई  मगर  वह लाइन कह डाली। इस लाइन ने गुरूवंश के शरीर में स्टारायड सुई की तरह काम किया। पूरे जिस्म में प्यार ही प्यार भर दिया। या यूँ कहो कि गुरूवंश प्यार के समुन्दर में डुबकी लगाने लगा। प्यार का बीज  सिंचने लगा था। उसके बाद हर दिन ही पत्र आने लगे। शुरूआत में एक लाइन की फिर दो लाइन की फिर लम्बे पत्र आने लगे। उनके लाइनों को गिनना मुश्किल था। हर चौथे पॉचवंे दिन एक पत्र गुरूवंश को मिल जाता था और उसे भी।  धीरे-धीरे पत्रों से वो दोनांे उबने लगे थे। क्योंकि एक तो पत्र का इंतजार सम्भव हो नहीं पाता था। दूसरे पत्र भी कोई और लेकर आ जा रहा था।  डर लगा रहता कि कहीं कोई बात लीक न हो जाये। खैर इस बात का डर गुरूवंश से कहीं ज्यादा बबनी को रहता था, क्योंकि बबनी  लड़की थी और वह यह बात अच्छी तरह समझती थी कि स्त्री जाति की पेट में कोई बात पचती नहीं है। सिर्फ पत्र ही नहीं उनके बीच गिफ्ट का भी लेन-देन भी होता था। रीता ने बबनी का गिफ्ट,जो फूल का एक छोटा सा कीमती गुलदस्ता था। मगर रीता का उस दिन मूंड ठीक नहीं था। गुरूवंश को गिफ्ट देते हुए बोली,’’लो बबनी ने तुम्हे गिफ्ट भेजा है। उसके इस रूखेे स्वभाव पर वह बोला,’’क्या तुम्हें अच्छा नहीं लगा?’’ दरअसल उस दिन रीता का मूड ठीक नहीं था।
’’वो बात नहीं उसने मेले में कुछ अच्छा नहीं किया। एक रूपया भी अपने ऊपर खर्च नहीं किया ना कुछ खाया ना पिया बस तुम्हारे लिए गिफ्ट ही खोजती रही।’’
         यह सुन उसने आगे कुछ नहीं कहा और बस उस गिफ्ट को रात भर देखता रहा। जैसे उसे कोई नायाब चीज मिल गई हो वो उस रात ही नहीं उसे हर दिन भी देखता था। खैर उस दिन के बाद हुआ ये कि रीता ने आना बंद कर दिया। काफी समय तक बबनी का कोई पत्र नहीं आया।  गर्मीयों के दिन थे। वो दोपहर को स्कूल से आ रहा था तो अचानक बबनी ने उसे हाथ का इशारा किया। दरअसल बबनी ने उसे इशारे से आंगन के गेट के पास आने के लिए कहा,वो जैसे ही गेट के पास पहुँचा वो अपनी मुठठी में बंद एक फोल्ड कागज उसके हाथों में थमाकर चली गई। वो घर आकर बाथरूम में घुस गया और पत्र पढ़ने लगा।
       ’’काफी दिनों से तुम्हें यह लेटर देने की कोशिश कर रही हूं मगर दे नहीं पा रही थी। इश्क ने डरना सीखा दिया। आज तक कॉलोनी से लेकर स्कूल तक किसी से नहीं डरी। मगर अब जाना की कम्बख्त इश्क डरपोक होता है। इस डर ने तुम्हें पत्र देने से हमेशा रोका। लेकिन यह सोच कर हर दिन दरवाजे के गेट पर खड़ी होती कि कभी ना कभी लेटर देने का मौका जरूर मिलेगा। लेटर देने से कहीं ज्यादा मुझे तुम्हारे लेटर का इंतजार था। अब रीता को कुछ मत देना वह मुझसे नाराज है। अब हम इसी तरह लेटर देते-लेते रहेंगे।’’ मोटी बात यह थी कि रीता से उसकी बात-चीत ही बंद हो गई थी।  मिला जुलाकर बस यही था कि उसने इशारा किया था कि अब उसके भरोसे नहीं रहना है। उसके अगले दिन ही वह दोपहर दो बजे पॉकेट में लेटर लेकर घूमने लगा। क्या टाइमिंग थी कि दो बजे ठीक बबनी भी गेट पर आकर खड़ी हो गई। वह उसे पत्र देकर चला गया।  उन दिनों वो यही सोचा करता था कि काश कोई ऐसी व्यवस्था होती कि कहीं भी जाकर वो आराम से बात कर सकते। उन दिनों मोबाईल नहीं था।.हाँ उन दिनों टेलीफोन जरूर उपलब्ध था। पर हम इतना जानते थे कि टेलीफोन बड़े घरो में होता है। हमारे कॉलोनी में उन दिनों बी.एम.एस के कार्यकर्ता रहते थे बाद में जो वहाँ के प्रेसिडेंस हो गये थे। उनके घर टेलिफोन था। पूरी कॉलोनी के लोगो का फोन उन्हीं के घर आता था। उनका लड़का फोन आने पर कहता’’ पॉच मिनट बाद कीजिएगा।’’ फिर वह उन लोगोें को बुला कर लाता जिनका फोन आया होता था। खैर वह और बबनी गर्मियो में दोपहर के वक्त और जाड़े में करीब रात 8 बजे एक दूसरे को लेटर दिया करते थे। यह सिलसिला दो साल तक चला। हाँ गुरूवंश का एक मित्र भी हुआ करता था जिसका नाम था अजय प्रताप सिंह। उसकी अजय के साथ खूब छनती थी। गुरूवंश ने  उसे अपने और बबनी के बारे में बता रखा था। अजय प्रताप सिंह की एक बड़ी बहन रीना थी। उसकी दोस्ती बबनी की बड़ी बहन बबीता से थी। फिर बबनी ने बबीता को ही अपना मिडिऐटर बना लिया। एक दिन अचानक ही अजय ने उसे दिया जो हाथ की घड़ी गिफ्ट कर दी। सही मायने में गुरूवंश पहले बबीता से डरता था और हमेशा यह सोचता था कि कहीं  इसे पता न चल जाये।  दरअसल गुरूवंश के प्यार को पिक तो बबीता ने ही दिया। और उन्हें अलग कराने में उसका ही बहुत बड़ा हाथ भी था। खैर यह सब बाद में। उन दिनों बबीता टी.डी.बी कॉलेज में बीए प्रथम वर्ष में पढती थी। हम अभी नवीं के छात्र ही थे। फिर कई दिन तक बबीता ही पत्र लेकर आती रही। अब हालत ऐसी हो गई थी कि वह हर शाम अजय के घर चला जाता उसी वक्त बबीता भी वही चली आती थी। बस न जाने क्यों वह अजय के घर बैठ जाता और अजय से गप्पें मारता रहता मगर उसका ध्यान ज्यादातर बबीता पर ही रहता। बस इस वजह से ही कि शायद वह बबनी के बारे में कुछ कहे। मगर वह कुछ कहती नहीं थी। बस इतना था कि बात-चीत होती और कई विषयों पर होती । खास कर शाहरूख खान की फिल्मों की । उन दिनांे शाहरूख खान एक रोमान्टिक हीरो की तरह हर युवा लड़की-लड़कियों के दिलों पर छाया हुआ था। उन दिनों दिलवाले दुल्हनिया ले जायेगे फिल्म आई थी।  कॉलोनी के हम सभी लड़के-लड़कियाँ फिल्म देखने गये थे। गुरूवंश और बबनी ने पहली और आखिरी दफा वह फिल्म देखी थी। फिर कभी मौका नहीं मिला। या यूँ समझिए कि मौका लगने पर फिल्म देखने के  बजाए एक-दूसरे को देखना उन्हें ज्यादा मुनासिब लगा। एक दिन बबीता ने गुरूवंश को यह कहते हुए पत्र दिया कि ’’यह लो बबनी ने दिया है।’’ बेताबी में पत्र को तत्काल खोलकर पढने लगा। बबीता मुस्कुराकर चली गई।
       ’’कैसे हो। क्या तुम्हे कभी मुझसे मिलने का मन नहीं करता। तुम टी.डी.बी कॉलेज कल 8 बजे सुबह पहुँच जाना। कल हम वहाँ मिलेगे।’’ पत्र में बस इतना लिखा था। अक्सर मिलने की प्लानिंग उसके हिसाब से ही होती थी। खैर गुरूवंश को उस रात भर नींद नहीं आई। अगले दिन सुबह उसने हल्दी और बेसन से रगड-रगड़ कर नहाया। दरअसल उसकी माँ और दीदी भी ऐसे ही नहाती थीं। उसे ऐसा लगता कि वह इससे ज्यादा खूबसूरत दिखने लगेगा। सच कहूँ तो जब भी उसे मिलना होता वह ऐसे ही नहा कर जाता था। वह सही समय पर कॉलेज पहुँच गया। मेंन गेट पर बबीता उसका इन्तजार कर रही थी। बबीता उसे और बबनी को एक क्लास रूम में बैठा कर चली गई। जो पहले से शायद लव पॉइन्ट बना हुआ था। क्लास के सामने लगे ब्लैक बोर्ड पर लिखा हुआ था ’’ पिंकी! आई.लव.यू।’’ ’’राधिका मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ।’’ प्यार के साथ-साथ बोर्ड में नफरत भी फूट रहा था। ’’राजू आई हैट यू!’’गुडडू अब अपनी शक्ल मुझे मत दिखाना। ’’इत्यादि ना जाने इस तरह की कितनी बातो से बोर्ड भरा पडा था। वह और बबनी एक बेंच के कोने में बैठ गये। दोनो बोर्ड की तरफ देखने लगे। वो दोनो चुपचाप बैठे रहे।  इस बीच कई प्रेमी जोड़े आते और कुछ देर बैठ कर चले जाते। वो दोनो उस प्रेमी जोड़ो को देखने लगते। मगर कोई भी जोड़ा उन दोनों को नहीं देखता था। बीच की चुप्पी को बबनी ने ही तोड़ा,’’क्या इसी तरह चुप बैठने के लिए आये हो।’’
गुरूवंश फिर मुस्कुराकर चुप हो गया। ना जाने क्यों वो दोनो जब भी साथ होते तो  शरमाते हीे रहते थे। गुरूवंश ने  कहा,’’चुप तो तुम भी बैठी हो।’’
’’जब तुम ही चुप बैठे हो तो मैं क्या कहूँ।’’
’’अच्छा ठीक है बताओ। तुम कैसी हो।’’
’’मैं ठीक हूँ अपनी सुनाओ।’’
’’मैं भी ठीक हूँ।’’
’’तुम्हारा मुझसे मिलने को दिल नहीं करता था।’’
’’क्यों नहीं?’’
’’फिर कभी,कहा क्यों नहीं।’’
’’समझ में नहीं आया कि कैसे, कहाँ और कब, मिलें?’’
’’चलो, कोई नहीं। हर दिन तो तुम्हे देख ही लेती थी।’’
’’कहाँ देख लेती थी?’’
’’हर दिन शाम को गेट पर आकर खड़ी हो जाती हूँ।’ फिर जब भी तुम रास्ते से गुजरते हो मैं तुम्हें देख कर चली जाती हूँ।’’
         गुरूवंश उसके गेट के सामने से अक्सर शाम को गुजरा करता जब तक कि वह गेट के पास आ ना जाये। इस वजह से अक्सर गुरूवंश कॉलोनी में ही रहता था। कॉलोनी के बाहर कहीं नहीं जाता था। सही मायने में मौसम के हिसाब से काँलोनी के दोस्त कुछ ना कुछ खेल खेलने मैदान में जाया करते थे। जैसे की क्रिकेट फुटबाल इत्यादि। कॉलोनी में हर किसी की कोई ना कोई हॉबी थी। हर  कोई किसी न किसी को अपनी हाबी से जोड़ता रहता था। उसे भी लोग अपनी किसी हॉबी से जोड़ना चाहते थे। पर वो जुड़ नहीं पा रहा था। प्यार में पड़ने के बाद उसने फिर नाटक भी नहीं किया। हाँ तो बबनी के घर के बरामदे में पाँच फुट का लौहे का गेट था। उस गेट के पीछे खड़ी हो जाती थी। जिससे बाहर की तरफ सिर्फ उसका सिर निकला रहता था। बबनी करीब पाँच फुट तीन इंच की थी। जितनी ज्यादा उसकी हाइट थी उसके बाल उतने ही छोटे थे। दरअसल वो अपने बाल ब्लैड कट रखती थी। सिर पर हमेंशा हेयरबैंड लगाकर रखती। कमर उसकी पतली और हिप चौडी थी। सड़क के किनारे ही एक छोटी सी गुमटी थी। उसकी विशेषता यह थी कि सालों साल बंद रहती थी। सिर्फ और सिर्फ होली के दिन खुलती थी।  वो भी सुबह-सुबह। यह गुमटी कॉलोनी में ही रहने वाले की थी जिसका नाम भगना था।  कॉलोनी के लोग उसे भगना मामा कहते थे।
जैसे ही वह बबनी को गेट पर देखता तो इसी गुमटी के पास कुछ पल के लिए रूक जाता था।
उस दिन वो  दोनों लव पाइन्ट पर काफी देर तक बैठे रहे। दोनो एक दूसरे की कम और दुनिया जहान की बातें ज्यादा कर रहे थे कि मेरे गर्ल फ्रेंड का दोस्त ऐसा है,वैसा है। वह उसे ऐसा कहता है। उसका उसके साथ चक्कर है। वगैरह....वगैरहं....। हाँ इस बीच बबनी की दीदी आई और उसे देख कर बोली ’’अरे तुम दोनो अभी तक गये नहीं?’’
उसने कहा, ’’अब तुम दोनों निकल जाओ।’’
वह चुप रहा। बबनी ने ही कहा,’’बस दीदी! थोड़ी देर में चले जायेंगे।’’
यह सुन बबीता अपना क्लास करने चली गई। दोनो फिर दुनिया जहान में खो गये। थोड़ी देर बाद बबनी ने उसे पूछा,तुम मुझे कभी छोड़ोगे तो नहीं?
उसने सिर हिला कर ना किया।
उसने दूसरा सवाल दागा,’’हम दोनो शादी कब करेंगे।’’
वह हक्का-बक्का सा रह गया। उसे कोई जवाब ही नहीं सूझा। बिना कुछ सोचे समझे कह दिया,’’दस साल बाद कर लेंगे।’’
बबनी ने बड़े आश्चर्य से कहा,’’दस साल बाद। तब तक तो बुढे हो जायेंगे।’’
गुरूवंश को यह समझ नहीं आया कि  अपनी 14-15 साल की उम्र थी। दस साल में तो पैरो पर खड़े होंगे। मतलब शादी का सही समय। खैर गुरूवंश को ऐसा लगा कि वो अपने उम्र से दस साल आगे चल रही है। उसने बात को बदलते हुए कहा,’’जब मेरी नौकरी हो जायेगी, शादी कर लेंगे।’’
उसे गुरूवंश की यह बात पसंद आई और वो मुस्कुरा दी।
एक बार फिर बबीता आ गई। कहा,’’अभी तक गये नहीं? कब जाओगे?’’
बबनी ने कहा,’’थोड़ी देर में चले जायेंगे। आपको हो क्या रहा है?’’
उसके गुस्से को देख वो वापस चली गयी।
           वो दोनों फिर अपनी दुनिया में खो गये। उन दोनों के सिवा क्लास में कोई नहीं था। क्या आप सोच सकते हैं कि एक अकेली लड़की उसके पास बैठी थी और वह उसे एक किस तक नहीं कर पा रहा था। शायद इसलिए भी कि प्यार में सेक्स नहीं होता और जहाँ सेक्स होता है वहाँ प्यार नहीं ठहरता। उन दोनांे के बीच प्यार किसी गहराई तक मोजूद था। इसलिए सेक्स तो था ही नहीं। खैर वो दोंनो किस्से-कहानियों में इस तरह खो चुके थे कि बाहर सूरज लाल हो चला था। अचानक एक चपरासी आया और उन दोनों को कहने लगा,’’अब रात यहीं बिताने का इरादा है क्या?
वो दोनो वहाँ से निकल पडे। चूंकि बबीता ने पहले ही कह रखा था कि शाम तक उसका क्लास है। इसलिए वह दोनांे रिक्शे तक साथ गये। फिर वो रिक्शे मैं बैठ जाने लगी। रिक्शे में बैठकर वो पीछे ही देखती रही।
ठीक सप्ताह भर बाद  गुरूवंश ने दोबारा मिलने का प्लान किया तो पता चला कि कॉलेज का वह लव प्वाइन्ट हमेशा के लिए बंद हो गया। अर्थात वहाँ ताला लग गया। उसे हंसी आ गई  कि कॉलेज के पहली मुलाकात में हम सबने ऐसा करामात कर दिया। मगर वह सोच में भी पड़ गया कि अब कहाँ मुलाकात करे। उन दिनों नवीं की परीक्षा नजदीक थी मगर कई बार किताबें हाथ में होने के बाद भी वह प्लान बनाता रहता कि आखिर कहाँ जाकर मिला जाये।
             दुर्गापुर में एक पार्क हुआ करता कुमार मंगलम पार्क जो प्रेम पार्क में तबदील हो चुका था। दूर दराज से आकर प्रेमी जोड़े यहीं अपना समय बिताया करते। उन्हीं दिनो गुरूवंश को भी इस पार्क का पता चल गया।  हमारे कॉलोनी से वह पार्क करीब 30 कि.मीटर की दूरी पर था। उसने बबीता को बता दिया कि वह बबनी को लेकर इसी पार्क में जाया करेगा। अब होता यूँ कि बबीता कॉलेज के समय उसे बस स्टॉप पर छोड़ देती और वो दोनों पार्क में चले जाते। ठीक कॉलेज खत्म होने के समय वह दोनों वापस आ जाते।  महीने में एक दो बार वह पार्क जरूर हो आते थे।  कभी कभार गुरूवंश मुझसे भी 100 रूपये  उधार लेकर जाया करता था। उन दिनो सौ रूपये काफी हुआ करते थे। वैसे भी बंगाल में बस से लेकर रिक्शा तक का किराया काफी कम था। सही मायने में इस पार्क ने दोनों को और नजदीक ला दिया था। इस पार्क में बैठे वो कई तरह के स्वप्न सजाते रहते थे। खास कर साथ जीने मरने के स्वप्न। स्वप्न में होता था उनका अपना घर,गाड़ी,बच्चे,। पार्क में वह असल जिंदगी से बहुत दूर होते। जब दोनों पार्क में होते तो फिर दिन जल्दी बीतता जाता था। पर दोनो यही चाहते कि दिन कभी खत्म ही न हो। मगर उनका चाहा कुछ भी नहीं हो पाता था। मुँह लटकाये वापसी करनी होती थी।
                पार्क से आने के बाद कुछ देर तक ऐसा लगता जैसे वो पार्क में ही हों। एक दूसरे की बात सोचकर मुस्कुराते रहते। कई बार गुरूवंश हम मित्रों के पास होता। मतलब शरीर हमारे पास होता और मन कहीं और। वो अपने आप मुस्कुराने और मन ही मन बड़बड़ाने भी लगता। ऐसे हाल में देखकर हम सब उसे बावला समझते। हाँ, तो इस बावलेपन की वजह से वह नवीं की परीक्षा में किसी तरह खींच तान कर पास हो गया। उसके बाद भी उसके बावलेपन में कुछ खास फर्क नहीं पड़ा। ऊधर बबनी का भी यही हाल था वह भी किसी तरह खीच-तान कर पास हुई थी। मगर उसका बावलापन कुछ जरूर उतर गया था। मगर प्यार का भूत अभी उतरा नहीं था। अब आगे इसका परिणाम यह हुआ कि दसवीं में गुरूवंश थर्ड डिवीजन में पास हुआ। बबनी मेथ में कम्पार्टमैंट हो गई। इस तरह बबनी और गुरूवंश के क्लास में ही नहीं बाकि दोनो के बीच गैप हो गया। घर में माँ-पापा से लेकर बबीता तक उसे पढ़ने के लिए कहने लगे। बबीता ने तो  फेल का रिजल्ट देखते ही कहना शुरू कर दिया था। ’’मैं तुम्हे शुरू से समझा रही थी कि अपने प्यार को अपने उपर इतना हाबी मत होने देना कि तुम्हारी पढ़ाई ही खराब हो जाये। अब देखो हो गया न सब कुछ गड़बड़।’’
             कुल मिलाकर बहुत सारी नसीहते मिलने के बाद भी वह दूसरी बार भी कम्पार्टमैंट हो गई। नसीहतों का असर इतना था कि मिलना जुलना,चिट्ठी पत्री तांे बंद थी मगर दिमाग में  चल रही प्यार की हलचल को नहीं रोक पाई थी। घर वालांे ने उसे तीसरी बार भी परीक्षा देने की इजाज्त दी मगर उसके जमीर ने उसे परीक्षा देने की इजाजत नहीं दी। घर वालों ने उसे सिलाई-कढ़ाई सीखने में डाल दिया। इधर गुरूवंश खींच-तान कर  थ्रर्ड डिवीजन से 12 वीं भी पास हो गया । उसने कॉलेज में दाखिला ले लिया। कुछ मित्रों का मानना था कि प्यार में जितना गुरूवंश पागल नहीं था उससे कहीं ज्यादा बबनी पागल थी। इस वजह से वह पढ़ाई ठीक से नहीं कर पाई। खास कर यह बात बबनी की दीदी बबीता ही कहती थी। उसका तो यह भी कहना था कि अगर गुरूवंश ने कभी बबनी को छोड़ दिया तो वह पागल हो जायेगी। मगर मित्रांे! जहाँ तक मैं जानता था। बबनी तो बबनी गुरूवंश भी उतना ही पगलाया हुआ था। क्योंकि कुछ लोगों का पागलपन दिखता नहीं महसूस होता । जो मैंने अक्सर किया था। यह सबको तब पता चला जब बी.ए पास कर हम सबने एम.ए में नाम लिखाया था। एक दिन टाटा सुमो से भरी गाड़ी बबनी के घर के बाहर खड़ी हो गई। बबीता को देखने के लिए लड़के वाले आये थे मगर बबीता की जगह बबनी पर उनकी नजर टिक गई। कुछ दिनों बाद ही अगुवा ने यह कहा कि,देखिये लड़के की माँ को तो बबनी ज्यादा पसंद आई है। कह रही थी छोटी का रिश्ता दे तो तैयार हैं।’’
पिता जी ने कहा,बड़ी बेटी कुँवारी हो तो छोटी की शादी कहाँ से कर दूँ।’’ फिर बात बनी नहीं। ऐसे ही करीब तीन-चार बार बात नहीं बनी। हर बार बात ना बनने की वजह बबनी ही होती। यह देख माँ ने दुखी हो यह कह दिया,’’पहले बबनी का ही व्याह कर देते हैं।’’
            आये  दिन हर चबूतरे और चाय दुकान तक बबीता के व्याह की ही चर्चा होने लगी  थी। अक्सर बबनी की माँ शाम के वक्त औरतों के साथ टहलने जाया करती थी। वो लोग भी अक्सर बबनी की माँ से बबीता के रिश्ते के बारे में पूछ लेते थे। हर बार बबनी की माँ कुछ न कुछ बहाना मार देती थी। जैसे कि लड़के वाले दहेज ज्यादा मांग रहे थे, लड़के का रंग बहुत काला था, लड़का पीता भी था वगैरह.....वगैरह...। सही मायने में बबनी की माँ  को औरतों के वाक्यों के भीतर ताने छिपे लगते थे। इसलिए बबनी की माँ भी हर बार चिढ़ कर यह सब कह देती थी। हर बार वह वो यही कहती थी कि रिश्ता उन्होंने ही ठुकराया है। मगर किसी ने सही कहा है कि सांच को आंच नहीं। लड़कों के बीच यह बात फुदकते-फुदकते गुरूवंश तक भी गई कि बबनी का व्याह उसके मम्मी-पापा जल्द कर देंगे। जब बबनी ने पढ़ाई छोड़ी थी तो मम्मी-पापा को उसकी चिंता ज्यादा सता रही थी। मगर ईश्वर ने गणित ऐसा चला दिया कि बबनी की चिंता कम और बबीता की ज्यादा होने लगी थी। जब गुरूवंश को यह बात पता चली की बबनी की शादी कहीं जल्द हो जायेगी। तो वह उसके घर के बाहर चहलकदमी करने लगा कि कब उसके मम्मी-पापा घर से बाहर निकलंे और वो उसे फोन लगा कर बात करे। दरअसल जब से बबीता के लिए लड़का ढूँढना शुरू हुआ था। उनके पिता ने एक फोन कनैक्शन अपने घर भी लगा लिया था। नही ंतो इसके पहले वह सारा काम पी.सी.ओ से करते थे। मगर पी.सी.ओ में कोई गुप्त बात करने से वह घबराते थे कि कहीं कोई सुन न ले। खैर दूसरी सबसे जरूरी कि वह कोलियरी में हाजरी बाबू थे। तो ऐसे लोग जो डूयटी ना जा कर पैसे देकर हाजरी बना लेते थे। वह  फोन पर ही बता देते हाजिरी बाबू हाजिरी लगा दीजिएगा। पैसे घर पहँुच जाते। उस दिन गुरूवंश उसके घर के बाहर काफी देर तक चक्कर लगाता रहा। मगर मौका नहीं लगा।  कई दिन चक्कर लगाने के बाद जाकर एक दिन मौका लगा। उस दिन उसने पी.सी.ओ से उसे फोन लगाया। इत्तेफाक से फोन बबनी ने ही उठाया। ’’हैलो उत्तम जी हैं। कह दीजिएगा हाजिरी बना देने के लिए।’’
’’किसकी हाजिरी बनाने के लिए कहूँ गुरूवंश की या उसके पापा की।’’
’’पहचान गई?’’
’’तो क्या?,तुम्हारी आवाज पहचान नहीं पाऊँगी।’’
’’और बताओ कैसी हो?’’
’’मैं ठीक हूँ। अपनी बताओ।’’
’’बहुत अच्छा हुआ तुम्हारे पापा ने फोन लगा दिया।’’
’’हाँ तुम्हारे लिए लगाया है।’’
’’गुरूवंश हंसा। ’’चलो अब से चिट्ठी-पत्री देने का झमेला भी खत्म। मैंने सुना है तुम्हारी शादी की बात चल रही है?’’
’’नहीं ऐसा कुछ नहीं है। तुम चिंता मत करो। पहले दीदी की होगी फिर पापा मेरे बारे में सोचेेंगे। कह रहे थे दीदी के व्याह के बाद मेरा व्याह जल्द कर देंगे।’’
          यह सुनते ही गुरूवंश का जी मिचलाने लगा। उसे ऐसा लगने लगा जैसे वो किसी चीज को जोर से पकडने की कोशिश कर रहा है और वह उसके हाथ से फिसलती जा रही है। ठीक ऐसा ही गुरूवंश के पिता भी महसूस करने लगे थे कि लड़का हाथ से निकलता जा रहा है। दरअसल उस दिन के बाद से गुरूवंश का पढ़ने लिखने से मन उठ गया। वो नौकरी की तलाश मे लग गया। कई सारी नौकरियों के फार्म भरने लगा। मगर फार्म भरने के बाद इतनी जल्दी नौकरी मिलने वाली नहीं थी। उसे अपने जीवन में बहुत जल्दी कामयाब होना था। वो फाइल लेकर कई प्राइवेट कम्पनियों में नौकरी खोजने लगा। वह कई प्रोडक्शन कम्पनी में भी नौकरी के लिए जाता और वापस आ जाता। कई-कई कारणों से नौकरी नहीं मिल पा रही थी। पिता उसे आगे पढ़ने के लिए कहते कि अभी तो में नौकरी कर रहा हूँ। तुम एम.ए कर आगे की पढ़ाई करो। मगर एम.ए से आगे की पढ़ाई तो दूर वह एम.ए की पढ़ाई छोड़ बैठा। कई दोस्त-यार गुरूवंश से पूछते,’ तुमने पढ़ाई क्यों छोड़ दी?’’ पर उसके पास कोई वाजिव जवाब न होने के कारण वह इतना ही कहता,’’बस ऐसे ही यार।’
बबनी के घर गाड़ियों का आना-जाना लगा रहा। मगर इसी बीच एक रिश्ता पक्का भी हो गया। मगर लड़का एम.एस.सी पास था और नौकरी की तलाश में था। मगर फिलहाल टयूशन पढ़ा कर काम चला रहा था।
         हमारे इस कोलफील्ड बेल्ट में कई प्राइवेट कम्पनियाँ कोयला निकालने का काम करती थीं। अब आप को एक सच बात बता दूँ। कॉलोनी के कई ऐसे बेरोजगार जिन्हें कहीं नौकरी नहीं मिल रही थी। वो सब ऐसे ही प्राइवेट कम्पनियों में नौकरी करने लगते थे। कुछ तो ऐसे भी थे, जिन्होने किराना दुकान से लेकर चाय-पान की दुकान तक खोल ली थी। ऐसे चाय-पान की दुकानों में कॉलोनी के कई बेरोजगार बैठे मिल जाते थे। कुछ तो ऐसे भी थे। पिता के रिटायर होने के बाद फंड के पैसे से छोटा हाथी से लेकर टाटा हायवा डम्पर तक ले लिया था। प्राइवेट कोयला खदानों में उनकी गाड़ियाँ कांन्टेªक्ट में चलती थीं। कुछ ऐसे थे जिनके पिता उनकी नौकरी होते ही स्वर्ग सिधार गये थे। उनके एवज में किसी एक बेटे को नौकरी मिल गयी थी। ज्यादातर ग्रेजुएट लड़के सहारा जैसी चिटफन्ड कम्पनी के ऐजेंट बन गये थे। देखते ही देखते कुकुरमुत्तों की तरह कई चिटफन्ड कम्पनियाँ खुल गई थीं। ग्रेजुएट एजेंट साईकिल पर सवार सुबह से शाम तक चाय-पान की दुकान से लेकर चाट और ठेले वालों से दस बीस रूपये का कलैक्शन करते रहते थे। कुछ मित्रों ने उसे ऐजेंट बन जाने को कहा। मगर इस काम में तरक्की मिलने में लम्बा समय लगता इस वजह से उसने यह काम स्वीकार नहीं किया। खैर चाय दुकान में ही गुरूवंश की नौकरी पक्की हुई थी। उसे प्राइवेट कोयला खदान में मुंशी की नौकरी मिल गयी थी। उसने उसे स्वीकार कर लिया। मगर जल्द ही वह इस नौकरी से उकता गया। दरअसल हुआ यूँ कि फील्ड में डम्पिंग के वक्त वह डम्पर के ट्रिप लिख रहा था उसी वक्त एक बुल-डोजर ऑपरेटर ने  फेस मार कर डोज खड़ा कर उसके पास आ गया। उसे पूछा,’’नये आये हो क्या?े’’
’’जी’’
’’कितना दे रहे हैं?’’
’’जी बस चार हजार।’’
’’आप को कितना मिलता है?’
’हमको पन्द्रह हजार। टैक्नीकल काम का पैसा ज्यादा मिलता हैं। बैठ कर ट्रीप तो कोई भी लिख लेगा।’’
गुरूवंश को उसकी बात पते की लगी। अगले दिन वह एक बियर की बोतल लेकर उसके पास  गया और  कहा,’’यार! यह बुलडोजर चलाना मुझे भी सीखा दो।’’
उसने कहा,’’यार पढ़े लिखे हो। यह सब सीख कर क्या करोगे?’’
’’पढ़े लिखे हैें। साथ में यह भी जान जायेगे तो अच्छा है।’’इतना कह कर बियर की बोतल उसके हाथ में पकड़ा दी।
       कहते हैं उस दिन के बाद से वो लगातार बुलडोजर सीखने लगा। बुलडोजर का हेल्पर ट्रीप लिखता रहता। गुरूवंश ने हर किसी का दारू की बोतल देकर सबके मुँह बंद कर दिया था। उसके बुलडोजर सीखने में किसी ने भी मना नहीं किया। लेकिन जब वह बुलडोजर सीख कर घर लौटता तो उसके कपड़े मिट्टी से सने रहते। मगर वह इसकी परवाह नहीं करता था। उसके इस तरह के काम के बारे में बबनी से लोग चर्चा करते। बबनी को इससे चिढ़ भी होती। मगर जब वह हैवी लाइसेंस बनाने के लिए आसनसोल गया तो ऐन वक्त पर दलाल ने उसे धोखा दे दिया था। दलाल ने तीन हजार रूपये लेकर यह कहा था कि कोई ट्रायल नहीं होगा। मगर उसे ट्रक आगे ले जाकर पीछे लगे
इटों के बीच लगाने के लिए कहा गया। वह सोचने लगा मैंने तो बुलडोजर सीखा है। यह ट्रक चलाने के लिए कह रहे हैं। ट्रायल लेने वाले इंस्पेक्टर ने कहा,’’यहीं चला कर दिखाना होगा।’’ फिर आगे क्या हुआ इसका जिक्र पहले कर चुका हूँ। बस उस दिन पूरी कॉलोनी में इस बात की खूब चर्चा चली। लेकिन मित्र से पूछा,’’ यार तुम यह हैवी लाइसेन्स क्यों बनवाने चले गये।’’ फिर उसने पूरी कहानी मुझे बता दी। उसने यही सोचा था कि बुलडोजर आपरेटर वाली नौकरी  मंे पैसे अच्छे मिलेगे। इसे मैं बबनी के साथ कहीं भी गुजारा कर लूँगा। बाकी मैं नौकरी के लिए आगे भी प्रयास करता रहूँगा। उस दिन मैंने अपने मित्र के चेहरे को गौर से देखा था। हम सब पढ़-लिख कर अच्छा कैरियर बनाना चाहते थे। मगर वह बबनी को पाने के लिए  कैरियर को दांव पर लगा रहा था। लेकिन आप सब को एक बात बताऊँ। जिस बबनी को पाने के लिए वह यह सब कर रहा था, उसे यह सब पसंद नहीं आ रहा था। खैर दलाल ने किसी तरह पैसे खा कर लाइसेन्स बना दिया था।
         लाइसेन्स पा कर वह बहुत खुश हुआ था। इतना खुश वो तो बी.ए की डिग्री पा कर भी नहीं हुआ था। पहले वह सार्टिफिकेट की फाइलें लेकर घूमता था। फिर भी कहीं कामयाबी नहीं मिल रही थी। अब पॉकेट में लाइसेंस लेकर नौकरी के लिए घूमने लगा। एक कोयला खदान में ट्रायल देते ही नौकरी हो गई। उस दिन वो खुद को कॉलोनी के एम.ए पास लड़कों से भी ज्यादा  काबिल महसूस कर रहा था। उस दिन उसने कॉलोनी में बड़े खुशी-खुशी प्रवेश किया था।
          मगर पहली वार कॉलोनी में उसकी चर्चा न होकर किसी और की चर्चा हर घर से होते हुए चाय-पान की दुकानों तक हो रही थी। उस दिन कॉलोनी की एक लड़की कॉलेज जाने के बाद वापस नहीं आई थी। माँ-बाप उसे खोजने में लगे थे। मगर गुप-चुप तरीके से। अब जितनी मुँह उतनी बातें अर्थात उतनी कयासंे लगा रहे थे लोग। कुछ लोग आइडिया लगा रहे थे कि कही लड़की को किसी ने किडनैप तो नहीं कर लिया। कुछ यह अनुमान लगा रहे थे कि जरूर माँ-बाप ने कुछ ऐसा कहा होगा जिसके कारण उसने आत्महत्या  कर ली होगी। मगर कॉलोनी के जितने भी युवा थे वह साफ-साफ कह रहे थे लगता है सोनी ने भाग कर ब्याह कर लिया है। दरअसल कॉलोनी की जितनी भी युवा-युवतियाँ थीं उन्हें पहले से यह पता था कि सोनी का कॉलेज में किसी के साथ अफयेंर चल रहा था। कुल मिलाकर युवा-युवतियों का अनुमान ही सही निकला था। अगले दिन ही सोनी का फोन आ गया और उसने सब-कुछ साफ-साफ बता दिया। लोगों ने कयासंे लगाना बंद कर कोसना शुरू कर दिया। ’’माँ-बाप इसीलिए कॉलेज भेजते है।’’,लड़की को जरा भी शर्म नहीं आई। कुछ तो घर वालों के बारे में सोच लिया होता आदि....आदि..... अभी यह मामला ठंडा भी नहीं हुआ था कि कॉलोनी में एक दिन अचानक एक मित्र के घर लोगों से भरी एक गाड़ी आकर रूकी । उससे उतरे लोग हम सबके दोस्त मुन्ना के बारे में पूछने लगे। उसके पिता ने कहा कि वो काम से दिल्ली गया हुआ है। देखते ही देखते एक बंदे ने उसे जोर का चांटा रसीद कर दिया। चांटा मारने वाला सी.पी.आई का कार्यकर्ता था। उसने उससे कहा कि तुम्हारा लड़का किसी लड़की को लेकर फरार है। वह भी सी.पी.आई कार्यकर्ता की बेटी थी। खैर उस दिन जितनी मुन्ना की चर्चा नहीं हुई उससे कहीं ज्यादा मुन्ना के पापा को लगे चांटे की हुई। सब यही कह रहे थे कि बेटा मजे लूट रहा है और सजा बाप भुगत रहा है। इन दो बातों का पूरी कॉलोनी पर असर पड़ा था। खैर इन सब से बेखबर गुरूवंश नौकरी पाने के बाद नई-नई योजनाएँ तैयार कर रहा था। एक दिन गुरूवंश ने बबीता से कहा,’’ वह बबनी से मिलना चाहता है।’ मगर बबीता ने यह कह दिया कि अभी वह बीमार है बाद में मिलेगी।’’ मगर गुरूवंश मिलने की जिद्द करने लगा। बबीता ने कहा,’’ मैं खुद तुम्हें कहूँगी। मगर अभी नहीं मिल सकती।’’ उस दिन गुरूवंश को कुछ अच्छा नहीं लगा। दरअसल बबीता भी कॉलोनी के माहौल से डर सी गई थी। वह डरती भी क्यों नहीं? कहते हैं,बबीता पहले किसी और कॉलोनी में रहती थी। नई कॉलोनी में आने का कारण बबीता ही थी। एक वक्त बबीता ने भी किसी से प्यार किया था। मगर पिता ने उसका लिखा प्रेम पत्र पढ़ लिया था। उसने उस दिन उसकी खूब पिटाई की फिर वो कॉलोनी ही छोड़ यहाँ आ गये।
            कई दिनों तक बबनी घर से बाहर भी नहीं निकली या यह समझिए घर से निकलना बंद कर दिया। गुरूवंश ने इसी तरह एक-दो दफा फिर बबीता को बबनी से मिलाने के लिए कहा। बबीता हर बार उसको कोई न कोई बहाना मार देती। यह सब देख वह खुद ही प्रयास करने लगा। वह हर दिन पीसीओ से उसे फोन लगाता मगर लम्बी रिंग होने के बाद भी किसी ने फोन रिसीव नहीं किया। कभी-कभी तो वह उतावलेपन मंे किसी भी वक्त फोन लगा देता। उस वक्त कभी फोन बबनी के पिता उठा लेते तो कभी उसका भाई। वह उनकी आवाज सुनते ही फोन काट देता। ऐसा कई बार हुआ। घर में सब इस तरह के आये फोन से खीजते।  एक दिन जब घर पर कोई नहीं था और बबनी अकेली थी उस दिन गुरूवंश ने फिर फोन किया। बबनी ने फोन उठा लिया। बबनी के फोन उठाते ही गुरूवंश ने कहा,’’बबनी! आजकल तुम फोन क्यों नहीं उठा रही हो?’’
’तुम्हें भूलने की कोशिश कर रही हूँ। तुमसे बात करते हुए यह सब सम्भव नहीं है।’’
’’क्या ऊट- पटांग बक रही हो।’’
’’अब तुम जैसा अच्छा समझो।’’
’’मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ।’’
’’मैं अभी नहीं मिल पाऊँगी।’’
’’क्यों क्या हुआ? मैं तुमसे कुछ जरूरी बात करना चाहता हूँ।’’
’’फोन पर ही बताओ क्या बात है?’’
’’मैं....तुमसे शादी करना चाहता हूँ।’’
यह सुनते ही बबनी खामोश हो गई। जैसे बबनी के पास इस सवाल का जवाब नहीं था। जो था उसका जवाब तत्काल देना नहीं चाहती थी।
’’चुप क्यों हो? बोलती क्यों नहीं?’’
मगर फिर भी बबनी चुप रही। जैसे उसे कोई जवाब नहीं सूझ रहा हो। गुरूवंश ने झुंझलाते हुए कहा,’’मेरा बिल बढ़ रहा है। कुछ बता क्यों नहीं रही हो।’’
बबनी ने बड़े धीमें स्वर में कहा-’’मैं सोच कर बताऊँगी।’’
इतना सुनते ही गुरूवंश ने फोन का रिसीवर पटक दिया। वह यह सोच नहीं पा रहा था कि जिसके लिए उसने कुछ नहीं सोचा और सब कुछ दांव पर लगा दिया आज वही कितना सोच रही है। वह यह सब सोच कर इतना दुखी हुआ था कि इससे पहले वह कभी  इतना दुखी नहीं हुआ था। बबनी ने कुछ देर तक रिसीवर कान में लगाए रखा फिर पटक दिया।
              कई दिनों तक गुरूवंश ने  कोई फोन नहीं किया। बबनी भी घर बैठे-बैठे सोचती रही क्या जवाब दूँगी। जब भी फोन की घंटी बजती वह चिंतित हो जाती क्या जवाब दूँगी?  मगर जब भी फोन रिसीव करती फोन किसी और का होता अर्थात हाजिरी बनाने वाले कर्मचारियों का। आखिर वह क्या करे? एक तरफ माँ-पापा,घर-समाज,दूसरी तरफ गुरूवंश उसका प्यार जिससे वह बेइंतहा प्यार करती हैं। एक तरफ वो माँ-पापा जिन्होंने उसे इतने लाड-प्यार से पाल-पोस कर इतना बड़ा किया है। दूसरी तरफ गुरूवंश जिसे वह दिलो जान से चाहती है। वह इन सब ख्यालों में डूबी थी कि एक दिन जब वह अकेली थी कि फोन घनघना उठा। जैसे ही बबनी ने फोन उठाया उसने पूछा’’,क्या सोचा तुमने।’ उसने इसी एक सवाल के उत्तर के लिए ही फोन किया हो। बबनी खामोश रही। उसका पूरा जिस्म पसीने से भीग गया। उसके सिर पर पसीने की दो-चार बूंदंे उभर आई। कुछ समय तक बूंदें माथे पर रहतीं फिर गिर जातीं। गुरूवंश ने दोबारा पूछा,’’तुमने कहा था तुम सोच कर बताओगी।’’ जीवन की कोर्इ्र मूल्यवान वस्तु होती तो वह सब-कुछ छोड़-छाड़ कर गुरूवंश के साथ भाग कर चली जाती। मगर उसके ऐसा करने से माँ-पापा,भाई सबके मुँह में कालिख पुत जायेगी। इज्जत की धज्जियाँ उड़ जाएंगी। चाय-पान  की दुकान से लेकर गली मुहल्ले के लोग थू-थू करेंगे। जीते-जी पापा मर जाएंगे। शायद यह रिश्ता यहीं तक लिखा था। सिर्फ गुरूवंश ही नहीं मैं भी जीवन भर उसके लिए तडपूंगी। गुरूवंश लड़का है। वह कुछ भी गलत कर दे लोग उसे दोषी न मानकर मुझ पर ही दोष मढ़ेेंगे। क्या है आज गुरूवंश को इंकार भी कर दूं। आज मेरे ना बोलने से उसका थोड़ा दिल ही टूटेगा। अपने-आप बाद में सब ठीक हो जाएगा। बबनी ने यह सब सोच तो आसानी से लिया पर कहना इतना आसान नहीं  था। उसने कहा,’’मुझे गलत तो नहीं समझोगे?’’
’’नहीं’’
’’मैं तुमसे प्यार करती थी,करती हूँ,करती रहूँगी। मगर मैं बस शादी नहीं कर पाऊँगी।’’
’’यह तुम्हारा आखिरी फैसला है।’’
’’हम दोनों एक अच्छे दोस्त की तरह भी रह सकते हैं।’’
’’यह सब पहले सोचना चाहिए था। ऐसे मुकाम पर तुम यह सब कह रही हो जब मैं तुम्हारे बिना एक पल भी नहीं रह सकता। क्या तुम मेरे बिना जी लोगी?’’
’’जीना पड़ेगा। और कोई चारा नहीं है। बहुत बदनामी होगी हमारे इस तरह भाग कर ब्याह करने पर।’
’’इसका मतलब तुम मेरे साथ आज तक टाइम पास कर रही थी।’’
’’यह तुम सोचते होगे। और तुम्हारे लिए यह सब टाइम पास होगा।’’
’’तुम गलत कर रही हो।’’
’’मैं जानती हूँ तुम हमेशा मुझे गलत समझोगे।’’
’’इसका मतलब तुम हमेशा के लिए मुझसे रिश्ता खत्म करना चाहती हो।’’
’’बबनी खामोश रही। इसके पहले कि बबनी कुछ कह पाती घर में कोई आया है। बाद में बात करते हैं।’’ उसने फोन पटक दिया।
उस पूरे दिन गुरूवंश मुँह लटकाये घूमता रहा। न किसी से बात कर रहा था न ही किसी से मिलजुल रहा था। वह अपने-आप को बेबस महसूस कर रहा था। हम सब तो यही सोचते रहे थे कि बबनी उसके बिना नहीं रह पाएगी। लेकिन घड़ी की सुई तो उल्टी घूम गई। दीवानगी अब जुनून में बदल गई थी और जुनून में वह विवेक और होशोहवास दोनों  गंवा बैठा था। वह अपनी नौकरी छोड़ कर दिन भर बबनी के घर के बाहर घूमता रहता और मौका पाते ही पीसीओ की तरफ भागता था। इसी तरह फोन कर करके उससे ब्याह की बात करता रहता। हर बार बबनी का जबाव न में होता। यह वो वक्त था जब हम सब एम.ए की परीक्षा की तैयारियों में लगे थे। कैरियर की चिंता में थे। उसे बस बबनी के सिवा कुछ सूझ नहीं रहा था। कॉलोनी मे लोग उसे दुखी देवदास तक कहने लगे थे। बस फर्क इतना था कि वह शराब नहीं पी रहा था न ही किसी चंद्रमुखी के पास आ जा रहा था। शरीर और शक्ल से वो पराजित देवदास हो गया था। एक बार फिर से कॉलानी मंे उसकी चर्चा जोर-शोर से शुरू हो गयी थी। उसके बारे में लोग तरह-तरह की बातें करने लगे थे। एक बार अजय की बहन ने ही बबनी की दीदी से कह दिया,’’बबनी ने तो गुरूवंश को सरासर धोखा दे दिया। बेचारी की हालत कैसी हो गयी।’’
बबीता को यह बात अच्छी नहीं लगी। उसने तपाक से जबाव दिया। कुछ ढंग की नौकरी है नहीं। न ही एक जगह स्थिर रहता है। कभी कुछ करता है तो कभी कुछ। उसके पीछे खुद को कौन बर्बाद करे।’’
’’यह सब तो वो बबनी के लिए ही कर रहा है। उसी के कारण ही उसने  अपनी पढ़ाई छोड़ दी।’’
’’बबनी ने  उससे कभी नहीं कहा कि वो पढ़ाई छोड़ दो।’’ इतना कह वह चली गयी।
           अब तो ऐसा था कि बबनी और गुरूवंश दोनों खामोश थे। लोगबाग ही उनके बारे में ज्यादा बतिया रहे थे। वैसे भी हमारी कॉलोनी की एक खास आदत थी, अगर कोई तरक्की करता तो लोग जलन से उसका नाम तक नहीं लेते थ्ेा, और अगर कोई जीवन में असफल हो रहा होता तो दिन भर उसकी ऐसी-तैसी करते रहते। अब लोगबाग गुरूवंश की चर्चा ज्यादा करते। कुछ तो गुरूवंश को छेड़ते हुए मजे लेने लगे। कभी तुमने उसकी बजायी नहीं,होगी इसीलिए छोड़कर चली गयी। कुछ लोग उसे चिढ़ाने के लिए कहते,’’यार लड़कियाँ तो पैसे पर मरती हैं। पैसा है तो सब है।’’ कुछ तो साफ-साफ कहते कि भाई तेरे पास कोई ढंग की नौकरी नहीं थी इसलिए तुझे छोड़ दिया।’’ शुरू-शुरू में तो लगता था जैसे गुरूवंश पर इन सब बातों का कोई असर नहीं है। उसी दौर का एक दिन था। गुरूवंश एक मैदान में अकेला बैठा हुआ था। इत्तेफाक से मैं भी उस दिन मैदान की तरफ टहलने निकल आया था। गुरूवंश को अकेला देख मैं उसके पास चला गया। पास बैठते हुए मैंने कहा,’’कही मैंने तुम्हें डिसर्टब तो नहीं किया?’’
 यद्यापि मुस्कान उसके चेहरे से कोसों दूर जा चुकी थी। फिर भी उसने बनावटी मुस्कुराहट दिखाते हुए कहा,’’नहीं,नहीं कैसी बात कर रहे हो, तुम आये तो मुझे अच्छा लगा।’’
’’और काम पर नहीं गए?’’
’’नहीं मैंने काम छोड़ दिया है।’’
’’क्यों?’’
’’बस कुछ बड़ा करना चाहता हूँ।’’
’ठीक सोचा तुमने,दुबारा से पढ़ाई ज्वाइन कर लो। पीएचडी करो।’
’’नहीं अब पढ़ाई में मन नहीं लग रहा है।’’
’’फिर क्या करोेगे। बिना पढ़ाई के तुम कुछ भी बड़ा नहीं कर सकते।’’
’’देखता हूँ।’’
’’वैसे तुम करना क्या चाहते हो?’’
’’वक्त आने पर पता चल जायेगा।’’
हम इस तरह कुछ देर बैठे रहे और फिर उठ कर चल दिए।
मेरा अनुमान था कि गुरूवंश के दिमाग में  एक ही बात ठक-ठक कर के बजती रहती थी’’,बबनी ने मुझे इसलिए छोड़ा क्योंकि मेरी कोई पहचान नहीं हैं।  मैं बड़ा आदमी नहीं हूँ। खैर,उसने भी जैसे मन ही मन संकल्प कर लिया था उसे कुछ बन कर दिखाऊँगा।
              मैं इस बात का दावा तो नहीं कर सकता मगर इसे झुठला भी नहीं सकता। कहीं न कहीं से तो इंसान को प्रेरणा तो मिलती ही है। तमाम चैनलों की भीड़ के एक चैनल में वह देख रहा था कि एक फिल्म कलाकार के इर्द-गिर्द भारी भीड़ उमड़ी थी।लोग बाग उसकी एक झलक पाने के लिए बेताब थे। कुछ तो अपनी पाकेट के डायरी में उसकी एक ऑटोग्रॉफ लेने के लिए पागल हो रहे थे। पत्रकार अलग से अपना माइक लेकर उसके पास जाने के लिए व्यग्र हो रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे मधुमक्खियाँ फूल के चारों तरफ मंडरा रही हों। यूँ तो गुरूवंश ने अपने जीवन में बहुत कुछ देखा होगा,मगर इस दृष्य ने उसे बहुत प्रभावित किया था। गुरूवंश के अंदर भीड़ से कुछ अलग करने की इच्छा इसी दृष्य ने पैदा की थी। उस दिन से ही वो कुछ बड़ा करने की सोचने लगा।
          अचानक गुरूवंश एक नाटक मंडली में शामिल हो गया। रिहर्सलों में जाने लगा। कुछ दिन तो घर से लेकर कॉलोनी में किसी को भी पता नहीं चला  कि गुरूवंश क्या कर रहा है? मगर एकाएक घर में गुरूवंश के पिता अमर सिंह एक दिन उसे चिल्ला-चिल्ला कर डाँटने लगे।  वो पहले ही गुरूवंश के काम-काज को लेकर परेशान थे। ऊपर से नाटक मंडली की बात पता चलते ही वो बौखला गए। उन्हें लगा कि बेटे का मन चंचल हो गया है। एक जगह दिमाग नहीं लगा पा रहा है। बेटे को डाँटते हुए कहा,’’क्यों तुम अपनी जिंदगी खराब कर रहे हो? मेरे लाख कहने पर भी तुमने पढ़ाई छोड़ दी। अब सब कुछ छोड़ कर नाटक नौंटकी में लग गए। आखिर तुम करना क्या चाहते हो जीवन में?’’
गुरूवंश ने कुछ फिल्मी स्टाइल में कहा-’’मैं फिल्म कलाकार बनना चाहता हूँ।’’
          अमर सिंह  की काटो तो जैसे खून नहीं। एक ऐसा पिता जिसने अपनी पूरी जिंदगी एक छोटी सी नौकरी कर के काट दी हो। बस अपने बेटे से भी इतनी ही उम्मीद रखते थे कि वह भी अपनी जिंदगी एक छोटी नौकरी कर के बिता दे। अमर सिंह को उस दिन बस यही लगा कि बेटे को किसी अच्छे ज्योतिष को दिखा कर कुछ ताबीज-बावीज पहना दिया जाए। उन्हें लगा कि इस मर्ज की दवा तो कोई ज्योतिष ही दे सकता है। उस दिन वो खामोश रहे। कहते हैं दीवारों के भी कान होते है। पड़ोसियों से निकलकर यह बात  चाय-पान की दुकान तक जा पहुँची और एक बार फिर  उसकी चर्चा होने लगी। लोग यह कहकर ठहाके लगाने लगे कि ,चला मुरारी हीरो बनने।  हमारी कॉलोनी  ही नहीं पूरे शहर में जो लड़के-लड़कियों की मानसिकता थी, उसमें यह गुरूवंश की  ख्वाहिशें एडजस्ट नहीं हो पा रही थी। अब तक हमारे पूरे शहर में फिल्म कलाकार बनने की बात किसी ने नहीं सोची थी। उन सब को यही लगता कि वो अलग ही दुनिया से आये हुए लोग होते है।  वे सब फिल्मी सितारों को आसमान के चाँद सितारें की तरह मानते थे जिनके पास पहुँचना भी बहुत मुष्किल था।
           पिता अमर सिंह शहर के ख्याति प्राप्त ज्योतिषी के पास गये। जहाँ पहले से कई लोग लाइन लगा बैठे थे। तब उन्हें भी लगा कि सही में जीवन के कुछ दर्द ऐसे होते हैं जिनकी दवा डाक्टरों के पास नहीं होती। उसने ज्योतिष को बताया कि बेटा एक काम में स्थिर नहीं रहता है। काम भी ऐसे करने लगता है जो करना नहीं चाहिए। अब आज कल नाटक नौटकी करने लगा है। बोलता है फिल्म कलाकार बनेगा। ज्योतिष ने जन्म की तारीख,समय,स्थान पूछा, फिर कुछ किताबों पर नजरें भगाते हुए कहा-’’ नाम का कोई साइन तो नहीं आ रहा है। अगर वह नाम कमाने के लिए कुछ करेगा तो नाम होना मुष्किल है। उसका शुक्र भी खराब है,मंगल भी ठीक नहीं है,शनि भी टेढ़ा दिख रहा हैं। ’’शुक्र मनाइये की सप्ताह के चार दिन अभी ठीक थे। फिर आगे कहा-’’ उपाय करने से सफलता मिल सकती है।’’ बस पिता तो इतना ही चाहते थे कि बेटे के सर से कलाकार बनने का भूत उतर जाए। आगे ज्योतिषी जी ने दो दवाएं बतायी। कुछ महंगी अंगूठियाँ या अगर पैसे नहीं है इतने तो कुछ ताबीज बना कर दे देंगे, जिसे सही वक्त पर बेटे के गले में पहना देना है। अमर सिंह ने ताबीज बना देने के लिए कहा और कुछ पैसे दे चले गए।
        गुरूवंश फिल्म कलाकार बनने की तैयारियों में लग गया था। टी.वी पर फिल्मों की खबर बड़े चाव से सुनता। वह घर आये अखबार में भी सिर्फ फिल्मी खबरें ही पढता था। उसे देश-दुनिया की खबर से कोई मतलब नहीं रहता था। चाहे वह राजनीति हो या फिर खेल। कई बार वह फिल्मी पत्रिका खरीद कर ले आता और पढ़ता रहता।
एक दिन पिता अमर सिंह ने बुधवार की सुबह उसके गले में ताबीज पहनाते हुए कहा,’’बेटा इसे पहन लो इसे पहनने के बाद तुम्हें तुम्हारे काम में सफलता मिलने लगेगी।’’
          पिता को ताबीज पहनाते हुए खुशी हो रही थी कि धीरे-धीरे वह सुधर जाएगा। फिल्मी कलाकार बनने का भूत भी उतर जाएगा। चंूकि उन दिनों वह हर दिन फिल्मी पत्रिका लाकर पढ़ता था। सो कहते हैं’’ जहाँ चाह वहाँ राह।’’ पत्रिका में एक फिल्म कोर्डिनेटर के कांटेक्ट नम्बर के साथ  किसी फिल्म में अभिनय करने का मौका देने की बात भी लिखी हुई थी। उसने तत्काल ही उसे पी.सी.ओ से फोन लगाया। उसने अपने बारे में बात करते हुए कहा कि वह भी मुम्बई आकर फिल्मों में काम करना चाहता है। उस व्यक्ति ने उसे कहा,’’भाई! मुम्बई में कलाकारों की कमी है जो आप को इतनी दूर से मुम्बई बुलाए।’’इस बात का उस पर बहुत प्रभाव पड़ा। वह मुम्बई जाने की योजना बनाने लगा। मगर मुम्बई जैसे शहर में उसका कोई जानने वाला नहीं था। उसने पत्रिकाओं में कई बार पढ़ा था कि कई फिल्म स्टारों के  भी मुम्बई में जानने वाले नहीं थे। उन लोगों ने प्लेटफार्म पर रातें गुजारीं।,भूखे प्यासे रह कर अपने मुकाम पर पहुँचे। उसने मुम्बई जाने की योजना अपनी माँ को बताया। ,माँ ने उसे समझाते हुए कहा’’,बेटा कहाँ इतनी दूर जाओगे अपना कोई जानने वाला भी तो वहाँ नहीं है। कहा धक्के खाते फिरोेगे। आखिर पैसे कमाने से ही तो मतलब र्है। कोई अच्छी सी नौकरी ढूंढ ले बेटा। ऐसे सपने क्यों देखता है जो कभी पूरे नहीं हो सकते।’’
’’माँ! वह इंसान ही कैसा जिसका कोई सपना न हो। संघर्ष करने से सब मिलता है।’’
मुझे नहीं लगता तेरा वहाँ जाना ठीक होगा। फिर तेरे पापा भी नहीं मानेंगें।’’
’’माँ! एक मौका तो दो मुझे।’’
माँ ने  एक रात गुरूवंश के पिता के समझ यह बात रखी-’’बेटा मुम्बई जाना चाहता है।’’
’’ठीक से तो पढ़ाई कर नहीं सका,मुम्बई में क्या खाक कर लेगा।’’
’’एक मौका तो दीजिए, क्या पता उसकी किस्मत में क्या लिखा है?’’
’’ तुम उसकी तरफदारी न कर के उसे समझाने की कोशिश करो।’’
फिर दोनों ने चुप्पी साध ली।
       गुरूवंश  की जिद्द के आगे आखिरकार अमर सिंह को झुकना पड़ा और  उन्होंने दिल पर पत्थर रखकर मुम्बई जाने की बात स्वीकार कर ली।
जब मुम्बई जाने की योजना पूरी तरह बन गयी, गुरूवंश में आत्मविश्वास भर गया।  गुरूवंश ने मुझे आकर कहा,’’मित्र! मैं मुम्बई जा रहा हूँ।’’
मैंने कहा,’’हीरो बनने के लिए।’’
’’अब तुम जैसा समझो।’’
’’यह फिल्मी चक्कर छोड़ यार। यह सब अमीरजादों का काम है। मुम्बई बहुत महँगा शहर है।’’
’’कोई नहीं दोस्त! मैं वहाँ कोई नौकरी पकड़ लूँगा।’’
’’भगवान करे तुझे सफलता मिले।’’
          उस दिन मेरी उससे आखिरी मुलाकात हुई। फिर वह मुम्बर्इ्र चला गया। जितना उसने मुम्बई के बारे में सुना था उससे कहीं भयानक लगा। दादर स्टेशन पर उतरते ही उसने वहाँ बड़ी भीड़ देखी। ऐसी भीड़ उसने मेलों में देखी थी। हर  किसी को कहीं पहँुचने की जल्दी थी। उसने कईयों से पूछने की कोशिश की कि गौरेगाँव की टेªन कहाँ लगेगी, मगर कोई एक सकेण्ड के लिए भी रूकना नहीं चाहता था। सब भागने में लगे हुए थे। आते वक्त उसने ट्रेन में ही होटल के बारे में पूछ लिया था। उसने उसे बताया कि गौरेगाँव या फिर जोगेश्वरी लोकल टेªन पकड़कर चले जाना। वहाँ तुम्हें कई छोटे होटल मिलेंगे। डोर्मेटरी बेड तुम्हें बहुत सस्ते में मिल जायेगी। एक आदमी ने उसकी आवाज सुनी और  कहा कि ’’मेरे पीछे-पीछे आ जाओ।
          वो उसी की रफ्तार में पीछे-पीछे भागने लगा।   उसने उसे लेजाकर लोकल ट्रेन वाली भीड़ में खड़ा कर दिया। वहाँ  भीड़ देख कर उसके मन में एक सवाल खड़ा हो गया। इतनी भीड़ में वह बैग लेकर चढेगा कैसे। पर जैसे ही ट्रेन लगी, लोगों ने उसे धक्का मारकर ट्रेन में चढ़ा दिया और डिब्बे के एक कौने तक पहुँचा दिया। डिब्बे में ठसमठस भीड़ थी। वह कोने में दुबका सा खड़ा रहा। पसीने से पूरा बदंन भीग रहा था। ट्रेन में चढने के बाद अब उसे यह चिंता होने लगी कि अब वह ट्रेन से कैसे उतरेगा? उसका बैेग भी एक तरफ खिंचा चला जा रहा था। उसने खुद को सम्भालने के लिए राड को जोर से पकड़ रखा था। बैग को हाथ से छूटता देख उसने एक सज्जन से कहा,’’सर थोड़ा मेरे बैग को देखिएगा।’’ उसने बड़े गुस्से से कहा,’’मैं क्यों देखूं? अगर बैग में बम हुआ तो?’’ यह सुनते ही चुप हो गया उसे याद आया कई बार मुम्बई में बम ब्लास्ट हुआ है। कइयों की जान गयी है। अब लोग इस बात से खूब डरते हैं। बस जब भी टेªन रूकती एक भारी भीड़ धक्का देते हुए चढ़ जाती और ठीक बैसे ही धक्का देते हुए उतर जाती। अततंः जोेगेश्वरी  स्टेशन के प्लेटफार्म पर ट्रेन लगते ही लोगों ने उसे धक्का देकर उतार दिया। वो एक कोने में खड़ा हो गया।
        वह ढूंढता पूछता किसी तरह होटल तक पहुँच गया। होटल में देखा एक बेड के ऊपर दूसरा बेड लगा हुआ है। ठीक वैसे जैसे बिल्डिगों में फ्लैट के ऊपर एक फ्लैट होता है। उसने भी एक बेड ले लिया।  उसने नहा-धो कर कपड़े बदले और उस कोर्डिनेटर को फोन लगाया। कोर्डिनेटर ने उसे अपने ऑफिस का पता देतेे हुए ऑफिस आने को कहा।
वह लोगों से पूछता हुआ कोर्डिनेटर के ऑफिस पहुँच गया। उसने देखा ऑफिस के बाहर कई लड़के लड़कियाँ खड़े थे। कुछ तो देखने में बड़े खूबसूरत थे। कुछ को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे कई दिनों से उन्हें खाना नहीं मिला। वह सीधा ऑफिस के अंदर घुस गया। कोर्डिनेटर कोे  अपना परिचय बताया। कोर्डिनेटर ने उससे फोटो मांगा। मगर उसके पास कोई फोटोग्राफ नहीं था। ’’सर फोटो ग्राफ तो नहीं है।’’
’’ठीक है पहले फोटो खींचाकर लाओ। फिर बात करना।’’
जितने उत्साह से वो ऑफिस में घुसा था उतने ही निराशा से बाहर निकल आया।
      बाहर निकल कर वह सीधे एक साधारण कद काठी वाले लड़के के पास जाता है। उनसे अपने फोटोग्राफ बनवाने की बात करता है। वह उसे बताता है कि यहाँ तो बहुत सारे फोटो स्टूडियों है। जैसा पैसा फेंकोगे वैसा फोटो बन जाएगा। वैसे जुहू में एक स्टूडियों है। वहाँ एक कापी के 50 रूपये लेता है वहीं जाकर फोटो करा लो। वहीं जुहू चौपाटी भी है घूम लेना।’’  गुरूवंश ने झट से पता नोट कर लिया।
उसने पूछा,’’ मुम्बई में नये आये हो।’’
’’हाँ,आज ही आया हूँ।’’
’’ एक्टर बनने आये हो?’’
’’जी हाँ।’’
’’फिर तो पाँच-छह साल घूमते रहो। उसके बाद भी कोई भरोसा नहीं।’’
’’आप को कितने साल हो गये।’’
’’पाँच साल हो गए। अब तो थक गया हूँ। खैर तुम कहाँ ठहरे हो? कोई है तुम्हारा मुम्बई में।’’
’’नहीं कोई नहीं है। होटल में ठहरा हूँ।’’
’’होटल में कितने दिन ठहरोेगे। किसी के साथ रूम में सेट हो जाओ।’’
’’कोई है आपका जानने वाला।’’
’’
मेरे साथ भी शिफ्ट हो सकते हो। मेरा मोबाइल नम्बर लिख लो। तुम्हारे पास मोबाइल है?’’
’’नहीं है।,तो फिर पहले मोबाइल ले लो।’’
गुरूवंश ने उसका मोबाइल नम्बर नोट कर लिया।
’’ठीक है मैं चलता हूँ। एक जगह ऑडीशन देने जाना है। तुम वहाँ से बस पकड़ लो।’’ उसने एक तरफ इशारा किया।
        गुरूवंश को उससे बातचीत करके अच्छा लगा। नये दोस्त, नई जगह। वह जुहू की  तरफ निकल पड़ा। फोटो खिंचवाने के बाद वह जुहू बीच की तरफ निकल गया। उसने समुन्द्र की लहरों के किनारे पनपते प्यार को देखा। यह कैसा प्यार था। एक-दूसरे ने होंठों से होंठों को दबायें रखा था। न कोई बात-चीत न कोई प्यार का एहसास। बस लगातार एक दूसरे को चूमते जाना। एक उसका भी प्यार था’ जिसे अपने प्रेमिका से इजहार करने का भी साहस नहीं हो पाता था। किसी तरह एक दूसरे को जान भी गये कि हम-एक दूसरे को चाहते हैं तो मिलने के बाद जुबान से भी जल्दी शब्द नहीं निकलते थे। उसे कुछ पल के लिए बबनी की याद आई। वह तो एक छोटी सी नौकरी कर बबनी के साथ जीवन जीना चाहता था। पता नहीं वह उसे याद करती भी होगी या नहीं। वो लहरों को देखता रहा दूर तक।
कहते हैं पहला प्यार लाख कोशिश के बाद भी नहीं भुलाया जा सकता। बबनी हर दिन गेट पर आती और चली जाती। वह पछताती कि मैंने उसे ऐसा कह दिया? मगर दूसरे ही पल उसे गुस्सा आ जाता। कैसा था वो जिसे मैंने ब्याह के लिए मना कर दिया तो मुझे छोड़कर चला गया। क्या प्यार में ब्याह होना जरूरी है? क्या हम अच्छे दोस्त बन कर एक दूसरे का सुख-दुःख नहीं बाँट सकते थे? वह उसकी एक झलक पाने को बेताब हुए जा रही थी।
       
गुरूवंश को मुम्बई में रहते हुए छः महीने बीत गये थे। इन छह महीनों में वह मुम्बईया हो गया था। वह अब चलती लोकल टेªन में चढ़ जाता। ठीक वैसे ही उतर जाता। भीड़ अब उसे अच्छी लगने लगी थी। अब वह हर दिन किसी न किसी प्रोडक्शन हाउस चला जाता और  वहा अपना फोटो छोड़ आता। हर जगह से एक ही जवाब मिलता। कुछ होगा तो बताएंगे। जब उसी प्रोडेक्शन हाउस की एक दो फिल्मों की  शूटिंग चल रही होती और कुछ की योजनायंे बन रही होतीं। और उनका कुछ नहीं होता तो बड़ा बुरा लगता। आश्वासन और वादे सुन-सुनकर कितने निराश लोग मुम्बई छोड़ कर चले जाते हैं। कितने यहीं छोटी-मोटी नौकरी पकड़ लेते हैं। कुछ वापस अपने गाँव इसलिए नहीं जाते कि वापस जाने पर लोगों के ताने सुनने पड़ेंगे। अब संघर्ष करते हुए गुरूवंश को लम्बा समय हो गया था। कभी-कभी उसे भी लगता कि क्यों उस राह चल पड़े कि जहाँ मंजिल का ठिकाना ही न हो। कभी यह भी सोचता कि वापस चला जाए। गुरूवंश लाख चाहे हिम्मत धैर्य बटोर कर रखता हो, पर पिता अमर सिंह धैर्य हिम्मत सब कुछ खो बैठे थे। वह सोचते क्या बेटा इसी तरह मुम्बई घूमते हुए अपनी जिंदगी बिता देगा? क्या उसकी जिंदगी में इसी तरह घूमना ही लिखा है। कई बार वह बेटे को समझाने की कोशिश करते कि तुम वापस आ जाओ। मगर वह हर बार पापा से कुछ और समय की मोहलत मांग लेता। उसे भी हर बार यही उम्मीद रहती कि शायद इस बार कुछ हो जाए। पूरी मुम्बई में तो लोग उम्मीद के सहारे ही जीते हैं। कॉलोनी में उसके जोड़ीदार पढ़ लिख कर कहीं न कहीं नौकरी में लग गये थे। कॉलोनी में कइयों को लगता कि गुरूवंश आवारा हो गया है। बबनी जो गेट पर अक्सर उसका इंतजार किया करती थी अब उसने भी इंतजार करना छोड़ दिया था। शादी के लिए रिश्ते आने लगे थे। पर कुछ को वह पंसद नहीं करती थी। कुछ उसे पंसद नहीं करते थे। पर उसने भी सोच लिया था कितने दिन पापा के ऊपर बोझ बनूंगी। ऐसे ही वक्त जब गुरूवंश चारों तरफ से निराश हो गया, उसे एक मित्र ने समझाया जो खुद फिल्मों में काम पाने के लिए जूते घसीट रहा था एक फॉइव स्टार होटल में कैजुअल में बैंकेट हाल में वेटर का काम कर रहा था।।  उसने कहा,’’दोस्त! यहाँ कोई नौकरी पकड़ लो। और अपना संघर्ष जारी रखो।’’ गुरूवंश को उसका सुझाव अच्छा लगा उसने वेटर की नौकरी पकड़ ली। फिर क्या था?  हमारे कॉलोनी के चाय-पान दुकान वालों को चर्चा का विषय मिल गया। खूब हंसी ठिठोली चलने लगी। ’’ हीरो बनने निकले थे वेटर बनकर रह गये।’’
        इस हंसी ठिठोली के बीच अचानक एक दिन एक बात हवा की तरह फैल उठी। गुरूवंश कोई टेलिसोप एड करते हुए टी.वी पर दिखा। उसमें वो दिमाग बढ़ाने वाली चायपत्ती की बात कर रहा था।  लोग बाग कहने लगें यार गुरूवंश तो टी.वी पर आने लगा है। लोग घर से निकल-निकल कर एक-दूसरे को कहने लगे। गुरूंवश को टी.वी पर देखा। मगर एक बहुत बड़ी सच्चाई का भी पता चल गया कि टेलीसोप एड में सारे प्रोडेक्ट झूठे होते हैं, क्योंकि जो वो कह रहा था वो कही से भी सच नहीं था। ’’उस चायपत्ती को पी कर उसका दिमाग बढ़ गया था। हर साल वो पढ़ाई में अव्बल आ रहा था।’’ उस कालोनी में गुरूवंश का टी.वी पर आना एक बड़ी बात थी। मगर फिल्म इन्ड्रस्टी के लिए यह तुच्छ काम था। खैर  जब वो एक दिन बैंकेट हाल में वेटर का काम कर रहा था, उस दिन वहा कोई फिल्मी पार्टी चल रही थी। यूँ तो उसने इस पाँच सितारा होटल में कई फिल्मी पार्टियां देखी थी। वह बस यही सपना देखता था कि कभी वो भी किसी फिल्म में काम करेगा और इसी तरह फिल्मी पार्टी में आयेगा। उस दिन उसने निर्देशक को स्टार की डेटस के बारे में बात करते हुए सुना। वह उसी की टेबुल के पास सर्व कर रहा था। दरअसल उस निर्देशक के पास निर्माता तो था पर स्टार के डेटस नहीं थे।
         उस दिन वह रूम में जाकर फिल्म इण्डिया डायरेक्टरी में उस निर्देशक का नम्बर और पता ढूंढने लगा। इत्तेफाक से नम्बर भी मिल गया। उसने तत्काल ही अपने मोबाईल से उसे फोन लगा दिया। उसने अपना परिचय देते हुए उससे मिलने की इच्छा जताई। उसने भी उसे मिलने का पता और समय दे दिया।  पहली बार कोई निर्देशक उससे मिलने वाला था। जिसे वह अच्छी तरह बात कर सके। निर्देशक ने उसे कुछ औपचारिक बातें पूछी। ’’कहाँ से आए हो? कितने दिनों से मुम्बई में हो? अब तक क्या किया है? सारी बाते सुनने के बाद उसने कहा,’मेरी फिल्म बनने में समय है। बस आप टच में रहिएगा। कुछ निकलेगा तो  बताएगे।’’
’’जी सर, अपनी फिल्म में मुझे भी मौका दीजिएगा।’’
’’तुम चिंता मत करो। तुम्हारे लिए कुछ न कुछ जरूर करूँगा।’’
वहाँ से वो एकदम चहचहाता हुआ निकला। कभी-कभी ऐसा होता है कि किसी का व्यक्तित्व व कलाकारी दोनो ही प्रभावित करती हैं। दोनो ही रूप में वह लोगांे के दिलोंदिमाग पर छा जाता है। कभी ऐसा भी होता है कि व्यक्ति के तौर पर वो आपको घटिया लगे और कलाकार के तौर पर अच्छा । कुछ ऐसा ही गुरूवंश को उस निर्देशक से मिल कर लगा था। उसे पहली बार लगा कि वह किसी अच्छे व्यक्ति से मिल कर आया है। वो निश्चिंत हो गया था कि काम जरूर मिलेगा।
         यूँ तो हम टी.वी अखबार में हर दिन देखते हैं कई फिल्में आ रही हैं। जैसे मुम्बई में कोई फैक्ट्री हो और लगातार फिल्में बन-बन कर आ रही हो। पर फिल्म बनने के पीछे एक लम्बी कहानी होती है। जिसमें कुछ झूठ,कुछ फरेब,कुछ सच्चाई होती है। कितने लोग जुड़ते हैं, कितने लोग टूटते हैं। कितने पैसों से मालामाल हो जाते हैं,कितनों को फिल्म करने के बाद भी दो वक्त की रोटी नसीब नहीं होती। एक लम्बा समय लग जाता है फिल्म को बनने और पर्दे तक आने में। गुरूवंश को भी लम्बा समय लगा सिनेमा में छोटा सा रोल पाने के लिए। वह करीब साल भर तक निर्देशक को कभी संकोच से ,कभी डर-डर कर ,तो कभी खूब उत्साह से फोन करता। आखिरकार उसे एक फिल्म में 10 मिनट का रोल मिल गया। उस दिन शूटिंग में जाने के पहले उसने अपने गले में लटकते ताबीज को चूमा। उसे लगा जैसे उसकी इस उपलब्धि में इस ताबीज ने भी साथ दिया है। उसने  शूटिंग में जाने के पहले माँ-पापा सबको फोन किया।
         लम्बे इंतजार के बाद फिल्म सिनेमाघरों में आकर लग गई। उसकी कॉलोनी से होते हुए पूरे शहर में यह बात फैल गयी कि इस शहर का एक लड़का भी फिल्मों में है। यूँ तो गुरूवंश का उस फिल्म में मात्र 10 मिनट का रोल था। पर सब उसे हीरो ही मानने लगे। खूब हल्ला मचा। वैसे फिल्म ने पूरे भारत में अच्छा बिजनेस किया। वहाँ के लोकल पत्रकारों ने भी उसकी सुध ली। अगले दिन गुरूवंश के बारे में छप गया। ’’रानीगंज का गुरूवंश बना वेटर से एक्टर।’’
       यूँ तो समय बदल चुका था। कई फैेमिली रिटायर हो कर कॉलोनी से अपने गाँव चले गये थे। कुछ लड़के-लड़कियाँ नौकरी की तलाश में देश के बाहर निकल गये। बबनी की भी शादी हो चुकी थी। गुरूवंश मुम्बई में रहकर यह सोचता था कि ’’बबनी ने पता नहीं उसकी फिल्म देखी या नहीं? उसे याद करती होगी या नहीं। हम लोगो को जो बात पता चली थी वह यह थी कि बबनी ने उस फिल्म के उस सीन को जिसमें गुरूवंश दिखता था, कई बार आगे पीछे कर के देखा था। वो यह सोचती थी कि गुरूवंश अब बड़ा आदमी बन गया है। पता नहीं उसे याद करता होगा या नहीं।

         मित्रों वो हमारे शहर में भले ही लोगों की नजर में हीरों बन गया हो। मगर मुम्बई जैसे शहर में उसे आज भी रोल के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। वो तब तक संघर्ष करेगा, जब तक वो अदाकार के रूप में स्थापित नहीं हो जाएगा। वादों और उम्मीदों के दो पाटों के बीच एक सूखी नदी की तरह होकर रह गया है गुरूवंश। अगर आप को विश्वास नहीं होता तो आप मेरे साथ मुम्बई चलिए। मैं गुरूवंश और गुरूवंश जैसे मगर अलग-अलग नामों वाले के कई
अदाकारों से आपकी मुलाकात कराता हूँ। मासूम जिद्दी,स्वप्नजीवी आवारा अदाकारों से।

सम्पर्कः 
बी-11,टिहरी विस्थापित कॉलोनी,ज्वालापुर
हरिव्दार,उत्तराखंड,249407
मो-09012275039