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बुधवार, 17 अप्रैल 2019

राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं

  


 हिमाचल प्रदेश के सुदूर पहाड़ी गांव से कविताओं की अलख जगाए राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं किसी पहाड़ी झरने की तरह मंत्र मुग्ध कर देने के साथ आपको यथार्थ के धरातल सा वास्तविक आभास भी कराती हैं। कवि के कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं है। बिल्कुल पहाड़ी नदियों की तरह निश्चल और पवित्र हैं इनकी कविताएं। गांव , नदी , पहाड़  ,जंगल , घाटियां नया आयाम देती हैं इनकी कविताओं को ।
   

     बकौल राजीव कुमार त्रिगर्ती - गांव से हूं ,आज भी समय के साथ करवट बदलते गांव से ही वास्ता है। जीवन का वह हिस्सा जब हाथ लेखनी पकड़ने के लिए बेताब थाए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के माहौल में बीता। वाराणसी की खरपतवार और रासायनिक उर्वरक. रहित साहित्य की भूमि में कब कवित्व का बीज अंकुरित हुआ कुछ पता ही नहीं चला। भीतर के उद्गारों को अपने ढंग से व्यक्त कर पाने की हसरत से ज्यादा आत्मसंतुष्टि शायद ही कहीं होती हो। असल में पहाड़  ,जंगल , घाटियों , कलकलाती नदियां हैं तभी तो पहाड़ में प्रेम है। इनके होने से ही जीवन जटिल है तभी तो पहाड़ में पीड़ा है। यहां प्रेम और पीड़ा का सामांजस्य अनंत काल से सतत प्रवाहित है। प्रकृति के सानिध्य में सुख दुख के विविध रूपों को उभारना अच्छा लगता है। मेरे लिए यह बहुत है कि प्रकृति के सानिध्य में भीतर के उद्गारों को व्यक्त करने का एक खूबसूरत तरीका मिल गया है। भीतर के उद्गार को अपने ही शब्दों में व्यक्त करने के आनंद की पराकाष्ठा नहीं और यह आनंद ही मेरे लिए सर्वोपरि है। 
 
 राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं -
1- अपने पंखों पर

अब जब यह तय है कि
मेरे पॅंखों के पास
नहीं है वह उड़ान
जो मुझे पहुॅंचा देगी
तुम्हारी प्रेमसुधा तक
उधार के पंखों से उड़ना
मूर्खता है किसी भी युग में
तो मैं एकदम विपरीत
बहुत ऊपर चढ़ जाता हूॅं
एक पहाड़ की चोटी पर
आर या पार के बीच
करता हूॅं आखिरी कोशिश
पंखों की पूरी ताकता आजमाता हूॅं
तुम्हारी प्रेमसुधा की दिशा में
तीव्र गति से जाते पवन के झोंके में
ऑंखें मींचकर छोड़ देता हूॅं
खुद को उन्मुक्त
दिग्दिगन्त के महासमुद्र में।

2-तुम्हें देख लेने के बाद


तुम्हारे बारे में सोच लेने से ही
तैर जाती है मुस्कुराहट
पोर-पोर हो जाता है सुगन्धित
जैसे फूलों की वाटिका से
चली आती है वासन्ती हवा,

तुम्हारे बारे में सोच लेने से ही
बढ़ जाती है धड़कनों की गति
गर्मियों के मौसम में
हिमखंड के चूने से
हरहरा उठती है जैसे नदी,

तुम्हारे बारे में सोच लेने से ही
सिहर उठता हूॅं भीतर तक
जैसे कि चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब
पहाड़ की शीतल हवा में
लहराता झील के भीतर,

तुम्हारे बारे में सोच लेने से ही
प्राण हो जाते हैं हरे
जैसे पहाड़ की ढलान पर
बरसात के मौसम में
भीगे-भीगे धान के खेत,

ऐसे में तुम ही सोचो
क्या होता होगा
तुम्हें देख लेने के बाद!

संपर्क-

राजीव कुमार ‘‘त्रिगर्ती’’
गॉंव-लंघू, डाकघर-गॉंधीग्राम
तह0-बैजनाथ, जिला-कॉंगड़ा
हि0प्र0 176125
94181-93024

रविवार, 30 दिसंबर 2018

राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं -




        हिमाचल प्रदेश के सुदूर पहाड़ी गांव से कविताओं की अलख जगाए राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं किसी पहाड़ी झरने की तरह मंत्र मुग्ध कर देने के साथ आपको यथार्थ के धरातल सा वास्तविक आभास भी कराती हैं। कवि के कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं है। बिल्कुल पहाड़ी नदियों की तरह निश्चल और पवित्र हैं इनकी कविताएं। गांव , नदी , पहाड़  ,जंगल , घाटियां नया आयाम देती हैं इनकी कविताओं को ।

   
     बकौल राजीव कुमार त्रिगर्ती - गांव से हूं ,आज भी समय के साथ करवट बदलते गांव से ही वास्ता है। जीवन का वह हिस्सा जब हाथ लेखनी पकड़ने के लिए बेताब थाए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के माहौल में बीता। वाराणसी की खरपतवार और रासायनिक उर्वरक. रहित साहित्य की भूमि में कब कवित्व का बीज अंकुरित हुआ कुछ पता ही नहीं चला। भीतर के उद्गारों को अपने ढंग से व्यक्त कर पाने की हसरत से ज्यादा आत्मसंतुष्टि शायद ही कहीं होती हो। असल में पहाड़  ,जंगल , घाटियों , कलकलाती नदियां हैं तभी तो पहाड़ में प्रेम है। इनके होने से ही जीवन जटिल है तभी तो पहाड़ में पीड़ा है। यहां प्रेम और पीड़ा का सामांजस्य अनंत काल से सतत प्रवाहित है। प्रकृति के सानिध्य में सुख दुख के विविध रूपों को उभारना अच्छा लगता है। मेरे लिए यह बहुत है कि प्रकृति के सानिध्य में भीतर के उद्गारों को व्यक्त करने का एक खूबसूरत तरीका मिल गया है। भीतर के उद्गार को अपने ही शब्दों में व्यक्त करने के आनंद की पराकाष्ठा नहीं और यह आनंद ही मेरे लिए सर्वोपरि है। 
 
 राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं -


1- ऐसे ही


जब रोने को आता हूं
तो लगता है हंसा दोगी तुम
कुछ हंसी भरा सुनाकर
गुदगुदी लगाकर
या यूॅं ही बेताब मुस्कुराकर
और मैं चुपचाप हॅंसने लगता हूं,

जब सोने को आता हूं
तो लगता है उत्पन्न कर दोगी 
एक दीर्घ निःश्वास के साथ
सारे शरीर में सिरहन
और जगा दोगी तुम
एक आत्मिक अनुभूति तक,

जब खोने को आता हूं
तो लगता है मिला दोगी तुम
अपने बहाने मुझसे मुझको
अपने होने के एहसास भर से
भर देती हो अस्तित्व की नींव
और मैं लौट आता हूं
किसी अज्ञात दलदल से
अपनी देह को बचाता हुआ

ऐसे ही रात बीत जाती है
दिन होने को आता है
दिल रोने को आता है
बार-बार सोने को आता है
सोये-सोये खोने को आता है
दिन भर में एक भी पल
कहॉं कुछ होने को आता है
तुम्हारे न होने पर।

2-एक-दूसरे के लिए हम


एक-दूसरे को जानने समझने के लिए
यह कितना जरूरी है कि
हम चलें कुछ कदम साथ-साथ
आयें एक-दूसरे के पास
और इस सामीप्य में समझें
एक-दूसरे के अन्तर्मन
या समझें एक-दूसरे को समझभर,

एक-दूसरे को जानने समझने के लिए
यह कितना जरूरी है कि
हम गर्मजोशी के साथ करें
एक-दूसरे का स्वागत
करें आपस में खुलकर बात
वक्त-बेवक्त जब भी करें मुलाकात
एक दूसरे की सहमति-असहमति को
सम्मान के साथ करें अंगीकार,

यदि हम साथ-साथ
कदम नहीं बढ़ा सकते
एक-दूसरे को अन्तस् की बात
नहीं बता सकते
तो कम से कम
जब भी हों हम आमने-सामने
तो अदब से एक-दूसरे के लिए
सिर तो झुका सकते हैं
एक-दूसरे की ओर
चॉंदी का वर्क चढ़ी
मुस्कान तो उड़ा सकते हैं
ऊबड़-खाबड़ जिन्दगी में
एक-दूसरे के बहाने ही सही
सुकून तो ला सकते हैं।


संपर्क-


राजीव कुमार ‘‘त्रिगर्ती’’
गॉंव-लंघू, डाकघर-गॉंधीग्राम
तह0-बैजनाथ, जिला-कॉंगड़ा
हि0प्र0 176125
94181-93024

गुरुवार, 29 सितंबर 2016

राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं -

    

     हिमाचल प्रदेश के सुदूर पहाड़ी गांव से कविताओं की अलख जगाए राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं किसी पहाड़ी झरने की तरह मंत्र मुग्ध कर देने के साथ आपको यथार्थ के धरातल सा वास्तविक आभास भी कराती हैं। कवि के कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं है। बिल्कुल पहाड़ी नदियों की तरह निश्चल और पवित्र हैं इनकी कविताएं। गांव , नदी , पहाड़  ,जंगल , घाटियां नया आयाम देती हैं इनकी कविताओं को ।
   
     बकौल राजीव कुमार त्रिगर्ती - गांव से हूं ,आज भी समय के साथ करवट बदलते गांव से ही वास्ता है। जीवन का वह हिस्सा जब हाथ लेखनी पकड़ने के लिए बेताब थाए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के माहौल में बीता। वाराणसी की खरपतवार और रासायनिक उर्वरक. रहित साहित्य की भूमि में कब कवित्व का बीज अंकुरित हुआ कुछ पता ही नहीं चला। भीतर के उद्गारों को अपने ढंग से व्यक्त कर पाने की हसरत से ज्यादा आत्मसंतुष्टि शायद ही कहीं होती हो। असल में पहाड़  ,जंगल , घाटियों , कलकलाती नदियां हैं तभी तो पहाड़ में प्रेम है। इनके होने से ही जीवन जटिल है तभी तो पहाड़ में पीड़ा है। यहां प्रेम और पीड़ा का सामांजस्य अनंत काल से सतत प्रवाहित है। प्रकृति के सानिध्य में सुख दुख के विविध रूपों को उभारना अच्छा लगता है। मेरे लिए यह बहुत है कि प्रकृति के सानिध्य में भीतर के उद्गारों को व्यक्त करने का एक खूबसूरत तरीका मिल गया है। भीतर के उद्गार को अपने ही शब्दों में व्यक्त करने के आनंद की पराकाष्ठा नहीं और यह आनंद ही मेरे लिए सर्वोपरि है।

राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं -
1-एकमात्र गुनाह      

असल में हमने तमाम सुविधाएं दी हैं
चोरों को, घूसखोरों को देष में आम लुटेरों को
बड़ी से बड़ी सीमेंट सरिए की बिल्डिंग डकार जाने पर
अनाज मंडियों से अनाज को निगलने
बोरी से इलेक्ट्रानिक्स तक
आखिरी सामान तक के तमाम घोटाले
खेलों के अन्तर्राष्ट्रीय आयोजनों  के नाम पर
सरकारी धन का मुंह मनचाहे ढंग से खोलने
अपने ही लोगों या भाई भतीजावाद के नाम पर 
कहीं भी कुछ भी हड़प लेने
बड़े से बड़े नाम पर
बड़े से बड़ा धब्बा लगाने पर
किसी भी बड़ी से बड़ी चोर कंपनी से घूस लेकर
देकर अनर्थक व्यापार की अनुमति
घूसखोरों से भी घूस लेने वाले सम्माननीय लोगों
कुछ भी मार लेने की चाह में जीने वालों
कि हर सुविधा का रखा जाता है ख्याल
दी जाती है विशिष्ट सुविधाएं हर जगह
यहॉं सब कुछ खेल सा ही है
खेल ही समझा जाता है
कोई भी गुनाह रोटी को छोड़कर
अब जो एकमात्र गुनाह है, वह है
रोटी लूटना
और उससे भी ज्यादा
कड़ी मशक्कत के बाद
भूख के कीड़ों के कुलबुलाने पर भी
वक्त पर एक जून की भी रोटी
न खा पाना।

2-अभाव और कविता   


जब अभाव खत्म होंगे
तो लेखनी की नोक पर आएगी
और इत्मीनान के साथ
लिखी जाएगी कविता,
अभाव जब खत्म हुए
कलम की स्याही
सूख चुकी थी
और कविता रूठ चुकी थी।

संपर्क-
राजीव कुमार त्रिगर्ती
गांव-लंघु डाकघर-गांधीग्राम
तहसिल-बैजनाथ
जिला - कांगड़ा  हिमाचल प्रदेश 176125

मोबा0-09418193024

शनिवार, 5 मार्च 2016

राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं-

  


           हिमाचल प्रदेश के सुदूर पहाड़ी गांव से कविताओं की अलख जगाए राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं किसी पहाड़ी झरने की तरह मंत्र मुग्ध कर देने के साथ आपको यथार्थ के धरातल सा वास्तविक आभास भी कराती हैं। कवि के कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं है। बिल्कुल पहाड़ी नदियों की तरह निश्चल और पवित्र हैं इनकी कविताएं। गांव, नदी, पहाड़  ,जंगल , घाटियां नया आयाम देती हैं इनकी कविताओं कोे । बकौल राजीव कुमार त्रिगर्ती-
   
     गांव से हूं,आज भी समय के साथ करवट बदलते गांव से ही वास्ता है। जीवन का वह हिस्सा जब हाथ लेखनी पकड़ने के लिए बेताब था, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के माहौल में बीता। वाराणसी की खरपतवार और रासायनिक उर्वरक- रहित साहित्य की भूमि में कब कवित्व का बीज अंकुरित हुआ कुछ पता ही नहीं चला। भीतर के उद्गारों को अपने ढंग से व्यक्त कर पाने की हसरत से ज्यादा आत्मसंतुष्टि शायद ही कहीं होती हो। असल में पहाड़  ,जंगल , घाटियों , कलकलाती नदियां हैं तभी तो पहाड़ में प्रेम है। इनके होने से ही जीवन जटिल है तभी तो पहाड़ में पीड़ा है। यहां प्रेम और पीड़ा का सामांजस्य अनंत काल से सतत प्रवाहित है। प्रकृति के सानिध्य में सुख दुख के विविध रूपों को उभारना अच्छा लगता है। मेरे लिए यह बहुत है कि प्रकृति के सानिध्य में भीतर के उद्गारों को व्यक्त करने का एक खूबसूरत तरीका मिल गया है। भीतर के उद्गार को अपने ही शब्दों में व्यक्त करने के आनंद की पराकाष्ठा नहीं और यह आनंद ही मेरे लिए सर्वोपरि है।

राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं-

 


अभी समय है   


हो इक दिन ऐसा कि
इस नाले को बहने के लिए मिले खुली जगह
खुलकर चढ़ सके दोनों पाटों पर
ले सके मर्ज़ी की गति

हवा बह सके पेड़ों और सिर्फ़ पेड़ों के बीच
तरह-तरह के परागों से लदी हुई
भरपूर सुगंधित

एक दिन आए ऐसा
कि हम अपने से हटकर सोचें
पेड़-जंगल कटान पर
पत्थर-बालू खनन पर
नदी-नहर, औद्योगिक अवकरों के बारे में
बैंगन-लौकी, दूध-तेल
जहरीले टीकों, घटिया मिलावट के बारे में
यह भी तो सोचें हम
कि यही सोचना हमारे हित में है
ज़िन्दगी के बारे में सोचने से
हम बच सकते हैं
एक घटिया इतिहास बनने से
अगली सभ्यताओं के सामने।


 सार्थक मृत्युओं के बाद भी

पढ़ते हुए
कभी सूंघी है नई किताब की खश्बू
एकदम ताज़ा किताब
छप-छपाके, सिल-सिलाके
ज़िल्द में लिपटी
हाल ही मैं छपी हुई
बिलकुल ताज़ा नई किताब
कड़कड़ाते हों जिसके कागज़
खोलने पर संगीत की तरह
बजते हों जिसके सुर
हर पन्ने से आए एक अलौकिक गंध
सिलाई पर लगी गोंद
छपाई के रंग के साथ
पेड़ की गंध सनी
कि पढ़ने से ज़्यादा
हौले-हौले नाक से
खश्बू पीने का मन हो,

पढ़ते हुए
कभी सूंघी है पुरानी किताब की खश्बू
पुरानी बहुत पुरानी किताब की
उससे आती है किसी बूढे़ की
गर्म रजाई की खश्बू
गर्म सा हो उठता है
भीतर कुछ बहुत गहरे
आती है उससे वनौषधियों की खश्बू
और महसूसा जा सकता है बाहर-भीतर
कुछ स्वस्थ होता हुआ
पुरानी किताब की गर्द से
झरती है फूलों की खश्बू अनवरत
कि बैठे हों फूलों का कोई झाड़ थामे
छायादार पेड़ की उड़ती हुई छाया
बन जाती है लकड़ी का फर्श और दीवारें
तन जाती है छत की तरह,

दुआ करो कि
जब तुम्हारी अलमारियों की किताबें
पुरानी हो जाएं
तुमसे बहुत पुरानी
तो सूंघी जाएं
और भी ज़्यादा खुश्बुओं के साथ
जीते रहें कुछ पेड़
अपनी सार्थक मृत्युओं के बाद भी।



जादुई स्पर्श


खेत , खेत नहीं रहते
भवनों के नीचे दब ताने पर
उभर आने पर किसी भी तरह की
स़ड़क-पटरी या कोई रास्ता
कोई भी अनपेक्षित निर्माण

खेत सूख जाने पर भी
दह जाने पर भी
बहुत कुछ सह जाने पर भी
किसान का हाथ लगते ही
बन जाते हैं फिर खेत
अगली फसल के लिए।

संपर्क-
राजीव कुमार त्रिगर्ती
गांव- लंघु डाकघर -गांधीग्राम
तहसिल- बैजनाथ
जिला - कांगड़ा,हिमाचल प्रदेश 176125

मोबा0-09418193024