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शनिवार, 8 मार्च 2014

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस – संघर्ष और चुनौतियाँ : रामजी तिवारी









हमारे समय के महत्वपूर्ण युवा हस्ताक्षर। आज ही इस लेख को मांगा और राम जी भाई ने सहर्ष स्वीकारते हुए मेल किया। इस पोस्ट को 'अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस'   पर प्रकाशित करते हुए हमें खुशी हो रही है।आपके महत्वपूर्ण विचारों की प्रतीक्षा में।





  अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस – संघर्ष और चुनौतियाँ 
 

                अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस ने सौ वर्ष से अधिक का सफ़र पूरा कर लिया है | ये सौ वर्ष उन महिलाओं के संघर्षों और उपलब्धियों के वर्ष हैं, जिन्होंने तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद एक समतामूलक और बराबरी वाले समाज का सपना अपने दिलों में ज़िंदा रखा है | यह बड़ा अजीब लगता है, जब आज के दिन सरकारें, मीडिया और बाजार इस सम्पूर्ण आन्दोलन को अपने पाले में खींचकर दिग्भ्रमित करने का प्रयास करते हैं | ऐसा दिखाया जाता है, जैसे सरकारे ही महिला सशक्तीकरण की सबसे बड़ी हितैषी हैं, या कि मीडिया ही इसे अस्तित्व में लेकर आया है, या फिर यह बाजार ही है जो इसे प्रोत्साहित कर रहा है |

                 तो क्या संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की शुरुआत की थी ? या कि किसी सरकार ने ? आज जब हम अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के सौ सालों का जश्न मना रहे हैं, तो सचमुच किस बात को याद कर रहे हैं ? क्या हम जानते हैं कि इस संघर्ष की शुरुआत उन आम-मेहनतकश महिलाओं ने की थी, जिन्होंने समानता और स्वतंत्रता की अपनी आकांक्षा और मांगो को प्रतीक के रूप में इस दिन को चुनते हुए इतिहास रच दिया था ? हकीकत तो यही है कि एक शताब्दी पूर्व सड़कों पर निकलकर प्रदर्शन करने वाली वे श्रमिक और मेहनतकश  महिलायें ही थीं, जिन्होंने इसका शंखनाद किया था | किन्हीं सरकारों, कारपोरेट मीडिया घरानों और बाजारों ने नहीं | उन्हें तो आज भी महिला दिवस की इस सच्चाई के सामने आने से उलझन होती है | इसलिए उनके द्वारा इस बात की लगातार कोशिश की जाती रही है कि अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को उसकी क्रांतिकारी कम्युनिस्ट विरासत और राजनितिक महत्व के सच्चे संदर्भो से काट दिया जाए और इसे एक निरर्थक बाजारू तमाशे में तब्दील कर दिया जाए |

                  हमारे सामने आज यह एक बड़ी चुनौती है कि अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के वास्तविक महत्व और इतिहास को धूमिल करने के प्रयासों का डटकर सामना किया जाए, और इसे गैर-बराबरी से मुक्त दुनिया के लिए संघर्ष और प्रतिरोध दिवस के रूप में ज़िंदा रखा जाए | यदि महिलाओं ने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का इतिहास रचा है, तो महिला आन्दोलन को इस इतिहास को मिटाने और दिग्भ्रमित करने की हर साजिश का मुकाबला भी करना होगा |  हमें यह जानना होगा कि आज से लगभग डेढ़ सौ वर्ष पहले न्यूयार्क शहर में परिधान और टेक्सटाइल्स कामगार महिलाओं ने विशाल जन-प्रतिरोध करते हुए संगठित होने और यूनियन बनाने के अधिकार को हासिल किया था | वे चाहती थीं कि काम करने की अमानवीय परिस्थितियों का खात्मा हों, समान काम के लिए समान वेतन हो और काम के घंटे तार्किक रूप से निर्धारित हों | फिर आठ मार्च 1908 को न्यूयार्क में ही लगभग 15000 हजार महिलाओं ने सोशलिस्टों के नेतृत्व में काम घंटों के निर्धारण, महिला मताधिकार और बाल मजदूरी के खात्मे के लिए प्रदर्शन किआ | 1909 और 1910 के लगातार विमर्शों और संघर्षों के बाद 1911 में कोपेनहेगन में 19 मार्च को पहला अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया | बाद में काफी विचार विमर्श के बाद 1913 में आठ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मानाने का फैसला किया गया, जो आज भी चलता आ रहा है |

                    भारत में भी इसका इतिहास उन्ही संघर्षों और चेतनाओं से विकसित होता है, जिनसे शेष दुनिया में यह विकसित होता आया है | उन्नीसवीं सदी में लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता सावित्री बाई फुले ने महिला शिक्षा के अभियान की शुरुआत करते हुए इसकी नींव रखी थी | उन्हें इससे विमुख कराने के लिए तरह-तरह से प्रताड़ित किया जाता था, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी | और फिर एक लम्बी विरासत को जन्म दिया, जिसने न सिर्फ स्वतंत्रता आन्दोलन वरन उसके बाद भी अपने संघर्षों के द्वारा समतामूलक और न्याय-प्रिय समाज का सपना देखना जारी रखा | ये महिलायें सिर्फ अपने हितों के लिए ही नहीं लड़ी, वरन उन्होंने अपनी लड़ाई को समाज के बृहत्तर हितों के लिए भी प्रयुक्त किया | नशा-विरोधी आंदोलन, राज्य की दमनकारी नीतियों के विरोध में किया जाने वाला आन्दोलन, दहेज़ विरोधी आन्दोलन, पर्यावरण को बचाने के लिए आन्दोलन, सती प्रथा और बाल विवाह के लिए किया जाने वाला आन्दोलन और सबसे बढ़कर साम्प्रदायिकता के विरोध में चलाये गए आन्दोलन इस बात की गवाही देते हैं |

                   प्रसिद्ध लेखिका सिमोन द बोउवार की उक्ति आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जिसमें वे कहती हैं कि “ स्त्री पैदा नहीं होती, वरन बनाई जाती है |” मतलब यह समाज है, जो स्त्री को दूसरे-तीसरे दर्जे का नागरिक बनाता है | वह जन्म से इस दूसरी-तीसरी नागरिकता को लेकर पैदा नहीं होती है | मसलन आज की तारीख में समाज को नियंत्रित करने वाली शक्तियां स्त्री के साथ कैसा व्यवहार कर रहीं हैं ? क्या वे स्त्री हितों की वास्तव में बात कर रही हैं या कि उनकी रक्षा कर रही हैं ? आज जब क़ानून उन्हें बराबरी का दर्जा दे रहा है, तो ये शक्तियां उस स्त्री को सिर्फ एक देह के रूप में दिखाने का कुत्सित प्रयास क्यों कर रही हैं ? उस एक अलग तरह के छलावे में बाँधने का प्रयास, जिसमें वह अपनी वास्तविक आजादी की तलाश को भूल जाए | मीडिया हो या फिर राजनीति, संस्कृति हो या फिर समाज, बाजार की शक्तियां आज की नारी को किन अर्थों में मुक्त करती हैं ? क्या गोरे रंग के हो जाने से किसी स्त्री को स्वतंत्रता हासिल हो जाती हैं ? या कि उसका नाक-नक्श तीखा हो जाए, तो उससे उसके बंधन कट जाते हैं ? बाजार की शक्तियां यह क्यों नहीं समझ पातीं कि प्रत्येक स्त्री के भीतर भी एक दिमाग होता है,जो उतना ही विवेकशील और चेतनासंपन्न होता है, जितना कि किसी पुरुष का ? यदि किसी पुरुष से यह सवाल नहीं पूछा जाता कि वह गोरा है या कि सांवला, वह लंबा है या कि नाटा, तो यह सवाल किसी स्त्री के लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों कर दिया जाता है ? उसे घूमा फिराकर अपनी देह को सजाने-संवारने की तरफ ही क्यों धकेल दिया जाता है ? निश्चित तौर पर बाजार की यह कोशिश सम्पूर्ण महिला आन्दोलन को भटकाने के लिए है | सच तो यह है कि स्त्री की देह उसकी अपनी है, और उस पर उसी का हक़ भी होना चाहिए | उसने एक लम्बी लड़ाई के बाद अपने इस अधिकार को समाज से हासिल किया है, और इसे किसी भी कीमत पर बाजार के हाथों उसे नहीं गवाना चाहिए |

                    महिला आन्दोलन के सामने आज भी कई वास्तविक चुनौतियाँ मुंह बाए खड़ी हैं, जिनसे उसे टकराना चाहिए | रोटी, जमीन और अमन का नारा 1917 की रुसी क्रान्ति के समय भी महिला आन्दोलन का नारा था, और आज भी वह किसी न किसी रूप में विद्यमान है | भूमि, संपत्ति और आजीविका के मामलों में गैर-बराबरी और बेदखली उसके उत्पीड़न का प्रमुख कारण है | हिंसा से मुक्त समाज की कामना भी महिला आन्दोलन की सबसे बड़ी जरुरत है | क्योंकि यह सर्वविदित तथ्य है कि समाज में घटित होने वाली हर तरह की हिंसा की सबसे आसान और बड़ी शिकार महिलायें ही होती हैं | वह चाहें राज्य की हिंसा हो, या फिर अराजक समूहों की | मणिपुर, कश्मीर, खैरलांजी, बस्तर, लालगढ़ या फिर दिल्ली की घटनाएं हमारे सामने उदाहरण के रूप में मौजूद हैं | वह आदिवासी सोनी सोरी के साथ भी घटित हो सकती है, और उच्च वर्गीय रुचिका गिरहोत्रा के साथ भी | महिला आन्दोलन को आज भी अपनी उचित राजनितिक भागीदारी का इंतजार है | संसद के गलियारों में उनके उम्मीदों की आत्माएं भटक रही हैं | और फिर जहाँ क़ानून बना भी है, वहां भी नरेगा जैसे कार्यक्रमों में 33 प्रतिशत के आरक्षण का अधिकार कागजों से जमीन पर नहीं उतर पाया है | भारतीय समाज में महिलाओं के प्रति पाए जाने वाले पूर्वाग्रह की सबसे स्पष्ट झलक हमें लिंगानुपात के आंकड़ों से मिल सकती है | और महिला आन्दोलन को किस दिशा में आगे बढ़ने की जरुरत है, इसका एक रोड-मैप भी | 

                    क्लारा जेटकिन, एलेक्सांद्रा क्लन्ताय और बहुत से देशो की उन महिला नेत्रियों ने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को संघर्ष दिवस के रूप में मनाने की शुरुआत की थी, क्योंकि उनका मानना था कि महिलाओं को उत्पीडन से मुक्ति उसी दुनिया में मिल सकती है, जिसमें मनुष्य द्वारा मनुष्य का उत्पीड़न भी नहीं होता हो | महिला मुक्ति और सशक्तीकरण का संघर्ष और समाजवाद-कम्युनिजम का संघर्ष एक साथ ही चल सकता है, जिसमें महिलायें अगली कतार में शामिल रहेंगी | महिला आन्दोलन के हमारे अभी तक के अनुभव अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के प्रणेताओं के इसी विश्वास की पुष्टि करते हैं | आइये ...... हम इस दिन को उत्पीडन और गैर-बराबरी से मुक्त दुनिया को संभव करने के प्रयास के रूप में मनाएं | 


प्रस्तुतकर्ता .......
रामजी तिवारी
बलिया , उ.प्र.
मो.न. 09450546312

गुरुवार, 16 मई 2013

स्वप्न और यथार्थ के मध्य झूलती कहानियां



         





  स्वप्न और यथार्थ के मध्य झूलती कहानियां  



आज हमारे सामने युवा रचनाकारों की एक ऐसी पीढ़ी दिखाई दे रही है , जो कविता  और कहानी दोनों विधाओं में अपनी असरदार उपस्थिति के साथ हिंदी साहित्य  के परिदृश्य पर मौजूद है | इन प्रतिभाशाली युवा रचनाकारों ने उस परम्परा को भी जीवित रखा है , जो नागार्जुन , निराला , अज्ञेय , मुक्तिबोध , विनोद कुमार शुक्ल , उदय प्रकाश और कुमार अम्बुज से होते हुए आज भी चली आ रही है |  विमलेश त्रिपाठी इसी युवा पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं | अपने कविता संग्रह ‘हम बचे रहेंगे’ के जरिये इन्होंने गत वर्ष साहित्य जगत में अपनी धमाकेदार उपस्थिति दर्ज कराई थी | उस पुस्तक को न सिर्फ सराहा गया था , वरन उसे पुरस्कृत भी किया गया था | इस वर्ष अपने पहले कहानी संग्रह ‘अधूरे अंत की शुरुआत’ के जरिये विमलेश का कथा क्षेत्र में यह प्रवेश लगभग स्वप्निल ही माना जायेगा , जिसे भारतीय ज्ञानपीठ ने युवा कहानी के लिए नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित किया है | जाहिर है , कि जब इस पुस्तक को ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार दिया गया है , तब इसमें जरुर ही कोई खास बात रही होगी , क्योकि इसे परखने का काम वरिष्ठ साहित्यकारों के एक सम्मानित पैनल द्वारा किया जाता है |
इस संग्रह में कुल सात  कहानियां हैं | एक छोटी , पांच सामान्य कद-काठी की और एक लम्बी कहानी | ये सभी कहानियां समय के एक अंतराल में देश  की विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं  में छपने के साथ-साथ पर्याप्त रूप से चर्चित भी हुयी हैं | इन्हें पढने के बाद कुछ चीजें आपके दिमाग में सामान्यतया उभरती हैं | मसलन , इन कहानियों का लेखक एक कवि है और इनसे गुजरते हुए कविता का आनंद भी लिया जा सकता है | इनमें चमकदार बिम्बों की एक लम्बी श्रृंखला है , और जो शायद ही कहीं टूटती या छूटती है | स्वप्न और यथार्थ के बीच झूलती इन कहानियों का नायक यथार्थ से तालमेल बिठा पाने में अपने को असफल पाता है और तदनुसार वह स्वप्न में आवाजाही करने लिए अभिशप्त हो जाता है | इनमें नायक का चयन लेखक के इर्द-गिर्द बुना गया लगता है , जो इस समाज में अपने आपको मिसफिट पाता है , और प्रकारांतर से विक्षिप्तता की ओर बढ़ता चला जाता है | वह नायक गाँव से चलकर किसी शहर-महानगर ( अधिकतर कोलकाता ) में पहुंचा तो होता है , लेकिन अभी भी उसके मन में अपने गाँव की तस्वीर बसी हुयी है | अपने समय के सारे महत्वपूर्ण सवालों – मसलन साम्प्रदायिकता , जातीय दंश , स्त्री पराधीनता और व्यवस्था की विद्रूपता – से टकराती इन कहानियों में पठनीयता का स्तर बहुत ऊँचा है , जिसे जीवंत बनाने के लिये देशज शब्दों के साथ-साथ किस्सागोई का भी जबरदस्त इस्तेमाल किया गया है | और अंत में यह भी कि , ये कहानियां अपने शानदार अंत के लिए भी पढी जा सकती हैं , जिसमें पाठक को ‘कुछ न कुछ’ बेहतर जरुर मिलता है | 
इस संग्रह की पहली कहानी  ‘अधूरे अंत की शुरुआत’  है और यह संयोग ही कहा जाएगा , कि इसी कहानी से विमलेश अपने कथा-लेखन की शुरुआत भी करते हैं | यह कहानी उपरोक्त  सारे आधारों के सहारे ही आगे  बढ़ती है , जिसमें इसका नायक ‘प्रभुनाथ’  समाज से तादात्म्य बैठाने में असफल रहने और सामाजिक  उपेक्षा भाव के कारण टूटता  दिखाई देता है , और यही टूटन उसे अपनी प्रेमिका के साथ  ज्यादती के स्तर तक गिरा देती है | लगभग विक्षिप्तता की स्थिति में वह अपनी प्रेमिका को संबोधित पत्र में कहता है “ मेरे जैसे लोग जिस  समाज में जीते हैं , और उनके एक विशेष मानसिक गठन वाले मन पर वह समाज जिस तरह की ग्रंथियां बनाता है , उनके वशीभूत हो वे क्या कुछ कर गुजरते हैं , उन्हें खुद भी पता नहीं होता ...फिर भी तुम्हारा स्नेह मुझे आदमी बना सकता था ... जो मैं कभी था ही नहीं |” ( पृष्ठ – २८ , अधूरे अंत की शुरुआत ) | यह कहानी व्यक्ति और समाज के जटिल रिश्ते की पड़ताल के साथ-साथ अपने शिल्प और यादगार अंत के लिए भी उल्लेखनीय मानी जा सकती है |
इस संग्रह की अन्य कहानियों के नायक भी , मसलन ‘परदे के इधर  उधर’ के ‘दुर्लभ भट्टाचार्य’  हों , या ‘खँडहर और इमारत’ के ‘प्रबुद्ध’ हों , अंततः  उसी टूटन , विक्षिप्तता  और पलायन को पहुँचते है , जिसके लिए वे इस व्यवस्था में अभिशप्त हैं | कहानियां उन्हीं विद्रूपताओं के मध्य से उपजती हैं , जिसमे यह व्यवस्था ऐसे प्रत्येक आदमी के सामने सिर्फ और सिर्फ टूटन का विकल्प ही छोडती है , जो सोचने समझने वाला है और जो नैतिकता के मूल्य को जीवन में उतारना चाहता है | इसलिए यह अनायास नहीं है , कि ये नायक सपनों में आवाजाही करते रहते हैं | यदि इन नायकों के जीवन में सपने नहीं होते , जहाँ वे अपने मन की दुनिया को जी सकते हैं , तो यह समझना कठिन न होता , कि उनकी यह टूटन और विक्षिप्तता समाज पर किस तरह से टूटती |
हमारे समय की दो सबसे बड़ी  त्रासदियों को केंद्र में रखकर विमलेश ने दो कहानियां लिखी है | साम्प्रदायिकता और जातीय जकड़न | संग्रह की चौथी कहानी ‘चिंदी चिंदी कथा’ मूल रूप से साम्प्रदायिकता को केंद्र में रखकर लिखी गयी है , जिसके बीच एक प्रेम कथा भी चलती है | हमारा समाज आज भी गैर-बराबरी वाले प्रेम सम्बन्ध को किस तरह से ठुकराता है , इस कहानी में देखा जा सकता है , और फिर यदि प्रेम करने वाले अलग-अलग धर्मों से आते हैं , फिर तो इस समाज के लिए प्रेम करने वालों से अधिक गुनाहगार कोई और हो ही नहीं सकता है | अच्छी बात यह है , कि एक सजग कथाकार की जिम्मेदारी निभाते हुए विमलेश इनका अंत उस मुकाम पर करते हैं , जहाँ से समाज को कुछ हासिल हो सकता है | 
पांचवी कहानी ‘एक चिड़िया एक पिंजरा और कहानी’ हमारे  दौर के तीन ज्वलंत विषयों को लेकर चलती है , जिसमें विमलेश के भीतर का सधा कथाकार उभरकर सामने आता है | हालाकि इस कहानी में थोड़ा फ़िल्मी पुट दिया गया है , और जिसे स्वयं कथाकार भी मानता है , लेकिन तब भी यह कहानी ‘जातीय घृणा , सगे-सम्बन्धियों द्वारा यौन शोषण और उसके बीच बचे रहे गए प्रेम’ की अद्भुत दास्तान बन जाती है | कहानी का अंत बहुत रक्तपूर्ण होता है , लेकिन इसकी जिम्मेदारी उस सामाजिक व्यवस्था पर ही आयत होती है , जिसमें ऐसा रक्तपात अमानवीय और प्रतिगामी माना जाता है | छठी कहानी ‘पिता’ वर्तमान दौर के उस संवेदनहीन समाज का आख्यान रचती है , जिसमें एक बेटा अपने बाप को यह कहते हुए पतंग सरीखा उड़ा देता है , कि ‘आपका मेरे ऊपर कौन सा एहसान है ? मैं तो इस दुनिया में तब आया , जब आप मजे ले रहे थे |’ इस छोटी कहानी में विमलेश ने, बदहवास दौड़ती हुयी इस युवा पीढ़ी की उन मनोदशाओं को व्याख्यायित किया है , जिनमें सामाजिक मूल्य और नैतिकताएं सिरे से तिरोहित हो गयी हैं |
संग्रह की अंतिम कहानी ‘अथ श्री संकल्प-कथा’ है , जो एक ‘लम्बी कहानी’ भी है | विमलेश इस कहानी में पूरी फार्म के साथ नजर आते हैं | वे राजनीतिक रूप से अपना पक्ष चुनते हैं , और व्यवस्था की जकड़नो में पिसते हुए इस समाज के बृहत्तर हिस्से पर केन्द्रित करते हुए , इस कहानी को बड़े कैनवस पर लेकर जाते हैं | इसमें आये मुक्तिबोध जैसे कई पात्र हमारे जीवन से उठाये गए हैं , जिनके सहारे यह ‘संकल्प-कथा’ आगे बढ़ती है | इसको पढ़ते हुए उदय प्रकाश की दो चर्चित कहानियां – ‘मोहन दास’ और ‘पाल गोमरा का स्कूटर’ – जेहन में कौंधती हैं | मुक्तिबोध जैसे चरित्र को चुनने का तरीका ‘मोहन दास’ की याद दिलाता है , तो कहानी के नायक ‘संकल्प प्रसाद’ की टूटन और विक्षिप्तता ‘पाल गोमरा के स्कूटर’ की | जाहिर है , कि यह लम्बी कहानी विमलेश के इस संग्रह की सबसे महत्वपूर्ण कहानी भी मानी जा सकती है |
तिरोहित नैतिकताओं के इस दौर में नैतिक विधानों  पर चलने वाले इन कहानियों के पात्रों का विक्षिप्तता  की तरफ बढ़ना कोई अस्वाभाविक नहीं है , लेकिन इनकी एक आलोचना यह कहकर तो की ही जा सकती है , कि बेहतर तो यह होता कि विमलेश इन पात्रों के सहारे इस व्यवस्था को बदलने के लिए और अधिक संघर्ष करते | जाहिर है कि आज उन संघर्षों की सफलता भले ही ‘कालाहांडी से दिल्ली’ जितनी दूर दिखाई देती है , लेकिन एक कथाकार से यह अपेक्षा तो की ही जा सकती है , वह इस दूरी में अपने पात्रों को कुछ कदम ही सही , लेकिन चलने के लिए प्रेरित अवश्य करे | बजाय इसके कि वे थक-हारकर सामाजिक पलायन कर जाएँ | जिन कहानियों में यह संघर्ष दिखाई देता है , वही कहानियां इस संग्रह को ऊँचाई भी प्रदान करती हैं | इन कहानियों में दो और चीजें अखरती हैं | एक तो लेखक का लगभग प्रत्येक कहानी में यह कहना , कि ‘यह एक कहानी नहीं है’ , और दूसरा यह कि लेखक के भीतर के कवि का अपने पात्रों पर हावी हो जाना | मसलन - ‘एक चिड़िया , एक पिंजरा एक कहानी’ की नायिका ‘रश्मि मांझी’ का वह पत्र |
लेकिन इन आलोचनाओं के होते हुए भी इस संग्रह को अपने समय के दस्तावेज के रूप  में पढ़ा जाना चाहिए | विमलेश के भीतर जो कथाकार है , वह बहुत संभावनाशील है | वह इस बदलती दुनिया को तो देख-सुन ही रहा है , साथ-ही-साथ उसे अपनी जमीन की भी पहचान है | उसके पास भाषा और शिल्प तो है ही , कथ्य और पक्ष चुनने की समझ भी है | जाहिर है , कि इस संग्रह से विमलेश के प्रति हमारी आशाएं और बढ़ गयी हैं , और उसी अनुपात में आने वाले समय में उनकी जिम्मेदारी भी |


पुस्तक
अधूरे अंत की शुरुआत
 ( कहानी संग्रह )
लेखक – विमलेश त्रिपाठी
प्रकाशक – भारतीय ज्ञानपीठ , नयी दिल्ली
मूल्य – 130 रुपये
                                                      



संक्षिप्त परिचय


     

                                 रामजी तिवारी 

बलिया , उ.प्र.
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख , कहानियां ,कवितायें और समीक्षाएं प्रकाशित
सिनेमा पर एक किताब प्रकाशित – ‘आस्कर अवार्ड्स – यह कठपुतली कौन नचावे’
‘सिताब-दियारा’ नामक ब्लाग का सञ्चालन
मो.न. – 09450546312