कवि मित्र पद्मनाभ गौतम के पहाड़ी अनुभवों को उनके संस्मरण - ‘ लौट के बुद्धू घर को आए ’ की आज पांचवीं और आखिरी किस्त।आपके विचारों की प्रतीक्षा में। सम्पादक -पुरवाई
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सोमवार, 18 जनवरी 2016
गुरुवार, 17 दिसंबर 2015
संस्मरण - लौट के बुद्धू घर को आए (भाग-दो)-पद्मनाभ गौतम
कवि मित्र पद्मनाभ गौतम के पहाड़ी अनुभवों को उनके संस्मरण - ‘ लौट के बुद्धू घर को आए ’ की चौथी किस्त-- । आपके विचारों की प्रतीक्षा में-
सम्पादक -पुरवाई
जब तक हम फैसला कर पाते, दक्षिण भारतीय अफसर उन स्थानीय लड़कों के साथ ही चम्बा के लिए
निकल गए। अब साथ देने के लिए बच गया था नौजवान मैकेनिकल इंजीनियर फहीम इकबाल। हमने
एक-दूसरे को देखा, मन में चम्बा चलने का संकल्प किया और निकल
पड़े। प्रातः के आठ बजे थे। भरमौर के उस मार्ग में उस दिन चार-चार फुट ऊँची बर्फ गिरी
हुई थी। थोड़ी देर के लिए बर्फ बारी बन्द थी। मैंने जो जूते पहने थे वे चमड़े के जूते
थे, दफ्तर जाने वाले। दो-तीन किलोमीटर पैदल चलने पर ही मेरे जूतों
में बर्फ घुस गई तथा मोजे भीग गए। हमें विश्वास था कि भरमौर से खड़ामुख तक पैदल चल कर
हमें कोई टैक्सी मिल जाएगी। खड़ामुख की समुद्र तल से ऊँचाई तकरीबन 1200 मीटर है अर्थात् भरमौर की अपेक्षा आधी। इस ऊँचाई पर भारी बर्फबारी
की संभावना नहीं थी। लगभग अढ़ाई घण्टे पैदल चल कर सावधानी पूर्वक ’चलैड़ धार’ पार करते हुए हम खड़ामुख
पहँुचे। अब तक मेरे जूते पूरी तरह से भीग चुके थे।
खड़ामुख में बर्फ की परत उतनी मोटी नहीं थी।
वहाँ लगभग आधा फुट बर्फ रही होगी। पर खड़ामुख में हमें वह अपेक्षित नहीं मिला जिसका
हमें भरोसा था। वहाँ कोई भी टैक्सी नहीं थी जो कि हमें चम्बा पहुँचाती। बर्फ जो हमारे
कंधो से होते हुए रुई के फाहों की तरह हमारे ऊपर गिरी थी, उसने देह की गर्मी से पिघल कर अब तक हमें भिगोना आरंभ कर दिया था। यद्यपि हमने
जैकेट पहन रखी थीं, परंतु धीरे-धीरे जैकेट की बाहरी तह पानी से
भीग रही थी। पिछले तेरह किलोमीटर तक चार फुट से लेकर कम-से-कम घुटनों तक ऊँची बर्फ
में चलने के कारण हमें थकान महसूस होने लगी थी। परंतु अभी हमें आगे आने वाली कठिनाइयों
का आभास नहीं था। आने वाले चौबीस घण्टों में हमारे साथ जो होने वाला था, उसका हमें अभास होता, तो इस समय हम अपने आपको पूर्ण स्वस्थ्य महसूस कर रहे होते।
टैक्सी न मिलने के कारण हम दुविधा में थे।
खड़ामुख से उत्तर की ओर होली-बिजौली ग्राम जाने वाले रास्ते पर कोई तीन किलो मीटर आगे
हमारी कम्पनी का एक होस्टल था। चाहते तो हम वहाँ रुक सकते थे। पर मेरा साथी फहीम हिम्मती
था। वह आगे चलने को तैयार था। मेरे उपर तो विपदा ही थी। अतः हमने धीरे-धीरे आगे चलने
का निश्चय किया। भरोसा एक ही था, आगे कहीं-न-कहीं हमें
टैक्सी मिल जाएगी।
अब हम भरमौर के ऊँचे पहाड़ों से लगभग 1200 मीटर नीचे उतर कर रावी के किनारे पर थे। भरमौर की ओर से बहकर
आने वाला बुधिल नाला रावी नदी के साथ खड़ामुख में मिलता है। खड़ामुख पर रावी नदी के उपर
बने पुल से दाहिने हाथ को एक रास्ता चम्बे को निकलता है तथा एक रास्ता बाँए हाथ को
होली-बिजौली को चला जाता है। इस संगम से अब हमें चम्बा की ओर पैदल चलना था। रावी के
बाँए तट के साथ-साथ। यहाँ सड़क रावी नदी से कुछ ही ऊपर स्थित है, जबकि कृशकाय बुधिल नाला तो भरमौर-खड़ामुख मार्ग से एक पतली चाँदी
की रेखा जैसा ही दिखाई देता है। चम्बा से भरमौर की कुल दूरी साठ किलोमीटर से कुछ अधिक
है जिसमें से तेरह किलोमीटर की दूरी हम अब तक तय कर चुके थे। अभी लगभग सैंतालीस किलोमीटर
की दूरी और तय की जानी थी और मन में यह संकल्प था कि शाम तक हमें हर हाल में चम्बा
पहुचना है।
इस समय सुबह के साढ़े दस बज रहे थे,
परंतु सूर्य बादलों की या कह लीजिए धुंध की ओट में था। हमने
धीरे-धीरे चलना आरम्भ कर दिया। भरमौर से चम्बा के मध्य औसतन हर पाँच किलोमीटर पर एक
गाँव पड़ता है। हमने तय किया कि एक-एक गाँव को हम अपना लक्ष्य बनाकर धीरे-धीरे पैदल
चलेंगे। पहाड़ों पर लम्बी यात्रा करना हो तो धीरे-धीरे बिना रूके चलते जाना सबसे अच्छा
तरीका है। यदि आप जल्दी से रास्ता तय करने के फेर में पड़ गए तो कुछ समय के पश्चात्
थकान घेर लेगी जिससे उबर पाना मुश्किल है। हमें उम्मीद थी कि इस बीच कोई न कोई सवारी
गाड़ी हमें मिल ही जाएगी जो हमें चम्बा पहुँचा देगी। इस भरोसे पर पैदल चलते हुए हम अपने
पहले पड़ाव दुर्गेठी गाँव पहुँचे। दिन के बारह बज रहे थे। भूख लगने लगी थी। वैसे सुबह
हमने थोड़ा नाश्ता किया था, किंतु अब तक ठण्ड और
थकान से वह पूरी तरह पच गया था। गाँव की समस्त दुकानें बन्द थीं। बर्फ दोबारा गिरने
लगी थी। चम्बा से सारा आवागमन अवरुद्ध हो गया था। कुछ आगे चलने पर हमें एक चाय की गुमटी
खुली मिली। गुमटी वाले के पास चाय थी और साथ में कचौरी। वैसी कचौरी नहीं जैसी राजस्थान
में या बनारस में मिलती है, अपितु बेकरी में पकी
एक उत्तर प्रदेशीय खस्ते के जैसी चीज। मैदे की बनी यह कचौरी चाय में डालते ही घुल जाती
है तथा मुँह में पहुँचते तक लुगदी बन जाती है। ठण्ड और भूख से हम निढाल हो रहे थे।
हम कई कप चाय पी गए तथा ढेर सारी कचौरियाँ खा लीं। यह लगभग दोपहर के खाने जैसा ही था।
कुछ देर तक हम दुकान की भट्टी के सामने पसरे रहे, लकड़ी की गर्मी ने हमें सुस्त कर दिया था। जी चाहता था कि वहीं आराम से पड़े रहें।
हम अभी ताजा-ताजा याद किया सिद्धांत भूल गए थे कि लम्बी पहाड़ी यात्रा में रुकने से
थकान हावी हो जाती है। अभी तक तो हमने केवल अठारह किलोमीटर का मार्ग ही तय किया था।
हमें और आगे जाना था। मरता क्या न करता, हम न चाहते
हुए भी उठे तथा पैदल चलने लगे।
दुर्गेठी का पहला पड़ाव पार कर अब हमारा लक्ष्य
था लूणा गाँव। हमने सोचा था कि 1200 मीटर की ऊँचाई पर
बर्फबारी होने का प्रश्न नहीं उठता, पर आश्चर्यजनक
रूप से हल्की-हल्की बर्फ गिरती रही। तथापि यहाँ पर बर्फ की परत उतनी मोटी नहीं थी।
लगभग एक बजे हम लूणा पहुँचे। अपेक्षित रूप से गाँव की एक भी दुकान नहीं खुली थी। समय
तेजी से गुजर रहा था। चूँकि सूर्य निकला नहीं था, अतः प्रतीत हो रहा था कि दिन अभी बाकी है। अभी हमने आधा मार्ग भी पार नहीं किया
था और दिन आधे से अधिक निकल गया था। परिस्थितियाँ पूरी तरह से विपरीत थीं। हमने सोचा
था कि हमें मार्ग खुला मिलेगा, परंतु मार्ग अब तक
खुला नहीं था। अब ठण्ड भी बढ़ रही थी। तभी हमें पीछे से आशा की एक जोत दिखाई दी।
वह आशा की जोत थी एक मारुति जिप्सी गाड़ी।
हमारे चेहरे खिल उठे। हमने बेसब्री के साथ उस गाड़ी को रुकने का इशारा किया। अगली सीट
पर बैठे रोबदार टीकाधारी सज्जन के इशारे पर चालक ने गाड़ी रोक ली। हमने उन्हें बताया
कि हम प्रातःकाल भरमौर से पैदल चले हैं तथा हमें चम्बा जाना है। गाड़ी की पिछली सीट
खाली थी, किंतु उन सज्जन ने असमर्थता दिखाते हुए कहा
कि आगे उनके और आदमी है, जिन्हें उनके साथ गाड़ी
में जाना है। हमारे अनुनय करने पर भी उन्होंने असमर्थता दिखाते हुए गाड़ी आगे बढ़वा दी।
इस तरह वह आशा की पहली किरण धूमिल होते होती क्षितिज में विलीन हो गई। हम असहाय उसे
जाता देखते रहे। आखिरकार हम दोबारा आगे चल पड़े तथा अगले गाँव दुनाली पहुँचे। अपरान्ह
के अढ़ाई बज रहे थे। हम लगभग 23 किलोमीटर पैदल चल
चुके थे। दुनाली में भी सारी दुकानें बन्द थीं। अब मेरी देह थकान से टूट रही थे। पर
अपने आप को थका हुआ मान लेना पराजय थी। दुनाली में कुछ लोग सड़क के साथ लगी एक दुकान
के सामने बैठे आग ताप रहे थे। हमने कुछ देर तक हाथ-पैर सेंके तथा जूते और कपड़े सुखाने
प्रयास किया। कुछ आराम करके हम फिर से आगे चलने के लिए तैयार हो गए। आज हम चम्बा पहुँच
पाएँगे या नहीं, पहली बार मन में यह शंका हुई। हमें अब तक
कोई गाड़ी नहीं मिली थी।
दुनाली में किस्मत ने हमारा साथ दिया तथा
हमें पहाड़ी रास्ते से आता एक कैम्पर दिख गया। हमारी बाँछे खिल गईं। हमने उस कैम्पर
वाले से अनुनय की तो वह हमें अपने कैम्पर के डाले में बिठाने को तैयार हो गया। उसे
चम्बा जाना था। चम्बा का नाम सुनकर हम झूम उठे- अब से दो घण्टे में हम किसी होटल में
आराम कर रहे होंगे यह सोचकर। वह एक सिंगल केबिन कैम्पर था, जिसका केबिन भरा हुआ था। हमें उसके डाले पर बैठना था। पर वह डाला हमें पुष्पक-विमान
से कम नहीं लग रहा था। अब तक केवल हमारे कपड़े ही नहीं भीगे थे, अपितु अब ठण्ड से हमारी चमड़ी भी सिकुड़ना आरम्भ हो गई थी। अब
बर्फ नहीं गिर रही। अब यह वर्षा थी। बूंदा-बांदी ने हमें तर कर दिया था। पर हमें तो
किसी तरह से एक बार चम्बा पहुँचना था, बस। फिर तो
सब ठीक हो जाना था।
पर अभी सब कुछ ठीक नहीं था। जब हम दुनाली
से आगे गैहरा गाँव पहुँचे, तो उस कैम्पर वाले
को किसी ने खबर दी कि आगे रास्ता बन्द है। उसने आगे जाने से मना कर दिया। कोई दूसरा
चारा नहीं, अब हमें फिर से पैदल चलना था। हम कुल पाँच
किलो मीटर ही उस कैम्पर में जा पाए। चम्बा तक लगभग तीस किलो मीटर का मार्ग अब भी बाकी
था। हमारे पैर ठिठुर कर सुन्न हो रहे थे। पर अब आगे बढ़ने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं
था। गाँव में रुकने की सुविधा नहीं थी। यदि होती भी, तो दिन रहते रुकना हमारी पराजय थी।
जब हम गैहरा से धरवाला के लिए पैदल चले तो
निढाल थे। पर घिसटते ही सही, चलना हमारी मजबूरी
थी। तीन किलोमीटर आगे पहुँचने पर देखा कि सड़क भूस्खलन के कारण पूरी तौर पर कट चुकी
थी। लगभग तीस मीटर का मार्ग कोई पैंतालीस अंश के कोण से कट कर नीचे बीस मीटर तक फैला
हुआ था। उस पर कोई फुटपाथ भी नहीं था। ग्रेफ की रोड मेंन्टेनेन्स टीम के आने का तो
प्रश्न ही नहीं था। ढलान के पूर्व ही वह जिप्सी खड़ी थी, जिसमें वह टीका धारी सज्जन बैठ कर गए थे। जिप्सी में केवल ड्राईवर था। पूछने पर
पता चला कि वह जनाब भरमौर के ए.डी.एम. लठ्ठ साहब थे जो रास्ता बन्द होने के कारण निकल
आए थे तथा उन्हें लेने के लिए भूस्खलन के पार दूसरी गाड़ी आई थी। तो वो उस जहाज के कप्तान
थे, जिसे हम भी अभी छोड़ कर आ रहे थे। यात्रियों से पूर्व कप्तान
ने जहाज छोड़ दिया था।
अब हमें मजबूरन उस भूस्खलन से बने ढलान को
पार कर आगे जाना था। फिसलने पर सीधे रावी में जाकर गिरते। ढलान पूरी तरह से फिसलन भरी
थी। भय से हमारी जान निकल रही थी। किसी प्रकार से उकड़ूँ बैठ कर हमने वह रास्ता पार
किया। भय से मैंने ईश्वर को याद करना आरंभ कर दिया, वहीं फहीम इकबाल कुरान की आयतें पढ़ने लगा। लगभग 30 मीटर का वह स्खलन हमने मौत से खेलते हुए पार किया।
जब
मैं भूस्खलन से कटी जमीन को किसी तरह पार कर के दूसरी ओर पहुँचा तब मुझे बड़ी जोर से
गड़गड़ाहट की आवाज सुनाई दी। मैंने पीछे मुड़ करे देखा तो तेज गति से एक बड़ा सा पत्थर
ऊपर से धड़धड़ाता हुआ नीचे रावी नदी में जा कर गिरा। चंद सेकण्डों पहले मैं उस स्थान
पर था, जहाँ से वह पत्थर लुढ़का था; उसका आयतन दो-तीन घनमीटर से कम न रहा होगा। यदि मैंने थोड़ी भी
देर की होती, तो वह पत्थर मुझे सीधी रावी नदी में ले जाकर
पटकता, और तब ऐसी कोई संभावना नहीं थी कि मैं जीवित
बच पाता।
बहरहाल महामृत्युंजय मंत्र व आयत-उल-कुर्सी
पढ़ते हम धरवाला गाँव पहुँचे। दुर्भाग्य कि धरवाला में भी एक भी दुकान नहीं खुली थी,
जहाँ हम चाय इत्यादि पी सकते। शाम के साढ़े चार बज रहे थे। इसके
पश्चात् हमारे पास बस एक-डेढ़ घण्टों का ही दिन बचा था तथा हम अभी राख गाँव भी नहीं
पहुंचे थे। चम्बा राख से बीस किलोमीटर दूर है। मतलब साफ था कि आज हम चम्बा नहीं पहुँच
पाएंगे। वह एक सूरत में ही सम्भव था, जब कि हमे राख
से कोई साधन मिल पाता। पर अब हमारा यह विश्वास टूटने लगा था कि कोई गाड़ी हमें चम्बा
पहुँचाएगी।
समय कम था अतः हमने धरवाला में रुक कर समय
बिताना ठीक नहीं समझा। अब हम फिर से चलने लगे थे। इस बार बर्फ ने वास्तव में कीर्तिमान
बनाया था। धरवाला तक बर्फ पसरी हुई थी। अर्थात् भरमौर से लगभग पैंतीस किलोमीटर दूर
तक। और उस बर्फ में हम भीगते हुए काँपते बदन वे पैंतीस किलोमीटर चल चुके थे। राख पहँुचकर
यदि कोई साधन नहीं मिला तब। प्रश्न बड़ा था। उससे बड़ा सवाल यह था कि हम रुकेंगे कहाँ
पर। यदि इन भीगे कपड़ों व जूतों को सुखाने का मौका नहीं मिला तो उस बर्फानी रात में
हमारा जाने क्या होने वाला था।
क्रमशः.......
पद्मनाभ गौतम
सहायक महाप्रबंधक
भूविज्ञान व यांत्रिकी
तीस्ता चरण-टप् जल विद्युत परियोजना
पूर्वी सिक्किम, सिक्किम
737134
संपर्क -
द्वारा श्रीमती इन्द्रावती मिश्रा
स्कूल पारा, बैकुण्ठपुर
जिला-कोरिया (छ.ग.)
पिन - 497335.
मो. 9425580020
सोमवार, 16 नवंबर 2015
संस्मरण -लौट के बुद्धू घर को आए (भाग-एक)-पद्मनाभ गौतम
कवि मित्र पद्मनाभ गौतम के पहाड़ी अनुभवों को उनके संस्मरण - ‘ लौट के बुद्धू घर को आए ’ की तीसरी किस्त-- । आपके विचारों की प्रतीक्षा में-
सम्पादक -पुरवाई
अगले दिन मार्ग खुल गया था। मैं कम्पनी
की गाड़ी में कार्यालय पहुँचा। आज मेरे शरीर का पोर-पोर दुख रहा था। वह अफसर, जिसने मुझे सीढ़ीनुमा खेतों
से होकर कार्यालय तक पहुंचाया था, अब मुझसे कुछ अजीब सा व्यवहार कर रहा था, जैसे उसका मेरे प्रति कोई पूर्वाग्रह हो।
बहुत समय पश्चात् मुझे साफ हुआ कि वह मुझे डराकर रखना चाहता था। कारण था कार्य की जिम्मेदारियों
में उस सहित कम्पनी के कुछ अफसरों की बेईमानियों का मार्ग मेरी कलम के नीचे से होकर
गुजरना। इस कारण वह आरंभ से ही मुझे अपने काबू में रखना चाहता था।
अगले तीन-चार दिन मौसम
साफ ही रहा। मैं आरंभिक व्यवस्थाओं में लगा था। इस बीच मैंने कम्पनी से मिले एक मकान
में पलंग-आलमारी इत्यादि की व्यवस्था की, जिससे कि रामपुर में प्रतीक्षा कर रहे परिवार को भरमौर ला सकूँ। वैसे भी, अभी मेरी पत्नी मानसिक
रूप से अकेले रहने के दृष्टिकोण से परिपक्व व अनुभवी नहीं थी। दूसरे, बिटिया केवल दो माह की
थी। अतः अब शीघ्रातिशीघ्र रामपुर जाकर परिवार को साथ लेकर आना था।
पर अभी यह मेरी चुनौतियों
का आरम्भ ही था। कुछ दिनों तक आसमान साफ रहने के पश्चात् एक दिन बरसात हुई और उसके
पीछे बर्फबारी होने लगी। पहले तो रुई के फाहों के समान हल्की-हल्की बर्फ गिरती रही।
लोगों ने अनुमान लगाया कि एक-दो दिन में बर्फबारी रुक जाएगी। इसके विपरीत, आरंभिक एक-दो दिनों के
पश्चात् बर्फबारी का जोर बढ़ गया। बर्फबारी से एक बार फिर मार्ग अवरुद्ध हो गया। मैं
प्रतीक्षा कर रहा था कि बर्फबारी रुके तो मार्ग खुलने पर मैं रामपुर-बुशैहर वापस जाऊँ।
परंतु बर्फ का गिरना कम ही नहीं हो रहा था। फरवरी महीने की छठवीं तारीख तक भरमौर में
चार-चार फुट बर्फ गिर चुकी थी। स्थानीय लोगों ने बताया कि पिछले एक दशक के पश्चात्
ऐसी बर्फबारी देखी गई है। आगे कई दिनों तक मार्ग खुलता नहीं दिखाई पड़ रहा था।
अब तक हमारे पास सब्जियाँ
समाप्त हो गई थीं। मार्ग अवरुद्ध होने के कारण चम्बा से सब्जियों की खेप नहीं आ पाई।
कम्पनी के मेस में केवल चावल तथा दाल ही बचा था राशन के नाम पर। सात फरवरी को प्रातः
काल बिजली भी चली गई। अब मोबाईल में बैटरी का संकट था अर्थात् घर से संवाद का साधन
भी हाथ से जाने वाला था। उधर रामपुर में परिवार पड़ोसियों के सहारे था। सात फरवरी की
शाम को घर से फोन आया। पत्नी ने बताया कि घर में चोर घुसा था। यह सुनकर मेरे तो होश
ही उड़ गए। कोढ़ में खाज इसे ही कहते हैं। अब परिवार की सुरक्षा का भी प्रश्न था। गनीमत
थी कि पत्नी की पुकार सुन कर मुहल्ले वाले दौड़े तथा रात में ही चोर को पकड़ कर पुलिस
के हवाले कर दिया गया। किंतु अब मेरे मन में शांति नहीं थी। मेस में जाने पर देखा तो
राशन का हाल खराब था। रसोइये ने सूचना दी कि गैस-सिलिंडर का स्टॉक भी समाप्त हो रहा
है। मैं किंकर्तव्यविमूढ़ था। आगे जाने का मार्ग अवरुद्ध था। मेस में राशन नहीं था।
बच्चे पराए शहर में पड़ोसियों के भरोसे। घर में चोरी की घटना। मेरा मन पूर्णतया विचलित
था।
पर यही तो पहाड़ों का असली
जीवन है। हरे-भरे पहाड़, जो दूर से इतने सुंदर और दर्शनीय लगते हैं, उन पर जीवन उतना सहज नहीं। अत्यंत मनोरम
व सुदर्शन दिखने वाले पर्वत कभी-कभी अत्यंत कठोर हो जाते है। जब आप पहाड़ पर घूमने आते
हैं तो पहले-पहल सम्मोहित रह जाते हैं। अंग्रेजी वाले वाऽव का उच्चारण करते नहीं थकते, हिन्दी वाले अद्भुत का और उर्दू वाले सुभानअल्लाह का। कुछ समय पश्चात् फिर मुँह से यह विस्मयादि बोधक व हर्ष सूचक शब्द निकलने बन्द हो जाते हैं। सानिध्य में
कुछ और दिन बीतने पर पहाड़ वैसे ही लगने लगते हैं जैसे किसी मैदानी नगर का कोई सामान्य
भौगोलिक दृश्य। फिर आप पहाड़ों से लौट चलने
का मन बना लेते हैं। यह अप्रतिम सौन्दर्य तब तक सौन्दर्य है, जब तक आप एक पर्यटक हैं।
पर्यटक, जो सुखद वातावरण में पर्यटन कर प्राकृतिक सौंदर्य को मन में बसाए लौट जाता हैं।
किंतु प्रतिकूल मौसम में पहाड़ों के असली जीवन के दर्शन मिलते हैं। जब बर्फबारी व भूस्खलन
इत्यादि से मार्ग अवरुद्ध हो जाता है, ऐसे में कोई यदि गम्भीर रूप से बीमार पड़ जाए तो उसे शीघ्रता से चिकित्सा सुविधा
मिल पाना अत्यंत कठिन होता है। हृदयाघात या स्ट्रोक इत्यादि की स्थिति में तो मृत्यु
अवश्यंभावी होती है।
सन् दो हजार आठ के फरवरी
माह के उस दूसरे सप्ताह में पहाड़ मेरे सामने अपने असल भयावह रूप मे ंसामने खड़ा था।
निराशा ने मुझे पूरी तरह से घेर लिया था। तभी आशा की एक किरण दिखी। कुछ स्थानीय कर्मचारी
अगले दिन पैदल भरमौर से निकलने का विचार कर रहे थे। अब तक की सूचना के अनुसार भरमौर
से केवल तेरह किलोमीटर आगे खड़ामुख तक मार्ग अवरुद्ध था। उसके आगे मार्ग खुला था। अतः
प्रातः खड़ामुख तक पैदल चलने के पश्चात् चम्बा हेतु कोई न कोई टैक्सी मिल जाएगी, यह उनका विचार था। यह
वे पहाड़ी लड़के थे, जो अपना एक अलग गुट बना कर चलते थे तथा मैदानी इलाकों से आए लोगों के साथ कम घुलते
मिलते थें। उनका लीडर वह अधिकारी ही था, जिसने पहले दिन मुझे परियोजना कार्यालय पहुँचाया था। जाहिर है कि उन्होंने मुझे
अपने साथ ले जाने में कोई रुचि नहीं दिखाई। परंतु मेरे लिए इतना ही पर्याप्त था।
रात के खाने के समय बातचीत करते हुए मेरे
साथ एक दक्षिण भारतीय अधिकारी तथा ललितपुर का एक नौजवान इंजीनियर साथ चलने को तैयार
हो गया। तय हुआ कि अगली सुबह हम तीनों पैदल चल पड़ेंगे। दिनांक आठ फरवरी को नाश्ता करके
हम चलने को तैयार हुए। परियोजना निदेशक भटनागर साहब ने हमें बुजुर्गाना सलाह दी कि
हम चुपचाप वहीं रहें और जो कुछ भी रूखा-सूखा है, वह खाकर अवरुद्ध मार्ग के खुलने की प्रतीक्षा
करें। परंतु मैं घर पहुँचने को व्यग्र था तथा अब मुझमें इतना संयम नहीं बचा था कि रुक
कर बर्फबारी के थमने की प्रतीक्षा करूँ। मेरी परिस्थिति अन्य थी। उधर मोबाईल की बैटरी
भी अंतिम साँसे गिन रही थी। बिजली नदारद थी तथा उसके जल्द आने का कोई कारण नहीं दिख
रहा था। अतः अब तो मुझे सारे खतरे उठाकर भी रामपुर पहुँचना था। कैसे भी, किसी भी कीमत पर।
क्रमशः
पद्मनाभ गौतम
सहायक महाप्रबंधक
भूविज्ञान व
यांत्रिकी
तीस्ता चरण-टप्
जल विद्युत परियोजना
पूर्वी सिक्किम,
सिक्किम
737134
संपर्क-
द्वारा श्रीमती इन्द्रावती मिश्रा
स्कूल पारा
बैकुण्ठपुर
जिला-कोरिया
छ.ग.
497335
शनिवार, 7 नवंबर 2015
संस्मरण -लौट के बुद्धू घर को आए (भाग-एक)-पद्मनाभ गौतम
कवि मित्र पद्मनाभ गौतम के पहाड़ी अनुभवों को उनके संस्मरण - ‘ लौट के बुद्धू घर को आए ’ की दूसरी किस्त-- । आपके विचारों की प्रतीक्षा में-
सम्पादक -पुरवाई
सम्पादक -पुरवाई
इस नई नौकरी में मेरे पद भार ग्रहण करने का अनुभव ही अत्यंत
नाटकीय रहा। अट्ठाईस जनवरी दो हजार आठ को मैंने रामपुर से भरमौर हेतु प्रस्थान किया
तथा शिमला-कालका-अम्बाला कैंट के रास्ते उन्तीस जनवरी को प्रातः दस बजे पठानकोट पहुँचा।
पठानकोट से भरमौर का मार्ग तकरीबन आठ घण्टे का है। लगभग पाँच घण्टे चम्बा और फिर वहाँ
से तीन घंटे के आस-पास भरमौर। यह मार्ग बनीखेत होते हुए चम्बा जाने का अपेक्षाकृत कम
घुमावदार पर्वतीय मार्ग है। डलहौजी-खज्जियार होकर चम्बा जाने के मार्ग में मोड़ अधिक
हैं, अतः सामान्यतः पहला मार्ग ही अधिक उपयोग होता है। मैंने एक टैक्सी
वाले से बात की जो मुझे भरमौर छोड़ने को तैयार हो गया। हम प्रातः काल लगभग साढ़े ग्यारह
के आस-पास बनीखेत के मार्ग से भरमौर के लिए निकल पड़े।
हमें रावी नदी के किनारे मनोरम पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य यात्रा
कर चम्बा पहुँचते शाम के चार बज गए थे । देर हो रही थी अतः हम चम्बा में रुके बिना
आगे बढ़ गए। हल्की बूंदा-बांदी हो रही थी। मैंने कम्पनी के मानव संसाधन विभाग के प्रबंधक
पाण्डेयजी से संपर्क किया, तो उन्होंने जानकारी
दी कि भरमौर में बर्फबारी हो रही है। उनकी सलाह थी कि मैं चम्बा ही रुक जाऊँं। बर्फ
गिरने पर सामान्यतः भरमौर का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है, क्योंकि बर्फ गिरने से पूर्व भारी वर्षा होती है, जिससे कुछ चुनिंदा पहाड़ी नालों में निश्चितरूप से भूस्खलन हो जाता है। किंतु जब
तक यह सूचना मिली, हम चम्बा से आगे निकल चुके थे। उन्होंने मुझे
सुझाव दिया कि मैं चम्बा से बीस किलोमीटर दूर राख गाँव के लोक-निर्माण विभाग के विश्राम-गृह
में रुक जाऊँ। शाम के छह बज रहे थे। राख पहुँच कर हमने विश्राम-गृह के चौकीदार से बात
की। वह हमें कुछ रुपयों के बदले रुकने का स्थान देने को सहमत हो गया। अब तक बरसात भी
तेज हो गई थी। टैक्सी ड्रªाईवर भी मेरे साथ रुक
गया। राख गाँव में भोजन ढूँढ़ने पर कुछ खास नहीं मिला, तो राजमा और चावल खाकर हम विश्राम-गृह में सो रहे।
प्रातःकाल प्रबंधक महोदय ने मुझे फोन पर बताया कि कम्पनी के
एक अधिकारी चम्बा से कम्पनी की गाड़ी में भरमौर जा रहे हैं। उन्होंने यह भी बताया कि
भरमौर में बर्फबारी अधिक हुई है तथा भरमौर से कुछ किलोमीटर पहले ’चलैड़ धार’ नाम के भूस्खलन-बहुल
स्थान पर मार्ग अवरुद्ध हो गया है। चूँकि कम्पनी की गाड़ी उपलब्ध थी, अतः मैंने टैक्सी ड्राईवर को वहीं से पूरा किराया देकर वापस
भेज दिया तथा अधिकारी के साथ भरमौर चल पड़ा। चलैड़ धार तक हम जीप से सकुशल पहुँच गए।
इस स्थान पर मार्ग अत्यंत संकीर्ण है। सावधानीपूर्वक धार का पचास मीटर लम्बा खतरनाक
संकीर्ण मार्ग पार करने के पश्चात् अब हमें परियोजना कार्यालय तक पदयात्रा करनी थी।
चलैड़ धार से परियोजना कार्यालय की दूरी कोई नौ किलोमीटर थी।
मेरे साथी अधिकारी हमीरपुर जिले के रहने वाले थे, जो कि हिमाचल प्रदेश तथा पंजाब की सीमा पर स्थित है। पहाड़ी होने
के कारण वे पहाड़ी मार्गों पर पैदल चलने के अभ्यस्त थे, परंतु मेरे लिए वह अनुभव कठिनाई भरा था। भरमौर समुद्रतल से कोई 2400 मीटर की ऊँचाई पर है। वहीं परियोजना का बाँध 1500 मी. की ऊँचाई पर है। बाँध के पास ही परियोजना का कार्यालय था।
अतः हमें लगभग 800 मीटर की उतराई पैदल उतरना था। हिमपात इतना
था कि पैदल चलना कठिन हो रहा था। हम चम्बा-भरमौर मार्ग पर भरमौर से कोई तीन किलोमीटर
पहले ’सुकूँ की टपरी’ नाम के तिराहे पर पहुँचे। यहाँ से हमें ढलवाँ मार्ग से नीचे उतरना था। यह मार्ग
कोई चार-पाँच किलोमीटर लम्बा था। चूँकि उन अधिकारी को किसी कार्यवश शीघ्र कार्यालय
पहुँचना था, अतः उन्होंने मुरुम की सड़क के स्थान पर सीढ़ीनुमा
खेतों से होते हुए कार्यालय जाने का मार्ग चुना। यदि वे चाहते तो कम खड़ी उतराई वाले
मार्ग से मुझे ले जाते। परंतु उन्हें काम पर पहुँचने की हड़बड़ी थी तथा मेरी कठिनाई का
आभास भी नहीं था।
सीढ़ीनुमा खेतों से वह श्रीमान शीघ्रता के साथ नीचे उतर रहे थे।
चूँकि रात के आराम के पश्चात् मैं भी स्वस्थ्य महसूस कर रहा था, अतः कुछ देर तो जोश में मैं भी उनके साथ बराबरी से चलता रहा।
परंतु सीढ़ीनुमा खेतों की उतराई पर कुछ सौ मीटर चलने के पश्चत् मेरे घुटनों पर जोर पड़ने
लगा। पैर जवाब दे रहे थे, जांघें भर आई थीं,
किंतु उन महोदय ने बिना रुके उतरना जारी रखा। लगभग 800 मीटर की खड़ी चढ़ाई उतरने के पश्चात् मैं अधमरा हो चुका था तथा
किसी तरह प्रकार से नीचे उतर रहा था। लगभग घिसटते हुए जब मैं मानव संसाधन विभाग के
दफ््तर पहुँचा तो प्रबंधक ने मुझसे कहा ”बैठिए”। पीछे से व्यंग्यात्मक आवाज़ आई- ’बिठाओ नहीं, लिटाओ’। मुड़कर देखा तो यह कम्पनी का वह अफ़सर था जिसने मुझे कैम्प तक पहुँचाया था। उसके
होंठों पर एक कुटिलतापूर्ण मुस्कान थी। बहुत समय के बाद मुझे उसकी उस कुटिल मुस्कान
का अर्थ समझ में आया। संक्षेप में इतना कि वह मुझे परियोजना में टिकनेे नहीं देना चाहता
था (जो कि निजी क्षेत्र की नौकरियों का एक सामान्य अनुभव है, तथा जिसका मैं अब तक पूरी तरह से अभ्यस्त हो चुका था)। खैर,
चाय इत्यादि पीकर, पदभार ग्रहण
करने की औपचारिकता पूर्ण करने के पश्चात् मैं अपने सहकर्मियों से मुलाकात करता रहा।
इस दौरान मुझे पीठ पीछे हँसने की आवाजें सुनाई देती रहीं। मुड़ कर देखने पर सब ऐसा व्यवहार
कर रहे थे जैसे कि कुछ हुआ ही न हो।
कम्पनी ने मेरे रुकने का प्रबंध भरमौर के अतिथि-गृह में किया
था। मुझे फिर से आठ किलोमीटर पद यात्रा कर भरमौर पहुँचना था। अब तक मेरी जो दुर्दशा
हो चुकी थी, उसके पश्चात् यह आसान नहीं था। घुटनों तथा
जाँघों में तेज दर्द हो रहा था। उधर अब तक हिमपात तो पूरी तरह से रुक गया था,
परंतु मार्ग अब तक खुला नहीं था। मेरे अनुरोध करने पर कुछ लड़के
मेरे साथ कम चढ़ाई वाले मार्ग से चलने को तैयार हो गए। धीरे-धीरे चलते हुए हम लम्बे
रास्ते से पैदल चलकर हम भरमौर पहुँचे। जब मैं शाम को बिस्तर पर पहुँचा तो अधमरा था।
मोटे और मुलायम कम्बल में घुसते ही मुझे नींद आ गई और नींद के कारण खानसामे का लाया
भोजन टेबल पर ही रखा रह गया।
क्रमशः
पद्मनाभ गौतम
सहायक महाप्रबंधक
भूविज्ञान व
यांत्रिकी
तीस्ता चरण-टप्
जल विद्युत परियोजना
पूर्वी सिक्किम,
सिक्किम
737134
संपर्क-
द्वारा श्रीमती इन्द्रावती मिश्रा
स्कूल पारा
बैकुण्ठपुर
जिला-कोरिया
छ.ग.
497335
बुधवार, 4 नवंबर 2015
संस्मरण - लौट के बुद्धू घर को आए (भाग-एक)-पद्मनाभ गौतम
कवि मित्र पद्मनाभ गौतम के पहाड़ी अनुभवों को उनके संस्मरण - ‘ लौट के बुद्धू घर को आए ’ को आज से पढ़ेंगे किस्तों में । आपके विचारों की प्रतीक्षा में-
सम्पादक -पुरवाई
हिमाचल प्रदेश का भरमौर कस्बा उन कुछ स्थानों में से एक है, जिसे हिमाचल प्रदेश के दुर्गम स्थानों में से एक कहा जाता है। पांगी-भरमौर, लाहौल-स्पीति घाटी, किन्नौर का ’कोल्ड डेजर्ट’ काजा, रिकांगपियो और पूह, इन सभी स्थानों में जीवन अत्यंत कठिन माना जाता है। एक समय था, जब किसी सरकारी कर्मचारी को एक नियत समय तक तक पांगी-भरमौर तथा अन्य ऐसे ही चिन्हित दूरस्थ क्षेत्रों में अनिवार्य सेवा देनी होती थी। यह अनिवार्य सेवाकाल काला-पानी का दण्ड माना जाता था, जिसे कर्मचारी चिकित्सा तथा अन्य अर्जित अवकाश तथा फरलो के सहारे काटते। किसी ईमानदार कर्मचारी को अघोषित दण्ड देने के लिए भी उनकी पदस्थापना इन दुर्गम क्षेत्रों में कर दी जाती थी। वैसे तो सड़क निर्माण का कार्य करने वाले सरकारी संस्थानों ग्रेफ व सीमा सड़क संगठन ने इन दूरस्थ क्षेत्रों में काम चलाऊ इकहरे मार्ग बना दिए हैं, जो कि अब कहीं कहीं दोहरे मार्गों में भी परिवर्तित किए जा रहे हैं, फिर भी आज भी इन क्षेत्रों तक पहुँचना एक कठिनाई भरा अनुभव ही होता है। अपनी नौकरी के सिलसिले में मैंने भी भरमौर में लगभग दो वर्ष का समय बिताया। यद्यपि भरमौर का वह समय हमारे लिए सुखद ही रहा, परंतु नौकरी का पदभार ग्रहण करने का एक पखवाड़ा मेरे जीवन में एक ऐसा अनुभव दे गया जिसकी स्मृति आज भी तन में कंपकंपी उत्पन्न कर देती है।
यह किस्सा पिछले दशक का है। वर्ष दो हजार आठ के जनवरी माह के अंतिम सप्ताह में मैंने हिमाचल प्रदेश के चम्बा जिले की भरमौर तहसील में नई नौकरी का पदभार ग्रहण किया था। हिमाचल के ही किन्नौर जिले के रामपुर-बुशैहर नगर के पास निर्माणाधीन रामपुर जल विद्युत परियोजना में कार्य करते हुए यद्यपि मुझे अधिक समय व्यतीत नहीं हुआ था, किंतुु वह कार्य मेरे मनोनुकूल नहीं था। अतः जैसे ही पहला अवसर हाथ में आया, मैंने रामपुर जल विद्युत परियोजना से त्यागपत्र दे दिया तथा बुधिल जल विद्युत परियोजना में नौकरी के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। नवीन कार्य मेरी रूचि के अनुकूल था। यहाँ मुझे यांत्रिक-भूगर्भशास्त्री के रूप में परियोजना के प्रमुख भूविज्ञानी का दायित्व निभाना था। पुरानी नौकरी में जहाँ मुझे सरकारी नुमाइंदों के इशारों पर नाचना पड़ रहा था, ़वहीं अब मैं गुणवत्तापरक इंजीनियरिंग निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र था। यहाँ पर मैं अपने पद के दायित्व का निर्वहन पूर्ण ईमानदारी के साथ कर सकता था।
जब मैंने पद भार ग्रहण करने हेतु भरमौर के लिए प्रस्थान किया, तो कुछ समय के लिए परिवार को रामपुर-बुशैहर में ही छोड़ना पड़ा। कारण कि पदभार ग्रहण करने के पश्चात् सर्वप्रथम मुझे भरमौर में परिवार के रहने हेतु आवास की व्यवस्था करनी थी। कम्पनी के अतिथि-गृह में इतनी जगह नहीं होती कि मैं अपनी गृहस्थी का सामान उसमें रख पाता। चूँकि भरमौर में मकान की व्यवस्था के पश्चात् ही परिवार मेरे साथ जा सकता था, अतः पत्नी को बच्चों के साथ एक पखवाड़े के लिए रामपुर ही छोड़ गया था। तब मेरे बच्चे भी बहुत छोटे थे - बेटा मानस साढ़े चार साल का तथा बेटी सिद्धी केवल सवा दो माह की। उन्हें अपनी सहृदय मकान-मालकिन श्रीमती गौतम तथा पड़ोसियों के आसरे छोड़ कर एक दिन मैं भरमौर को निकल पड़ा।
क्रमशः
पद्मनाभ गौतम
सहायक महाप्रबंधक
भूविज्ञान व यांत्रिकी
तीस्ता चरण-टप् जल विद्युत परियोजना
पूर्वी सिक्किम, सिक्किम
737134
संपर्क
द्वारा श्रीमती इन्द्रावती मिश्रा
स्कूल पारा बैकुण्ठपुर
जिला-कोरिया छ.ग.
497335
स्कूल पारा बैकुण्ठपुर
जिला-कोरिया छ.ग.
497335
मंगलवार, 18 अगस्त 2015
पद्मनाभ गौतम की कविताएं
पद्मनाभ गौतम
कवि अपने आस पास के परिवेश से बखूबी
परिचित है। यही वजह है कि कविताएं यथार्थ के धरातल पर मूर्त रूप लेती चली जाती हैं।
और कविता का नया वितान रचते हुए जीवन के संघर्ष और सौंदर्य को एक साथ रेखांकित करती
हैं। तो आज पढ़ते हैं पद्मनाभ गौतम की कुछ कविताएं।
1. बैकुण्ठपुर
मेरे प्रिय शहर,
रहना इतने अरसे तक दूर
कि भूल जाते तुम मुझे
और मैं तुमको,
कि इस बीच देखी मैंने दुनिया
बहुत-बहुत खूबसूरत/
देखा तुमने बदल जाना
एक पूरी पीढ़ी का
इस
बीच बिताए दिन मैंने
लोहित, दिबांग, सियोम के तीर पर
देखा उफनते रावी, सतलज, चनाब को
समंदर सी ब्रह्मपुत्र के सैलाब को
देखी
कतारें चिनारों की
चीड़ और दईहारों* की
बर्फ से अटे पहाड़
और मीनाबाज़ार
भूल-भुलैया ऐसी
कि भूलना था मुनासिब
कि भूल जाते तुम मुझे
भूल ही जाता मैं भी तुम्हें
मेरे
प्यारे शहर,
मुमकिन होता भूलना
अगर उलीच न जाता कोई
यादों के झरोखे से
मेरे चेहरे पर
गेज का मटियाला पानी,
अधखुली आंखों में यदि उतर न आते
कठगोड़ी के बौने पहाड़,
और सोनहत के शिव घाट पर
हमारा मधुचन्द्र भी
अब
भी ढांप लेती है मुझको
किसी चादर सा,
झुमका बांध पर तैरती
चांद की सुनहली छाया,
झुमका के कंपकपाते पानियों पर
पसरता है जब चांद का रंग
आ
जाते हैं सपनों में अकसर,
चेहरे,
एक रोज बिछड़े थे जो
गेज के नदी के घाट पर,
और हंसता है खिलखिलाकर
एक बच्चा
रामानुज स्कूल की मीनार से
भटक
जाता हूं जब मैं
चीड़ के गंधहीन जंगलों में,
सरई फूलों की मदमाती गंध
देती है सदाएं चिरमिरी घाट से
मैं
तुमसे मीलों दूर
और तुम मुझसे
फिर भी मेरे भीतर बसते हो तुम
ओ प्रिय शहर
और मेरी रगों से गुजरती है
तुम्हारी सड़कें
है
परदेस की दुनिया
तुमसे बहुत-बहुत सुन्दर,
और कुछ नहीं देने को
दुनियावी तुम्हारे पास,
कि पूरे शहर भी नहीं तुम
शहर के पैमाने पर,
फिर भी लौट कर आना है
मुझको वापस एक दिन,
तुम्हारे पास
ओ
हरे-नीले पानियों से लबरेज नदियों
माफ करना, कि बहुत खूबसूरत हो तुम
पर मेरा इश्क तो गेज है
सुनो, कि एक दिन बह जाना है
मुझको भी सदा के लिए,
गेज नदी के प्यार में
गेज नदी की धार में।
*दईहार=देवदार
2. पिता
जब तक थे पिता,
परे था कल्पनाओं से
पिता की अनुपस्थिति में
जीवन
पिता की उपस्थिति
तृप्ति नहीं थी इच्छाओं
की
या सुरक्षा का आभास,
कठिन नहीं होता तब
काटना
एक चैथाई सदी
पितृछाया से दूर
धूप विहीन पूस
छांव विहीन जेठ
जल विहीन वर्षा
रंग-गंध हीन बसंत
इससे भी कहीं ऊपर था
पिता के न होने का अर्थ
पिता की याद को
धुंधलाते
लौट आए रंग भी
त्यौहारों में
दीवाली के दियों में
रौशन हुई बातियां
बस जीवन की डायरी में
एक चौथाई सदी से
रिक्त है एक स्थान
स्थान जो है पिता के
अंतिम वस्त्र सा श्वेत
स्थान जो भर नहीं पाता
किसी भी रंग की स्याही
से
अब भी नहीं
समझ पाता हूं,
कि क्या खोया हमने
पिता की अनुपस्थिति में
और कितना।
संपर्क-
पद्मनाभ गौतम
बैकुण्ठपुर, जिला-कोरिया
छत्तीसगढ़, पिन-497335
मो.-8170028306
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