कवि मित्र पद्मनाभ गौतम के पहाड़ी अनुभवों को उनके संस्मरण - ‘ लौट के बुद्धू घर को आए ’ की दूसरी किस्त-- । आपके विचारों की प्रतीक्षा में-
सम्पादक -पुरवाई
सम्पादक -पुरवाई
इस नई नौकरी में मेरे पद भार ग्रहण करने का अनुभव ही अत्यंत
नाटकीय रहा। अट्ठाईस जनवरी दो हजार आठ को मैंने रामपुर से भरमौर हेतु प्रस्थान किया
तथा शिमला-कालका-अम्बाला कैंट के रास्ते उन्तीस जनवरी को प्रातः दस बजे पठानकोट पहुँचा।
पठानकोट से भरमौर का मार्ग तकरीबन आठ घण्टे का है। लगभग पाँच घण्टे चम्बा और फिर वहाँ
से तीन घंटे के आस-पास भरमौर। यह मार्ग बनीखेत होते हुए चम्बा जाने का अपेक्षाकृत कम
घुमावदार पर्वतीय मार्ग है। डलहौजी-खज्जियार होकर चम्बा जाने के मार्ग में मोड़ अधिक
हैं, अतः सामान्यतः पहला मार्ग ही अधिक उपयोग होता है। मैंने एक टैक्सी
वाले से बात की जो मुझे भरमौर छोड़ने को तैयार हो गया। हम प्रातः काल लगभग साढ़े ग्यारह
के आस-पास बनीखेत के मार्ग से भरमौर के लिए निकल पड़े।
हमें रावी नदी के किनारे मनोरम पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य यात्रा
कर चम्बा पहुँचते शाम के चार बज गए थे । देर हो रही थी अतः हम चम्बा में रुके बिना
आगे बढ़ गए। हल्की बूंदा-बांदी हो रही थी। मैंने कम्पनी के मानव संसाधन विभाग के प्रबंधक
पाण्डेयजी से संपर्क किया, तो उन्होंने जानकारी
दी कि भरमौर में बर्फबारी हो रही है। उनकी सलाह थी कि मैं चम्बा ही रुक जाऊँं। बर्फ
गिरने पर सामान्यतः भरमौर का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है, क्योंकि बर्फ गिरने से पूर्व भारी वर्षा होती है, जिससे कुछ चुनिंदा पहाड़ी नालों में निश्चितरूप से भूस्खलन हो जाता है। किंतु जब
तक यह सूचना मिली, हम चम्बा से आगे निकल चुके थे। उन्होंने मुझे
सुझाव दिया कि मैं चम्बा से बीस किलोमीटर दूर राख गाँव के लोक-निर्माण विभाग के विश्राम-गृह
में रुक जाऊँ। शाम के छह बज रहे थे। राख पहुँच कर हमने विश्राम-गृह के चौकीदार से बात
की। वह हमें कुछ रुपयों के बदले रुकने का स्थान देने को सहमत हो गया। अब तक बरसात भी
तेज हो गई थी। टैक्सी ड्रªाईवर भी मेरे साथ रुक
गया। राख गाँव में भोजन ढूँढ़ने पर कुछ खास नहीं मिला, तो राजमा और चावल खाकर हम विश्राम-गृह में सो रहे।
प्रातःकाल प्रबंधक महोदय ने मुझे फोन पर बताया कि कम्पनी के
एक अधिकारी चम्बा से कम्पनी की गाड़ी में भरमौर जा रहे हैं। उन्होंने यह भी बताया कि
भरमौर में बर्फबारी अधिक हुई है तथा भरमौर से कुछ किलोमीटर पहले ’चलैड़ धार’ नाम के भूस्खलन-बहुल
स्थान पर मार्ग अवरुद्ध हो गया है। चूँकि कम्पनी की गाड़ी उपलब्ध थी, अतः मैंने टैक्सी ड्राईवर को वहीं से पूरा किराया देकर वापस
भेज दिया तथा अधिकारी के साथ भरमौर चल पड़ा। चलैड़ धार तक हम जीप से सकुशल पहुँच गए।
इस स्थान पर मार्ग अत्यंत संकीर्ण है। सावधानीपूर्वक धार का पचास मीटर लम्बा खतरनाक
संकीर्ण मार्ग पार करने के पश्चात् अब हमें परियोजना कार्यालय तक पदयात्रा करनी थी।
चलैड़ धार से परियोजना कार्यालय की दूरी कोई नौ किलोमीटर थी।
मेरे साथी अधिकारी हमीरपुर जिले के रहने वाले थे, जो कि हिमाचल प्रदेश तथा पंजाब की सीमा पर स्थित है। पहाड़ी होने
के कारण वे पहाड़ी मार्गों पर पैदल चलने के अभ्यस्त थे, परंतु मेरे लिए वह अनुभव कठिनाई भरा था। भरमौर समुद्रतल से कोई 2400 मीटर की ऊँचाई पर है। वहीं परियोजना का बाँध 1500 मी. की ऊँचाई पर है। बाँध के पास ही परियोजना का कार्यालय था।
अतः हमें लगभग 800 मीटर की उतराई पैदल उतरना था। हिमपात इतना
था कि पैदल चलना कठिन हो रहा था। हम चम्बा-भरमौर मार्ग पर भरमौर से कोई तीन किलोमीटर
पहले ’सुकूँ की टपरी’ नाम के तिराहे पर पहुँचे। यहाँ से हमें ढलवाँ मार्ग से नीचे उतरना था। यह मार्ग
कोई चार-पाँच किलोमीटर लम्बा था। चूँकि उन अधिकारी को किसी कार्यवश शीघ्र कार्यालय
पहुँचना था, अतः उन्होंने मुरुम की सड़क के स्थान पर सीढ़ीनुमा
खेतों से होते हुए कार्यालय जाने का मार्ग चुना। यदि वे चाहते तो कम खड़ी उतराई वाले
मार्ग से मुझे ले जाते। परंतु उन्हें काम पर पहुँचने की हड़बड़ी थी तथा मेरी कठिनाई का
आभास भी नहीं था।
सीढ़ीनुमा खेतों से वह श्रीमान शीघ्रता के साथ नीचे उतर रहे थे।
चूँकि रात के आराम के पश्चात् मैं भी स्वस्थ्य महसूस कर रहा था, अतः कुछ देर तो जोश में मैं भी उनके साथ बराबरी से चलता रहा।
परंतु सीढ़ीनुमा खेतों की उतराई पर कुछ सौ मीटर चलने के पश्चत् मेरे घुटनों पर जोर पड़ने
लगा। पैर जवाब दे रहे थे, जांघें भर आई थीं,
किंतु उन महोदय ने बिना रुके उतरना जारी रखा। लगभग 800 मीटर की खड़ी चढ़ाई उतरने के पश्चात् मैं अधमरा हो चुका था तथा
किसी तरह प्रकार से नीचे उतर रहा था। लगभग घिसटते हुए जब मैं मानव संसाधन विभाग के
दफ््तर पहुँचा तो प्रबंधक ने मुझसे कहा ”बैठिए”। पीछे से व्यंग्यात्मक आवाज़ आई- ’बिठाओ नहीं, लिटाओ’। मुड़कर देखा तो यह कम्पनी का वह अफ़सर था जिसने मुझे कैम्प तक पहुँचाया था। उसके
होंठों पर एक कुटिलतापूर्ण मुस्कान थी। बहुत समय के बाद मुझे उसकी उस कुटिल मुस्कान
का अर्थ समझ में आया। संक्षेप में इतना कि वह मुझे परियोजना में टिकनेे नहीं देना चाहता
था (जो कि निजी क्षेत्र की नौकरियों का एक सामान्य अनुभव है, तथा जिसका मैं अब तक पूरी तरह से अभ्यस्त हो चुका था)। खैर,
चाय इत्यादि पीकर, पदभार ग्रहण
करने की औपचारिकता पूर्ण करने के पश्चात् मैं अपने सहकर्मियों से मुलाकात करता रहा।
इस दौरान मुझे पीठ पीछे हँसने की आवाजें सुनाई देती रहीं। मुड़ कर देखने पर सब ऐसा व्यवहार
कर रहे थे जैसे कि कुछ हुआ ही न हो।
कम्पनी ने मेरे रुकने का प्रबंध भरमौर के अतिथि-गृह में किया
था। मुझे फिर से आठ किलोमीटर पद यात्रा कर भरमौर पहुँचना था। अब तक मेरी जो दुर्दशा
हो चुकी थी, उसके पश्चात् यह आसान नहीं था। घुटनों तथा
जाँघों में तेज दर्द हो रहा था। उधर अब तक हिमपात तो पूरी तरह से रुक गया था,
परंतु मार्ग अब तक खुला नहीं था। मेरे अनुरोध करने पर कुछ लड़के
मेरे साथ कम चढ़ाई वाले मार्ग से चलने को तैयार हो गए। धीरे-धीरे चलते हुए हम लम्बे
रास्ते से पैदल चलकर हम भरमौर पहुँचे। जब मैं शाम को बिस्तर पर पहुँचा तो अधमरा था।
मोटे और मुलायम कम्बल में घुसते ही मुझे नींद आ गई और नींद के कारण खानसामे का लाया
भोजन टेबल पर ही रखा रह गया।
क्रमशः
पद्मनाभ गौतम
सहायक महाप्रबंधक
भूविज्ञान व
यांत्रिकी
तीस्ता चरण-टप्
जल विद्युत परियोजना
पूर्वी सिक्किम,
सिक्किम
737134
संपर्क-
द्वारा श्रीमती इन्द्रावती मिश्रा
स्कूल पारा
बैकुण्ठपुर
जिला-कोरिया
छ.ग.
497335
अच्छा प्रयास है चौहान साहब बधाई दोनों बंधुओं को..
जवाब देंहटाएंवर्णन ,विवरण काफी कुछ कहता है .
जवाब देंहटाएंलोगो के व्यवहार का पूर्वानुभव ही आपको मजबूती दिया बहुत अच्छा व्याख्यान आपके अनुभवों का
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