पद्मनाभ गौतम
कवि अपने आस पास के परिवेश से बखूबी
परिचित है। यही वजह है कि कविताएं यथार्थ के धरातल पर मूर्त रूप लेती चली जाती हैं।
और कविता का नया वितान रचते हुए जीवन के संघर्ष और सौंदर्य को एक साथ रेखांकित करती
हैं। तो आज पढ़ते हैं पद्मनाभ गौतम की कुछ कविताएं।
1. बैकुण्ठपुर
मेरे प्रिय शहर,
रहना इतने अरसे तक दूर
कि भूल जाते तुम मुझे
और मैं तुमको,
कि इस बीच देखी मैंने दुनिया
बहुत-बहुत खूबसूरत/
देखा तुमने बदल जाना
एक पूरी पीढ़ी का
इस
बीच बिताए दिन मैंने
लोहित, दिबांग, सियोम के तीर पर
देखा उफनते रावी, सतलज, चनाब को
समंदर सी ब्रह्मपुत्र के सैलाब को
देखी
कतारें चिनारों की
चीड़ और दईहारों* की
बर्फ से अटे पहाड़
और मीनाबाज़ार
भूल-भुलैया ऐसी
कि भूलना था मुनासिब
कि भूल जाते तुम मुझे
भूल ही जाता मैं भी तुम्हें
मेरे
प्यारे शहर,
मुमकिन होता भूलना
अगर उलीच न जाता कोई
यादों के झरोखे से
मेरे चेहरे पर
गेज का मटियाला पानी,
अधखुली आंखों में यदि उतर न आते
कठगोड़ी के बौने पहाड़,
और सोनहत के शिव घाट पर
हमारा मधुचन्द्र भी
अब
भी ढांप लेती है मुझको
किसी चादर सा,
झुमका बांध पर तैरती
चांद की सुनहली छाया,
झुमका के कंपकपाते पानियों पर
पसरता है जब चांद का रंग
आ
जाते हैं सपनों में अकसर,
चेहरे,
एक रोज बिछड़े थे जो
गेज के नदी के घाट पर,
और हंसता है खिलखिलाकर
एक बच्चा
रामानुज स्कूल की मीनार से
भटक
जाता हूं जब मैं
चीड़ के गंधहीन जंगलों में,
सरई फूलों की मदमाती गंध
देती है सदाएं चिरमिरी घाट से
मैं
तुमसे मीलों दूर
और तुम मुझसे
फिर भी मेरे भीतर बसते हो तुम
ओ प्रिय शहर
और मेरी रगों से गुजरती है
तुम्हारी सड़कें
है
परदेस की दुनिया
तुमसे बहुत-बहुत सुन्दर,
और कुछ नहीं देने को
दुनियावी तुम्हारे पास,
कि पूरे शहर भी नहीं तुम
शहर के पैमाने पर,
फिर भी लौट कर आना है
मुझको वापस एक दिन,
तुम्हारे पास
ओ
हरे-नीले पानियों से लबरेज नदियों
माफ करना, कि बहुत खूबसूरत हो तुम
पर मेरा इश्क तो गेज है
सुनो, कि एक दिन बह जाना है
मुझको भी सदा के लिए,
गेज नदी के प्यार में
गेज नदी की धार में।
*दईहार=देवदार
2. पिता
जब तक थे पिता,
परे था कल्पनाओं से
पिता की अनुपस्थिति में
जीवन
पिता की उपस्थिति
तृप्ति नहीं थी इच्छाओं
की
या सुरक्षा का आभास,
कठिन नहीं होता तब
काटना
एक चैथाई सदी
पितृछाया से दूर
धूप विहीन पूस
छांव विहीन जेठ
जल विहीन वर्षा
रंग-गंध हीन बसंत
इससे भी कहीं ऊपर था
पिता के न होने का अर्थ
पिता की याद को
धुंधलाते
लौट आए रंग भी
त्यौहारों में
दीवाली के दियों में
रौशन हुई बातियां
बस जीवन की डायरी में
एक चौथाई सदी से
रिक्त है एक स्थान
स्थान जो है पिता के
अंतिम वस्त्र सा श्वेत
स्थान जो भर नहीं पाता
किसी भी रंग की स्याही
से
अब भी नहीं
समझ पाता हूं,
कि क्या खोया हमने
पिता की अनुपस्थिति में
और कितना।
संपर्क-
पद्मनाभ गौतम
बैकुण्ठपुर, जिला-कोरिया
छत्तीसगढ़, पिन-497335
मो.-8170028306
जीवन से संवाद करती कविताएं......
जवाब देंहटाएंभाई आरसी चैहान और भाई प्रदीप मालवाजी आपका धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंसहज व गंभीर कविताएँ..बधाई……
जवाब देंहटाएंउम्दा कवितायेँ.......सशक्त लेखन......
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मुकेश जी और बागड़ी भाई।
जवाब देंहटाएंमैंने पढ़ा भैया । निस्संदेह आपकी लेखनी हमारे शहर का गौरव है।
जवाब देंहटाएंBrijnarayan Mishra
धन्यवाद सोनू भइया। आपका मार्गदर्शन उत्साहवर्द्धक है।
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