रविवार, 30 दिसंबर 2018

राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं -




        हिमाचल प्रदेश के सुदूर पहाड़ी गांव से कविताओं की अलख जगाए राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं किसी पहाड़ी झरने की तरह मंत्र मुग्ध कर देने के साथ आपको यथार्थ के धरातल सा वास्तविक आभास भी कराती हैं। कवि के कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं है। बिल्कुल पहाड़ी नदियों की तरह निश्चल और पवित्र हैं इनकी कविताएं। गांव , नदी , पहाड़  ,जंगल , घाटियां नया आयाम देती हैं इनकी कविताओं को ।

   
     बकौल राजीव कुमार त्रिगर्ती - गांव से हूं ,आज भी समय के साथ करवट बदलते गांव से ही वास्ता है। जीवन का वह हिस्सा जब हाथ लेखनी पकड़ने के लिए बेताब थाए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के माहौल में बीता। वाराणसी की खरपतवार और रासायनिक उर्वरक. रहित साहित्य की भूमि में कब कवित्व का बीज अंकुरित हुआ कुछ पता ही नहीं चला। भीतर के उद्गारों को अपने ढंग से व्यक्त कर पाने की हसरत से ज्यादा आत्मसंतुष्टि शायद ही कहीं होती हो। असल में पहाड़  ,जंगल , घाटियों , कलकलाती नदियां हैं तभी तो पहाड़ में प्रेम है। इनके होने से ही जीवन जटिल है तभी तो पहाड़ में पीड़ा है। यहां प्रेम और पीड़ा का सामांजस्य अनंत काल से सतत प्रवाहित है। प्रकृति के सानिध्य में सुख दुख के विविध रूपों को उभारना अच्छा लगता है। मेरे लिए यह बहुत है कि प्रकृति के सानिध्य में भीतर के उद्गारों को व्यक्त करने का एक खूबसूरत तरीका मिल गया है। भीतर के उद्गार को अपने ही शब्दों में व्यक्त करने के आनंद की पराकाष्ठा नहीं और यह आनंद ही मेरे लिए सर्वोपरि है। 
 
 राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं -


1- ऐसे ही


जब रोने को आता हूं
तो लगता है हंसा दोगी तुम
कुछ हंसी भरा सुनाकर
गुदगुदी लगाकर
या यूॅं ही बेताब मुस्कुराकर
और मैं चुपचाप हॅंसने लगता हूं,

जब सोने को आता हूं
तो लगता है उत्पन्न कर दोगी 
एक दीर्घ निःश्वास के साथ
सारे शरीर में सिरहन
और जगा दोगी तुम
एक आत्मिक अनुभूति तक,

जब खोने को आता हूं
तो लगता है मिला दोगी तुम
अपने बहाने मुझसे मुझको
अपने होने के एहसास भर से
भर देती हो अस्तित्व की नींव
और मैं लौट आता हूं
किसी अज्ञात दलदल से
अपनी देह को बचाता हुआ

ऐसे ही रात बीत जाती है
दिन होने को आता है
दिल रोने को आता है
बार-बार सोने को आता है
सोये-सोये खोने को आता है
दिन भर में एक भी पल
कहॉं कुछ होने को आता है
तुम्हारे न होने पर।

2-एक-दूसरे के लिए हम


एक-दूसरे को जानने समझने के लिए
यह कितना जरूरी है कि
हम चलें कुछ कदम साथ-साथ
आयें एक-दूसरे के पास
और इस सामीप्य में समझें
एक-दूसरे के अन्तर्मन
या समझें एक-दूसरे को समझभर,

एक-दूसरे को जानने समझने के लिए
यह कितना जरूरी है कि
हम गर्मजोशी के साथ करें
एक-दूसरे का स्वागत
करें आपस में खुलकर बात
वक्त-बेवक्त जब भी करें मुलाकात
एक दूसरे की सहमति-असहमति को
सम्मान के साथ करें अंगीकार,

यदि हम साथ-साथ
कदम नहीं बढ़ा सकते
एक-दूसरे को अन्तस् की बात
नहीं बता सकते
तो कम से कम
जब भी हों हम आमने-सामने
तो अदब से एक-दूसरे के लिए
सिर तो झुका सकते हैं
एक-दूसरे की ओर
चॉंदी का वर्क चढ़ी
मुस्कान तो उड़ा सकते हैं
ऊबड़-खाबड़ जिन्दगी में
एक-दूसरे के बहाने ही सही
सुकून तो ला सकते हैं।


संपर्क-


राजीव कुमार ‘‘त्रिगर्ती’’
गॉंव-लंघू, डाकघर-गॉंधीग्राम
तह0-बैजनाथ, जिला-कॉंगड़ा
हि0प्र0 176125
94181-93024

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