शुक्रवार, 16 मार्च 2012

प्रेम नंदन की दो कविताएं


          25 दिसम्बर 1980 को उत्तर प्रदेश में  फतेहपुर जनपद के फरीदपुर नामक गांव में जन्में प्रेमचंद्र नंदन ने लेखन और आजीविका की शुरुआत पत्रकारिता से की । लगभग दो वर्षों तक पत्रकारिता करने और कुछ वर्षों तक इधर-उधर भटकने के उपरांत अध्यापन के साथ-साथ कविताएँ, कहानियाँ, लघुकथाएँ एवं समसामयिक लेखों आदि का लेखन एवं विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन। एक कविता संकलन -सपने जिंदा हैं अभी , 2005 में प्रकाशित ।

            नंदन जी की कविताएं यथार्थ के जिस धरातल पर लिखी गयी हैं कविता का यथार्थ और जीवन का यथार्थ अलग अलग नहीं है। इनकी कविता में जन सामान्य की संघर्षशील चेतना की अभिव्यक्ति नाना रूपों में हुई है।इनकी कविता के केन्द्रीय चरित्र सामान्य जन ही हैं जो अपनी मिट्टी में रचे बसे हैं। ग्रामीण शोषण की प्रक्रिया और रूढ़ियां कवि की चेतना को उद्वेलित करती हैं। बड़े सपने बनाम छोटे सपने  नामक कविता में बखूबी देखा जा सकता है।

          यहां एक ऐसा भी समाज है , जो पूंजी की ताकत से वर्तमान को इतना बर्बाद कर रहा है कि भविष्य स्वंयमेव नष्ट हो जाए।यही सब स्थितियां  भ्रष्टाचार और शोषण को बढ़ावा दे रही हैं। यह विडम्बना ही है कि एक ओर सम्पन्न वर्ग बेहिसाब संपत्ति का मालिक बनता जा रहा है, तो दूसरी ओर गरीब और गरीब होता जा रहा है। सामाजिक क्षोभ और लोक की पीड़ा दोनों ने कवि की कविता को बल प्रदान किया है।


यहां प्रस्तुत है प्रेमचंद्र नंदन की दो कविताएं
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बड़े सपने बनाम छोटे सपने
 
एक अरब से अधिक
आबादी वाले इस देश में
मुटठी भर लोगों के
बड़े-बड़े सपनों
और बड़ी-बड़ी फैक्टियों
शानदार हालीडे रिसार्टस.... से बना
विकास रथ चल रहा है
किसानों-मजदूरों की छाती पर
ये बनाना और बेचना चाहते हैं
मोबाइल, कंप्यूटर, कार
ब्रांडेड कपड़े,मॅंहगी ज्वैलरी़.....
उन लोगों को
आजादी के इतने सालों बाद भी
जिनकी रोटी
छोटी होती जा रही है
और काम पहुंच से बाहर
जिनके छोटे-छोटे सपने
इसमें ही परेशान हैं
कि अगली बरसात
कैसे झेलेंगे इनके छप्पर
भतीजी की शादी में
कैसे दें एक साड़ी
कैसे खरीदें-
अपने लिए टायर के जूते
और घरवाली के लिए
एक चांदी का छल्ला
जिसके लिए रोज मिलता रहा है उलाहना
शादी के लेकर आज तक
लेकिन इन मुटठी भर लोगों के
बड़े सप
नों के बीच
कोई जगह नहीं है
आम आदमी के छोटे सपनों की 
   

               
 जिंदगी को जी भरकर जीना है

                                        
जिंदगी को
व्यवस्थित करने के चक्कर
में
आजीवन अव्यस्थित रहे
कभी समाज,
कभी परिवार
तो कभी स्वयं अपनी नजरों में
फूल के बीच शूल की तरह स्थित रहे
तथाकथित अप
नों में
अजनबी बने रहे
स्वार्थो की लिजलिजी डोर से तने रहे
अपनी मूर्खताओं और चालाकियों के चलते
कभी किसी रिश्ते को
खुश नहीं रख सके
जिंदगी के स्वाद को
ठीक से न चख सके  
अनियंत्रित इच्छाओं की
रपटीली आपाधापी में
कभी अंधी परंपराओं की
बेड़ियों में बंधे रहे
कभी नंगी आधुनिकता के दलदल
में धंसे रहे
इंसान होने की
अपनी सीमा को रोना रोते-रोते
हर सीने में चुभते रहे
हर ऑंख खटकते रहे
पैरों में मृगमरीचिका थी
उम्र भर भटकते रहे
बहुत.... देर बाद समझे
जिंदगी तो अक्खड़ है
कबीर-सी फक्कड़ है
किसी भी नाथ से नथती नहीं है
किसी भी खूंटे से बंधती नहीं हैं
इसीलिए अब इसको
जी भरकर जीना है
घूंट-घूंट पीना है
कल और कल के चक्कर को छोड़कर
आज में जीना है
जी भरकर जीना है।
                      
संपर्क-
                         अंतर्नाद                     
                         उत्तरी शकुननगर, फतेहपुर उ0प्र0
                        मोबाइल-09336453835

4 टिप्‍पणियां:

  1. आजादी के इतने सालों बाद भी
    जिनकी रोटी
    छोटी होती जा रही है
    और काम पहुंच से बाहर


    behtarin kavita..badhai........

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    उत्तर
    1. मेरे शब्दों के हमसफ़र बनने के लिए आपका हार्दिक आभार !

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  2. उत्तर
    1. आपका हार्दिक आभार , आशा है , आगे भी हौसलाअफजाई करती रहेंगी !

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