भरत प्रसाद 01 अगस्त 1971 को उत्तर प्रदेश के संत कबीर नगर जनपद में हरपुर नामक गांव में जन्में भरत प्रसाद ने समस्त शैक्षिक डिग्रियां प्रथम श्रेणी में पास की है। पेशे से अध्यापन। सहायक प्रोफेसर हिन्दी विभाग पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय शिलांग मेघालय में । भूरी-भूरी खाक धूल काव्य संग्रह में मुक्तिबोध की युग चेतना में एम0 फिल0 तथा समकालीन हिन्दी कविता में अभिव्यक्त समाज और संस्कृति में पी0 एच0 डी0। अब तक इनकी- और फिर एक दिन कहानी संग्रह देसी पहाड़ परदेसी लोग लेख संग्रह एक पेड़ की आत्म कथा काव्य संग्रह प्रकाशीत एवं सृजन की इक्कीसवीं सदी लेख संग्रह प्रकाशीत । अनियतकालीन पत्रिका- साहित्य वार्ता का दो वर्षों तक संपादन एवं हिन्दी साहित्य की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन के साथ ही परिकथा पत्रिका के लिए ताना बाना शीर्षक से नियमित स्तंभ लेखन। इनके लेख एवं कविताओं का पंजाबी एवं बांग्ला में अनुवाद।
पुरस्कार. 1.सृजन सम्मान 2005 रायपुर छत्तीसगढ़ 2.अम्बिका प्रसाद दिब्य रजत अलंकरण 2008 भोपाल म0 प्र0
कैसे कह दूँ
क्या हमारी शरीर में ऊँची जगह पाकर हमारा मस्तिष्क सार्थक हो उठा ? क्या हमारी आँखें सम्पूर्ण हो गईंए हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बनकर ?
क्या हमने अन्धकार के पक्ष में बोलने से बचा लिया ख़ुद को ?
क्या सीने पर हाथ रखकर कह सकता हूँ मैं कि अपने हृदय के कार्य में कभी कोई बाधा नहीं डाली ? आत्मा की गहराइयों से उठे हुए विचारों की क्या मैं हत्या नहीं कर देता ?
दरअसल अपनी गहन भावनाओं का सम्मान करने वाला मैं उचित पात्र ही नहीं हूँ । वे इस कायर ढॉचे में क्यों उमड़ती हैं ?
छटपटाकर मरती हुई अन्तर्दृष्टि से प्रार्थना है- कि वे इस जेलखाने को तोड़कर कहीं और भाग जाएँ ।
अपनी अन्तर्ध्वनि का तयपूर्वक मैंने कितनी बार गला घोंटा है कौन जाने ?
पूरी शरीर को ता.उम्र कछुआ बने रहने का रोग लग चुका है हाथ.पैरए आँख.कान.मुँह आज तक अपना औचित्य सिद्ध ही नहीं कर पाए करना था कुछ और तो कर डालते हैं कुछ और दृश्य.अदृश्य न जाने कितने भय और आतंक से सहमकर पेट में सिकुड़े रहते हैं हर पल ।
मेरा अतिरिक्त शातिर दिमाग़ शतरंज को भी मात देता है भीतरी के अथाह खोखलेपन के बारे में क्या कहना ?
कैसे कह दूँ कि मैं अपने जहरीले दाँतों से प्रतिदिन हत्याएँ नहीं किया करता ? मेरी माटी ! तुझे पाऊँ
तुम्हारे इतने पास रहकर और पास आने की अकथ बेचैनी के बावजूद कितना दूर रह जाता हूँ तुमसे ? बचपन से आज तक तुम्हारे सिवा किससे इतना नाता रहा ?
परन्तु कैसे झूठ बोलूँ कि मैं सिर्फ तुम्हारे लिए जीता हूँ । तुम्हें इतना ज़्यादा जानने.पहचानने के बावजूद अभी कहाँ समझ पाया हूँ ?
तुम्हें चाहने को लेकर भी अपनी आँखों पर यक़ीन नहीं होता तुम हमारी माँ जैसी माँओं की माँ होए मिट्टी ! परन्तु तुम्हें उतनी ज़्यादा माँ कहाँ मान पाया हूँ ?
अन्न के गर्व से फ़सलों के झुक जाने का रहस्य तुम्हीं तो हो गमकते हुए फूलों में प्रतिदिन हज़ारों रंग कौन भरता है ? करोड़ों सालों से कौन दे रहा है धरती को अनमोल हरियाली की सौगात ?
पेड़.पौधे तुम्हारे लाख.लाख कृतज्ञ हैं अपने वजूद के लिए हे प्राणदायिनी ! तुमने इतनी ममता कहाँ से पाई है ?
तुम्हारे भीतर छिपा है जड़.चेतना के उत्थान.पतन का इतिहास तुम्हारे मौन में क़ैद है मानव.सृष्टि की महागाथा तुम होए तो पृथ्वी लाख कठिनाइयों के बावजूद लाखों वर्षों से अपने कोने.कोने में ज़िन्दा है ।
बदरंगए बेस्वादए बेजुबान माटी ! देखने में तुम कितनी मामूली पर जीवन के लिए कितनी अनिवार्य तुम्हें देखकर बार.बार भ्रम होता है कि छोटा होना क्या वाकई छोटा होना है ? नीचे रहने का अर्थ क्या सचमुच नीचे रहना है ?
तुम्हारा न हो पाने की विकट पीड़ा में बेहतर छटपटाता रहता है हृदय तुम्हारे बग़ैर निरर्थक होते जाने की तड़प मैं किससे कहूँ ? जीवन बीतते जाने का मुझे उतना ग़म नहीं जितना कि अपनी स्वार्थपरता वश तुम्हें हर पल खोते जाने का है । कूड़ा.करकट से भरा हुआ शरीर एक न एक दिन तुम्हीं में विलीन हो जाएगा- पता है मुझे
किन्तु तुम्हारे आगे कभी निःशेष कृतज्ञता के साथ नतमस्तक नहीं हो पाया रात.दिन यही शिकायत रहती है ख़ुद से ।
सम्प्रति. सहायक प्रोफेसर हिन्दी विभाग पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय शिलांग मेघालय 793022 मोबा0.09863076138 09774125265 ई.मेल.deshdhar@gmail.com ब्लाग-deshdhara.blogspot.com
‘आर-पार’ यानी विद्रूपताओं पर करारा प्रहार -चक्रधर शुक्ल अन्वेषी संस्था के अध्यक्ष और अन्वेषी पत्रिका के संपादक डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ के संपादन में एक दर्जन कवियों की चुनिंदा कविताओं का संग्रह ‘आर-पार’ हमारे बीच आ चुका है। इन युवा कवियों को पढ़ना अपने आप में एक सुअवसर है जिनके ज़रिये कविता अपने शिल्प में पीड़ा, घुटन, आक्रोश, संत्रास, झूठ, फ़रेब के साथ अमर्यादित कामों की निंदा ही नहीं करती, बल्कि बहुत संजीदगी के साथ उसे सबके सामने लाकर सच को उद्घाटित करती है। सच्चाई को स्वीकारना सबके बस की बात नहीं। भीरु होता जा रहा जनमानस तमाम ऐसे कृत्यों को देखता रहता है, लेकिन विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाता। इसी साहस का काम कविता करती हैं कविता संग्रह ‘आर-पार’ की कविताएँ। गुनहगार, मुखौटा लगाकर भीड़ में शामिल हो जाता है। उस मुखौटे को उतारने का काम आरसी चौहान अपनी कविता के माध्यम से करते हैं और बहुरूपिये को सामने लाते हैं। पेट की आग को मिटाने के लिए, वह जाने कितने रूप धरता है। कितनी बार पेट की क्षुधा, परिवार की परवरिश के लिए दंश झेलता है। मरता है- तालियाँ बजती हैं और उन्हीं तालियों के बीच एक अंतिम एपीसोड का होना, गहरे दर्द में डुबो देता है। कविता ध्वनित होती रहती है- कविता यहाँ ज़िन्दा है। उसे ज़रूरी नहीं छंद में बाँधा जाय, मुक्तक में ढाला जाय, गीत में उतारा जाय, ग़ज़ल में सँवारा जाय। कविता, कविता है जो निर्झरित होती है, होती रहेगी। अपनी भावना को बहुत गहरे, शब्दों के माध्यम से दिल में उतार देना कविता की ताकत को दर्शाता है। ‘‘....कविता सिर्फ एक कविता नहीं है कविता है एक विचार.....।’’ विचारवान कवि कृष्ण कुमार यादव विचारों को गति देते हैं। वर्तमान समय में बाज़ारीकरण, उपभोक्तावाद का चित्रण करती कविता, विज्ञापनों के गोरखधंधों की ओर इंगित ही नहीं करती, सच्चाई बताती है। लुप्त होती जा रही हमारी संस्कृति के बीच गौरैया का जिक्र करती कविता कवि की अतिसंवेदनशीलता को दृष्टिगत करती है। ‘‘......आदमी/ ......आदमी के आर-पार जमी होती है धूल.....।.’’ कवि डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ की इस कविता से ही इस संग्रह का शीर्षक लिया गया है। कवि बताता है कि- ‘‘हर इंसान/अपने बारे में/देता है/सदा ही/यह उलाहना/मुझे आजतक/नहीं समझ सका कोई.....!’’ यह व्यामोह, अहं का प्रदर्शन भी हो सकता है, जो व्यक्ति अपने घर में रहते हुए अपने घर रूपी देह को नहीं पहचान पाया, वो दूसरों को क्या पहचान पायेगा-अतिविचारणीय है। खुद को जानने का भ्रम उसे जीवित तो रखे हुए है, लेकिन सत्य से विमुख होकर आर-पार करना सहज नहीं। जो कर लेता है, निश्चय ही उसने ढाई आखर प्रेम के पढ़ लिये हैं। एक दूसरी कविता ‘रोड लाइट के बोझ तले’ में कवि डॉ. शैलेष ने बाल मज़दूरी का जितनी बेबाकी से बयाँ किया है, उतनी बाल मज़दूरी पर सेमिनारों, सभा-संगोष्ठियों, आदि में भी चर्चा नहीं होती- ‘‘महज एक/दस की नोट के लिए.... किंतु, कैसे उठा लेती है होकर ज़लील प्रति रोज़ उम्र से भी दूने का बोझ! क्या पेट की क्षुधा रोड लाइट से भी भारी है।’’ राजस्थान के अक्षय गोजा की कविताएँ जीवटता, साहस, ख़ुशमिज़ाजी तथा ज़िंदादिली से भरपूर हैं। युवा हस्ताक्षर प्रवीण कुमार श्रीवास्तव की कविताएँ नयी ज़मीन, नयी संभावनाएँ तो तलाशती ही हैं, साथ ही नयी उम्मीद भी जगाती हैं-‘‘जाने, कब आयेगी वह घड़ी/जब ग्रहण लगेगा/इनके/इस अघोषित अधिकार पर/और/ये सरकारी गिद्ध होंगे/विलुप्तता के कगार पर।’’ मध्य प्रदेश के कवि देवेन्द्र कुमार मिश्र का यायावरी मन विभिन्न विषयों पर कविता लिखकर अपनी सार्थकता सिद्ध करता है-‘‘मैंने सहारा माँगा था/तुम कंधा देने लगे/मरा नहीं हूँ मैं/गलती कर दी हमने/तुमसे सहायता माँगकर.....।’’ इस सिलसिले में श्रवण कुमार पांडेय की कविता अपना विशेष प्रभाव छोड़ती है-‘‘मुझे जी लेने दिया जाता/तो मेरा ‘आज’/कुछ और ही होता/कुंती जैसा एहसास/मुझे जीना होगा आजीवन/ कर्ण यदि कुंती के पास होता/तो महाभारत का/कथानक कुछ और होता......।’’ कवि अरविंद कुमार वर्मा की पर्यावरण को शब्दांकित करती कविता ‘ठूँठ’ सामाजिक सरोकारों से जुड़कर वर्तमान समाज का जीता-जागता उदाहरण सामने रखती है। इसी की अगली कड़ी में युवा कवि डॉ. ज्ञानेंद्र गौरव की कविता ‘मील के पत्थर’ उन पत्थरों को भी चलने की प्रेरणा देती है जो हमें अपने अभीष्ट तक पहुँचाने में मदद करते हैं। युवा कवि वसीम अकरम सिर्फ़ एक कवि नहीं, बल्कि एक शायर, एक लेखक, एक गायक और एक सुधी पत्रकार हैं। समाचार इनकी ज़िंदगी का हिस्सा हैं-उनकी कविता ‘ताज़ा ख़बर’ इसका प्रमाण तो है ही, साथ ही ‘लड़की, कंधा, मरहम, बदनाम गली, भिखारी, शहर-ए-ख़ामोश और बोझ आदि उनकी कविताएँ उनके युवा तेवर से परिचित कराती हैं और समय से साक्षात्कार कराते हुए हमारा ध्यान भी खींचती हैं। गणेश शंकर श्रीवास्तव ‘ऋषि’ ने घर को सजाने-सँवारने-बनाने में नये-नये प्रतीक गढ़े हैं, कारीगरी की है, शब्दों की पच्चीकारी की है-‘‘तभी तो हम तब्दील हो रहे हैं/एक नये कल्चर में......./कार्पोरेट मोहब्बत की ओर।’’
संपादक डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ के संपादन में दर्जन भर कवियों की दर्जनों कविताएँ निश्चय ही साहित्य जगत को प्रभावित करेंगी और अपना स्थान भी बनायेंगी। इस संग्रह का समर्पण व आवरण अत्यधिक प्रभावी है, इसका दिल खोलकर स्वागत होना चाहिए।
समीक्षक सम्पर्क- सिंगल स्टोरी, एल. आई. जी.-1, बर्रा-6, कानपुर (उ. प्र.)-27 पुस्तक प्राप्त करने हेतु संपर्क सूत्र - डॉ. शैलेष गुप्त‘वीर’ 24/18 राधा नगर फतेहपुर उ0प्र0 212601 वार्तासूत्र-09839942005, 8574006355