संक्षिप्त परिचय
आरसी चौहान ( जन्म - 08 मार्च 1979 चरौवॉ,
बलिया, उ0 प्र0 )
शिक्षा- परास्नातक-भूगोल एवं हिन्दी साहित्य, पी0 जी0 डिप्लोमा-पत्रकारिता, बी0एड0, नेट-भूगोल
सृजन विधा-गीत,
कविताएं, लेख एवं समीक्षा आदि
प्रसारण-आकाशवाणी इलाहाबाद, गोरखपुर एवं नजीबाबाद से
प्रकाशन- नया ज्ञानोदय, वागर्थ, कादम्बिनी,
अभिनव
कदम,इतिहास बोध,कृतिओर,जनपथ,कौशिकी,गुफ्तगू, तख्तोताज, अन्वेषी, हिन्दुस्तान, आज, दैनिक जागरण,अमृत प्रभात, यूनाईटेड भारत, गांडीव, डेली न्यूज एक्टिविस्ट, एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाएं तथा बेब पत्रिकाओं में
अन्य- 1-उत्तराखण्ड के विद्यालयी पाठ्य पुस्तकों की कक्षा-सातवीं एवं आठवीं के सामाजिक विज्ञान में लेखन कार्य
ड्राप
आउट
बच्चों के लिए , राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान की पाठ्य पुस्तकों की कक्षा- छठी , सातवीं एवं आठवीं के सामाजिक विज्ञान का लेखन व संपादन
“पुरवाई”
पत्रिका का संपादन
आरसी चौहान
की कविताएं –
1-बेर का पेड़
मेरा बचपन
खरगोश के बाल की तरह
नहीं रहा
मुलायम
न ही कछुवे की पीठ की तरह
कठोर ही
हाँ मेरा
बचपन
जरूर गुजरा
है
मुर्दहिया, भीटा
और
मोती बाबा
की बारी
में
बीनते हुए
महुआ, आम
और जामुन
दादी बताती
थीं
इन बागीचों में
ठाढ़ दोपहरिया में
घूमते हैं
भूत-प्रेत
भेष बदल-बदल
और पकड़ने
पर
छोड़ते नहीं
महिनों
कथा किंवदंतियों से गुजरते
आखिर पहुँच
ही जाते
हम
खेत-खलिहान
लाँघते बागीचे
दादी की बातों को करते अनसुना
आज स्मृतियों के कैनवास
पर
अचानक उभर
आया है
एक बेर
का पेड़
जिसके नीचे
गुजरा है
मेरे बचपन
का कुछ
अंश
स्कूल की छुट्टी के बाद
पेड के नीचे
टकटकी लगाये
नेपते रहते
किसी बेर
के गिरने
की या
चलाते अंधाधुंध ढेला, लबदा
कहीं का ढेला
कहीं का बेर
फिर लूटने
का उपक्रम
यहाँ बेर
मारने वाला
नहीं
बल्कि लूटने
वाला होता
विजयी
कई बार
तो होश
ही नहीं
रहता
कि सिर
पर
कितने बेर
गिरे
या किधर
से आ लगे
ढेला या लबदा
आज कविता
में ही
बता रहा
हूँ कि मुझे एक बार
लगा था ढेला सिर
पर टन्न-सा
और उग आया था गुमड़
या बन गया था ढेला-सा दूसरा
बेर के खट्टे-मीठे
फल के आगे
सब फीका
रहा भाई
यह बात
आज तक
माँ-बाप
को नहीं
बताई
हाँ, वे इस कविता
को
पढ़ने के बाद ही
जान पायेंगे कि बचपन
में
लगा था बेर के चक्कर में
मुझे एक ढेला
खट्टा, चटपटा
और
पता नहीं
कैसा-कैसा
और अब यह कि
हमारे बच्चों
को तो
ढेला लगने
पर भी
नहीं मिलता
बेर
जबसे फैला
लिया है बाजार
बहेलिया वाली
कबूतरी जाल
जमीन से आसमान तक एकछत्र।
2-पहाड़
हम ऐसे
ही थोडे
बने हैं
पहाड़
हमने न जाने कितने
हिमयुग देखे
कितने ज्वालामुखी
और कितने
झेले भूकम्प
न जाने
कितने-कितने
युगों चरणों
से
गुजरे हैं
हमारे पुरखे
हमारे कई पुरखे
अरावली की तरह
पड़े हैं
मरणासन्न तो
उनकी संतानें
हिमालय की तरह खड़ी
हैं
हाथ में
विश्व की सबसे ऊँची
चोटी का झण्डा उठाये।
बारिश के बाद
नहाये हुए
बच्चों की तरह
लगने वाले
पहाड़
खून पसीना
एक कर
बहाये हैं
निर्मल पवित्र
नदियाँ
जिनकी कल-कल ध्वनि
की सुर
ताल से
झंकृत है भू-लोक,
स्वर्ग
एक साथ।
अब सोचता
हूँ
अपने पुरखों
के अतीत
व अपने
वर्तमान की
किसी छोटी
चूक को कि
कहाँ विला
गये हैं
सितारों की तरह दिखने
वाले
पहाड़ी गाँव
जिनकी ढहती
इमारतों व
खण्डहरों में
बाजार
अपना नुकीला
पंजा धंसाए
इतरा रहा
है शहर
में
और इधर
पहाड़ी गाँवों
के
खून की लकीर
कोमल घास
में
फैल रही
है लगातार
।
3-लोगों की नजर में
तुमने मुझे पेड़ कहा
पेड़ बना
टहनी कहा
टहनी बना
पत्तियां कहा
पत्तियां बना
फूल कहा
फूल बना
तुमने कहा
कांटा बनने के लिए
कांटा भी बना
जबसे लोगों की नजर में
बना हूँ कांटा
नहीं बन पा रहा हूँ अब
लोगों की नजर में
फूल पत्ती टहनी और पेड़ ।
संपर्क -
आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
राजकीय
इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121
मोबा0-08858229760
ईमेल- chauhanarsi123@gmail.com