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मंगलवार, 3 फ़रवरी 2015

विक्रम सिंह की कहानी : कीड़े

                                                विक्रम सिंह  1 जनवरी 1981

     हिन्दी साहित्य में किसी रचनाकार की रचनाओं के मूल्यांकन का मानक क्या है,यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। समय की छननी से छनने के बाद ही पता चलता है कि किसमें कितना दम है। एक ऐसा कथाकार जो अपने आसपास की सच्चाइयों को बड़े संजीदगी के साथ प्रस्तुत करता है तो ऐसा लगता है कि हमाम में सभी नंगे हैं। इस कहानीकार से भविष्य में काफी सम्भावनाएं हैं। मैं बात कर रहा हूं झारखण्ड के जमशेदपुर में जन्में  समकालीन रचनाकारों में तेजी से अपनी पहचान बनाते जा रहे पेशे से मैकेनिक इंजीनियर  युवा लेखक विक्रम सिंह की । 

       इनकी कहानियां राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं यथा समरलोक , सम्बोधन , किस्सा , अलाव , देशबन्धु , प्रभात खबर ,जनपथ ,सर्वनाम , वर्तमान साहित्य , परिकथा , आधरशिला , साहित्य परिक्रमा , जाहन्वी , परिंदे इत्यादि पत्र-पत्रिकाओ में प्रकाशित। एक कहानी परिकथा 2015 के जनवरी नव लेखन अंक में प्रकाशित तथा एक-एक कहानी कथाबिंब व  माटी पत्रिका में स्वीकृत । अब विभिन्न ब्लागों में आवाजाही ।
पुस्तक - वारिस ;कहानी संग्रह-2013
सम्प्रति- मुंजाल शोवा लि.कम्पनी में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत 

प्रस्तुत है विक्रम सिंह की कहानी : कीड़े
                     
      मैं जिस घर की चर्चा करने जा रहा हूं उस घर को यहॉँ सब व्हाईट हाउस के नाम से पुकारते हैं ठहरिये ,यहाँ व्हाईट हाउस से मतलब यह मत निकाल लीजियेगा कि इसकी तुलना अमेरिका के व्हाईट हाउस से की जाती है। बात बस इतनी सी है कि घर बनाने के बाद दिवालो को अंदर से लेकर बाहर तक चूने से सफेदी फेर दी गई थी। दूर से ही बिना चश्मे के घर दिखाई  देता था। सो गॉँव के कुछ पढ़े लिखे लड़के इसे व्हाईट हाउस के नाम से पुकारने लगे। गॉव के अनपढ़ और बुजूर्ग लोग इसे हवेली के नाम से भी पुकारते हैं। दरअसल तलहट गॉव के मजबी ; दलीत टोले में इतना बड़ा घर और कोई नहीं है। बड़ा होने की वजह से गॉँव के लोग इसे हवेली कहने लगे। अक्सर इस घर से गुजरते समय लोग ठहर जाते हैं आस पास के लोगों से यह पूछते हैं ‘‘ आ लखे दी हवेली आ।’’;यह लख्खे की हवेली है 

‘‘ हानजी’’;हॉ जी
‘‘किदो आड़ा वा उने।’’;कब आयेंगे वह
‘‘पता ते नहीं आ कैनदे आ रिटायर होन दे बाद आउंगा।’’;पता नहीं है, कहते हैं रिटायर होने के बाद आयेंगे ।

      इतना पूछ कर वह चले जाते हैं। दरअसल करीब दस सालों से यह घर इसी तरह बन कर पड़ा हुआ है। लख्खा की ताई  बस वह कभी कभार आकर ताला खोल घर को देख जाती है। करीब पन्द्रह साल पहले यह घर बनना शुरू हुआ था। उस समय ताई और उसके लड़के घर के सारे काम देखते थे क्योंकि लख्खा सिंह ने उन्हे यह जिम्मेवारी सोप रखी थी। क्योंकि लख्खा सिंह अपने गॉव से करीब पन्द्रह सौ किलोमीटर दूर पश्चिम बंगाल में कोयला खदान में नौकरी कर रहा था। वह छुट्टी लेकर आता नहीं था। ऐसा नहीं था कि उसे छुट्टी नहीं मिल रही थी। ऐसा करने पर उसे बहुत नुकसान होता क्योंकि उसे प्रतिदिन तीन घंटे का ओवर टाईम और संडे अलग से मिलता था। संडे की डयूटी करने से तीन हाजरी के बराबर के पैसे मिलते थे। लख्खा सिंह मैकेनिकल फिटर के पद पर तैनात था। उसे मैकेनिकल काम का खूब तर्जुबा था। किसी भी तरह का प्रोब्लम हो वह हल कर देता था। सबसे बड़ी बात वह अपने काम में खूब ईमानदार था। जिस बै्रकडाउन में लगता था उसे सॉल्व कर के ही छोड़ता था। इस वजह से उसके डिपार्टमेन्ट के इंजीनियर उसे बेहद पसंद करते थे। इस वजह से उसे ओवर टाईम में रोकते थे। उसके साथी उसे गुरू कह कर पुकारते थे। कुछ साथी उसे लम्बो कह कर पुकारते थे। क्योंकि लख्खा सिंह की छह फुट दो इंच की लम्बाई थी। उसके उपर सर पर बड़ी सी पग ;पगड़ी बाद लेता था। जिससे एक आद इंच और लम्बा दिखता था। घर की मुर्गी दाल बराबर लख्खा सिंह की पत्नी जशवंत कौर एक पैसे पसन्द नहीं करती थी अर्थात उसकी अपने घर में कोई इज्जत नहीं थी। क्योंकि लख्खा सिंह की पत्नी जशवंत कौर का कहना था,‘‘लख्खा पेंडो बंदा है।’; लख्खा गॉँव का आदमी है डयूटी से आने पर लख्खा के कपड़े पूरी तरह ग्रीस और मोबिल से काले ओर चिपचिपे रहते थे। उसकी दाढ़ी भी बिखर कर बेतरतीब हो जाती थी। पग ;पगड़ी भी बिखरी रहती थी। बाकी कालोनी में उसी के डिपार्टमेन्ट के लोगों के कपड़े ठीक रहते थे। उसके कपड़े देख कर जशवन्त कौर खीज कर कहती,‘‘आप के ही कपड़े इतने गंदे क्यों रहते हैं? बाकी लोगों  के कपड़े साफ सुथरे रहते हैं।’’

    लख्खा सिंह इस बात से खूब चिढ़ जाता और कहता,’बाकी के लोग काम चोर हैं। कुछ तो नेता गिरी करते हैं
‘‘आप क्यों नहीं करते हैं  ?’
‘‘अगर में भी सब की तरह नेता गिरी करने  लगूं तो मशीने कौन ठीक करेगा। फिर प्रोडक्शन कैसे होगा । इन लोगों के चलते ही तो आधा काम ठेकेदारो के हाथ चला गया है। लोग इस वजह से तो कहते हैं कि सरकारी लोग काम नहीं करते हैं। बेरोजगारी इसी वजह से तो बढ़ रही है।’’

    ‘‘आप ने कम्पनी का अकेले ठेका ले रखा है। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता है।
‘‘अपना काम ईमानदारी से कर लूं यही मेरेजीवन के लिए बहुत बड़ी बात होगी। बाकी सभी क्या करते हैं मैंने उसका ठेका नहीं ले रखा है’’

  गुस्सा तो जशवंत को इस बात पर भी आता था। जब वह कालोनी की औरतो को स्कूटर पर जाते हुए देखती थी। लख्खा सिंह उसे बाजार हमेशा पैदल ही लेकर जाता था। ज्यादा से ज्यादा हुआ तो वह रिक्सा कर लेता। वह बाजार जाते वक्त कई बार लखा को स्कूटर लेने को कहती थी। मगर लख्खा इसे पैट्रोल का खर्चा और बढ़ जाएगा यह सोच नहीं लेता था। उसे यह कह टाल देता था मुझे स्कूटर चलाना नहीं आता है। इस पर जशवंत कौर खीज कर कहती,‘‘कैसे मैकेनिक हैं आप जिसे स्कूटर चलाना नहीं आता है।’’
‘‘स्कूटर सीख भी लूं तो क्या फायदा है।हमारी फैमली भी बड़ी है।स्कूटर में होगा भी नहीं।’’

   ‘‘यह भी आप की ही गलती की वजह से हुआ है। कितना अच्छा था एक लड़की और एक लड़का । उस के बाद भी दो लड़के आप की गलती की वजह से हो गये।’’दरअसल दो बच्चे होने के बाद जशवंत ने लख्खा को नसबन्दी कराने के लिए कहा था। मगर लख्खा ने यह कह टाल दिया था। नसबन्दी कराने से मेरा शरीर कमजोर हो जाएगा। जब तक जशवंत कौर के बच्चे बंद करने का ऑपरेशन हुआ तब तक वह चार औलाद की मॉँ बन चुकी थी। दरअसलजहॉँ लख्खा सिंह गॉँव का एक दिहाड़ी मजदूर का लड़का था वही उसकी पत्नी जशवंत शहर की सरकारी कर्मचारी की लड़की थी। उसने अपने जीवन में कभी गरीबी नहीं देखी थी। बस लख्खा की सरकररी नौकरी देखकर जशवंत के पिता ने उसकी शादी लख्खा से कर दी थी। लख्खा ना जाने क्यों हमेशा डरा डरा सा रहता था। कहीं किसी वजह से उसके पुराने दिन ना आ जाये ,यह सब सोच अपने आगे के दिनो के लिए वह ज्यादा तर पैसे बैंक में जमा करता रहता । इस वजह आये दिन किसी ना किसी बात को लेकर झगड़ते रहते थे। कहते है जब लख्खा सिंह गॉव छोड़ कर आया था। तब गॉव में उसका मात्र एक मिट्टी का छोटा सा घर था। लख्खा सिंह के पिता जटो के खेत में काम करने वाले एक मामूली से दिहाड़ी मजदूर थे। लख्खा सिंह छह भाई थे। लख्खा को छोड़ कर पॉँचो भाई दिहाड़ी करने जाते थे। लखा पॉँचो भाईयो में सबसे छोटा था। लखा जब पाँच साल का था तभी वह डंगरों ;पशुओं को चराया करता था। एक बार गलती से डंगर किसी जट के खेत में चले गये। उस वक्त लख्खा पेड़ के छाँव में आराम से सो रहा था। जब जट ने यह सब देखा तो उसकी खूब पिटाई की थी। उसी दिन लख्खा के सबसे बड़े भाई गुलजार ने कहा,‘‘बीबी लख्खा नू पढने पा दिया जाय।’’;माँ लख्खा को पढ़ने डाल दिया जाए?
लख्खा की मॉ ने कहा,‘‘जे इनो पढ़ने पा दिता ते डंगर कौन चारन जाउंगा।;जो इसको पढ़ने भेजगे तो पशु कौन चराने लेकर जाएगा।’’

‘‘क्यों चिंता कारदी आ बीबी सब हो जाउँगा।’’;क्यों चिंता करती हो मॉ सब हो जाएगा

     फिर लख्खा को स्कूल में डाल दिया गया था। सभी भाईयो में एक लख्खा ही था जिसने स्कूल का मुंह देखा था। अब लख्खा हर दिन सुबह पशुओं के लिए पट्ठे लेने जाता उसके बाद फिर स्कूल जाता था। छुट्टियों में अपने पिता के साथ वाडिया ;खेत में काम करने जाया करता था। वैसे तो घर पर सब चाहते थे कि लख्खा पढे मगर लख्खा ने नवीं कक्षा के बाद पढाई छोड़ दी। फौज में भर्ती के  लिए तैयारी करने लगा। मगर दुबला पतला शरीर होने की वजह से उसे अक्सर निकाल दिया जाता था अर्थात सीना कम होता था। लख्खा की मॉ भी उसके दुबले पतले शरीर को देख कर कहती थी,‘‘ वे लखया तू की करेगा अपनी जिंदगी विच किदा अपनी रोटी चलाएगा।’; अरे लखे तुम अपनी जिंदगी में क्या करूगे कैसे अपनी रोजी रोटी चलाओगे।कभी कभार लख्खा सिंह अपनी मॉँ कि बात याद करता मुस्कुरा देता और मन ही मन सोचता आज अगर माँ जिंदा होती तो कितना खुश होती। कहते हैं जब लख्खा आर्मी की भर्ती में प्रयास कर कर के हार गया। तो वह अपने जीजा के पास पश्चिम बंगाल मजदूरी करने आ गया। यहॉँ आकर वह एक प्राइवेट कोयला निकालने वाली कम्पनी में हैल्पर की तौर पर लग गया। लख्खा सिंह ने काम सीखने के लिए अपने उस्तादो के चड्डी बनियान तक धोता था। उस्ताद सब उसे खूब मानते थे। कहते हैं लख्खा अच्छी नौकरी पाने के लिए हर दिन गुरूद्वारे मथा टेकने जाया करता था। लख्खा की मेहनत रंग लाई। खदानो में मैकेनिकल फिटर की बहाली निकल आई। लख्खा की नौकरी हो गई।  इसे लख्खा वाहे गुरू दी मेहर मानता था। नौकरी मिलने के बाद लख्खा को तीन कमरो का सरकारी क्वार्टर भी मिल गया। नौकरी मिलने के सात साल बाद ही अपने पेंठ;गॉँव घर बनाने लगा था। दरअसल हुआ यूं कि एक दिन कालोनी में हो हल्ले की आवाज से वह बाहर निकलता है और देखता है उसका ही जोडी़दार लालचंद कष्यप जो प्रोजेक्ट में क्रेन ऑपरेटर था, करीब तीन महीने पहले ही रिटायर हुआ था तीन महीने के बाद भी उसने  क्वार्टर नहीं छोड़ा  था। इस वजह से जिसके नाम क्वार्टर हुआ था वह उसे क्वार्टर छोड़ने के लिए कह रहा था। आलॉटमेन्ट होने के बाद भी उसने पहले ही वह लालचंद को तीन महीने के लिए रहने का समय दे दिया था। दरअसल लालचंद का घर अभी बन रहा था। बनने में अभी कुछ और समय लगता इसलिए वह कुछ और समय की मौहलत मांग रहा था। बस उस दिन के दृष्य को देख कर लख्खा डर गया वह सोचने लगा। एक दिन इसी तरह में भी रिटायर हो जाउंगा, मेरे साथ भी तो ऐसा ही होगा। क्या सरकार के नियम है? जब हम सरकार की सेवा करते करते एक दिन बूढे़ हो जायेंगे, जिस वक्त हमे एक छत की ज्यादा जरूरत पड़ेगी उसी समय कहेगी जाओ भागो यहॉँ से तुम्हारा समय हो गया है। 

    जशवंत कौर घर बनने की बात से ही उससे लड़ने लगी । उसने साफ- साफ लखा से कहा,‘‘अभी बच्चे छोटे है। आगे यह कहॉँ रहेंगे। फिर लड़की की शादी जहॉँ होगी घर वहॉँ बनायेंगे।’’
‘‘देखो कल को लड़के जहॉँ भी जाऐंगे इनसे जरूर यह पूछेंगे, तुम्हारा गॉँव कहाँ है। तो कम से कम अपना गॉँव का नाम तो बता पाएंगे।’’

‘‘ जहॉँ लक्ष्मी है वही अपना गॉँव, वही अपना देश है। लोग अमेरीका इग्लैंड चले जाते हैं। फिर वहीं बस जाते हैं। दुबारा कभी लौट कर गाँव नहीं आते। उल्टा गॉँव के लोग शहर को भाग रहे हैं।’’
‘‘ उन लोगों से जाकर पूछो जो गॉँव नहीं आ पाते।’’ फिर वह लालचंद का भी उदाहरण दे देते थे।

  प्रोजेक्ट के कई जोड़ीदारो को भी पता चला कि वह अपने गॉँव में घर बना रहे हैं। वह भी लख्खा से कहते। गुरू आप पंजाब में क्यों घर बना रहे हो? इतने साल बंगाल में काम करने के बाद आपका गॉँव में मन लगेगा। बच्चे सब भी यहीं पढ़ रहे हैं। उन लोगों का भी यहीं कहीं नौकरी हो गयी तो फिर वहॉँ घर में कौन रहेगा।’’
लेकिन लख्खा वही बात कहता,’’कभी कभार बच्चे गॉँव घूमने चले जाया करेंगे। ऐसे तो वह जान ही नहीं पाऐंगे उनका गॉव कौन सा है।’’

     खैर लख्खा ने वही किया जो उसके मन ने कहा। सुनने में यह आता था शुरू शुरू में यह घर गॉँव के गंजेड़ी,जुआड़ी,प्रेमी युगल का अड्डा रहा था। तब सिर्फ घर के कमरे ही तैयार हुए थे। दिन में गॉव के गंजेड़ी जुआड़ी आकर अपना काम कर के चले जाते थे और रात में प्रेमी जोड़े अपना काम निपटा निकल जाते थे। फिर इसकी सूचना ताई ने लख्खा को फोन पर दी। जब जशवंत कौर को यह बात पता चली तो वह भी खूब चिलाने लगी लो देख लो अभी घर बना भी नहीं कि आफतें आनी शुरू हो भी गई। जा कर घर देख भी आईये। उस पर भी आप के ओवर टाईम मर जाएगा। अभी तो शुरूवात है। आगे पता नहीं और कौन कौन सी दिक्कतें आऐंगी।
लख्खा कहता,’’उए रब दा ना ले। कुछ नहीं होता, बस दरवाजा नहीं लगा है। तो घर में कोई भी घुस जाएगा। पैसे खत्म हो गये है। घर का राशन पानी बच्चो की फीस सब कुछ देखते हुए ही घर बना रहा हूं। फिर मुझे जल्दी भी क्या है। धीरे धीरे घर बना ही दिया है।’’

    लख्खा सिंह के पास उस वक्त पैसे नहीं थे। हार कर लख्खा सिंह ने अपने साथी किशन चौधरी से पैसे उधार लिये और फिर पैसे को मनीआर्डर कर दिया। यूं तो लख्खा चाहता तो पैसे उधार लेकर जल्द ही घर तैयार करा सकता था। कई बार उसके दोस्त उसे लोन लेने के लिए कहते मगर वह कभी तैयार नहीं हुआ था। लख्खा कभी किसी से पैसे उधार नहीं लेता था। लख्खा कर्ज लेने से डरता था। किशन चौधरी ने पैसे देते वक्त कहा,’’ अगर और जरूरत हो तो ले लेना।’’ मगर लख्खा ने हाथ जोड़ कर इतना कह दिया था। ’’बस आप की इतनी ही कृपा चाहिये थी।’’
लख्खा ने रिटायर होने के पहले घर तैयार कर लिया था। घर बनने कें बाद लख्खा ने चैन की सांस ली  और वह जैसे किसी डर से बहार निकल गया था। 

     कई सालों से घर बनकर इसी तरह पड़ा रहा तो ताई ने घर को बिहार से आने वाले मजदूरो को जो जटो के खेत में दिहाड़ी करते थे ,रहने को दे दिया था। लख्खा को यह बात पता चली मगर लख्खा ने कुछ नहीं कहा। ताई ने लख्खा को यह कहा,’ पुत्तर कार बन कर यू ही प्या वा अजे तेनो आन चे दस साल रेनदे आ। पिला ही किदो दा कार खली प्या वा।  कार विच बोत जालीया लग गईया सी। फैर की आ कदी कोई चोर दरवाजे, खिड़कियॉँ खोल कर ना ले जावे। कार दी बड़ी सेफटी रओगी।’;‘‘ बेटा घर बन कर यूं ही पड़ा है। अभी तुमको आने में दस साल हैं। पहले ही घर कब से खाली पड़ा है। घर में बहुत गदंगी और जालियॉ लग गई थी। फिर क्या है कोई चोर दरवाजा खिड़की खोल कर ना ले जाए। इससे घर की सेफ्टी रहेगी।’’

    लख्खा को यह सुन कर अच्छा लगा,लख्खा ने इतना कहा,’’ चंगा ही आ। लाने कार दी साफ सफाई भी रहेगी।’’; अच्छा ही है। साथ में घर की साफ सफाई भी रहेगी। लख्खा यह बात जानता था कि अब पंजाब के सभी नौजवान लड़के दुबई, अमेरिका,इग्लैंड जाने लगे हैं। सो बिहार यूपी के मजदूर पंजाब आने लगे हैं।
    मगर लख्खा ने यह बात अपनी पत्नी जशवंत को नहीं बताई। मगर बात कब तक छुपी रहती। बात किसी तरह उसके पास पहुंच गई। बात पता चलते ही उसने पूरे घर को सिर पर उठा रखा था और लख्खा को सुनाने लगी,अभी घर प्रवेश भी नहीं हुआ और लोगों ने रहना भी शुरू कर दिया है। मुम्बई से बिहारियों को बहार भगाया जा रहा है। हमारे घर में बिहारियों को घूसेड़ा जा रहा है।

   जशवंत की बात को सुन कर लख्खा कुछ सोचने लगा। उसे याद है आज भी 31 अक्टूबर 1984 का वह दिन इन्दरा गांधी को सिख बॉडी गार्ड ने मार दिया था। जगह जगह सिक्खो पर हमला शुरू हो गया था। वह सभी छोटे बच्चो के साथ अपने जोडी़दार नौशाद के घर पार्टी में गया था। नौशाद के घर करीब दस साल बाद बच्चा हुआ था। उसी की खुशी में उसने पार्टी दी थी। पार्टी में सभी मस्त थे कि तभी मंराज यादव ने लख्खा को कहा,’’लखा तुम्हारा अब यहॉँ रहना ठीक नहीं है। कई जगह सिक्खो का कत्ले आम शुरू हो चुका है। उसने हमे अपने घर पर भी नहीं जाने दिया था क्योंकि सबको पता था लखा सिंह सिक्ख कितने नम्बर क्वाटर में रहता है। मंराज के घर में सप्ताह भर रहा था। करीब सप्ताह भर लख्खा डयूटी नहीं गया था। आखिर मंराज भी तो सिवान बिहार का रहने वाला था। यह सब सोच उसने अपनी पत्नी से कहा,’’चिल्लाओ मत याद करो 1984 वाली बात जब एक बिहारी के घर सप्ताह भर रही थी। तब क्यों नहीं कहा था कि मैं एक बिहारी के घर नहीं रहना चाहती हूं। आज जो हम जिन्दा है। तो एक बिहारी की दी हुई जिंदगी है। जशवंत खामोश हो गई। ‘‘  नहीं मैं तो इस लिए कह रही थी कि घर खराब हो जाएगा।’’

  ‘‘ कोई नहीं बस पाँच साल ही तो नौकरी रह गई है। हम सब के जाने के पहले ही सभी निकल जाऐंगे तुम चिंता मत करो। घर को कुछ नहीं होगा। उल्टा घर की साफ सफाई रहेगी। अब नौकरी ही कितनी रह गई है पॉँच साल ही तो बचे हैं। इतने साल कैसे बीत गये पता ही नहीं चला तो और पाँच साल बीतने में कितना समय लगेगा ’’

   देखते देखते पॉँच साल कब बीत गये।लख्खा और जशवंत को पता ही नहीं चला। लख्खा के तीनों बेटे तीनो तीन दिशा में चले गये थे। एक को बंगाल में  स्टेट बैंक मे नौकरी मिल गई थी। दूसरा ऑटोमोबाईल कम्पनी में मैकेनिकल इंजीनियर के पद पर तैनात हो गया था। उसे भी अपने पापा की तरह मैकेनिकल काम का खूब नॉलेज था। तीसरे ने बी फार्मा कर एम.आर की नौकरी पकड़ ली थी। बेटी का व्याह अपने ही प्रोजेक्ट में काम करने वाले लड़के से कर दी थी। कहते है कालोनी में लख्खा की खूब इज्जत थी। सभी लख्खा के लड़को की तारीफ करते थकते नहीं थे। यो तो रिटायर होने के बाद कई प्राईवेट कम्पनी लख्खा को अच्छी तनख्वाह पर नौकरी पर लेने को तैयार थी। जशवंत ने भी उन्हे नौकरी करने को ही कहा ताकि इससे उनका शरीर भी तंदुरूस्त रहेगा। मगर लख्खा को अपने गॉँव में बनाये घर की बहुत फिक्र थी। सो रिटायर होनें के बाद ट्रक में अपना सम्मान लोड कर पंजाब चले आये थे। शुर-शुरू में लख्खा को अपने ताई के यहॉँ ठहरना पड़ा क्योंकि अभी लख्खा के घर में बिजली नहीं लगी थी। इसके बिना घर पर कैसे रहते।

   ताई ने लाईन मैन से बात करने के बाद लख्खा से कहा, ‘‘ लाईनमैन को चार हजार रूपये दे दो जी। रसीद सोलह सौ दी कटोगी। बाकी जेई साहब नू बाद विच कुछ देना पउँगा। फिर ताडा काम सेती हो जाउँगाा।’’;लाईन मैन को चार हजार रूपये दे दीजिये सौलह सौ की रसीद कटेगी। बाकी जेई साहब को बाद में कुछ देना पडे़गा। फिर आप का काम जल्छी हो जाएगा।’’
लख्खा ने कहा,’’इतने पैसे क्यों देने पड़ेंगे।
‘‘ देखो जी सराकारी काम बिना पैसो के नहीं होता है।’’

   उस समय लख्खा टीवी में देख रहा था दिल्ली में अन्ना हजारे लोकपाल बिल के लिए अनसन पर बैठे है। कई बड़े-बड़े दिग्गज उनके साथ बैठे हुए है। लाखो की तादाद में लोगों की भीड़ लगी हुई है। लखा ने टीवी को बंद किया और अटैची से चार हजार रूपये निकाल कर लाइन मैन के हाथ में पकड़ा दिये।

   लख्खा को अभी और भी कई काम थे। राशन कार्ड बनवाना था। गैस कनैक्षन करवाना था। सो सबसे पहले लख्खा सिंह गैस ट्रांन्सफर पेपर लेकर गैस ऐजेन्सी चले गये। गैस ऐजेन्सी वाले ने लख्खा को देखा और पूछा’,‘‘  कोई आइडी प्रुफ लेकर आये हो ?’’ 
लखा सिंह नं तुरन्त अपने जमीन रेजिस्टरी की फोटो कॉपी दिखाते हुए कहा,’’जी मेरा तलहट गॉँव में ही घर है। यह मेरी जमीन की रेजिस्टरी है’’

गैस एजेन्सी वाले ने पेपर को बिना देखे हुए कहा,‘‘ कोई भी बंदा अगर जमीन खरीद ले तो वह वहॉँ का निवासी नहीं हो जाता है। मुम्बई में रहने वाला राजस्थान,बिहार में जमीन खरीद लेता है। आप के पास रासन कार्ड है। अगर है तो ले आईये, काम हो जाएगा।’’

‘‘   अच्छा ठीक है ’’कह लख्खा वहॉँ से निकल जाता है। लख्खा सिंह वहॉँ से़ सीधे राशन कार्ड आफिस निकल जाते है। राशन कार्ड आफिस मे लखा ने अपना ट्राँन्सफर राशन कार्ड दिखाया। राशन कार्ड वालो ने राशन कार्ड को देखा और कहा,’’वोटर आईडी दिखाईयेगा।

    लख्खा सिंह ने अपनी वोटर आईडी निकाल कर दे दिया। आईडी देखते ही,यह तो बंगाल का वोटर आईडी बना हुआ है। हमे तो लोकल आईडी चाहिये। कौन से गॉँव से आये हो?’’
‘‘ जी तलहट गाँव से आया हूं।’’
गॉव की कोई आईडी नहीं बनवा रखी है।’’
‘‘ जी अब चुनाव आने पर यहॉँ का बनवा लूंगा।
‘‘ अच्छा ठीक है आप सरपंच जी से लिखवा कर ले आईये कि आप तलहट गॉँव के रहने वाले है।’’

उसके बाद लख्खा समझ गया की सरपंच के पत्र बिना कुछ नहीं होगा। सो वह रिक्सा पकड़ने चला गया। लख्खा ने रिक्सा वाले से पूछा,‘‘ जी तलहट गॉँव चलोगे।’’
रिक्सा वाले ने कहा,‘‘ हॉँ सरदार जी चलेंगे।’’
‘‘ कितना लोगे?’’
‘‘ जेा किराया है वही लेंगे वही तीस रूपये।
लख्खा रिक्सा पर बैठ गया। रिक्सा वाले से लख्खा ने पूछा,’’जी पंजाब के तो लगते नहीं हैं।
‘‘हाँ सरदार जी मैं बिहारका हूं।’’
‘‘  बहुत दूर से आये हो । यहाँ रिक्सा चला कर आप का गुजारा हो जाता है।’’
 ‘‘ किसी तरह पेट पाल लेता हूं।’’
‘‘ बिहार में भी तो यह काम कर सकते थे।’’

    यहॉँ सरदार जी खेती बाड़ी अच्छी होती हैं। फैक्टरियाँ भी हैं। सवारी ठीक ठाक मिलती है। हमारा बिहार में पंजाब जैसी तो खेती बाड़ी है नहीं । फैक्टारियॉ भी नहीं है। तो रिक्सा में कौन चढ कर जाएगा। हॉँ यहॉँ भी कम ही पैसे देते है मगर वहॉँ से तो अच्छा है।

   खेतो के बीच से रिक्सा गॉँव की तरफ जा रहा था। तभी लख्खा को पेसाब लग गया उसने रिक्से वाले से कहा,’’भाई थोड़े रिक्से को साईड में खड़ा कर लेना तो। रिक्से वाले ने खेत के किनारे रिक्सा खड़ा कर दिया। रिक्सा से उतर कर जैसे ही लख्खा खेत की तरफ मुंह कर के अपने पेजामे का नाड़ा खोलने लगे कि वह देखते है दो लड़के  खेत में छुप कर अपने हाथो में सुई लगा रहे हैं। लख्खा ने अपना मुंह दूसरी ओर कर लिया।

  रिक्से में बैठते ही लख्खा ने रिक्से वाले से पूछा,‘‘ खेतो में छुप कर यह हाथो में दो लड़के सुई क्यों लगा रहे थे।’’

  ‘‘ मत पूछिये सरदार जी नशा कर रहे थे। इसको लेने के बाद आदमी दूसरे दुनिया में चला जाता है। पंजाब में नौजावानो को नशा ले बीती है। यहा पत्ताखोर लड़को की कमी नहीं है। विदेशों से यहॉँ के लोग पैसे कमा कर तो लाये है लेकिन साथ में नशा खोरी भी लेकर आ गये । एक शहर से एक जट का लड़का गॉँव चला आया था पढ़ने के लिए। दरअसल जट के बहुत खेत थे। शहर में नौकरी से रिटायर होने के बाद गॉव चले आये थे। यहॉँ लड़के को कालेज में दाखिला करा दिया था। लड़के को नशा खोरी की आदत लग गई थी। खूबसूरत लड़का एक दम सूक कर छुआरा हो गया था। बेचारा जट उसके ईलाज के लिए मारा मारा फिरता रहता था।‘‘ बात खत्म होते ही उसने अपना रिक्सा रोक लिया।  लो  सरदार जी आपका गॉँव आ गया। किसी सोच में डूबे लख्खा ने कहा,’’ ‘‘ हॉँ जी’’ और रिक्से वाले को पैसे देकर चले गये।

   अगले दिन सुबह तड़के ही ताई लख्खा को सरपंच के पास लेकर गई। ताई और लख्खा सरपंच के आंगन में खड़े हो गये। आँगन में आम के पेड़ के नीचे चार कुर्सियाँ और मेज रखा हुआ था। सरपंच जी घर ऑफिस जाने की तैयारी कर रहे थे। वह ग्रामीण बैंक के कलर्क थे। आने में सरपंच काफी समय लगा रहे थे। ताई थक गई ,हार कर ताई वही नीचे फर्स पर बैठ गई। यह देख लख्खा ने कहा,’’ताई कुर्सी पर बैठ जाईये।’’

  
‘‘नहीं वे जट बुरा मान जाएगा। हम ठहरे मजबी छोटी जात, वह है जट राजपूत हमारे बैठने से उसका मान सम्मान घट जाएगा।’’

      लख्खा आगे कुछ सुनना नहीं चाहता हो जैसे सो आगे कुछ नहीं कहा। आदे घंटे से ज्यादा समय हो गया था। लख्खा ने घड़ी में समय देखने लगा। घड़ी देखते ही लखा स्वप्न मे चला गया। रिटायर मेंट के दिन डिपार्टमेंट के बड़े बड़े अधिकारी आये थे। पूरा स्टाफ उस दिन मौजूद था। सबने लख्खा के गले को मालाओं से भर दिया था।  उसी वक्त तालियों से गूँज उठा था माहौल। सभी अधिकारीयो ने लख्खा की खूब प्रसन्नसा की थी। फिर उनको तोफे में बहुत कुछ दिया गया। उसके हाथों में घड़ी बांधते समय कहा,’’हम सब तो लख्खा को याद करेगे ही। मगर यह घड़ी लख्खा को हम सब की याद दिलायेगी।’’

   सरपंच जी चले आ गये। लख्खा का ध्यान टूट गया। ताई ने सरपंच को हाथ जोड़ कर सत श्री अकाल कहा। साथ में लख्खा ने भी सत श्री अकाल कहा। सरपंच ने ताई से पूछा, कैसे आना हुआ?’’
ताई ने सारी बात बता डाली। सरपंच ने कहा,’’ अभी तो में ऑफिस जा रहा हूं। शाम को आईयेगा।’’
  ताई ने हाथ जोड़ कर दूबारा अभिवादन करते हुए कहा,‘‘ जी कोई नहीं शाम को ही आ जाएगे।’’

    लख्खा अभी आंगन से निकल रास्ते में जा ही रहा था। कि तभी मोबाईल की घंटी बजी। लख्खा ने जैसे ही कॉल रिसीव की उधर से आवाज आई। क्या हाल है गुरू,मैं दिलीप चक्रवती बोल रहा हूँ।’’
लख्खा खुशी से झूम उठा,’’ दिलीप बताओ। कैसे हो।
‘‘ मैं ठीक हूँ गुरू, अपनी सुनाओ।’’
‘‘ बस चल रहा है। बाकुडा से फोन किये हो।’’
‘‘ नहीं गुरू! बाकुड़ा में नहीं हूं। गाँव में मन नहीं लगा। वापस रानीगंज चला आया। यहाँ एक बहुत बड़ा कम्पनी का प्रोजेक्ट खुला है। मैं यहॉ आकर फोरमैन के पद पर लग गया हूं। अच्छा गुरू मैंने दरअसल फोन इसलिए किया, क्या तुम प्रोजेक्ट ज्वाइन करोगे। यहॉ कुछ मैकेनिकल फोरमैन इन्चार्ज की जरूरत है। आप को क्वाटर भी मिलेगा। आने जाने के लिए कम्पनी गाड़ी भी देगी। हम लोग का बहुत जोडी़दार यहॉ काम कर रहा है।’’
अच्छा दिलीप मुझे कुछ सोचने दो, फिर मैं तुम्हे बताता हूं।’’
‘‘ ठीक है तब जल्द बताना मैं अब फोन रख रहा हूं।’’ 
लख्खा के चेहरे में रोनक सी आ गई। 

    लख्खा उस रात चैन की नीद सो रहा था। अचानक से लख्खा उठकर बैठ गया और अपनी उंगली को कान में गुसड़ने लगा था। अपनी गर्दन को दाई तरफ झुकाकर उंगली को और जोर से कान में गुसेड़ने लगा दर्द से हा,हा कि आवाज करने लगा। सामने लेटी जशवंत फट से आवाज सुन जाग गई। इस तरह उसे तड़पते हुए देख कहने लगी,’’ऐसा क्यों कर रहे है। कान में क्या हो गया।’’
लख्खा और ज्यादा तड़पने लगा। कान में और जोर से उंगली डालने लगा,‘‘ उ तेरा पला हो जाए। उ..... हा....।’’   लख्खा को लग रहा था एक एक कर के बिजली विभाग के लाईन मैनजेई, गॉव का सरपंच, गैस एजेंसी के अधिकारी ,खाध्य एवम नागरिक आपूर्ति विभाग के अधिकारी उसके कान में घुसते जा रहे हैं। उसे लग रहा था उसका सर ज्वालामुखी की तरह फट जाएगा।

     यह देख जशवंत फट से छत पर भागी चली गई। गर्मियो का दिन था। गाँव के ज्यादा तर लोग छत पर सोये थे। जशवंत ने सबको आवाज लगाकर उठा दिया। सभी क्या हो गया करते हुए बराडे में आ गये। लख्खा वैसे ही तड़प रहा था। ताई ने फट से गिलास में पानी लाकर लख्खा के कान में डाल दिया। उसकी गर्दन को दूसरी तरफ झटक दिया था। फट एक कीड़ा उनके कान से निकल आया था। दर्द से परेशान लख्खा को राहत मिली। ताई फट से कहने लगी आज जो आप लोग अपने घर में अकले होते तो पता नहीं कितने परेशान हो जाते।’’जशवंत गम्भीर हो गई।

    अगले दिन जशवंत ने अपने बड़े बेटे को सारी बात बता दी। शाम को लख्खा के बड़े बेटे ने लख्खा को फोन किया,पापा सत श्री अकाल! कैसे है आप’’
‘‘ मैं ठीक हूं बेटा तुम्हारा काम काज कैसा चल रहा है।’’
‘‘ पापा मै तो ठीक हूं। कल रात की घटना मॉ ने मुझे बताई तो मैं एकदम से डर गया।
‘‘ बेटा डरने की कोई बात नहीं, मै एकदम ठीक हूं’’
‘‘ पापा मैने एक फैसला किया है कि मै ट्रांन्सफर करा कर पंजाब में आ जाउँ। अधिकारियो को पैसे देने से काम हो जाएगा।’’
‘‘ नहीं बेटा कोई ट्रांन्सफर कराने की जरूरत नहीं है। तुम्हारे आने से क्या कीड़े मर जाएगे। कीड़े तो दुनिया में हर जगह हैं। और फिर दुनिया में  ऐसी कौन सी जगह है जहॉ लोग अपनी मर्जी के मुताबिक जी सके। मैंने सोच लिया है,अपनी अंतिम सांस तक मैं यहीं रह कर एक नया समाज गढ़ूंगा।
सम्पर्क- विक्रम सिंह
        बी ब्लॉक-11, टिहरी  विस्थापित कालोनी, 
        ज्वालापुर,न्यू शिवालिक नगर, हरिद्वार,उत्तराखण्ड,249407
        मो.9012275039
        ई-मेलः bikram007.2008@rediffmail.com


सोमवार, 22 दिसंबर 2014

और कितने टुकड़े :विक्रम सिंह






                                               विक्रम सिंह  1 जनवरी 1981

 
      जमशेदपुर झारखण्ड में जन्में , समकालीन रचनाकारों में तेजी से अपनी पहचान बनाते जा रहे पेशे से मैकेनिक इंजीनियर  युवा लेखक विक्रम सिंह की कहानियां राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं यथा - समरलोक , सम्बोधन ,किस्सा , अलाव , देबन्धु , प्रभात खबर , जनपथ , सर्वनाम , वर्तमान साहित्य , परिकथा , आधरशिला , साहित्य परिक्रमा , जाहन्वी , परिंदे इत्यादि पत्र-पत्रिकाओ में प्रकाशि हो चुकी हैं।यहां पहली बार किसी ब्लाग में इनकी  लम्बी  कहानी- और कितने टुकड़े प्रकाशित।

पुस्तक - वारिस ;कहानी संग्रह-2013
सम्प्रति- मुंजाल शोवा लि.कम्पनी में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत




कहानी
और कितने टुकड़े


एक ओंकार सतनाम करता पुरख अकाल मूरत निरभउ निरवर अजूनी सैभ............गुरूनानक देव जी
प्लेटफार्म पर गाड़ी खड़ी हुई तो मात्र चार पॉच लोग ही गाड़ी से उतरे। सरदार कुलवंत सिंह ने गाड़ी से उतर दायें बायें देखा प्लेटफार्म में कुछ ही लोग इधर उधर घूम रहे थे। उसने देखा प्लेट फार्म पर भरे मिट्टी के बोरो के पीछे जवान स्टैनगन लिए तैनात थे। कुछ जवान कंधो में स्टैनगन लिए गोता लगा रहे थे। लोगों से ज्यादा उसे जवान ही नजर आ रहे थे। उसे लगा जैसे वह प्लेटफार्म में ना हो कर बार्डर में आ गया हो। सरदार कुलवंत सिंह ने गहरी सांस ली और अपनी पेंट को कमर से उपर पेट तक खींच लिया। फिर अपने दोनों हाथों से पगड़ी ठीक की और सीक से दाढ़ी को संवारा और बैग उठा चल दिया। जैसे ही प्लेटफार्म के दरवाजे के पास पहुंचा कि एक जवान ने कहा,’’जी अपनी अटैची खोल के एक बार दिखा दियो जी।’’
सरदार कुलवंत सिंह ने तुरन्त अपनी अटैची नीचे रख अटैची को खोल कर जवान के सामने रख दिया। जवान ने अटैची के अंदर रखे कपड़े को उठा-उठा कर अटैची के नीचे के तह को देखा और कहा,’’सिर्फ कपड़े ही हगे ना?’’; सिर्फ कपड़े ही है ना?’’
’’हान जी’’


    एक बार फिर जवान ने कपड़े उठा कर देखा बस तीन सैट कपड़े ,एक हल्की चादर,एक तौलिया के सिवा कुछ नहीं था। एक टिफिन बॉक्स था। घर से चलने के पहले कुलवंत की पत्नी ने रास्ते के लिए रोटी और भरोवा करेले दिये थे। जवान ने टिफिन बाक्स खोल कर दिखाने के लिए कहा,जैसे ही टिफिन बॉक्स खोला तो उसमें से सडी सी बदबू आ निकली।’’
जवान ने कहा,’’ बंद कर ले टिफिन पता नहीं कब से यूं ही रखा है। धोया तक नहीं।’’
जवान ने उन्हें जाने दिया।
कुलवंत सिंह प्लेट फार्म से बाहर आकर बस स्टेशन की तरफ चल दिया। प्लेटफार्म के बाहर भी कई जवान चक्कर लगा रहे थे।
कुलवंत सिंह बस स्टॉप पर आ बस में बैठ गया। करीब आधे घंटे बाद बस में सवारी भर गई।
बस जैसे ही स्टार्ट हुई कि कंडक्टर ने चिल्ला कर कहा,’’जीना को छुटठे पैसे आ। ओ बैठे रवे ते जीना को छुटठे पैसे नहीं आ वह बास चो होडे उतर जावे।’’ ;’’जिनके पास खुले पैसे हैं  वह बैठे रहें जिनके पास नहीं है वह उतर जाये।’’
कुलवंत ने पास बैठे नौजवान से पूछा,’’ दस दा छुटठा होउंगा।’’; ’’दस का खुला होगा।’’
’’वैखदा वा जे मिलगे ते ठीक आ।’;’देखता हूं जो मिल गये तो ठीक है।’’
उसने अपने पेंट के पाकैट से मनी बैग निकाला और उसमें से दो पॉच-पॉच के नोट निकाल कर दे दिये।
कुलवंत को खुले पैसे मिलते ही जान में जान आ गई।
बस चल पड़ी कुलवंत खुश हो गया। कुलवंत ने उस नौजवान लड़के से पूछा,’’केडा पेंड पेनदा पुत्तर?’’ ;’’बेटा कौन सा गॉव पड़ता है।’’
’’सुन्दरपुर’’
’’मैं वी ताडे लागे दे पेंड मेते जान दया वा।’’;’’मैं भी तुम्हारे पास के गॉव जा रहा हूं।’’
’’अच्छा जी’’
’’पुत्तर की करन दया वा तू।’’ ;’’बेटा तुम क्या करते हो।’’
’’बस अभी अभी बारहवीं की परीक्षा दी है। आगे की पढाई दिल्ली जा कर करूंगा।’’
’’क्यों पंजाब नहीं अच्छा लगता।’’
’’नहीं पापा कहते हैं पंजाब अभी सैफ नहीं है।’’
कुलवंत ने गहरी सॉस ली। खिड़की का शीशा जरा सा और खोल दिया। बस खेतों खलियानो बालियों के बीच के पक्की सड़क से चलता जा रहा था। सड़क पर कई जगह मिट्टी के बोरो के पीछे जवान स्टैनगन लिए तैनात थे।
अचानक से जंगल के बीच से गुजरते समय बस रूक गई। बस में बैठे कुछ लोगों ने कहा,बस क्यों रूक गई।’’
कन्डक्टर ने कहा,’’चुप करो वे।’’


     बस में एक युवा चढा। छह फुट लम्बा कद , दुबला पतला देह उसने सफेद पंजाबी कुर्ता पजामा पहन रखा था। चेहरा दाढ़ी से भरा हुआ था। उसकी दाढ़ी बिखरी  हुई थी। सिर पर नीला पटका बांध रखा था। कधे में एक स्टैटगन टांग रखी थी। बस में बैठे सभी यात्री को बड़े तेवर से कहा,’’जिने नौजवान बास ते बैठे आ वह बस चौ उतर जावे।’’; जितने भी नौजवान बस में बैठे  हैं वह बस से उतर जाये।
   सभी बस में बैठे लोगों के डर से पसीने छूटने लगे। सभी नौजवान लड़के एक एक कर बस से उतरने लगे। कुलवंत के पास बैठा लड़का भी अपनी सीट से उठ कर ख़ड़ा हो गया। कुलवंत ने उसका हाथ पकड कहा,’’बैठ जा पुत्तर कुछ नहीं हुनदा’’ ’’बैठा रह बेटा कुछ नहीं होगा।
’’नहीं अगर में बस से नहीं उतरा तो उनको मेरे उपर शक हो जायेगा मैं बे वजाह मारा जाउंगा।’’ इतना कह वह आगे बढ़ गया।


     सारे नौजवान लड़के बस से उतर गये। वह युवा आतंकवादी बस में दोबारा चढ़ा और बस के चारो तरफ अपनी नजर घुमाकर उतर गया। कुलवंत को अपने नौजवान बेटे की याद आ गई। वह भी कुलवंत के साथ गॉव आना चाह रहा था। ’’पापा मैं भी आप के साथ गॉव चलता हूं।’’
कुलवंत की पत्नी ने कहा,’’ नहीं बेटा अभी तुम्हारा जाना वहॉ ठीक नहीं होगा।’’
’’अगर मेरा जाना ठीक नहीं तां क्या पापा का जाना ठीक रहेगा।’’
’’मैं तो तुम्हारे पापा से भी कह रही हूं। मत जाईये। नौकरी के बहुत अवसर आयेगे।’  
’’मौके बार बार नहीं आते। बस मैं काम करवा कर जल्द लौट आउंगा
’’ठीक है आप अकेले ही जाइये। बेटे को मत लेकर जाइये।’’
फिर कुलवंत ने बेटे को समझा दिया था।


    बस के नीचे छह-सात आतंकवादी बंदूको से लेस खड़े थे। वह एक एक कर लड़कों का चेहरा देखते उन्हें बस में चढ़ने का इशारा कर देते। जैसे ही वह लड़के को बैठने का इशारा करता। लड़का हड़बड़ा कर बस में चढ़ कर बैठ जाता था।
   आखिर कार कुलवंत के सामने बैठा लड़का भी चढ गया। उसे देखते ही कुलवंत के चेहरे में रौनक आ गई। उसे ऐसा लगा जैसा उसका अपना बेटा बिछड़कर चला गया था।
बस फिर से चल पड़ी। कुलवंत ने पूछा,’’वह क्या चाह रहे थे।’’
’’चाहत तो बहुत बडी है। उन्हें अपना खालिस्तान चाहिये। मगर फिलहाल वह किसी की तलाश में थे।’’
कुलवंत सिंह ने गहरी सॉस ली। और खिड़की के बाहर देखने लगा। उसने खिड़की का शीशा  थोड़ा और सरका दिया। खेतों,मैदान,मजदूर सब कुलवंत की नजरों के सामने से पीछे भागते जा रहे थे। कब ऑख लग गई पता ही नहीं चला।
अचानक एक जगह बस रूक गई। एक पुलिस का सिपाही कंधें में स्टैनगन टांगे हुए बस में चढ गया। वह तमाम बस के खाने में रखे बेग अटैची को सरका सरका कर देखने लगा। फिर उसने सीट के नीचे देखना शुरू कर दिया। जैसे ही कुलवंत के सामने वाली सीट के नीचे देखने के लिए कुलवंत के पैर को थोड़ा हिलाया कि उसकी नीद खुल गई। उसने झट अपना पैर उपर उठा लिया। सिपाही वहॉ से आगे चला गया। अपनी पड़ताल कर बस से नीचे उतर गया।
    बस चल पड़ी। कुलवंत ने कहा,’’अब ये क्या ढूढने आया था।’’
ना जाने कितनी जगह इसी तरह नाका बंदी होती है। हमारे बैग थैलों की चैकिंग होती है। हर बार मुझे ऐसा महसूस होता है आखिर अपने राज्य में किसी आतंकवादी से कम नहीं हूं। जहॉ हर मो़ड पर हमे सफाई देने के बाद ही जाने दिया जाता है।’’


       ’’कोई नहीं पुत्तर चंगा वक्त वी आउंगा। कभी मैं भी अपना पंजाब अपना गॉव छोड़ कर गया था। मगर तब ऐसा पंजाब नहीं था। जो आज देख रहा हूं। सोचते सोचते कुलवंत यादों  के भॅवर में गोते लगाता बहुत पीछे चला जाता है..... वह ऐसे दिन थे जब गॉव मे चारो तरफ हरियाली फैली रहती थी। सभी मित्रो ने आठवीं की पढ़ाई पूरी कर ली थी। उन दिनों आठवीं बोर्ड की परीक्षा होती थी। वह सभी सुबह उठ कर दौड़ लगाया करते। डन्ड बैठक पेला करते थे। सबके रीर गटीले हुआ करते थे। घी की रोटी की चूरी तथा गिलास भर दूध पीया करते थे। सब बस सिक्ख रेजिमेंट में भर्ती होना चाहते थे। दे की सेवा करना चाहते थे। 

     फिर खेतों में जी तो़ड़ मेहनत किया करते थे। वही घर से लस्सी तैयार हो आ जाती थी। फिर सभी दोस्तो के साथ पानी के बम्मी में नहाया करते थे। नहाते वक्त खूब हुड़दंग मचाया करते थे।
कभी किसी की शादी व्याह आ जाती तो रात भर ढोल के साथ भंगडा किया करते थे। पूरा का पूरा गॉव नाचा करता था।
अचानक बस रूक गई। बस का कन्डक्टर ने आवाज लगाई। ’’मेते पेंड वाले उतर जान।’’
कुलवंत को अचानक से हो आया,हॉजीं बस रोक लो।
कन्डक्टर ने कुलवंत से कहा,’’पेले सूता ही।’’
बस रूक लो जी,कन्डैक्टर ने बस वाले से कहा
शाम के अभी छह बज रहे थे। मगर सड़क के पास कोई नजर नहीं आया ना ही कोई रिक्शा वाला ही नजर आया। तो वह पैदल ही खेतों के पगडन्डी वाली राह पकड़ ली।
गॉव पहुंचते -पहुंचते हल्का अधेरा और ब़ड़ गया। गॉव में जैसे सनाटा फैला हो। अपने भईया के घर के पास पहुंच कर उसने दरवाजे की कुंडी खड़खड़ाई। अंदर से आवाज आई,’’ हॉ कौन आ।’’
’’पाजी मैं कुलवंत।’’
फट से दरवाजा खुल गया। अरे कुलवंत तू। अचानक ही आ गये। घर में सब खैरियत है।’’उसने दोबारा दरवाजा जल्द बंद कर दिया।
’’हॉ सब ठीक है।’’
’’गॉव में अंधेरा होते होत ही सभी अपने घरो में चले जाते हैं । कोई पुलिस वाला तो रास्ते में नहीं रोका तुम्हें’’
’’नहीं मैं खेतों के बीचो बीच आया हूं ।’’
’’यहॉ तो दिन के उजाले में भी लोग सुरक्षित नहीं है और तुम रात को अकेले चले आ रहे हो।’’
’’क्या करता कोई तांगे वाला दिखा ही नहीं।
’’खैर कैसे आना हुआ?’’
’’क्या है हमारी कम्पनी ने एक बहाली निकाली है जो सिर्फ एस.सी एस.टी वालों के लिए है। मेरी अधिकारी से बात हो गई बस कागज की जरूरत है।’’
’’सरपंच के बेटे का तो कल व्याह है। व्याह के बाद बात करेंगे’’
’’मगर गॉव में तो ऐसा लग रहा जैसे मातम है। कोई ढोल बाजा कुछ नहीं बज रहा है।’’
’’बस गॉवो में व्याह ऐसे ही होते हैं । अब तो ना ही कोई किसी से ज्यादा दोस्ती ही रखता है। एक दूसरे से लोग डरते हैं   ’’
’’अपनो से कैसा डर मैं समझा नहीं।’’
’’वह मुस्कुराया और बोला,’’मैं तुमसे बात कर रहा हूं। क्या पता तुम मेरे पीछे आतंकवादी से मिले हो।’’
’’ये कैसी बाते कर रहे हो भईया।’’
’’हॉ यही सच है। तुम्हें पता है। मेरे जोड़ीदार बलवंत के लड़के हरदीप के साथ क्या हुआ बस इतनी सी गलती थी। कि उसने जिस लड़के से दोस्ती रखी थी। वह आतंकवादियो से जा कर मिल गया था। एक रात पता नहीं वह हरदीप के घर ठहर के चला गया था। शायद उस दिन उसे पुलिस ढूंढ रही थी। और जब पुलिस को वह नहीं मिला तो बलवंत के लड़के के पीछे पड़ गये। वह तो शुक्र था कि हरदीप के मामा अमेरीका में थे। तो वह अमेरीका चला गया। फिर उसके बाद कभी दोबारा गॉव नहीं आया। अपना दे ही उसके लिए पराया हो गया।
’’हमारे गॉव के नौजवान भी खालिस्तान चाहते हैं।’’
’’नहीं,बस बेरोजगार और गरीब लोगों के दिमाग में मजहब के पाठ पढ़ा उन्हें अपने में शामिल कर लिया गया है।’’
नहीं, ऐसा नहीं है। गरीबी और भूख का कोई मजहब नहीं होता। मजहब और  ईश्वर इनके लिए कोई मायने नहीं रखता गरीब की गरीबी और भूखे की भूख जो मिटा दे वही उनके लिए  ईश्वर है खुदा है। इस वक्त तो हर गरीब को यह आतंकवादी ग्रुप उनके लिए भगवान लग रहा है।’’
’’खैर, तुम नहा लो। भोजन कर लो।’’


       कुलवंत ने सब परिवार के साथ भोजन खाया। भोजन के बाद कुलवंत का मन तो खुली छत पर सोने का था। मगर वह जानते थे अब किसी की भी खुली छत ही रह गई है। कमरे में सोये वह अतीत में खो गये। जब वह बारहवीं में पढता था। उसकी प्रेमिका लाजो से रात में छुप-छुप कर मिला करता था। वह रात को छत में सो जाया करता था। फिर छत से चोरी छिपे उसके छत में चला जाया करता था। लाजो भी छत में आ जाया करती थी। दिन होने के पहले मिल कर आ जाया करता था। रात को बेहिचक वह मिल के आ जाया करता था किसी को कोई डर नहीं होता था। लेकिन चोर की चोरी तो एक दिन पकड़ी ही जाती है। चोरी पकड़ी जाने के बाद लाजो का जल्द से जल्द व्याह कर दिया गया था। क्योंकि लाजो ने उसे इतना कह व्याह रचा लिया था तुम्हें मुझसे भी खूबसूरत और अच्छी लड़की मिल जाऐगी। क्योंकि लाजो जानती थी। हम दोनों ने मॉ-बाप के खिलाफ अगर व्याह किया तो एक दूसरे पर तलवारे चलनी शुरू हो जाएगी। लाजो कभी नहीं चाहती थी कि प्यार पाने के लिए किसी और की बली चढ़ा दी जाये। कुलवंत के घर में भी इस बात को लेकर खूब हल्ला मचा कुलवंत के बापू अर्थात पिता जी ने अपने बड़े लड़के गुरदयाल को फोन कर सारी बात बता यह कहा कि इसे अपने पास ही बुला ले नहीं तो यह गॉव में बिगड़ जाएगा। उस वक्त कुलवंत बारहवीं कर चुका था। वह ऐसा वक्त था। जब गॉव में बिजली नहीं होती थी। कुलवंत रात में ढिबरी जला कर पढ़ता था। देर रात तक पढ़ता ही रहता था। मॉ उसे कहती ,’’बेटा ढिबरी बंद कर दे नहीं तो तेल खत्म हो जाऐगा। तू दिन में पढ़ लिया कर बेटा।’’उसे इस वजह से दिन में ही पढ़ना पड़ता था। उस पर उसे खेत में भी काम करना पड़ता था। इसलिए कुलंत के बापू को लगा कही कुलवंत लड़कियो के चक्कर में बर्बाद ना हो जाए। उसे बडे लड़के के पास भेज दिया था। अब तो ना ही बापू रहे ना ही गुरदयाल ही थे। 

     हॉ तो गुरदयाल बर्नपुर इस.कामें काम करता था। उसने कुलवंत को पास ही आई.टी.आई स्कूल में दाखिल करवा दिया था। कुलवंत ने सोचा था आई.टी.आई की पढाई कर वह दोबारा पंजाब चला जाऐगा। मगर सोचा हुआ कभी नहीं होता है। आई.टी.आई के बाद गुरदयाल ने उसका नाम रोजगार एक्सचेंज में लिखवा दिया था। आईटी के बाद कुलवंत को दो गाय खरीद दी थी। क्योंकि गुरदयाल का मानना था कि  ईश्वर मेहनत करने वालों को ही अच्छे मुकाम पर पहुंचाता है। कुलवंत सिंह सुबह उठकर गायो का सानी-पानी करता था। फिर गाय को दू कर, टिफिन में दूध ले बाजार में बेचने निकल जाता था। मगर कुलंवत को दिल से कभी यह काम पसंद नहीं था। अर्थात उसे इस काम में मन नहीं लगता था। वह अच्छी नौकरी के प्रयास में लगा रहता था। उसने अपना नाम इमप्लायमेंट एक्सचेंजमें लिखवा रखा ही था। एक बार हैगट की बहाली निकली इमप्लायमेंट एक्सचेंजकी ओर से इन्टरव्यु का कॉल लेटर आ गया। 

     इन्टरव्यू में जाने से पहले बड़े भाई गुरदयाल ने उसे अच्छी तरह समझाया साहब जो पूछे सही सही जबाब देना। साहब के सामने थोड़ा नरमी से अपनी गरीबी का रोना रोया। दया आ गई तो नौकरी दे देगा’’
इन्टरव्यु में साहब ने कुछ ही सवाल पूछे थे। यह बात कुलवंत ने कई बार हंसते हुए अपने बेटो को भी बताई थी। साहब ने पूछा,’’ तुमने आई.टी.आई कहा से की है।
’’जी बर्नपूर से।’’
’’कौन से टेड से की है।’’
’’फिटर टेड से की है।’’  
’’घर पर कौन-कौन हैं ’’
’’साहब घर में मैं और दो बहनें हैं । जिनका पालन-पोषण मैं ही करता हूं ’’
’’क्या करते हो’’?
’’साहब दो गायें पाल रखी हैं’’
’’कितना दूध देती हैं?’’
’’जी यही कोई चालीस पचास के आस-पास हो जाता है।’’
’’पानी मिला देते होंगे?’’
’’कुलंवत सिंह ने मुस्कुराते हुए कहा,’’साहब थोड़ा बहुत करना ही पड़ता है।’’
इस बात पर साहब हंसे कुलंवत  हॅस पड़ा। साहब ने पूछा, मान लो चलती हुई मशीन बंद हो जाये। उसमे पानी तेल डालना पड़े तो डाल लोगे ना।’’’
’’साहब मैं ठहरा फिटर आदमी हम नहीं काम करेंगे तो कौन करेगा।’’
बस फिर क्या था? तीन महीनों तक बाकी के कागज पतरों के काम के बाद ज्वाइनिन्ग लैटर आ गया।


  फिर नौकरी में ऐसा मन लगा की पंजाब वापस आ ही नहीं पाया। बंगाल में ही रह गया।
सुबह काफी हो हल्ला मचने लगा था। डगर की भी चिल्लाने की आवाज आने लगी थी। कुलवंत की नींद खुल गई। तकिये के पास रखी अपनी घड़ी देखी सुबह के सात बज गये थे। चूकि गॉव के घरो में उन दिनों शौचालय नहीं होता था। सभी घरो के बाहर खेतों में जाया करते थे। सो कुलंवत भी बोतल में पानी ले कर एक नीम की तिला दॉतो में रगडते हुए खेतों की तरफ निकल पडे़।


     खेतों की तरफ जाते वक्त उसको गॉव के कई लोग मिलते गये। गॉव और खेतों के बीच एक रेल पटरी थी । कुलवंत पटरियो के बीच चलने लगा थां तभी खेतों में काम करते एक ख्स ने कुलवंत को जोर से आवाज दी।’’ओय कुलवंत’’ कुलवंत ने उसे देखा वह पहचान नहीं पा रहा था। वह दौड़ता हुआ पास आ गया। उसने पास आ कुलवंत से कहा,’’वह पैन दे टके। सालया पेहचानाया नहीं।’’। वह सरदार ही क्या जो गाली देकर और जपी डालकर ना मिले। कुलंवत ने भी कहा,ओय पैन चौद सुखबीर ये भेप किदा बदल लिया।’’ दोनों ने एक दूसरे को गले लगा लिया। कुलवंत ने कहा,’’यार तुमने तो अपना हुलिया ही बदल दिया। तुम तो पूरे सिख बन गये।’’ सुखबीर कुलवंत का लगोटिया यार था। पहले सुखबीर मुना सरदार हुआ करता था। किसी फिल्मी हीरो सा दिखता था। सुखबीर भी कुलवंत की कम्पनी मे नौकरी करता था। वह नौकरी भी कुलवंत ने ही लगाई थी। जब कुलवंत की नई नई नौकरी हुई थी। तो कुलवंत ने अपने कई जोड़ीदार को नौकरी पर लगाया था। दरअसल कुलवंत चाहता था। उसका पंजाब आर्थात गॉव दूर है। पर साथी पास आ जायेगे। तो समझो अपना गॉव वही बस गया और अपना भी मन लगा रहेगा। मगर ऐसा हो नहीं सका। सुखबीर ने एक दिन कह दिया ,यार मेरा जी नहीं लग रहा है। दूसरे के यहा काम करने से अच्छा है। अपने खेत में ही मेहनत कर कमा लुंगा। उसने कुलवंत से भी गॉव वापस चलने के लिए कहा था। मगर कुलवंत का वही मन लग गया था। सुखबीर वापस चला आया था। उसी तरह बाकी जोड़ीदार भी वापस आ गये। कुलवंत ने कहा,’’अच्छा है सिख में भी अच्छे लग रहे हो।’’  
’’अब अच्छा लगूं या बुरा के ना रखता तो पंजाब मे रहने कौन देगा। कहीं हिन्दु समझ मार डाला गया तो और अच्छा भी है पंजाब की रौनक तो सरदारो से ही होती है।’’
’’पक्के खालसा बन गये हो तुम।’’
’’ऐसा ही कुछ समझो’’
’’तुम भी खालिस्तान चाहते हो।’’
’’नहीं,अचीबिंग जसटिस,होमेन राईटस एनड डिगनीटी ऑफ पंजाब एनड सिखस।’’
’’हिन्दुओं को मार कर और लोगों को डरा कर हम कभी अपनी महानता हासिल नहीं कर सकते है।’’
’’कोई सिख हिन्दुओं को नहीं मार रहा उन्हें तो समझाया जा रहा है। कि वह यह राज्य छोड़ कर चले जाये। मगर जाने की वजाये और इधर ही आ रहे हैं । बस जब लोग नहीं मान रहे तो बंदूक उठाना पड़ रहा है।’’
’’करीब 40 प्रतित सिख दे के कोने-कोने में बसे हुए हैं । दे के कई गरीब इलाको से रोजी रोटी के लिए यहॉ पंजाब आते हैं । इसलिए हम अपनी महानता इनसे अलग होकर नहीं दिखा सकते।’’
’’देखो मुस्लिम ने अपना पाकिस्तान लिया अगर हम सब सिख अपना खालिस्तान मांग रहे हैं । तो बुरा क्या है।’’
’’1947 में बंटवारे में आधा पंजाब पाकिस्तान चला गया। कुछ कश्मीर में चला गया। अब क्या अलग होगा।’’
’’ऐसा वक्त आयेगा जब राज्य राज्य से अलग होगा। तुम दे अलग होने की बात कर रहे हो।’’
कुलवंत को प्रेर जोर का आ गया था। उसने कहा, सुखबीर तुमसे मैं बाद में बात करूगा।
’’ठीक है आज शाम का खाना मेरे घर खाना।’’
कुलवंत अच्छा कह भागता हुआ खेतों के बीच घुस गया। खेतों के बीच से फूड़ोच से फाइरिंग की आवाज आई।
घर के ऑगन में कुलवंत के बडे भाई साहब सत्ता सिंह मंजी चारपाई में बैठ कर शीशे में देख पगड़ी बांध रहे थे। कुलंवत के वापस आते ही सत्ता सिंह ने कहा,’’कुलवंत जल्दी तैयार हो जा सरपंच के बेटे के व्याह में चलते हैं । सरपंच जी को वहीं बधाई दे देना साथ ही साथ काम की भी बात कर लेंगें।’’
सरपंच के घर के बाहर ढोल बाजे के बीच लडके नाच रहे थे। लड़कियॉ गिदा पा रही थी। 

      सरपंच जी के पास पहुंच कर कुलवंत और सत्ता ने उन्हें बधाई दी। तब तक अगुवा आकर सरपंच जी से कहा’,’’सरपंच जी दिन के दस बज गये हैं । बरात दिन के दिन ही वापस लानी है। जल्दी से सबको कहे बस में बैठ जाने के लिए।’’
सरपंच ने सबको नाच गाना बंद कर बारात की तैयारी करने के लिए कहा।
बस में सभी लोग बैठ गये थे। एक सरदार बस में चडढा और आदमी गिनने लगा। आदमी गिन उसने सरपंच जी से कहा,’’सरपंच वे तीस बंदे बैठ गये । हम तो सिर्फ चौदह बंदे ही बरात में ले जा सकते हैं । आगे या तो आतंकवादी रोक लेगे या पुलिस रोक लेगी।’’दरअसल बात ऐसी थी कि खालिस्तान वालों की कहना था कोई भी लड़के वाले बरात में ज्यादा लोग लेकर नहीं जायेगे।क्योंकि इससे लड़की वालों पर खर्च बड़ जाता है।ना ही दहेज मागेगा। उधर पुलिस वालों का कहना था कि बरात में आदमी कम लेकर जाये।क्योंकि वह मानती थी कही गोलाबारूद में ज्यादा लोग ना मर जाये।
   कुलवंत बस से उतर कर कहने लगा,’’सरपंच जी मैं रह जाता हूं’’
’’नहीं कुलवंत जी आप चलिए।’’
फिर गिनती शुरू हुई। माफी मांग-मांग कर कुछ रिश्तेदारों को बस से उतर जाने के लिए कहा।कुछ तो खुद ही उतर गये। एक ने तो यह कह दिया बरातियो से ज्यादा तो बैंड बाजे वाले ही हो गये। इन्हें भी कम कर लो। दस बैड बाजे वालों की जगह पॉच कर दिये गये। सरपंच ने इस पर गुस्से से कहा,’’अब सारे बैड बाजो वालों को मत उतार देना मैं लड़के की बरात लेकर जा रहा हूं । किसी की मईयत में नहीं जा रहा हूं’’
बैड बाजे वाले बस के उपर बैठ गये। बस चल पड़ी।
शाम के वक्त कुलवंत सुखबीर के घर खाना खाने के लिए गया था। उसकी फूल सी बेटी दोनों को चूल्हे पर रोटिया सेक-सेक कर दे रही थी। सुखबीर ने कहा,’’बस बेटी की शादी कोई अच्छा सा लड़का देख कर कर दूं।’’


     कुलवंत को सुखबीर की बेटी बहुत पंसद आई। उसका मन किया आज ही अपने बेटे जसकरन के लिए उसकी बेटी का हाथ माग लूं। मगर अभी उसे यह वक्त यह सब कहना ठीक नहीं लगा। क्योंकि पहले बेटे की नौकरी हो जाये फिर सुखबीर से इस विपय में बात करूंगा।
बातों-बातों में रात के करीब आठ बज गये। कुलवंत ने कहा चलो आब चलता हूं
गॉव पूरा सुनसान था। कुलवंत और सुखबीर पैदल चले जा रहे थे। तभी बुलेट में सवार दो पुलिस वालों ने दोनों पर टार्च मारी और उनके पास आकर कहा,’’कौन हो तुम लोग।’’
सुखबीर ने कहा,’’मैं सरदार सुखबीर सिंह। इसी गॉव से।’’
’’और यह कौन है तुम्हारे साथ।’’
’’सरदार कुलवंत सिंह। बाहर गॉव में नौकरी करता है। इसी गॉव का है।’’
’’ठीक है जाओ।’’
’’सरकार ने तो इन्हें इतनी छूट देख रखी है कि जहॉ चार युवा एक साथ खडा मिले इनकाउन्टर कर दो। सरकार युवा पीढी से डर गई है। उन्हें लगता है सारे युवा आतंक से जो जोड़े हुए हैं।
कुलवंत को घर के पास से छोड़ सुखबीर वापस चला गया।
गॉव आये हुए कुलवंत को सप्ताह भर हो गया था। एक दिन सरपंच ने कुलंत को सुबह अपने घर में बुला लिया। हाथ में कागज पकडाते हुए कहा,’’लो कुलवंत भगवान करे तुम्हारे बेटे की नौकरी हो जाये । अच्छा है जो तुम अपने गॉव से बहुत दूर हो।’’
’’मगर अपना गॉव अपने लोग कहा भूल सकते हैं। वहा रह कर भी हमेशा गॉव की चिंता सताती रहती है।’’
’’कौन सा गॉव,किसका गॉव,कैसा गॉव! जहॉ खुली सॉस ना ले सके,सूकुन की रोटी ना खा सके,चैन की नीद ना सो सके। जहॉ खुली स्वतन्त्रता से जी सके वही अपना गॉव वही अपना दे है। यहॉ तो हम ऐसे तराजू में लटके हैं कि एक तरफ आतंकवादी की गोली से बच जाये तो दूसरी तरफ पुलिस की गोली के शिकार हो जाओ।’’
’’सरकार कुछ क्यों नहीं कर रही?’’  
’’सब कुछ सरकार का ही तो किया धरा है। वोट बैंक के लिए पहले किसी का साथ लिया अब उसकी मॉग को कैसा पूरा करे। वह भी तो अलग दे बना कर राज करना चाहता है। खैर हमे यह बात अपनी यहीं खत्म करनी चाहिये क्योंकि दीवारो के भी कान होते हैं।’’
कुलवंत खांसता हुआ दरवाजे से बाहर निकल आया था। घर आ वापस जाने की तैयारी करने लगा था। आखिर तैयारी क्या करनी थी जैसे तीन जोड़े कपड़े लेकर आया था वैसे ही उठा कर चल देना था। घर के बाहर तांगे वाला तांगा लेकर आ गया था। घर के बाहर घोड़ा ही......ही... की आवाज कर रहा था रह रह कर अपना सिर हिला रहा था। कुलवंत ने सबसे जाने की इजाजत मांगी। बड़े भाई ने कहा,’’बेटे की नौकरी होने पर खत लिखना।’’
’’हॉ जरूर लिखुंगा। आप लोग भी अपना ख्याल रखीयेगा।’’
कुलवंत तांगे पर बैठ गया। तांगे वाले ने लगाम को खीच कर हूर की आवाज की और घोड़ा दौड़ पड़ा।


    ट्रेन में कुलवंत अपनी सीट में बैठा हुआ था। आस पास उसे सारे हिन्दु बैठे दिख रहे थे। उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था। वह कह रहे हो,यह सिक्खो का राज्य है। यहॉ अपनी जिन्दगी की कोई निश्चयता नहीं है।
कुलवंत ने घड़ी देखी गाड़ी छूटने में अभी भी पन्द्रह मिनट बाकी था। प्लेटफार्म पर कई सारे कबूतर अचानक फड़फड़ाने लगे। ट्रेन के डिब्बे के उपर धडाधड गोलियां बरसने लगी। कुलवंत ने किसी की आवाज सुनी,’’ सीट के नीचे छुप जाओ।’’ कुलवंत और सभी लोग सीट के नीचे घुस गये। लगातार गोलियॉ बरसती जा रही थी। गाडी के डिब्बे से हदय विदारक रोने की आवाज आ रही थी। अचानक से ट्रेन में कुछ फौजी चढ गये और इधर से वह भी फाइरिंग करने लगे।
डीजल का इंजन धॅुआ छोड़ता हुआ सीटी बजाकर चल देता है। आर्मी के जवान दूसरी तरफ कूद जाते हैं।


     गाड़ी पटरी पर तेजी से दौड़ने लगती है। कुलवंत धीरे से सीट के नीचे से निकलता है। अपनी बेतरतीब हुई पगड़ी को सही करता है। खिड़की के बाहर झांकता है। पटरी में दौड़ती पहियों की आवाज के साथ अचानक खिडकियॉ बंद होने की आवाज आनी शुरू हो गई। सबने अपनी-अपनी खिड़कियॉ बंद कर ली थी। यहां तक की डिब्बे का दरवाजा भी बंद कर दिया गया था। क्योंकि अभी ट्रेन पंजाब में ही दौड़ रही थी। ट्रेन भागती जा रही थी मैदानो पहाड़ो को पीछे छोड़ते। कुलवत गहरी चिंता में डूब जाता है। क्या वह दिन दूर नहीं जब एक और पाकिस्तान बन जायेगा हमे हिन्दोस्तान से निकाल-निकाल कर खदेड़ा जायेगा। आखिर हम हिन्दुस्तान के कितने टुकडे करेंगे। फिर अपने ही लोगों से अलग होकर अपने ही लोगों से जंग के मैदान में एक दूसरे पर गोला बारूद गिराते रहेगे। ना जाने ऐसे कितने विचार कुलवंत के दिमाग में उमड घुमड़ कर रहे थे। गाड़ी पटरी में दौड़ती जा रही थी। पास बैठे एक ख्स हनुमान चालीसा पढ़ने लगा था। एक पचास के करीब औरत हाथों में कन्ठी माला लेकर कुछ जाप करनें लगी थी। कुलवंत ने भी वाहे गुरू का नाम लिया और अपनी बर्थ में पैर फाला कर चौड़ा हो सो गया। ट्रेन एक स्टेन पर आकर रूकती है। कई लोग दरवाजा खोलने के लिए कहने लगते हैं । मगर कोई दरवाजा खोलने के लिए नहीं जाता है। कई स्टेन में खडे लोग ट्रेन के डिब्बे को गौर से देखने लगते हैं । डिब्बे के उपर कई तमाम गोलियों के निशान दिख रहे थे। आखिर कार कुलवंत ने उठ कर दरवाजा खोल दिया था।


     ट्रेन कई स्टेशनों पर रूकती और अपनी रफतार से फिर पटरी में दौड़ने लगती थी। उन दिनों कुलवंत को पंजाब से बंगाल आने में तीन दिन का सफर तय करना पड़ता था। करीब तीन दिन बाद कुलवंत अपने घर पहुंचा था।
घर पहुंचते ही कुलवंत की पत्नी के जान में जान आई थी। जब पत्नी जसबीर ने गॉव पंजाब के हालात के बारे में पूछा तो कुलवंत ने इतना कहा था। सब कुछ ठीक है बस लोग बाग ऐसे ही अफवाह फैलाते हैं । कुलवंत नहीं चाहते थे कि पत्नी को वहां के हालत के बारे में कुछ गलत बता कर उसे डरा दिया जाये।
खैर कुलवंत ब्रु ले। दॉत में रगड़ते हुए घर से बाहर आ गये। सामने उसका पड़ोसी जो उसके साथ ही कम्पनी में एक ही विभाग में काम करता था। उसने कुलवंत को देख कहा, उग्रवादी आ गये।’’


      दरअसल कुलवंत को उसके मि़त्र उसे उग्रवादी कह के बुलाते थे। हर दिन अखबार में तथा रेडियो में पंजाब की खबर देखते थे। इस वजह उन दिनों कई जगह सरदारो का लोग मजाक से उग्रवादी कह दिया करते थे। खैर कुलंवत सिंह कभी इस बात का गुस्सा नहीं करते थे क्योंकि उन्हें मजाक और हकीकत का फर्क पता था। कुलवंत ने कहा, ’’मियॉ मैं आ गया।’’ कुलवंत का पड़ोसी निजामदुदीन मुस्लिम था। कुलवंत उसे मियॉ कह कर पुकारता था। सही मायने में तो कम्पनी में काम करने वाले सभी लोग एक दूसरे को असली नाम से पुकारते ही नहीं थे। कुछ ना कुछ उप नाम रख दिया था।
’’काम हो गया।’’
’’हॉ काम तो हो गया। मगर असली काम तो बाकी है।’’
’’अब असली काम क्या रह गया है।’’
’’बेटे की नौकरी।’’
’’वह तो होना ही है।’’


      कुलवंत को कम्पनी के साहब बहुत मानते थे। उनका मानना था सरदार मेहनती,ईमानदार, निडर होते हैं । वह किसी काम से नहीं डरते हैं । इसलिए कुलवंत कभी किसी काम को करने से मना कर देता कहता,’’यह काम मुझसे नहीं हो पायेगा।’’ तो साहब का एक ही जुमला होता,अगर सरदार से नहीं होगा तो फिर यह काम किससे होगा।’’ यही वजह थी कि बेटे की नौकरी भी हो गई।
बेटे की नौकरी की खुशी में कुलवंत ने अपने सभी जोड़ीदारों मुसलमान,बंगाली,बिहारी,मद्रासी को घर में भोजन और राब पिलाया था। फिर पंजाबी की पार्टी ही क्या जहां राब और भंगड़ा ना हो।


      ये ऐसे दिन थे जब पंजाब में बहुत कुछ घट रहा था। कभी हिन्दुओं को बसों से उतार कर मारा जा रहा था। कभी कई पुलिस वाले मारे जा रहे थे। पुलिस के हाथों ही कभी आतंकवादी मारे जा रहे थे। कभी पुलिस के हाथों बेगुनाह इनकाउन्टर किया जा रहा था।
अपने बेटे की नौकरी की खबर पत्र द्वारा पंजाब भेज दी थी।
कुलवंल खाना खाकर दोपहर को सोने जा रहा था। तभी पोस्ट मैंन ने आवाज दी,पोस्ट मैंन’’
कुलवंत को रजिस्टरी देकर चला गया। पत्र कुलवंत के बड़े भाई का था। कुलवंत पत्र पढ़ने लगा। पत्र पंजाबी में लिखी हुई थी।


      बेटे की नौकरी की खबर सुन कर बहुत खुशी हुई। तुम्हारा बेटा अपने पैरो पर ख़ड़ा हो गया। अब जल्द से जल्द इसका व्याह कर दो। एक बहुत दुख की खबर भी है हमलोगों का सुखबीर अब इस दुनिया में नहीं रहा। पुलिस वालों ने उसे आतंकी बोल इनकाउन्टर कर दिया है। पंजाब के हालत दिन पर दिन बिगड़ते जा रहे हैं । खैर तुम अपना ख्याल रखना। बेटे को मेरा प्यार देना।
पत्र पढते ही कुलवंत की आखे ऑसू से भर गयीं थी।
समय बीतता गया। पंजाब में उन दिनों बहुत कुछ घट रहा था। ज्यो-ज्यो दिन बीत रहे थे। पंजाब में अपने लोगों की चिंता कुलवंत को परेशान करने लगी थी।



       6 जून 1984 की सुबह हर सिखों के लिए बहुत ही निराशा भरा दिन था। दरबार साहिब में खालिस्तानियों का खात्मा करने के लिए उसका घेराव किया गया। इससे कई निर्दोषों की जान चली गई। इससे पहले की आर्मी वाले आम जनता को कुछ कह पाते। गोलियां चलनी शुरू हो गई। देखते ही देखते सब कुछ खत्म कर दिया। कहते हैं कई सिख शख्ससियतों ने अपना सम्मान वापस कर दिया कइयों ने लेने से इनकार कर दिया। 

       31 अक्टूबर 1984 की शाम इस दे के लिए बेहद निराशा और अशांति का दिन था। तत्कालीन प्रधान मंत्री को उनके ही सिख बार्डी गार्डो ने उनकी हत्या कर दी थी। तत्काल ही पूरे दे में सिखों का कत्ले आम शुरू हो गया।


       उस दिन कुलवंत घर पर रेडियो सुन रहा था। बेटा कम्पनी गया हुआ था। कुलवंत की पत्नी डर गई। कुलवंत यह सब सुन अपने बेटे को कम्पनी लेने जाने की तैयारी करने लगे। लेकिन पत्नी ने उन्हें रोक लिया आखिर बाहर उन्हें भी तो खतरा था। अचानक से दरवाजा खटखटाने की आवाज आई। कुलवंत ने पूछा कौन,मैं निजामुद्दीन’’कुलवंत ने दरवाजा खोल दिया। निजामुद्दीन अपनी लाइसनसी बंदूक टागे अंदर घुस गया। चारो ओर सिखों को मारा जा रहा है। उनकी दूकाने घर जलाये जा रहे हैं । कुलवंत पास की सरदार के ढाबे को जला दिया गया है। मगर कुलवंत तू चिंता ना कर मेरे यार एक-एक को बहन चौद को उडा़ दूंगा।’’
’’मुझे अपनी नहीं अपने बेटे की चिंता है।’’
’’तुम चिंता मत करो कम्पनी में उसे कोई कुछ नहीं कहेगा। देख कुलवंत जिस हिन्दुस्तानियो की रक्षा के लिए गुरूनानक देव ने सिख धर्म बनाया आज वही हिन्दु सिखों के खून से नहा रहे हैं । आज तो कोई मुस्लिम उन्हें नहीं मार रहा है।’’
’’नहीं मेरे दोस्त आज कोई मजहब नहीं मार रहा ना मुसलिम ना हिन्दू आज कुछ असामाजिक लोग हैं जो राजनीति का चोला पहन कर लूट रहे हैं, मार रहे हैं ।’’
उस रात कुलवंत का बेटा जसकरन वापस नहीं आया। निजामुद्दीन ने कहा,’’ हो सकता है। उसने कही रण ली हो माहौल ठंडा होने पर आ जायेगा।’’


     लेकिन जसकरन कभी नहीं आया। कुलवंत अपने बेटे की तला के लिए खूब भटका मगर वह कहीं नहीं मिला। लोगों का कहना था। दंगे के लोगों ने उसे मार कर जिंदा जला दिया होगा। या फिर हो सकता है कम्पनी में ही आग के भट्टी में फेंक दिया होगा। गुस्साये लोगों ने उसके जीस्म का पीस पीस कर दिया होगा।


     एक दिन कुलवंत के पास उसके मित्र अफसोस जताने आये थे। कुलवंत ने बस इतना भर कहा था।’’ अगर पंजाब में हिन्दुओं को मारने वाले सिख आतंकवादी थे तो यह कौन थे जिन्होंने मासूम लाचार लोगों की जान ली है।’’


      कहते हैं कुछ दिनों बाद कुलवंत वहां से चला गया बिना किसी से कुछ कहे। लोगों का कहना है। कुलवत गुस्से से पंजाब चला गया और खालिस्तानियों से मिल कर उग्रवादी बन हिन्दुओं को मारने लगा। कुछ लोगों का कहना है। उसकी पत्नी हिन्दुओं से डर गई थी। जैसे उसने अपना बेटा खो दिया था। अपने पति को खोना नहीं चाहती थी। इसलिए सब कुछ बेच पंजाब अपने मुल्क चली गई थी। लेकिन अभी-अभी कुछ लोगों का कहना है। कुलवंत को दिल्ली के जंतर-मंतर में दंगो में पीडित सिखों के परिजनों के बीच ’’आई वान्ट टू जस्टीस’’ का बोर्ड लगाये बैठा देखा है।


सम्पर्क- विक्रम सिंह
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