मंगलवार, 21 अगस्त 2012

गढ़वाली हास्य - व्यंग कविता - कुछ नी कन्नी सरकार

जमुना दास पाठक की गढ़वाली हास्य - व्यंग कविता
    



कुछ नी कन्नी सरकार 

जैं कड़ैपर पैली छंछेड़ु बंणदू थौ -2
वीं कड़ै पर अब हलवा अर
फिर चौमिन कू छैगी रोजगार
तब बोल्दन लोग कि कुछ नी कन्नी सरकार।

पैली गौं-गौं मा श्रमदान होंदा था
ढोल -नगाड़ौं बजै तैं अर अपड़ा - अपड़ा
कुल्ला दाथड़ौं ली तैं लोग
गौं का चारी तरफै
की सफाई करी तैईं पर्यावरण प्रदूषण तैं भगै देंदा था
अब लोग बैठ्यांछन खुट्यों पसारोक
अर सरकार देणी रोजगार
तब बोल्दन लोग कि कुछ नी कन्नी सरकार।

सच माणा पैली का लोग प्रदूषण का बारा जाणदै निथा
 तबैत गुठुयारों मा कुलणौ  पिछनैईं
रस्तो मां अर इथा तककि पाणी का धारौं तक
भि थुपड़ा रंदा था लग्या लैट्रिन का
अब घर- घर मा लैट्रिन ह्वैगेन तैयार
तब बोल्दन लोग कि कुछ नी कन्नी सरकार।

पैली मजबूरी मा पैदल जाण पड़दु थौ
स्कूल मा, दुकानी मा, रिश्तेदारी अर
नौकरी कन्नक तैं भी पैदलै जाण पड़दु थौ
मुंड मा होया कांधी मा हो दुद्दे अर
चार- चार मण कू बोझ पैदलै लिजाण पड़दु थौ
आज गौ- गौ मा सड़क जाण सी
घर- घर ह्वैगन मोटर कार
तब बोल्दन लोग कि कुछ नी कन्नी सरकारं

पैली का जनाना ग्यों अर कोदू पिसण कतै
सुबेर जांदरू रिगौंदा था
अर श्यामकु उखल्यारौं मा साट्टी झंगोरा की घाणी
रंदी थै दिख्याणी
जख मा कि कुल्ल सासू- ब्वार्यों का झगड़ा होंदा था
अब जगा- जगौ ह्वैगी चक्यों की भरमार
तब छन्न बोन्या  कि कुछ नी कन्नी सरकार।

पैली का छोरा स्कूल मा भि
बिनै सुलार पैर्यां चलि जांदा था
अर पाटी पर लेखीतै बिना
कौफी किताब्यों याद भि कर्याल्दा था
अर अब जलमदै नर्स बोन्नी
कि कख येकू कुर्ता सुलार
तब बोल्दन कि कुछ नी कन्नी सरकार।

पैली लोग जब बीमार होंदा  था
देवतौं का दरवाजा खटखटांदा था
अस्पताल नि होण सीक हैजा
अर माता जनीं भयंकर बीमारिन
गौं का गौं बांजा पड़ी जांदा था
आज सड़क अर अस्पताल होण सीक 
झट्ट होणू उपचार
तब छन लोग बोन्या कि कुछ नी कन्नी सरकार।

पैली का लोग अनपढ़ होंदा था
किलै कि स्कूल दूर होक सीक
वख तक पौंछी निसकदा था
अर अनपढ़ होण सीक ऊंका दिल मा जात पात
ऊंच नीच अर अपणू
विराणू जना भेद भाव जन्म लेंदा था
जातैं रूढिवादिता बोल्दन
आज गौं -गौ मा स्कूल  कालेज खुन्न सीक
अर शिक्षा कु प्रचार -प्रसार
होण सीक ह्वैगी समाज कू बेड़ा पार
तब छन बोन्या कि कुछ नी कन्नी सरकार।

पैली हमारा समाज मा बलि प्रथा कू जादै बोल बाला थौ
क्वी बीमार होंदू थौ
झट्ट वैमा कुखड़ी- बाखरी ऊंचे तेवई वीं सणी
पट्ट मारी देंदा था
कति जगौं आज भि होणू
पर अब सतसंग कू प्रचार -प्रसार होण सीक
बंद ह्वैग्यन कुखड़ी -बाखरी खया देवतौं का द्वार
तब छन बोन्या कि कुछ नी कन्नी सरकार।

पैली लोग गरैयों सणीदेवता माणी तैं पुजदा था
कैकू काम ख्राब होण पर
पंडा जी बोल्दा था कि ये का गरै खराब छन चन्या
ऊं सणी पूजि द्यान
टाज मनखी चंद्रमा तै दूर
मंगल गरै पर बसण ह्वैगी तैयार
तब छन लोग बोन्या कि कुछ नी कन्नी सरकार।

पैली लोग जाणदै नि था कि
मुख्यमंत्री क्या हवै अर  विधायक क्या  हवै
जौं का द्वारा सरकार  चल्दी
आज सरकार जगा जगौं लगैल्यन जनता दरबार
अर फिर भी छन लोग बोन्या कि कुछ नी कन्नी सरकार।

मै आप लोगू सणी फिर याद दिलौंदू छौं
कि पैली  जैंकड़ै पर छंछेड़ु बंणदू थौऊ
बीं पर आज हलवा
अर फिर चौमिन कू ह्वैंगी रोजगार
समाज का भला भला वैखू
अब नि बोलने कि कुछ नि कन्नी सरकार
आज का नवयुवक भायौं अर बैण्यों
सुदि निरा बैठ्या बेकार
मेरी दृष्टि मा सब्बी धाणी कन्नी सरकार।



 संपर्क सूत्र- 
           जमुना दास पाठक , प्रवक्ता- राजनीति विज्ञान
                      रा0 0 का0 गौमुख
           टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121
           मोबा0-09719055179

शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

जीवनधर्मी कवि केशव तिवारी की कविताएं

जीवनधर्मी कवि
केशव तिवारी की कविताएं

 

      केशव तिवारी एक ऐसे कवि हैं जिनके रोम-रोम में लोक बसा हुआ है। इनकी कविता के  कथ्य ,शिल्प और भाषा में लोक के रंग गहरे तक पैठे हैं इनकी कविताओं को पढ़ते या सुनते हुए लगता है जैसे हम उस लोक विशेष में प हुंच गए हों लोक की प्रकृति ,लोक के नर -नारी , लोक के रीति-रिवाज ,लोक की बोली-भाषा ,लोक की वेश-भूषा ,लोक के गीत -संगीत ,लोक के गायक ,लोक के वाद्य ,लोक के सं घर्ष ,दुख-दर्द , हर्ष-विषाद आदि सभी रंग उनकी कविताओं मे पूरी सहजता एवं सरसता के साथ चित्रित हैं।
            मृदु स्वभाव के धनी कवि  केशव तिवारी की  कविताओं में व्यक्त लोक की विशिष्टता है कि वह किसी भी अंचल का हो उसी आत्मीयता एवं जीवंतता के साथ प्रकट होता है जैसे उनके अपने अंचल का उन्हें रसूल हमजातोव के दागिस्तान से  भी उतनी ही रागात्मकता है जितनी अपने अवध या बुंदेलखंड से इसी लिए तो उनकी सबसे प्रिय पुस्तकों में से एक है- रसूल हमजातोव की पुस्तकमेरा दागिस्तान यह कवि की लोक के प्रति वैश्विक दृष्टि का परिचायक है हो भी क्यों ना लोक चाहे कहीं का भी क्यों ना हो ,रंग भले उसके अलग-अलग हों रूप कमोवेश एक ही होता है अर्थात सभी के दुख-दर्द एवं संघर्ष एक समान होते हैं। सोचने विचारने का तरीका एक होता है। ऐसे में एक सच्चा जनकवि  किसी भी अंचल की आम जनता के कष्टों एवं संधर्षों से उद्ववेलित हुए बिना भला कैसे रह सकता है।
               जनवादी लेखक संघ की उत्तर प्रदेश इकाई के महासचिव तथा राष्ट्रीय कार्यकारणी के सदस्य केशव तिवारी का लोक केवल गॉवों तक सीमित नहीं है बल्कि कस्बों ,नगरों तथा महानगरों में रहने वाला लोक भी उनकी नजरों से ओझल नहीं है। साथ ही उन्हें लोक में सब कुछ अच्छा ही अच्छा नहीं दिखाई देता है वे लोक की गड़बडियों को भी नजरदांज नहीं करते ।इस तरह केशव लोक को द्वंद्वात्मक दृष्टि से देखने वाले कवि हैं।

 

         कुमाऊॅ

मैं बहुत दूर से थका हरा आया हूं
मुझे प्रश्रय दो कुमाऊॅ ये तुम्हारे ऊॅचे पर्वत
जिन पर जमा ही रहता है
बादलों का डेरा
कभी दिखते कभी विलुप्त होते
ये तिलस्मी झरने तुम्हारे सप्तताल 
तुम इनके साथ कितने भव्य लगते हो कुमाऊॅ
शाम को घास का गट्ठर सर पर रखे
टेढ़े-मेढ़े रास्ते से घर लौटती
घसियारी गीत गाती औरतें
राजुला की प्रेम कहानियों में डूबा
हुड़के की धुन पर थिरकता
वह हुड़किया नौजवान
उस बच्चे की फटी झोली से उठती
हींग की तेज महक
तुम उसकी महक में बसे हो कुमाऊॅ
यह मैासम सेबों के सुर्ख होने का है
आडुओं के मिठास उतरने का है
और तुम्हारी हवाओं में कपूर की
तरह घुल जाने का है
उनके भी घर लौटने का मैासम है
जिन्हें घर लौटते देखकर मीलों दूर से
पहचान जाती है तुम्हारी चोटियॉ
 कुमाऊॅ !

 पाठा की बिटिया

गहरा सॉंवला रंग
पसीने से तर सुतवॉ शरीर
लकड़ी के गट्ठर के बोझ से
अकड़ी गर्दन
कहॉं रहती हो तुम
कोल गदहिया ,बारामाफी ,टिकरिया
कहॉं बेचोगी लकड़ी
सतना ,बॉंदा ,इलाहाबाद
क्या खरीदोगी
सेंदुर ,टिकुली ,फीता
या आटा ,तेल ,नमक
घुप्प अंधेरे में
घर लौटती तुम
कितनी निरीह हो
इन गिद्धों भेड़ियों के बीच
तुम्हारे दुःखों को देखकर
खो गया है मेरी भाषा का ताप
गड्डमगड्ड हो गये हैं बिम्ब
पीछे हट रहे हैं शब्द
इस अधूरी कविता के लिए
मुझे माफ करना
पाठा की बिटिया  

 किले होते महल होते

रवण हत्था बजाता यह भोपा
क्या गा रहा है
ठीक ठीक कुछ भी समझ नहीं रहा
इस निपट वीराने में इसका स्वर
इस मरुभूमि में
इसकी रंग विरंगी पगड़ी
बता रही है
एक बूढ़े भोपा ने यहॉ
छेड़ रखी है मुहिम
वीरानगी के खिलाफ
लोहा लेना तो यहॉ के पानी में है
एक स्त्री ने भी लिया था लोहा
राना जी के खिलाफ
और ढोल बजा बजा कर
कर दी थी मुनॉदी
मैंने लीनो गोविंद मोल
तराजू के एक पलड़े पर था गोविंद
दूसरे पर राना का साम्राज्य
यह सुरों में डूबा भोपा
एकतारा लेकर महल त्याग चुकी वह स्त्री
उॅटगाड़ी में पानी की तलाश में
निकले लोग
रेवणों के पीछे मस्त गड़रिये
इनके बिना यह प्रदेश
सामंती अवशेषों के सिवा
क्या होता
जहॉं किले होते, महल होते
पर अपने समय को
ललकारते लोग होते

जन्म- 4 नवम्बर, 1963; अवध के जिले प्रतापगढ़ के एक छोटे से गाँव जोखू का पुरवा में।
‘इस मिट्टी से बना’ कविता-संग्रह, रामकृष्ण प्रकाशन, विदिशा (म.प्र.), सन् 2005; ‘संकेत’ पत्रिका का ‘केशव तिवारी कविता-केंद्रित’ अंक, 2009 सम्पादक- अनवर सुहैल। देश की महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, समीक्षाएँ व आलेख प्रकाशित। ‘आसान नहीं विदा कहना’ कविता-संग्रह, रॉयल पब्लिकेशन, जोधपुर
सम्प्रति-
बांदा (उ.प्र) में हिन्दुस्तान यूनीलीवर के विक्रय-विभाग में सेवारत।
सम्पर्क-
द्वारा पाण्डेये जनरल स्टोर, कचेहरी चौक, बांदा (उ.प्र)
मोबाइल- 09918128631
ई-मेल- keshav_bnd@yahoo.co.in

रविवार, 5 अगस्त 2012

कहीं खुल न जाये दुपट्टे की गांठ !

कहीं खुल न जाये दुपट्टे की गांठ !   






          दोस्तो ! बहुत दिनों से नेट पर लगभग अनुपस्थित सा रहा हूं मैं। वजह मेरा पीसी कोमा में चला गया था। अब सब कुछ ठीक ठाक है। आज अपने एक इलाहाबादी दोस्त की कुछ कविताएं पोस्ट कर रहा हूं। इस समय ये नागालैण्ड के  एक विद्यालय  में अध्यापन का कार्य कर रहे हैं। इनकी कुछ कविताएं देश की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।
         आगे हम आपको जल्द ही केशव तिवारी ,विजय सिंह, भरत प्रसाद ,महेश चन्द्र पुनेठा, हरीश चन्द्र पाण्डे ,शंकरानंद, संतोष कुमार चतुर्वेदी, रेखा चमोली, शैलेष गुप्त वीर, विनीता जोशी, यश मालवीय , कपिलेश भोज ,नित्यानंद गायेन, कृष्णकांत, प्रेम नन्दन एवं अन्य समकालीन रचनाकारों की रचनाओं से रुबरु कराते रहेंगे। आशा है आप सबका स्नेह व प्यार पहले की तरह मिलता रहेगा।

अमरपाल सिंह आयुष्कर की कविताएं.

जिन्दगी 

कागजों की कश्तियों . सा बह रहा
एक बच्चे की जुबानी कह रहा
जिन्दगी मुट्ठी से गिरती रेत है
या हथेली थक चुकी करतब दिखाकर
मांगती पैसे अठन्नी एक है
धूप से सींचे फटे से होंठ ले
खा रहा रोटी बुधौवा नेक है
या किसी बंजर की माटी सींचकर
लहलहाता. सा तना इक खेत है ।


अम्मा

हमारा आंगन उतना बड़ा 
जितना परात  
पर अम्मा न जाने कैसे न्योत लेती
होली,दिवाली,तीज,त्यौहार
बाबा के शब्दों में बरात

इंतज़ार 

बाज़ार गई बेटी 
माँ की सांसे बाप की इज्जत
गठिया ले गई  दुपट्टे के कोने में  
कभी भी फट सकता है कोना
बाज़ार की वीरानी में 
उछल सकता है कोई कंकड़
फंस सकता है  
दुपट्टा किसी पहिये में 
डर है 
कहीं खुल न जाये दुपट्टे की गांठ !
शायद , इसीलिए सहमी है दरवाजे पर 
टिकी बाप की आँखे और माँ की साँस !

संपर्क सूत्र.

अमरपाल सिंह आयुष्कर
ग्राम खेमीपुर,नवाबगंज
जिला गोंडा ,उत्तर  प्रदेश
मोबा0. 09402732653