मंगलवार, 15 मार्च 2016

लघु कथा : सौभाग्य या दुर्भाग्य- उमा शंकर मिश्र






सौभाग्य या दुर्भाग्य

     आँसू यदि आंखो से निकल जाय तो मन को बहुत राहत मिलती है आँसू ही जीवन है । जिनके आंखो में आँसू नहीं है वहाँ जिन्दगी भी नहीं है । संवेदनशील जिन्दगी के आँसू तो आवश्यक तत्त्व होते हैं। संवेदना अच्छी जिन्दगी की आधार-शीला होती है।

     आज वसावन अपना खेत जोतकर वापस आया। यह तीन विश्वा जमीन उसे ठाकुर ने दिया था। इसलिए कि उसका पूर खेत 30 विघा वह जोतता रहे । वसावन की तीन पीढ़ी इसी में बित गयी थी। पसीन से लथपथ वसावन को 2 सूखी रोटी और पानी मिला हुआ दाल मिला। मंहगी दालें गरीबों के लिए नहीं बोई जाती है। न ही सुलभ कराया जाता है। इसलिए राशन कार्डो पर सरकार दाल उपलब्ध नहीं कराती है।

     बहुत है इससे जिन्दगी की सांस तो चलती रहेगी। गरीबी अभिशाप है कलंक है लेकिन पीढ़ी दर पीढ़ी वसावन की उसी में बित गया।

      खेत में काम करते करते वसावन की खेती से दोस्ती हो गयी थी। आज ठाकुर ने वसावन को 4 विघा जमीन जोतने के साथ गन्ना घेरने की भी सलाह दिया था। वसावन को अपनी दोनों लड़कियों की शादी की चिन्ताएं सता रही  थी । खेत के मेड़ पर जगह जगह बिल थे। पानी जब बिल में जाता था तो जहरीले सांप भी निकलते थे जो वसावन के लिए खतरा सिद्ध हो सकते थे। लेकिन इसकी परवाह वह नहीं करता था। क्योंकि गरीब की जान की कीमत कुछ नहीं हुआ करती खेत में एक विशेष जगह पानी  जाकर रूक जाता है तथा पानी में कुछ तैलीय तत्त्व नजर आ रहे थे।

       वसावन इस प्रक्रिया को कम से कम 20 वर्षों से देख रहा था। वह मालिका को बताय । मालिक ने जिला प्रशासन को इसके बारे में सूचना दिया। जिला प्रशासन ने भूगर्भ विभाग को सूचना के साथ साथ कुछ सकारात्मक कार्य करने के लिए निवेदन किया। आवेदन पर त्वरित कार्यवाही हुई तथा उस जगह की मिट्टी लेकर परीक्षण के लिए प्रयोगशाला में भेजा गया। परीक्षण कामयाब रहा।उस खेत में बहुत बड़ी मात्रा में पेट्रोल मिलने के संकेत मिला। वसावन खुश था । लेकिन ठाकुर नाराज । कहीं ऐसा न हो कि इसका श्रेय वसावन को मिल जाय । वह इसमें बटंवारा करने लगे नकारात्मक विचारों की आंधी में ठाकुर बह गया। और आज वसावन की खाने में जहर मिला दिया । तड़पकर वसावन की मौत हो गयी उस जगह जहां तेल मिलने की संभावना थी अभिशाप समझकर भूगर्भ विभाग ने कार्य करने से मना कर दिया।जिलाधिकारी महेन्द्र ने कार्य स्थगित करा दिया।

       ठाकुर की बेइमानी,छल ,कपट,प्रपंच के कारण एक अच्छा कार्य आगाज होने से पहले समाप्त हो गया।

सम्पर्क:  उमा शंकर मिश्र
          ऑडिटर श्रम मन्त्रालय
          भारत सरकार
          वाराणसी मोबा0-8005303398

मंगलवार, 8 मार्च 2016

आरसी चौहान की तीन कविताएं





          वागर्थ के फरवरी अंक में मेरी तीन कविताएं प्रकाशित हुई हैं । आप सब लिए पुरवाई ब्लाग में इसे पोस्ट कर रहा हूं। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर दुनिया की आधी आबादी को ढेर  सारी शुभकामनाएं। वैसे आज मेरा जन्म दिवस भी है।आज ही के दिन अर्थात 08 मार्च 2015 को शुरू किया गयाा था हम कुछ मित्रों द्वारा साल भर पहले उत्तराखण्ड से शिक्षा तरू अभियान। इस अभियान के बारे में फिर कभी आगे। फिलहाल प्रस्तुत है मेरी तीन कविताएं-

 












एक विचार

(हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएं पढ़ते हुए)
एक विचार
जिसको फेंका गया था
टिटिराकर बड़े शिद्दत से निर्जन में
उगा है पहाड़ की तरह
जिसके झरने में अमृत की तरह
झरती हैं कविताएं
शब्द चिड़ियों की तरह
करते हैं कलरव
हिरनों की तरह भरते हैं कुलांचे
भंवरों की तरह गुनगुनाते हैं
इनका गुनगुनाना
कब कविता में ढल गया और
आदमी कब विचार में
बदल गया
यह विचार आज
सूरज-सा दमक रहा है।



कितना सकून देता है

आसमान चिहुंका हुआ है
फूल कलियां डरी हुई हैं
गर्भ में पल रहा बच्चा सहमा हुआ है
जहां विश्व का मानचित्र
खून की लकिरों से खींचा जा रहा है
और उसके ऊपर
मडरा रहे हैं बारूदों के बादल
ऐसे समय में
तुमसे दो पल बतियाना
कितना सकून देता है।

ढाई अक्षर
 
तुम्हारी हंसी के ग्लोब पर
लिपटी नशीली हवा से 
जान जाता हूं  
कि तुम हो
तो   
समझ जाता हूं
कि मैं भी
अभी जीवित हूं 
ढाई अक्षर के खोल में।



संपर्क   - आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121
मोबा0-08858229760 ईमेल- puravaipatrika@gmail.com

शनिवार, 5 मार्च 2016

राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं-

  


           हिमाचल प्रदेश के सुदूर पहाड़ी गांव से कविताओं की अलख जगाए राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं किसी पहाड़ी झरने की तरह मंत्र मुग्ध कर देने के साथ आपको यथार्थ के धरातल सा वास्तविक आभास भी कराती हैं। कवि के कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं है। बिल्कुल पहाड़ी नदियों की तरह निश्चल और पवित्र हैं इनकी कविताएं। गांव, नदी, पहाड़  ,जंगल , घाटियां नया आयाम देती हैं इनकी कविताओं कोे । बकौल राजीव कुमार त्रिगर्ती-
   
     गांव से हूं,आज भी समय के साथ करवट बदलते गांव से ही वास्ता है। जीवन का वह हिस्सा जब हाथ लेखनी पकड़ने के लिए बेताब था, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के माहौल में बीता। वाराणसी की खरपतवार और रासायनिक उर्वरक- रहित साहित्य की भूमि में कब कवित्व का बीज अंकुरित हुआ कुछ पता ही नहीं चला। भीतर के उद्गारों को अपने ढंग से व्यक्त कर पाने की हसरत से ज्यादा आत्मसंतुष्टि शायद ही कहीं होती हो। असल में पहाड़  ,जंगल , घाटियों , कलकलाती नदियां हैं तभी तो पहाड़ में प्रेम है। इनके होने से ही जीवन जटिल है तभी तो पहाड़ में पीड़ा है। यहां प्रेम और पीड़ा का सामांजस्य अनंत काल से सतत प्रवाहित है। प्रकृति के सानिध्य में सुख दुख के विविध रूपों को उभारना अच्छा लगता है। मेरे लिए यह बहुत है कि प्रकृति के सानिध्य में भीतर के उद्गारों को व्यक्त करने का एक खूबसूरत तरीका मिल गया है। भीतर के उद्गार को अपने ही शब्दों में व्यक्त करने के आनंद की पराकाष्ठा नहीं और यह आनंद ही मेरे लिए सर्वोपरि है।

राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं-

 


अभी समय है   


हो इक दिन ऐसा कि
इस नाले को बहने के लिए मिले खुली जगह
खुलकर चढ़ सके दोनों पाटों पर
ले सके मर्ज़ी की गति

हवा बह सके पेड़ों और सिर्फ़ पेड़ों के बीच
तरह-तरह के परागों से लदी हुई
भरपूर सुगंधित

एक दिन आए ऐसा
कि हम अपने से हटकर सोचें
पेड़-जंगल कटान पर
पत्थर-बालू खनन पर
नदी-नहर, औद्योगिक अवकरों के बारे में
बैंगन-लौकी, दूध-तेल
जहरीले टीकों, घटिया मिलावट के बारे में
यह भी तो सोचें हम
कि यही सोचना हमारे हित में है
ज़िन्दगी के बारे में सोचने से
हम बच सकते हैं
एक घटिया इतिहास बनने से
अगली सभ्यताओं के सामने।


 सार्थक मृत्युओं के बाद भी

पढ़ते हुए
कभी सूंघी है नई किताब की खश्बू
एकदम ताज़ा किताब
छप-छपाके, सिल-सिलाके
ज़िल्द में लिपटी
हाल ही मैं छपी हुई
बिलकुल ताज़ा नई किताब
कड़कड़ाते हों जिसके कागज़
खोलने पर संगीत की तरह
बजते हों जिसके सुर
हर पन्ने से आए एक अलौकिक गंध
सिलाई पर लगी गोंद
छपाई के रंग के साथ
पेड़ की गंध सनी
कि पढ़ने से ज़्यादा
हौले-हौले नाक से
खश्बू पीने का मन हो,

पढ़ते हुए
कभी सूंघी है पुरानी किताब की खश्बू
पुरानी बहुत पुरानी किताब की
उससे आती है किसी बूढे़ की
गर्म रजाई की खश्बू
गर्म सा हो उठता है
भीतर कुछ बहुत गहरे
आती है उससे वनौषधियों की खश्बू
और महसूसा जा सकता है बाहर-भीतर
कुछ स्वस्थ होता हुआ
पुरानी किताब की गर्द से
झरती है फूलों की खश्बू अनवरत
कि बैठे हों फूलों का कोई झाड़ थामे
छायादार पेड़ की उड़ती हुई छाया
बन जाती है लकड़ी का फर्श और दीवारें
तन जाती है छत की तरह,

दुआ करो कि
जब तुम्हारी अलमारियों की किताबें
पुरानी हो जाएं
तुमसे बहुत पुरानी
तो सूंघी जाएं
और भी ज़्यादा खुश्बुओं के साथ
जीते रहें कुछ पेड़
अपनी सार्थक मृत्युओं के बाद भी।



जादुई स्पर्श


खेत , खेत नहीं रहते
भवनों के नीचे दब ताने पर
उभर आने पर किसी भी तरह की
स़ड़क-पटरी या कोई रास्ता
कोई भी अनपेक्षित निर्माण

खेत सूख जाने पर भी
दह जाने पर भी
बहुत कुछ सह जाने पर भी
किसान का हाथ लगते ही
बन जाते हैं फिर खेत
अगली फसल के लिए।

संपर्क-
राजीव कुमार त्रिगर्ती
गांव- लंघु डाकघर -गांधीग्राम
तहसिल- बैजनाथ
जिला - कांगड़ा,हिमाचल प्रदेश 176125

मोबा0-09418193024

सोमवार, 22 फ़रवरी 2016

मेरी पहली कविता : रैदास की कठौत - आरसी चौहान









    आज हम  जिस दौर से गुजर रहे हैं शायद आजाद भारत में ऐसा षडयंत्र कभी नहीं रचा गया होगा जिसमें जनता की चीखों को बड़े शातिराना तरीके से दबाया जा रहा हो और हमारे हुक्मरान  धृतराष्ट्र की मुद्रा में विराजमान हों। जहां रोहित बेमिला एवं कन्हैया जैसे उदाहरण एक बानगी भर है। एक कविता जो पन्द्रह वर्ष पहले लिखा था जो कहीं भी प्रकाशित होने वाली संभवत: मेरी पहली कविता है। अखबार था वाराणसी से प्रकाशित होने वाला  ‘ गांडीव ’ और साल था 2001 जिसकी प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है जितनी तब भी थी । केवल चेहरे बदल रहे हैं सिंहासन पर, आम आदमी वहीं का वहीं है।

 अगली पोस्ट जल्द ही जो वागर्थ के फरवरी 2016 अंक में  प्रकाशित मेरी तीन कविताओं पर होगी। फिलहाल प्रस्तुत है रैदास जयंती पर  मेरी पहली कविता। 

रैदास की कठौत


रख चुके हो कदम

सहस्त्राब्दि के दहलीज पर

टेकुरी और धागा लेकर

उलझे रहे

मकड़जाल के धागे में

और बुनते रहे

अपनी सांसों की मलीन चादर

इस आशा के साथ

कि आएगी गंगा

इस कठौत में

नहीं बन सकते रैदास

पर बन सकते हो हिटलर

और तुम्हारे टेकुरी की चिनगारी

जला सकती है

उनकी जड़

जिसने रौंदा कितने बेबस और

मजलूमों को।


संपर्क   - आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121
मोबा0-08858229760 ईमेल- chauhanarsi123@gmail.com
 

 

रविवार, 7 फ़रवरी 2016

अशोक बाबू माहौर की कविता : धूप हथेली पर



    मध्य प्रदेश के मुरैना जिला में 10 जनवरी 1985 को जन्में अशोक बाबू माहौर का इधर रचनाकर्म लगातार जारी है। अब तक इनकी रचनाएं रचनाकार, स्वर्गविभा, हिन्दीकुंज, अनहद कृति आदि में प्रकाशित हो चुकी हैं।


  ई.पत्रिका अनहद कृति की तरफ से विशेष मान्यता सम्मान 2014.2015 से अलंकृति ।प्रस्तुत है इनकी एक कविता धूप हथेली पर

अशोक बाबू माहौर की कविता

  


















धूप हथेली पर 

धूप को समेटे 
हथेली पर 
बैठी है 
लाडली बिटिया 
मुस्कुराती,
पथ भी 
निगाहें भर 
उसे देखते 
हरी निर्मल घास भी
शब्द मंथन करती 
अंदर 
मन ही मन 
शायद समझ बैठी है 
खुद को 
अलौकिक शक्तियाँ,
तभी 
धूप को 
मसलती है 
चुटकियों में 
और सजाकर खेलती है 
खेल अनौखे

                       
संपर्क- 
ग्राम-कदमन का पुरा
तहसील-अम्बाह,जिला-मुरैना (मध्य प्रदेश) 476111 
मो-09584414669 

मंगलवार, 26 जनवरी 2016

ममता सैनवाल की कविता -जब दुनिया में मैं आयी

समस्त देश वासियों को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ प्रस्तुत है नवोदित कवयित्री ममता सैनवाल की कविता ।

 
















जब दुनिया में मैं आयी



ना गूंजा घर में गीत
ना घर में बजी बधाई थी
सबके चेहरे उतरे उतरे
जब दुनिया में मैं आयी
दादा दादी भी गुमसुम
गुमसुम चाचा ने बात बताई
क्यों नाचें हम लोग खुशी से
क्यों बांटें हम मिठाई
पापा की आंखें उदास
मम्मी की आंखें पथराई थी
सोचा था लाल ही होगा
पर ये बिटिया कहां से आयी
वो दुनिया को रचने वाले
कैसा न्याय तुम्हारा है
जो हमको तुमने लड़की बनाया
क्या ये दोष हमारा है
सोचो भाइयों और बहनों
अगर न होती जग में लड़की
झांसी की लाज बचाता कौन
सीख क्या देती दीदी हमको
दादी का प्यार दिलाता कौन ?

 















संपर्क-
ममता सैनवाल
कक्षा 11
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख टिहरी गढ़वाल
उत्तराखण्ड 249121

सोमवार, 18 जनवरी 2016

संस्मरण - लौट के बुद्धू घर को आए (भाग-तीन)-पद्मनाभ गौतम





      कवि मित्र पद्मनाभ गौतम के पहाड़ी अनुभवों को उनके संस्मरण - ‘ लौट के बुद्धू घर को आए ’ की  आज  पांचवीं और आखिरी किस्त।आपके विचारों की प्रतीक्षा में सम्पादक -पुरवाई



     इस अनिश्चितता व उहापोह में जब हम धरवाला से हम जब आगे बढ़े तो हमारे साथ दो और राहगीर आ गए। वो दोनों पिता-पुत्र थे जो होली गाँव से आ रहे थे। होली एक कस्बा है जो खड़ामुख से बीस किलोमीटर दूर है। वे पिता-पुत्र भी प्रातः काल होली से निकले थे। चूंकि रात हो रही थी, अतः महसूस हुआ कि दो से भले चार। उन्होंने हमसे पूछा कि क्या वे हमारे साथ चल सकते हैं। हमने उन्हें सहर्ष इसकी सहमति दे दी। वे बड़े प्रसन्न हुए। दोनों जम्मू-कश्मीर के भद्रवाह के पास के रहने वाले थे तथा होली में मजदूरी का काम करते थे। हिमपात बढ़ता देख कर वे भी पदयात्रा पर निकल पड़े थे। उन्होंने उस दिन कोई चालीस किलोमीटर की पदयात्रा की थी। परंतु वे हमारी तरह थके नहीं थे। वह  दोनों शारीरिक श्रम करने के अभ्यस्त थे तथा हमारी तरह थक कर चूर नहीं थे। 

 

    जब हम राख पहुँचे तो सांझ हो आई थी। राख में बर्फ और वर्षा रुक चुकी थी। अब आगे अंधेरे में और पैदल चलना संभव नहीं था। हमें उम्मीद थी कि राख से तो चम्बा तक चलने वाली कोई टैक्सी अवश्य हमें मिल जाएगी। पर उस दिन की आखिरी टैक्सी भी जा चुकी थी। हमारे पास राख में रुकने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं था। मजदूर पिता-पुत्र से पूछा तो उन्होंने कहा कि वे किसी दुकान के ओसारे में सो जाएँगे। उनके पास एक मोटा गद्दी कम्बल था। हमारे पास तो कम्बल भी नहीं था। हम कहाँ रुकेंगे। किसी दुकान की भट्टी पर! अपने आप से कोफ्त हुई, हमारे पास कोई योजना जो नहीं थी। बस हम सनक में निकल पड़े थे। मृत्यु-दर्शनमें राहुल सांकृत्यायन कहते हैं कि घुमक्कड़ों को मृत्यु का भय कैसा। पर ठण्ड का तो होना चाहिए! कम्बल तो साथ रखना चाहिए!! इसे ही अनुभव कहते हैं महाराज। देयर इज़ नो शार्टकट टू एक्सपीरियंसअर्थात् अनुभव लेने का कोई छोटा मार्ग नहीं होता, वायुयान से आप पथरीली सड़क का अनुभव नहीं प्राप्त कर सकते।  

 

    एकाएक मुझे अब राख गाँव के लोक निर्माण विभाग के विश्राम-गृह की याद आई, जहाँ मैं पिछली बार रुका था। परंतु खराब मौसम में उसके खाली मिलने की संभावना कम ही थी। जब हम गेस्ट हाउस पहुँचे तो वहाँ का चौकीदार ही नदारद था। बड़ी मुश्किल से खोजने पर हमें वह स्टाफ क्वार्टरों की ओर बैठा मिला। पहले तो उसने हवाला दिया कि मौसम खराब है और कोई  वी.आई.पी. कभी भी आ सकता है। पर बहुत देर तक हमारे अनुनय करने पर तथा कुछ अतिरिक्त रुपयों के लालच में उसने हमारे लिए एक कमरा खोल दिया। कमरे में बस एक डबल बेड था। फर्श पर मोटा जूट का कालीन बिछा था जो गर्म था। मजदूरों से कहा कि भाई एक ही कमरा है। तुम चाहो तो इसमें रुक जाओं। उन्होंने वहीं जूट के शीतरोधी कालीन पर अपना बिस्तरा लगा लिया। 

 

     रुकने का आसरा करने के बाद अब हमें खाने की सुध आई। हम बाहर की ओर भागे। दोनों मजूरों ने कुछ भी खाने से इंकार कर दिया था। बाजार राख के लोक निर्माण विश्रामगृह से लगा हुआ ही है। परंतु उस बर्फबारी के मौसम में कैसा बाजार। सब बन्द था। बस एक होटल खुला मिला जिसमें मिट्टी तेल की ढिबरी जल रही थी। हम लपक कर पहुँचे तो होटल मालिक ने हाथ हिला कर इशारा कर दिया। उसकी एक पतीली में बस थोड़ा सा काबुली चने का झोल ही बचा था। हमें दुकान पर डबलरोटी मिल गई। मैंने और फहीम दोंनो ने ब्रेड और चने का डिनर किया। उस वक्त वह हमारे लिए पाँच सितारा होटल के खाने से कम नहीं था। यह वह डिनर था जो जरा सी और देर होने पर हमें नसीब होने वाला नहीं था, जिसके बिना फिर हमें रात भर भूखा सोना पड़ता। खा-पीकर हम कमरे में आकर लेट गए। हमने सोचा भी नहीं था कि हमारा इतना बुरा दिन बीतेगा। हमें उम्मीद ही नहीं थी कि हम उस दिन चम्बा नहीं पहुँचेंगे। कहाँ तो केवल तेरह किलोमीटर खड़ा मुख तक पैदल चलने की बात थी और अब हम लगभग चालीस किलोमीटर पैदल चल चुके थे! वह भी बर्फ और बारिश में भीगते हुए। वह तो खैरियत थी कि राख के उस गेस्ट हाउस में एक कमरा मिल गया, अन्यथा हमें वह रात किसी दुकान की भट्टी पर ठण्ड से ठिठुरते हुए ही काटनी थी। थकान से तो हम निढाल थे ही, बातचीत करते-करते हमें नींद आ गई। 

 

    रात अचानक कराहने की आवाज़ सुनकर मेरी नींद टूटी। फहीम इकबाल अपना पेट पकड़े चीख रहा था। सम्भवतः ठण्ड से उसे अपच हो गया था या फिर डबलरोटी या चनों में ही कोई दोष था। मैंने देखा तो वह बाथरूम की ओर पेट पकड़ कर भाग रहा था। उसे उल्टियाँ हो रहीं थीं। पर उसकी पीठ सहलाने तथा पानी पिलाने के अतिरिक्त अन्य कोई मदद नहीं थी देने को। बहरहाल राम-राम करके रात कटी। सौभाग्य से उस रात फहीम को सिर्फ एक बार ही उल्टियाँ हुईं। कहीं अधिक बीमारी होती तब फिर हमें लेने के देने पड़ सकते थे, क्यों कि उस बर्फीले मौसम में राहत की कोई उम्मीद नहीं थी। 

 

    दूसरे दिन सुबह उठकर हमें आगे निकलना था। फहीम की तबियत अब कुछ ठीक थी। मैंने जब उससे पूछा कि क्या वह आगे चल सकता है, तो उसने सहमति दे दी। चूँकि राख के आगे बर्फबारी नहीं थी तथा मौसम रात तक साफ था, अतः उम्मीद थी कि हमें कोई न कोई साधन मिल ही जाएगा। किंतु दुर्भाग्य अब भी हमारा पीछा नहीं छोड़ रहा था। जब हम राख के बस अड्डे पर पहुँचे तो हमें अपने कपड़ों पर रुई के नर्म-नर्म फाहे गिरते दिखाई दिए। अब राख के आगे भी मौसम खराब हो चुका था तथा आगे भी बर्फ गिरने लगी थी। निराशा ने हमें फिर से जकड़ लिया। मन हुआ कि चीख-चीख कर रोऊँ।

 

    मेरे पैरों में अब तक जबरदस्त सूजन आ चुकी थी। एड़ी के उपर की मोटी नस ठण्ड और श्रम के कारण बुरी तरह से दुख रही थी। एक-एक कदम मेरे लिए एक मन से कम नहीं था। लेकिन किसी भी प्रकार से घिसटते हुए ही सही, चलना आवश्यक था। पिछले दिन के पैंतीस किलोमीटरों की पदयात्रा तन व मन दोनों को तोड़ने वाली थी। जिसे पैदल चलने का अभ्यास ही न हो, उसके लिए सामान्य मार्ग पर ही इतना रास्ता पैदल तय करना कठिन होता है। चूँकि हमारे ग्रामीण सहयात्री दैहिक श्रम के आदी थे, अतः उन्हें चलने में कोई परेशानी नहीं थी। कुछ दूर तक तो वे हमारे साथ चले। फिर अचानक हमारे और उनके बीच की दूरी बढ़ने लगी। एक डेढ़-घण्टे के बाद वे पूरी तरह से हमारी आँखों से ओझल हो गए, बिना किसी अंतिम संवाद के। कोई लफ्ज़-ए-अलविदा नहीं। अब तो मुझे उनकी सूरत भी भूल चुकी है। बस उनके पहनावे की कुछ याद है। 

 

    अब हमारी चाल बहुत ही धीमी थी। पिछले दिन तक तेज चाल चलने वाला फहीम इकबाल रात को तबियत खराब होने के कारण कमजोर हो चुका था। उधर मेरे पैरों की सूजन ने मुझे लाचार कर दिया था। लगभग एक बजे हम घिसटते हुए चम्बा से पहले एक गाँव रजेरा पहुँचे जो कोई सात किलोमीटर पहले था। वहाँ तक हम बर्फ और पानी में भीगते तिरपन किलोमीटर की यात्रा कर चुके थे, जिसमें अड़तालीस किलोमीटर की पदयात्रा थी। उस गाँव में हम एक होटल में चाय पीने को रुके। अब मुझे खट्टी डकारें आ रही थीं तथा चाय को देख कर वितृष्णा हो रही थी। बर्फ यहाँ भी पसरी हुई थी। राख से यहाँ तक के तेरह किलोमीटर तक के सफर में रुक-रुक कर बर्फ बारी होती ही रही। पर अब हम चम्बा के बहुत करीब थे। हमें केवल अंतिम छह-सात किलोमीटरों का रास्ता तय करना बाकी था। 

 

     जब हम चाय पी ही रहे थे कि एक कार चम्बा की ओर से वहाँ आकर रुकी। उसमें से दो दादा टाइप के लोग उतरे जो तफ़रीहन सिगरेट पीने आए थे। जब वे सिगरेट फूँक रहे थे तो मैंने उनसे अनुरोध किया कि चम्बा जाते समय वे हमें भी अपने साथ लेते चलें। बड़े दादा ने साफ मना कर दिया। हम दोनों अब मानसिक रूप से टूट रहे थे। जब वे दोनों सिगरेट पीकर वापस जाने लगे तब मैंने फहीम से कहा कि एक बार और विनती करते हैं। फहीम स्वाभिमानी नौजवान था। उसे पहली बार ही उनका इंकार करना पसंद नहीं आया था। अतः उसने मुझे मना कर दिया तथा पैदल ही चलने को कहा। परंतु मैंने हार नहीं मानी, यह सोच कर कि पूछने में क्या जाता है। मैंने दादा को दोबारा अपनी परिस्थिति बतलाई। उससे बताया कि हम लोग दो दिनों से पैदल चल रहे हैं तथा हमारी हालत बहुत खराब है। उसने कुछ देर तक मुझे ध्यान से देखा। उसे मुझ पर दया आ गई तथा उसने हमें पिछली सीट पर बिठा लिया। उसकी गाड़ी में बैठ कर दो बजे हम चम्बा पहुँचे। रास्ते भर वह दादा हमें अपनी तारीफें सुनाता रहा तथा जाते-जाते किसी समस्या पर उसका नाम लेने की बात कह गया। 

 

    इस बार की सर्दियों में चम्बा में भी बर्फबारी हुई थी, कई दशकों के बाद। उधर आज कई दिनों के पश्चात् कहीं जाकर हमें सूर्य देवता के दर्शन हुए थे। चम्बा में हमारी कम्पनी के मानव संसाधन विभाग का एक कर्मचारी नासिर खान पहले से उपस्थित था, जो बर्फबारी की खबर सुनकर चम्बा में ही रुक गया था। उसने खान चाचा के सस्ते होटल की डॉर्मेटरी में शरण ले रखी थी। हमें भी वहीं रुकने का स्थान मिल गया। लगभग तीन बजे हम बिस्तर में घुसे। गर्म रजाई में घुसते ही आँख लग गई। रात के आठ बजे नासिर खान ने हमें उठाया। हमने रात का खाना खाया। अब तक मोबाईल चार्ज हो गया था। रामपुर-बुशैहर में परिवार से बात की तो पता चला कि सब ठीक-ठाक है। पड़ोस की एक लड़की परिवार को सहारा देने के लिए पत्नी के साथ रात को हमारे घर में ही सो रही थी। उलझन का एक सिरा तो सुलझा था।  

 

     अगले दिन दिनांक दस फरवरी दो हजार आठ को हमने सुबह बनीखेत के लिए टैक्सी पकड़ी। मुझे अम्बाला होते हुए शिमला के रास्ते रामपुर जाना था। फहीम इक़बाल को ललितपुर अपने घर निकलना था। आगे घटनाक्रम एक अपवाद को छोड़ कर सामान्य ही रहा। वह यह कि बनी खेत में मेरे साथ बड़ी दुर्घटना होते होते रह गई। हुआ यूँ कि जैसे ही हिमाचल ट्रांसपोर्ट की बस बनीखेत के बस-अड्डे में आकर खड़ी होने लगी, मैं सीट हथियाने के लिए बस की ओर लपका। चूँकि कदमों तले की बर्फ गाड़ियों के आवागमन से दबकर ठोस हो चुकी थी, अतः मेरा पैर फिसल गया। मैं बसे के अगले और पिछले पहियों के बीच जा घुसा। कंडक्टर के चिल्लाने पर ड्राईवर ने ब्रेक लगा दिया और बस के पहिए चीख के साथ रुक गए। कण्डक्टर मुझे गुस्से में कोस रहा था, परंतु मैं तो दो दिनों के भीतर मौत से इस दूसरे साक्षात्कार पर सन्न खड़ा था।

 

    अम्बाला से दोनों साथी आगे बढ़ गए। फहीम ललितपुर निकल गया और नासिर खान आगरे को। ग्यारह तारीख की रात कोे अम्बाला से कालका पहुँच कर छोटी ट्रेन से शिमला होते हुए मैं रामपुर पहुँचा, जहाँ परिवार व्यग्रता के साथ मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। रात के साढ़े दस बजे मैंने दरवाजे पर दस्तक दी। और हम सब एक साथ थे। 

 

    पर अभी मेरी परेशानियों का अंत नहीं था। इतने दिनों की थकान लिए जैसे ही रजाई में घुसा, बेटा मानस पापा-पापा चिल्लाता हुआ बिस्तर पर चढ़ गया। मैंने जो जयपुर रजाई ओढ़ी थी, वह बहुत मुलायम और फिसलन भरी थी। बच्चा मुझ तक पहुँचने की कोशिश में रजाई से फिसला और सीधी खिड़की के सिल से जा टकराया। उसका मस्तक फट गया तथा रक्त धार बहने लगी। उधर मैं इतना थक गया था कि मुझे जैसे होश नहीं थे। मेरे पैरों के टेण्डन बुरी तरह से दुख रहे थे। पत्नी श्वेता चीख-चीख कर रोने लगी। इतनी रात को इस हालत में मैं बच्चे को लेकर कैसे जाऊँ। आसमान से निकल कर खजूर में जा अटका था मैं। निकटतम खनेरी अस्पताल वहाँ से पाँच किलोमीटर दूर था। रात के ग्यारह बज रहे थे। किसी क्लिनिक के खुले होने का प्रश्न ही नहीं था। तब मुझे अपनी नानी स्व. सुखवन्ती देवी का एक पुराना अचूक नुस्खा याद आया। मैंने पत्नी से कहा कि वह रसोई से लाकर घाव में हल्दी भर दे। हल्दी ने अपना काम किया और कुछ समय पश्चात् रक्त प्रवाह रुक गया। 

 

    प्रातःकाल बच्चे को देख कर मेरा पड़ोसी जो पिछली कम्पनी का मेरा साथी था, वह मुझ पर बहुत नाराज हुआ कि हम बच्चे को लेकर रात में ही हस्पताल क्यों नहीं गए। उसे मेरे अभिभावक होने के अधिकार पर ही एतराज था। मैंने उसे बताया कि पिछले दिनों में मैं किन कठिन परिस्थितयों से होकर गुजरा हूँ, पर वह सुन कर राजी ही नहीं था। हार कर मैंने हथियार डाल दिए तथा स्वीकार कर लिया कि मैं एक योग्य पिता नहीं हूँ। कुछ देर तक उपदेश देकर वह काम पर चला गया।  

 

    खैर, सुबह चाय इत्यादि पीकर किसी तरह लंगड़ाते हुए मैं बेटे को लेकर हस्पताल गया। उसके माथे पर दो टाँके लगे। सप्ताह भर में पूरी तरह से घाव सूख गया। हाँ, बेटे के मस्तक पर टाँकों का वह निशान आज भी बाकी है, जो मेरी तीन दिनों की आपदा का स्मारक है। उधर कम्पनी के दिल्ली कार्यालय को खबर मिल चुकी थी। विभागाध्यक्ष ने मुझसे फोन पर बात की। परियोजना प्रमुख भटनागर साहब से लेकर दिल्ली के विभागाध्यक्ष तक को यह भरोसा हो गया था कि इस विकट अनुभव के पश्चात् अब मैं लौटकर वापस नहीं जाऊँगा। 

 

    परंतु सबकी आशा के विपरीत, सन् 2008 के फरवरी महीने की बाईस तारीख को मैं सपरिवार गृहस्थी के सामान के साथ भरमौर वापस पहुँच चुका था। फहीम इकबाल और नासिर खान भी वापस पहुँच चुके थे। हमारे वापस लौटने पर सबसे अधिक वह दुष्ट अधिकारी हैरान था। वह बर्फ में अपने साथियों के साथ पैदल चम्बा जाकर हम पर मानसिक बढ़त लेना चाहता था। परंतु हमारी अड़तालीस किलोमीटरों की पदयात्रा ने उसे मुँह तोड़ जवाब दिया था। लेकिन परियोजना में आने वाले दिन संघर्ष के ही थे, इस का अहसास मुझे हो चुका था। बहरहाल, संघर्ष मेरे लिए कभी भी दुख या विषाद का विषय नहीं रहा। संघर्ष व प्रतिरोध न हो तो मेरे लिए जीवन वैसा ही है, जैसे बिना नमक का भोजन। संघर्ष के अभाव में मुझे समस्त आनंद फीके लगते हैं। 

यहाँ आगे की नौकरी में पर्याप्त नमक था। 

 

संप्रति- सहायक महाप्रबंधक , भूविज्ञान व यांत्रिकी , तीस्ता जल विद्युत परियोजना , पूर्वी सिक्किम, सिक्किम

 

संपर्क -

द्वारा श्रीमती इन्द्रावती मिश्रा


स्कूल पारा बैकुण्ठपुर , कोरिया , छ.ग. 497335

मो. 9425580020



शनिवार, 2 जनवरी 2016

कहानी - बद्दू : विक्रम सिंह



हमारे समय के महत्वपूर्ण युवा कहानीकार विक्रम सिंह की कई कहानियों को इस ब्लाग में पढ़ चुके हैं। इनकी चर्चित लम्बी कहानी बद्दू की आज  पांचवीं और आखिरी किस्त। यह कहानी मंतव्य में प्रकाशित हो चुकी है।






जिन्हें कब्र में चैन नहीं आया


    इस सच को जानने के बाद शायद यकीन ना हो। भले ही पूरी दुनिया गीता  ,कुरान और बाइबल पर हाथ रख सच कहने को कह रही हो पर जब कोई सच कह रहा हो तो उस पर कोई विश्वास ना करे फिर उस सच को झूठ समझ कर ही मान लेना सही होता है। भले ही दुनिया भर में अंधविश्वास ,आडम्बर ,स्वप्न जैसी बातों पर विश्वास ना करें। क्योंकि यह कभी किसी के लिये इतना लाभकारी भी होगा यह किसी ने भी स्वप्न में भी नहीं सोचा था। कोई अभी तक अंधविश्वास पर विश्वास करने वालो को ठोकर ही मिली है। उस दिन मुधिर आया था सबको उनके बकाया पैसे और पासपोर्ट देने की बात करने लगा। यह भी कहा कि आने वाले हर महीने तनख्वाह सही समय और पूरी मिला करेगी। जो अभी छुट्टी में जाना चाहता है वह जा सकता है। कुछ पल के लिए ऐसी बातें सुन सबको लगा आज मदारी का दिमाग सनक गया है। कहीं किसी बंदर ने जोर का चाटा तो नहीं जड़ दिया जिसे इसका दिमाग सनक गया है। मुधिर ने सबको ऑफिस आने को कहा। मगर ऐसा सुन सबको लगा कि यह कोई चाल तो नहीं , मुधिर की। मगर सच स्वप्न की तरह होना शुरू हो गया। सही में सबको बैरक में पैसे से भरा पैकट आ गये। बोनस में उसी शाम सबके बेरक में पासपोर्ट मिले थे। सबकी हालत उस भारतीय डायमेंड बिजनेसमैन के कर्मचारियो की तरह हो गई थी जिन्हें डायमेंड बिजनेसमैन ने एकाएक फ्लैट और गाड़ी देकर खुशी से पागल कर दिया था। अब कितने तो छुट्टी ले घर नहीं जाना चाहते थे। उन्हें लगा कि अब सब सही होगा। मगर धनंजय दोबारा कोई गलती नहीं करना चाहता था। वह वापस आने की तैयारी करने लगा। दरअसल हुआ यूँ कि कम्पनी के मालिक की मृत्यु हो गई थी। कुछ दिनों से मालिक के बेटे के स्वप्न में उनके पिता कब्र में दिखाई दे रहे थे। बेटे  को कह रहे थे कि कब्र में वह चैन से नहीं रह पा रहे हैं। इसकी वजह वह यह बता रहे थे कि कम्पनी में काफी लोगों की सैलरी बकाया है। सबकी आत्मा मुझे कोस रही है।  इस स्वप्न ने बेटे की भी नीद खराब कर रखी थी। सो बेटे ने सबका बकाया पैसा देने का फैसला कर लिया था। अब अगर आप सब इस सच को ना पचा पा रहे हो तो इस सच को झूठ किस्सा समझ कर ही मान लीजियेगा।
   
जिन्होंने अपने को कभी नहीं कोसा

  धनंजय के वापस आने पर पूरे गाँव के लड़के उसके साथ मक्खी की तरह उसके आस-पास मंडराने लगे थे। कुछ तो यह जानने के लिए उत्सुक थे कि कितने पैसे कमा कर लाया है। कुछ उसके साथ सऊदी अरब जाने के लिए उसकी चिरौरी कर रहे थे। पर धनंजय तो छुट्टी बिताने नहीं परमानेन्ट आया था। जब पिता को यह बात पता चली तो वह बेटे को यही कह समझा रहे थे , ‘गाँव में क्या करोगे कम से कम वहाँ नौकरी से पैसे तो मिल रहे हैं। उसने अपने पिता को बस इतना ही कहा था ,‘‘आप सच से दूर हैं सच क्या है आप को पता नहीं है।‘‘ उसके बावजूद भी गाँव के लड़के उसे इतना तक कह रहे थे ‘‘अगर तुम नहीं भी जाओगे। तो हम सब को तो वहाँ भेजवा दो। हम भी कुछ कमा ले। बेटे के वापस आने से माँ बहुत खुश थी। बेटे के दुबले और काले पड़ गये शरीर को देख दुखी हो रही थी। माँ एक नजर में ही समझ गई थी कि बेटा विदेश में कभी खुश नहीं रहा। उस दिन जब वह हल ले अपने खेतों को जा रहा था कुछ अरब देश से वापस आये मित्र उसे देख मुस्कुराये थे। उसने भी इस मुस्कुराहट में पूरा साथ दिया था। व्यंग और तानों की मुस्कान नहीं थी यह आजादी की मुस्कान थी विकास की मुस्कान थी। जो अब शायद उनसे कोई नहीं छीन पायेगा। धनंजय ने जल्द ही छोटा सा भैसों का तबेला खोल लिया था।
   वह इस बात को समझ गये थे कि देश का विकास किसानों से ही हो सकता है। दुनिया को जिन्दा रहने के लिये अन्न की जरूरत है।
  उस दिन जब पलटन और धनंजय अपने खेतों को जोत रहे थे। उसी दिन पास वाले जमीन की नपाई चल रही थी। यह जमीन किसी और की नहीं तारकेश्वर  की थी। बेटा कनाडा जा रहा था बीजा के लिये पंद्रह लाख रूपयों की जरूरत थी। तारकेश्वर  जो हमेशा जमीन को अचल सम्पत्ति कहते थे। आज वही कह रहे थे जमीन खेत अचल सम्पत्ति नहीं होती।

   आज फिर पलटन को ईश्वर का गणित समझ नहीं आ रहा था कि गलती उसके बेटे ने की है। जो तमाम तकलीफ झेलने के बाद वापस आ गया है। या फिर तारकेश्वर  कर रहा है जो जमीन बेच बेटे को इतने बड़े़ देश भेज रहा है।


सम्प्रति- मुंजाल शोवा लि.कम्पनी में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत
सम्पर्क- बी ब्लाँक-11,टिहरी विस्थापित कालोनी,ज्वालापुर,
न्यू शिवालिकनगर,हरिव्दार,उत्तराखण्ड,249407
मोबा0- 9012275039