हरीश चन्द्र पाण्डे
लौह पुरूष सरदार
बल्लभ भाई
पटेल की
जयन्ती 31 अक्टूबर को आज पूरा
देश राष्ट्रीय
एकता दिवस
के रूप
में मना
रहा है।
और यह
ब्लाग अपना
तीसरा वर्ष
पूरा करते
हुए आज
तीन अंकों
में अपनी
पोस्ट अर्थात
100वीं पोस्ट
के साथ
शतक लगा
रहा है
। धीरे
ही सही
पहाड़ी पगडंडियों
की तरह
आगे बढ़ते
हुए पुरवाई
की इस
पोस्ट में
अपने सबसे
प्रिय कवि
हरीश चन्द्र
पाण्डे की
कविताओं को
प्रकाशित करते
हुए हमें
गर्व का
अनुभव हो
रहा है।
सम्पादक-पुरवाई
टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड
हरीश चन्द्र पाण्डे
की कविताएं-
1-उत्खनन
केवल सभ्यताएँ नहीं
मिलतीं
उत्खनन में
सभ्यताओं के
कटे हाथ
भी मिलते
हैं
आप इतिहास में दर्ज एक कलात्मक मूठ को ढूँढऩे निकलते हैं
उसकी जगह
क़लम किया
हुआ सिर
मिलता है
चाहे से, न चाहा गया अधिक मिलता है कभी-कभी
यह बिल्कुल सम्भव है कि कभी
गाँधी को
अपने तरीके
से खोजने
निकले लोगों
के हाथ
चश्मे के
एक जोड़े
के पहले
कटी छातियों
के जोड़ियों
से मिलें
शायद ही कोई बता पाए
ये इधर
से उधर
भागतीं स्त्रियों
के हैं
या उधर
से इधर
भागतीं
और शायद ही मिले चीख़ पुकारों का कोई संग्रहालय
मिलेगा तो कोई यह कहते हुए मिलेगा पीछे मुड़ते हुए
कि बर्बरों
को फाँसी
पर लटका
दिया गया
है
और वह
भी इस
वज़न से
कहेगा
जैसे -- मंशाओं
को फाँसी
पर लटका
दिया गया
है
उत्खनन में मंशाओं की बड़ी भूमिका होती है ।
2-सहेलियाँ
आज बेटी सुबह
से ही
व्यस्त है
सहेलियाँ घर पर
आएँगी
खाना होगा
गपशप होगी ख़ूब
चीज़ें तरतीब पा रही हैं
ओने-कोने
साफ़ हो
रहे हैं
ख़ुद की
भी सँवार
हो रही
है
पिता तक
पहुँचती आवाज़
में माँ
से कह
रही है
-- यही पहनकर
न आ
जाना बाहर
नोयडा से रुचि आई है
बंगलुरु से
आयशा
विश्वविद्यालय के कल्पना चावला हॉस्टल
से आएगी
तरु
सरोजनी से
दिव्या
शिल्पी बीमार है, वह छटपटाएगी बिस्तर पर
... ग्यारह बजे आ जाना था
उन्हें
बारह बज
गए हैं
बेटी टहल
रही है
मोबाइल पर
कान लगाए
वे शायद आ रही हैं
मोड़ की
उस ओर
जहाँ आँखें
नहीं पहुँच
रहीं
आवाज़ों का
एक बवण्डर
आ रहा
है
हाँ, वे आ गई हैं
कॉल बैल
दबाने से
पूरा नहीं
पड़ रहा
उनका
गेट का
दरवाज़ा पीट
रही हैं
थप-थप-थप्प
जैसे यह
बहरों का
मुहल्ला है
अधैर्य का एक पुलिन्दा मेरे गेट पर खड़ा है
वे गेट के भीतर क्या आ गई हैं
कहीं एक
बाँध टूट
गया है
जैसे
कहीं आवाजों
के विषम
शिखरों का
एक ऑर्केस्ट्रा
बज रहा
है
कहीं चिपको नेत्रियों द्वारा एक घना जंगल बचाया जा रहा है कटने से
वे अब कमरे के भीतर आ गई हैं
धम्म-धम्म-धम्म सोफ़ों
पर ऐसे
गिर रही
हैं
जैसे पहाड़
खोद कर
आई हैं
थोड़ा ठण्डा-वण्डा
थोड़ा चाय-बिस्कुट
थोड़े गिले
- शिकवे...
और अब सबकी सब अतीत में चली गई हैं
एक ग्रुप
फोटो के
साथ...
वे कॉलेज
के अन्तिम
वर्ष के
विदाई समारोह
में खड़ी
हैं अभी
पहली-पहल
बार साड़ी
पहने हुए
सब एक
बार फिर
लजाती निकल
रही हैं
अपने-अपने
घरों से
साड़ी कुछ
माँ ठीक
कर रही
है, कुछ
बहन, कुछ
भाभी
ऊपर कन्धे
पर ठीक
हो रही
है, कुछ
पैरों के
पास झटक-झटक कर
एक स्कूटर पर पीछे बैठी असहज-असहज है
दूसरी स्कूल
वैन में
बैठने के
पहले
कई बार
गिरते-गिरते
बची है
तीसरी ख़ुद
को कम
देखने वालों
को अधिक
देख रही
है
मरी-मरी
जा रही
है
भरी-भरी
जा रही
है
कॉलेज के प्रवेश द्वार पर असहजता का एक कुम्भ लगा है
वे अपने
ही भीतर
डुबकी लगा
रही हैं
उनके भीतर
ही भँवर
हैं भीतर
ही चप्पू
भीतर ही
मँझधार हैं
भीतर ही
किनारा
वे उचक-उचक कर चहक रही हैं
चहक-चहक
कर मन्द्र
हो रही
हैं
...अब उनकी बातों की ज़द में सहपाठिनें हैं
ये चौथे
लाइन में
तीसरे नम्बर
पर खड़ी
बड़ी चुड़ैल
थी जी
और ये
दूसरे लाइन
वाली कितने
बहाने बनाती
थी क्लास
में
भई मिस
नागर का
तो कोई
जवाब नहीं
अभी यह कमरा कमरा नहीं
एक ही
पेड़ पर
कुहुक रही
कोकिलाओं का
जंगल पल
है
...धीरे-धीरे कमरे का सामुदायिक राग कम हो रहा है
अब एक
बार में
एक स्वर
मुखर है
अपने-अपने
अनुभव हैं
अपनी-अपनी
बातें
फिर जैसे
अचानक एक
रेलगाड़ी लम्बी
सुरंग में
प्रवेश कर
गई है
...चुप्प...
और फिर
जैसे अचानक
सभी दिशाओं
में सूर्य
उग आए
हैं
पखेरू चहकने
लगे हैं
किसी ने
मोती की
लडिय़ाँ तोड़कर
बिखेर दी
हैं
खिल-खिल
का ऐसा
ज्वार कि
जैसे
संसार के
सारे कलुष
धुल गए
हों
भीतर हम भी देश-काल से परे हो गए हैं
ये सब
सजो लेंगी
इन पलों
को
हम समो
लेंगे
...समय बीत गया है पर इनकी बातें नहीं
अब ये सब टा-टा, बाई-बाई कर रही हैं
इस छोर
पर एक
माँ कई
बेटियों को
विदा कर
रही है
उस छोर
पर कई
माँएँ आँखें
बिछाए खड़ी
हैं
यहीं कहीं एक लड़का कैमिस्ट की दुकान पर खड़ा
एसिड की
बोतल खरीद
रहा है...
3- कछार-कथा
कछारों ने कहा
हमें भी
बस्तियाँ बना
लो
- जैसे खेतों
को बनाया,
जैसे जंगलों
को बनाया
लोग थे
जो कब
से आँखों
में दो-एक कमरे
लिए घूम
रहे थे
कितने-कितने
घर बदल
चुके थे
फ़ौरी नोटिसों
पर
कितनी-कितनी
बार लौट
आए थे
ज़मीनों के
टुकड़े देख-देख कर
पर ये दलाल ही थे जिन्होंने सबसे पहले कछारों की आवाज़ सुनी
और लोगों
के हसरतों
की भी
थाह ली,
उनकी आँखों
में डूबकर
उन्होंने कछारों से कहा ये लो आदमी
और आदमियों
से कहा
ये लो
ज़मीन
डरे थे लोग पहले-पहल
पर उन्हें
निर्भय करने
कई लोग
आगे आ
गए
बिजली वालों
ने एकान्त
में ले
जाकर कहा,
यह लो
बिजली का
कनैक्शन
जल-कल
ने पानी
की लाइनें
दौड़ा दीं
नगरपालिका ने मकान नम्बर देते
हुए पहले
ही कह
दिया था
- जाओ मौज़
करो
कछार एक बस्ती है अब
ढेर सारे घर बने कछार में
तो सिविल
लाइन्स में
भी कुछ
घर बन
गए
लम्बे-चौड़े-भव्य
यह कछार बस्ती अब गुलो-गुलज़ार है
बच्चे गलियों में खेल रहे हैं
दूकानदारों ने दुकानें खोल ली
हैं
डाक-विभाग
डाक बांट
रहा है
राशन-कार्डों
पर राशन
मिल रहा
है
मतदाता-सूचियों
में नाम
बढ़ रहे
हैं
कछार एक सर्वमान्य बस्ती है अब
पर सावन-भादों के पानी ने यह सब नहीं माना
उसने न
बिजली वालों
से पूछा
न जल-कल से
न नगरपालिका
से न
दलालों से
यह भी न पूछा लोगों से
तुमने तिनके-तिनके जोड़ा
था
या मिल
गया था
कहीं एक
साथ पड़ा
हुआ
तुम सपने
दिन में
देखा करते
थे या
रात में
लोगों ने
चीख़-चीख़
कर कहा,
बार-बार
कहा
बाढ़ का
पानी हमारे
घरों में
घुस गया
है
पानी ने
कहा मैं
अपनी जगह
में घुस
रहा हूँ
अख़बारों ने
कहा
जल ने
हथिया लिया
है थल
अनींद ने
नींद हथिया
ली है
लोग टीलों
की ओर
भाग रहे
हैं
अब टीलों पर बैठे लोग देख रहे हैं जल-प्रलय
औरतें जिन खिड़कियों को अवांछित नज़रों से बचाने
फटाक् से
बन्द कर
देती थीं
लोफ़र पानी
उन्हें धक्का
देकर भीतर
घुस गया
है
उनके एकान्त
में भरपूर
खुलते शावरों
के भी
ऊपर चला
गया है
जाने उन
बिन्दियों का क्या होगा
जो दरवाज़ों
दीवारों शीशों
पर चिपकी
हुई थीं
जहाँ-तहाँ
पानी छत की ओर सीढिय़ों से नहीं बढ़ा बच्चों की तरह फलाँगते
न ही
उनकी उछलती
गेंदों की
तरह टप्पा
खाकर
-- अजगर की
तरह बढ़ा
रेंगते-रेंगते,
मकान को
चारों ओर
से बाहुपाश
में कसते
उसकी रीढ़
चरमराते
वह नाक, कान, मुँह, रन्ध्र-रन्ध्र से घुसा
इड़ा-पिंगला-सुष्मन्ना को
सुन्न करते
फ़िलहाल तो यह टीला ही एक बस्ती है
यह चिन्ताओं
का टीला
है एक
खाली हो
चुकी पासबुकों
का विशाल
जमावड़ा है
उऋणता के
लिए छटपटाती
आत्माओं का
जमघट है
यहाँ से लोग घटते जलस्तर की कामना लिए
बढ़ता हुआ
जलस्तर देख
रहे हैं
वे बार-बार अपनी ज़मीन के एग्रीमेण्ट पेपर टटोल रहे हैं
जिन्हें भागते-भागते अपने
प्राणों के
साथ बचाकर
ले आए
थे...
संक्षिप्त परिचय-
उत्तराखण्ड के सुरम्य अल्मोड़ा घाटी में (सदी गांव द्वारा हाट)28.12.1952 को जन्मे हरीश चन्द्र पाण्डे जी की स्कूली शिक्षा अल्मोड़ा और पिथौरागढ में हुई और कामर्स में स्नातकोत्तर की शिक्षा कानपुर विश्वविद्यालय उत्तर प्रदेश से पूर्ण हुई। हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएं देश की खयातिलब्ध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।
काव्य कृतियां
पाण्डे जी की महत्वपूर्ण काव्य कृतियां हैं - कुछ भी मिथ्या नहीं है, एक बुरुंश कहीं खिलता है, भूमिकाएं खत्म नहीं होतीं ',असहमति , कलेण्डर पर औरत तथा अन्य प्रतिनिधि कविताएं ,संकट का साथी और दस चक्र राजा।अनुवाद
पाण्डे जी की कविताओं में कन्टेन्ट की ताजगी और कहन की शैली दोनों स्तरीय होते हैं। हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताओं का कई भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है यथा- अंग्रेजी, बांग्ला, उड़िया, पंजाबी तथा उर्दू।पुरस्कार / सम्मान
अब तक हरीश चन्द्र पाण्डे को सोमदत्त पुरस्कार (1999), केदार सम्मान (2001), ऋतुराज सम्मान (2004), हरिनारायण व्यास सम्मान (2004) आदि कई महत्वपूर्ण सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है।मोबाइल- 09455623176