सोमवार, 23 जनवरी 2012

शैलेष गुप्त ‘वीर’की कविता


                                                                                                                                                               
  संक्षिप्त परिचय

     उत्तर प्रदेश में फतेहपुर के जमेनी नामक गांव में 18 जनवरी1981 को जन्में शैलेष गुप्त ‘वीर’ की राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं तथा संकलनों में गीत, ग़ज़ल, कविता, क्षणिका, हाइकू, दोहे, लघुकथा,   आलेख, आलोचना एवं शोधपत्र आदि का  प्रकाशन हो चुका है।
     इन्होंने प्राचीन इतिहास एवं पुरातत्व विज्ञान में परास्नातक तथा पुरातत्व विज्ञान में पी-एच.डी भी किया है।  बी.एड., एम.जे.एम.सी.(पत्रकारिता एवं जनसंचार) डिप्लोमा इन रसियन लैंग्वेज़, डिप्लोमा इन उर्दू लैंग्वेज़, ओरियन्टेशन कोर्स इन म्यूजियोलॉजी एण्ड कन्ज़र्वेशन में दक्षता के साथ शिक्षा प्राप्त की है।
            इन्होंन गुफ़्तगू (त्रैमासिक), इलाहाबाद, तख़्तोताज (मासिक), इलाहाबाद एवं  पुरवाई (वार्षिक)पत्रिकाओं में सक्रिय रहते हुए 2007 से अन्वेषी पत्रिका के संपादन के साथ- साथ  ‘उन पलों में’ (रागात्मक कविता संकलन)‘आर-पार’ (नयी कविताओं का संकलन)का संपादन भी किया है। 
      इनको हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, रूसी, गुजराती, उर्दू तथा भोजपुरी भाषा में एकाधिकार प्राप्त है।ये मेरे अभिन्न मित्रों में से एक हैं और बहुत निवेदन के बाद एक कविता भेंजी है जिसको पोस्ट करते हुए मुझे बहुत खुशी हो रही है। आप सुधिजनों के बेबाक राय की हमें प्रतीक्षा रहेगी।
 सम्प्रति  : अध्यक्ष-‘अन्वेषी’, साहित्य एवं संस्कृति की प्रगतिशील       संस्था, फतेहपुर।



 




  



















शैलेष गुप्त ‘वीर’की कविता 

वे और हम
1
वे आधुनिक हैं
क्योंकि उन्हें पसंद है
मूर का दर्शन,
इटैलियन फूड
और हालीवुड की हॉरर फ़िल्में।
वे आधुनिक हैं
क्योंकि उन्हें पसंद है
नाइटक्लबों में जाकर
कैबरे-डांस देखना
शैंपेन की बोतल खोलकर
जश्न मनाना।
वे आधुनिक हैं
क्योंकि उन्हें पसंद है
पीसा की झुकी मीनार,
टोरंटो का मौसम
और स्विटजरलैंड की ख़ूबसूरत वादियाँ।
वे आधुनिक हैं
क्योंकि उन्हें पसंद है
परिवार से विलग रहना,
विवाह-पूर्व सहवास
और शादी के बाद
आपसी रजामंदी से अलग रहना।
वे आधुनिक हैं
क्योंकि उन्हें पसंद है
बीवियों का बदलना
और बेटे की गर्लफेन्ड से
चक्कर चलाना।
वे आधुनिक हैं
क्योंकि उन्हें पसंद है
अन्तर्राष्ट्रीय ख़बरें/सिगरेट का धुआँ
और पेरिस की शराब।
वे सचमुच आधुनिक हैं
क्योंकि उन्हें पसंद है
वेस्टर्न कल्चर/वेस्टर्न लाइफस्टाइल
इसलिये उन्हें पसंद है
आधुनिक की बजाय
माडर्न कहलाना। 
2
हम पिछड़े हैं
क्योंकि हमें पसंद है
आचार्य शंकर का अद्वैत वेदान्त,
पाव-भाजी
और बालीवुड की सामाजिक फ़िल्में।
हम पिछड़े हैं
क्योंकि हमें पसंद है
देर रात तक
अम्मा-बाबू के पैर मींजना
और बग़ैर शैम्पेन के ही
जश्न मना लेना।
हम पिछड़े हैं
क्योंकि हमें पसंद है
आगरे का ताज/कुल्लू का दशहरा
और ऊटी की प्राकृतिक छटा।
हम पिछड़े हैं
क्योंकि हमें पसंद है
संयुक्त परिवार/शादी के बाद बच्चे
और सात जन्मों के रिश्ते।
हम पिछड़े हैं
क्योंकि हमें पसंद है
जीवन भर/एक ही स्त्री के साथ रहना
और बहू के सर पर/पल्लू का रिवाज़।
हम पिछड़े हैं
क्योंकि हमें पसंद है
अन्तर्राष्ट्रीय ख़बरों के साथ
आंचलिक व देशी समाचार,
पान का बीड़ा
और ताज़े दही की लस्सी।
हम वाकई पिछड़े हैं
क्योंकि हमें पसंद है
भारतीय संस्कृति,
भारतीय आचार-विचार।
  
  सम्पर्क&    24/18, राधानगर, फतेहपुर (उ.प्र.) - 212601
                    वार्तासूत्र - 9839942005, 8574006355



रविवार, 8 जनवरी 2012

मनोहर चमोली ‘मनु’ की कविताएं

संक्षिप्त परिचय
           इस  कवि से मेरी पहली मुलाकात भीमताल में उत्तराखंड स्कूली शिक्षा हेतु पाठ्पुस्तकों के लेखन के दौरान हुई। 01अगस्त1973 को उत्तराखण्ड के टिहरी जनपद में जन्में मनोहर चमोली ‘मनु’ एम.ए.हिंदी, बी.एड., विधि स्नातक एवं पत्रकारिता में स्वर्ण पदक प्राप्त कियाहै । इनकी प्रकाशित पुस्तकों में ‘हास्य-व्यंग्य कथाएं’, ‘उत्तराखण्ड की लोक कथाएं’, ‘किलकारी’, ‘यमलोक का यात्री’, ‘ऐसे बदला खानपुर’, ‘बदल गया मालवा’, ‘बिगड़ी बात बनी’, ‘खुशी’,‘अब बजाओ ताली,’ ‘बोडा की बातें’,  ‘सवाल दस रुपए का’, ‘ऐसे बदली नाक की नथ’  और ‘पूछेरी’  प्रमुख हैं।
              विद्यालयी शिक्षा, उत्तराखण्ड की शिक्षक संदर्शिकाओं, पाठ्य पुस्तकों ‘भाषा रश्मि’, ‘बुरांश’  और ‘हंसी-खुशी’  का लेखन और संपादन। उत्तराखण्ड के लिए पंचायत प्रशिक्षण संदर्शिका का लेखन, सतत शिक्षा कार्यक्रम की प्रवेशिका का लेखन और राज्य संसाधन केन्द्र, उत्तराखण्ड की विभिन्न प्रवेशिकाओं में लेखन।  कहानी, कविता, नाटक, व्यंग्य, समीक्षा  में निरन्तर लेखन।
          विद्यालयी शिक्षा, उत्तराखण्ड की कक्षा 5 की ‘हंसी-खुशी’ पाठ्य पुस्तक में पाठ रूप में कहानी ‘फूलों वाले बाबा’ सम्मिलित।
आकाशवाणी से निरंतर झलकियां, नाटक, कविताएं, कहानी और  वार्ताएं प्रसारित। पूर्व में मासिक पत्रिकाओं ‘गंग ज्योति’  का सह सम्पादन और ‘ज्ञान विज्ञान बुलेटिन’  का संपादन। दैनिक राष्ट्रीय सहारा  और सहारा समय  के पूर्व संवाददाता।  

    नंदन’,  ‘बाल हंस’, ‘पाठक मंच बुलेटिन’, ‘बाल भारती’, ‘‘बाल वाणी, ’चंपक’, ‘चकमक’, ‘बाल भास्कर’, ‘बच्चो का अखबार’, ‘बाल प्रहरी’  आदि में निरंतर बाल साहित्य लेखन। पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुख रूप से ‘वागर्थ’, ‘आउट लुक’, ‘वर्तमान साहित्य’, ‘नवल’ ,‘रत्नांक’, ‘पंजाब केसरी’,‘अजीत समाचार’, ‘राष्ट्रीय सहारा’, ‘सहारा समय’, ‘राष्ट्रधर्म’, ‘पर्वत जन’,‘पर्वत पीयूष’, ‘युगवाणी’, ‘प्रौढ़ शिक्षा’, ‘सरोपमा’, ‘लोक गंगा’, ‘उत्तराखंड पोस्ट’, ‘सरस्वती सुमन’, ‘शुभ तारिका’, ‘इण्डिया टाइम्स’,‘समय साक्ष्य’,‘हिमालय विरासत’, ‘उत्तरा’, ‘उत्तरांचल’, ‘जय उत्तराखंड वीर’, ‘नारीत्व’  आदि में साहित्य की कई विधाओं का नियमित लेखन।
पुरस्कार एवं सम्मान- पत्रकारिता में गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय से स्वर्ण पदक, बाल साहित्य में पं0 प्रताप नारायण मिश्र-स्मृति युवा-साहित्यकार सम्मान 2011  और साक्षरता अभियान के सफल संचालन का राज्य संसाधन केन्द्र, उत्तराखण्ड सम्मान-2000।
संप्रति- राजकीय हाई स्कूल भितांईं, पौड़ी गढ़वाल में भाषा शिक्षक।

मनोहर चमोली ‘मनु’  की कविताएं  


 
















मैं ऐसा ही हूं

तुझसे कैसी यारी है
मुझको लगती भारी है
मत पूछो के तुम बिन मैंने
कैसे रात गुजारी है
नाहक मुझसे रूठ गया
इतनी दुनियादारी है?
ये सफर तो कट गया
अब चलने की तैयारी है
पीठ के पीछे बातें बातें
ये कैसी दिलदारी है
मेरा है तो खुलकर मिल
कैसी परदादारी है
बस इतना ही कहता हूं
जीती बाजी हारी है
मैं तो यारों ऐसा ही हूं
मेरी भी खुद्दारी है।

याद आना

चुप रहकर पछताना भी
खुद से फिर टकराना भी
पैर पटककर जाओगे हां
दबे पांव फिर आना भी
किन्तु-परन्तु अगर मगर
खास हैं बचकाना भी
जीवन की इस भागदौड़ में
कभी कभार याद आना भी

संपर्क-
 राजकीय हाई स्कूल, भितांई,पौड़ी गढ़वाल,पोस्ट                 
 बॉक्स-  23.पौड़ीगढ़वाल.246001.उत्तराखण्ड.                                         
 मोबाइल- 09412158688.-09897439791.                                              


रविवार, 1 जनवरी 2012

संतोष कुमार चतुर्वेदी की कविताएं

जन्म: 2 नवम्बर 1971 को उ0 प्र0 के बलिया जिले के हुसेनाबाद गॉव में एक किसान परिवार में।
प्रारंभिक पढाई गाँव में ही। समस्त उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से। ‘प्राचीन इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व’ तथा ‘आधुनिक इतिहास’ में परास्नातक। ‘प्राचीन भारतीय साहित्यिक एवं कलात्मक परम्परा’ में पेड़ पौधे एवं वनस्पतियॉ शीर्षक से डी. फिल.। पत्रकारिता एवं जनसंचार में परास्नातक डिप्लोमा। प्रारंभ में 15 सालों तक ‘कथा’ पत्रिका में सहायक सम्पादक के रूप में कार्य किया। इस समय ‘अनहद’ नामक पत्रिका का संपादन। 2009 में भारतीय ज्ञानपीठ से काव्य संग्रह ‘पहली बार’ का प्रकाशन। अभी हाल ही में लोकभारती प्रकाशन से ‘भारतीय संस्कृति’ नामक पुस्तक का प्रकाशन। देश भर की पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित। आकाशवाणी इलाहाबाद से निरन्तर कविताओं का प्रसारण।
संप्रति: उ.प्र. के चित्रकूट जिले के मउ में एम. पी. पी. जी. कॉलेज में इतिहास के विभागाध्यक्ष।

































  युवा कवि संतोष कुमार चतुर्वेदी की कविताएं  अपने शिल्प के गठन और पूर्वीपन  मिठास एवं सोंधेपन के कारण पहली बार में ही ध्यानाकर्षित करती  हैं। पूर्वांचल  के बलिया जैसे-उजड्ड इलाके से आये इस कवि ने जिस यथार्थ पीड़ा को झेला है उसे बड़ी सिद्दत से अपनी कविताओं में उकेरा है। भाषा नदी की धारा सी प्रवाह मान । किसी अनावश्यक शब्दों की घूसपैठ नहीं । ऐसा माना जाता है कि भाषा की सरलता एवं सहजता कविता को कमजोर बनाती है पर यहां तो बिलकुल उल्टा है।
संतोष कुमार चतुर्वेदी की बहुत सारी कविताओं से गुजरने के बाद इनकी कविता
अभिनय ” इस रचनाकार से परिचय कराने का मेरा माध्यम रही है। जब इण्डिया टुडे ” के साहित्य वार्षिकी 2002 में अभिनय कविता को   पढ़ा तो लगा कि इसका रचनाकार पूर्वांचल के ही किसी हिस्से से आता होगा। ऐसा मैंने अनुमान लगाया। फिर यह बात आयी गयी हो गयी । अपनी बैचेनी को शेयर करने के लिए अपने कई दोस्तों मित्रों को यह कविता पढ़ने को दी । आखिर पांच-छः सालों के अन्दर इस रचनाकार को ढूंढ ही निकाला। और आज बहुत कम प्रचार- प्रसार के बावजूद जिसकी अनदेखी हिन्दी साहित्य में बहुत दिनों तक नहीं की जा सकती।
इनकी कविताएं पढ़ने के बाद लगता है कि कवि की नजर में कोई बच नहीं पाया है।जैसे - मजदूर, किसान, नेता, ठेकेदार, कूड़ा वाला बच्चा, मदारी, नट, चित्रकार, फिल्मकार, कलाकार, कवि, लेखक और विश्व रंगमंच पर आने वाले विभिन्न पात्र । ऐसा लगता है कि शायद ही कोई हो जो कवि के सामने से गुजरा हो और उसकी कविता में ढल न गया हो । विभिन्न मुददों से लड़ता हुआ कवि सत्य की तरह हांफता जरूर है। परन्तु पराजित नहीं होता।यह एक सकारात्मक पक्ष है। और आगे आने वाली कविताएं भी आश्वस्त करती दिख रही हैं। जो भविष्य में एक सुखद अनुभूति कराएंगी।

 इनकी कोई भी कविता हिन्दी साहित्य के सागर में हलचल मचाने के लिए पर्याप्त है।कुछ कविताएं जैसे - “
चित्र में दुःख,  ”“रोटी की धरती,  ”“माचिस,  ”“बरगद, ”“धूप में पथरा जाने की परवाह किये बगैर, ”अभिनय,“मां  ” के अलावा अघिकांश कविताएं बार-बार पढ़ने के लिए बेचैन करती हैं।

अंत में हम यही कहेंगे कि इनकी कविताएं  एक से बढ़कर एक हैं। जो बहुत दिनों तक तरोताजा बनाए रखेंगी। बावजूद बकौल केदारनाथ सिंह-
मुझे विश्वास है,नये मानचित्र के अकांक्षी इस कवि की आवाज दूर तक और देर तक सुनी जाएगी।
यहां उनकी दो कविताएं-

हाशियाँ
जब से आबाद हुई यह दुनिया
और लिखाई की शक्‍ल में
जब से होने लगी अक्षरों की बूँदाबादी
हाशिये की जमीन तैयार हुई
तभी से हमारे बीच
अब यह जानबूझ कर हुआ
या बस यूँ ही
छूट गयी जगह हाशिये वाली
कहा नहीं जा सकता इस बारे में
कुछ भी भरोसे से
लेकिन जिस तरह छूट जाता है हमसे
हमेशा कुछ-न-कुछ जाने अंजाने
जिस तरह भूल जाते हैं हम अमूमन
कुछ-न-कुछ किसी बहाने
पहले-पहल छूटा होगा हाशिया भी
दुनिया के पहले लेखक से
कुछ इसी तरह की
भूल गलती वाले प्रयोग से
अब ऐसा सायास हुआ हो या अनायास
हाशिये की वर्तनी के साथ ही
अक्षर पन्‍ना तभी लगा होगा इतना दीप्‍त
सुघड़ दिखा होगा अपनी पहलौठी में भी
उतना ही वह
जितना आज भी खिला-खिला दिखता है
अक्षरों वाली पंक्‍तियों के साथ
भरेपूरेपन में हाशियाँ
हाशिये में भरापूरापन
कुछ इसी तरह तो
बनता आया है छन्‍द जीवन का
कुछ इसी तरह तो
लयबद्व चलती आ रही है प्रकृति
न जाने कब से
कभी कभी होते हुए भी
हम नहीं होते उस जगह पर
कभी-कभी न होते हुए भी
हमारे होने की खुशबू से
तरबतर होती हैं जगहें

और अक्‍सर अपने ही समानान्‍तर

बनाते चलते हैं हम हाशिया
जिसे देख नहीं पाते
अपनी नजरों के झरोखे से
एक सभ्‍यता द्वारा छोड़े गये हाशिये को
किसी जमाने में सजा-संवार देती है
कोई दूसरी सभ्‍यता
लेकिन कहीं-कहीं तो
प्रतीक्षारत बैठे बदस्‍तूर आज भी
दिख जाते हैं हाशिये
किसी कूँची किसी रंग या फिर
किसी हाथ की उम्‍मीद में
कई परीक्षाओं में मैंने खुद पढा यह दिशा निर्देश
कृपया पर्याप्‍त हाशियाँ छोड़ कर ही लिखें
बहुत बाद में जान पाया था यह राज
कि हाशिये ही सुरक्षित रखते थे
हमारे प्राप्‍तांकों को
परीक्षकों के हाथों से छीनकर
कॉपियाँ जाँचे जाने के वक्‍त
और इस तरह हमारे कामयाब होने में
अहम भूमिका रहती आयी है हाशिये की
जैसे कि आज भी किसी न किसी रूप में
हुआ करती है
हमसे भूल गयी बातों
चूक गये विचारों
और छूट गये शब्‍दों को
सही समय पर सही जगह दिलाने में
अक्‍सर काम आता है
यह हाशियाँ आज भी
हाशिये को दरकिनार कर
दरअसल जब भी लिखे गये शब्‍द
भरी गयीं पंक्‍तियाँ
किसी हड़बड़ी में जब भी
बाइण्‍डिंग के बाद
लड़खड़ा गयी पन्‍ने की शक्‍ल
अपठनीय हो गयी
वाक्‍यों की सूरत। 


भभकना
रोज की तरह ही उस दिन भी
सधे हाथों ने जलायी थी लालटेन
लेकिन पता नहीं कहाँ
रह गयी थोड़ी सी चूक
कि भभक उठी लालटेन

हो सकता है कि
किरासिन तेल से
लबालब भर गयी हो लालटेन की टंकी
हो सकता है कि
बत्ती जलाने के बाद
शीशा चढ़ाने में थोड़ी देर हो गयी हो
हो सकता है कि
एक अरसे से लापरवाही बरतने के कारण
खजाने में जम गयी हो
ढेर सारी मैल

यह भी संभव है कि
टंगना उठाते समय
हाथों को सूझी हो थोड़ी-सी चुहल
और आपे से बाहर होकर
भभक उठी हो लालटेन

हो सकता है कि
जब सही-सलामत जल गयी हो लालटेन
तो अन्धेरे को रोशनी से सींचने की
हमारी अकुताहट को ही
बरदाश्त न कर पायी हो
नाजुक-सी लालटेन
और घटित हो गया
भभकने का उपक्रम

दरअसल लालटेन का भभकना
जलने और बुझने के बीच की वह प्रक्रिया है
जिसके लिए कुछ भाषाओं ने तो
शब्द तक नहीं गढ़े
फिर भी घटित हो गयी वह प्रक्रिया
जो शब्दों की मोहताज नहीं होती कभी
जो गढ़ लेती है खुद ही अपनी भाषा
जो ईजाद कर लेती है
खुद ही अपनी परिभाषा

यह वह छटपटाहट थी
जो अनुष्ठान की तरह नहीं
बल्कि एक वाकये की तरह घटित हुई
अन्धेरे के खिलाफ बिगुल बजाती हुई
रोशनी को सही रास्ते पर
चलने के लिए सचेत करती हुई
और जब लोगों ने यह मान लिया
कि भभक कर आखिरकार
बुझ ही जायेगी लालटेन
अनुमानों को गलत साबित करती हुई
फैल गयी आग
समूचे लालटेन में
चनक गया शीशा
कई हिस्सों में

वैसे विशेषज्ञ यह उपाय बताते हैं
कि भभकती लालटेन को बुझा देना ही
श्रेयस्कर होता है
और भी तमाम उपाय
किये जाते हैं इस दुनिया में
भभकना रोकने खातिर

लेकिन तमाम सावधानियों के बाद भी
किसी उपेक्षा
या किसी असावधानी से
भभक उठती है लालटेन
अपनी बोली में
अपना रोष दर्ज कराने के लिए।

सम्पर्क: 3/1 बी, बी. के. बनर्जी मार्ग, नया कटरा, इलाहाबाद, उ0 प्र0 211002
मोबाइल: 09450614857, ई मेल- santoshpoet@gmail.com 

मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

खेमकरण सोमन की कविताएं


ऊधम सिंह नगर,  उत्तराखण्ड में 02 जून 1984 को जन्‍में युवा कवि खेमकरण सोमन के गीत, कवि‍ता, कहानी, लेख, समीक्षा आदि‍ का वि‍भि‍न्‍न पत्र-पत्रि‍काओं में प्रकाशन हो चुका है। उनकी तीन कवि‍तायें।



खेमकरण सोमन की कविताएं-  



























जिस तरह
    
 जाने के बाद असमय माँ के
 हो जाना था
 इस घर को दो
 आँगन को चूल्हे को भी
 छोटे भाई-बहनों का तीतर-बीतर और
 एहसास दर-दर अनाथ का
 कुशलता से लेकिन
 लिया संभाल डगमगाते घर को
 आँगन को चूल्हे को
 और बचा लिया
 भाई-बहनों को तीतर-बीतर होने से
 और अनाथ भी
 नई आईं भाभी ने
 जिस तरह
  झरने का पानी
 गिरता है पहाड़ के चरणों में
  हम भाई बहनें
 ठीक उसी तरह
 प्रणाम करते हैं 
 अपनी भाभी माँ को।


क्योंकि

ताकत की बातें
मैं नहीं करता

मै करता हूँ
सम्मान की बातें

क्योंकि
मैं जानवर नहीं
एक इन्सान हूँ।

फिर ये बताओ

जरा सोचो और
फिर ये बताओ कि-

क्या ये भी
एक हत्या नहीं जब
एक व्यक्ति कर देता है हत्या
अपने ही
सपने
विचार
इच्छाओं की ।




 संपर्क सूत्र -                   
                           खेमकरण सोमन
                           प्रथम कुंज, अम्बिका विहार,
                            ग्राम व डाक-भूरारानी, रूद्रपुर
                           जिला-ऊधम सिंह नगर
                           उत्तराखण्ड-263153
                           मो0न0-  09012666896

बुधवार, 14 दिसंबर 2011

अरुण आशीष की कविता

संक्षिप्त परिचय







        
 


     






    


      अरुण आशीष बचपन से ही कविताएं लिखते रहे हैं। हास्य व्यंग की कविताओं के बाद गंभीर साहित्य की ओर लेखन अभी जल्दी ही। इनकी कविताएं अपने आस-पास से ही सामाग्री उठाकर उन्हें विस्तृत आयाम प्रदान करती हैं।  यहां पर उनकी एक कविता ज़िन्दगी जो अपने कथ्य ,शिल्प एवं गझीन बिंबों व प्रतीकों से ध्यानाकर्षित करती है । जो इन्हें एक संभावनाशील कवि के रूप में स्थापित होने का संकेत दे रही है। आदमी की जिन्दगी कितने उतार- चढ़ाओं से भरी है । इस कविता में बड़े सिद्दत से महसूस किया जा सकता है।
         कानपुर मेडिकल कालेज से एम बी बी एस अंतिम वर्ष की पढ़ाई कर रहे अरुण आशीष  का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के चिलिकहर नामक गाँव में 1 जुलाई 1984 में हुआ। अपनी कविताओं के प्रकाशन को लेकर ये कभी गंभीर  नहीं रहे। बेब पत्रिकाओं में छिटपुट कविताएं प्रकाशित। 
   यहां उनकी एक कविता-  
                                             
ज़िन्दगी  




 















सर्कस में परदे के पीछे से झांकती
सकुचाती शर्माती वो छाया
कौतुहल से अपने परिचय को आतुर
इंतजार करती अपनी बारी का
मंचासीन होते ही
दिखाया उसने अदम्य आत्म
-विश्वास
बिना किसी डर के
दिखाना करतब
पतली डोर के सहारे चलना
लपक के झूल जाना
एक से दूसरे झूले पर
कभी लटक जाना ऊँचाई से
करना कभी लपटों का सामना
विविधता लिए मुस्कान के साथ
करना अ
खेलियाँ
नाचते हुए 

लाउड स्पीकर की धुन पर
रिझाना
कभी क्रोध कर डराना
विचित्र भाव भंगिमा धारण कर
कराना  अपना साक्षात्कार 

हर बाधाओं को लांघती
तोड़ती प्रत्येक सीमाओं को
जोड़ती कई विधाओं को परस्पर
कई रूपों के बावजूद भी
अभिन्न  
इसी का नाम है ज़िन्दगी

                                         .
संपर्क सूत्र
-
          कक्ष संख्या 116 एबी एच 4
               गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक चिकित्सा 
              महाविद्यालय कानपुर उत्तर प्रदेश
              मोबाइल
- 09450779316


शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

कैलाश गौतम की एक भोजपुरी कविता

  पुण्यतिथि ०९ दिसम्बर पर मैं अपने प्रिय कवि की एक भोजपुरी कविता पोस्ट कर रहा हूं। आप सुधीजनों के विचारों की हमें प्रतीक्षा रहेगी।   संपादक

कैलाश गौतम  08-01-1944 से 09-12-2006


अमवसा मेला




 












भक्ति के रंग में रंगल गाँव देखा
धरम में करम में सनल गाँव देखा
अगल में बगल में सगल गाँव देखा
अमवसा नहाय चलल गाँव देखा
एहु हाथ झोरा, उहू हाथे झोरा
कान्ही पे बोरी , कपारे पे बोरा
कमरी में केहू, रजाई में केहू
कथरी में केहू, दुलाई में केहू
आजी रगांवत हई गोड़ देखा
घुघुटवै से पूछे पतोहिया कि अइया
गठरिया में अब का रखाई बतइहा
एहरे हउवै लुग्गा ओहर हउवे पूड़ी
रमायन के लग्गे हौ मडूआ के ढूढ़ी
चाउर चिउरा किनारे के ओरी
नयका चपलवा अचारे के ओरी

अमवसा मेला, अमवसा मेला
हइ हउवै भइया अमवसा मेला।।
मचल हउवै हल्ला चढ़ावा उतारा
खचाखच भरल रेलगाड़ी निहारा
एहर गुर्री-गर्रा ओहर लोली लोला
बिच्चे में हउवै सराफत से बोला
चपायल केहू, दबायल हौ केहू
घंटन से उप्पर टंगायल केहू
केहू हक्का-बक्का, केहू लाल-पीयर
केहू फनफनात हउवै कीरा के नीयर
बप्पा रे बप्पा, दइया रे दइया
तनी हमें आगे बढ़े देत्या भइया
मगर केहू दर से टसकलै टसकै
टसकलै टसकै, मसकले मसकै
छिड़ल हौ हिताई-नताई चरचा
पढ़ाई लिखाई, कमाई चरचा
दरोगा बदली करावत हौ केहू
लग्गी से पानी पियावत हौ केहू
अमावास के मेला अमावस मेला
इहइ हउवै भइया अमावस मेला।।

जेहर देखा ओहरै बढ़त हउवै मेला
सरगे सीढ़ी चढ़त हउवै मेला
बड़ी हउवै साँसत कहले गिनाला
एही भीड़ में संत गिरहस्त देखा
सबै अपने अपने में हौं ब्यस्त देखा
टाई में केहू, टोपी में केहू
झुसी में केहू अलोपी में केहू
अखाड़न के संगत के पंगत देखा
कहीं रासलीला कहीं परबचन हौ
कहीं गोष्ठी हौ कहीं भजन हौ
केहू बूढ़िया माई के कोरा उठावै
तिरबेनी मइया में गोता लगावै
कलपबास में घर के चिंता लगल हौ
कटल धान खरिहाने वइसे परल हौ

अमवसा मेला,अमवसा मेला
इहइ हउवै भइया अमवसा मेला।।
बहुत दिन पर चम्पा-चमेली भेटइलीं
बचपन दूनों सहेली भेंटइली
आपन सुनावै आपन सुनावै
दूनों आपन गहना गदेला गिनावैं
असों का बनवलू असों का गढ़वलू
तू जीजा का फोटो अब तक पठवलू
इन्हैं रोकैं इन्हैं टोकैं
दूनौ अपने दुलहा तारीफ झोंकै
हमें अपनी सासू पुतरी तू जान्या
हम्में ससुर जी पगरी तू जान्या
शहरियो में पक्की देहतियो में पक्की
चलत हउवै टेम्पो चलत हउवै चक्की
मनैमन जरै गड़ै लगली दूनौं
भयल तू-तू मैं-मैं लड़े लगली दूनौं
साधू छोड़ावै, सिपाही छोड़ावै
हलूवाई जइसे कराही छोड़वै

अमवसा मेला,अमवसा का मेला
इहइ हउवै भइया अमवसा मेला।।
कलौता माई झोरा हेरायल
बुद्धू बड़का कटोरा हेरायल
टिकुलिया माई टिकुलिया के जोहै
बिजुलिया भाई बिजुलिया के जोहै
मचल हउवै मेला में सगरो ढुंढाई
चमेला बाबू चमेला माई
गुलबिया समत्तर निहारत चलैले
मुरहुवा-मुरहुवा पुकारत चलैले
छोटकी बिटिउवा के मारत चलैले
गोबरधन सरहज किनारे भेटइली
गोबरधन के संगे पउँड़ के नहइली
घरे चलता पाहुन दही-गुड़ खिलाइत
भतीजा भयल हौ भतीजा देखाइत
उहै फेंक गठरी परइलैं गोबरधन
फिर-फिर देखइलैं धरइलैं गोबरधन

अमवसा मेला ,अमवसा मेला
इहइ हउवै भइया अमवसा मेला।।
केहू शाल सुइटर दुशाला मोलावै
केहू बस अटैची ताला मोलावै
केहू चायदानी पियाला मोलावै 
सोउरा केहू मसाला मोलावै
नुमाइस में जाते बदल गयलीं भउजी
देखते डरामा उछल गयलीं भउजी
भइया बेचारू जोड़त होउवैं खरचा
भुलइलै भूलै पकौड़ी मरचा
बिहाने कचहरी, कचहरी चिन्ता
फटल हउवै कुरता फटल हउवै जूता
खालित्ता में खाली केराया बूता
तबौ पीछे-पीछे चलत जात हउवन
गदेरी में सुरती मलत जात हउवन
अमवसा मेला अमवसा मेला
इहइ हउवै भइया अमवसा मेला।।