डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’
(1)
कोस-कोस सरकार को कोस।
महँगाई की मार को कोस।
चुनकर नेता किसने भेजा,
संसद की तकरार को कोस।
लूट-डकैती-हत्या-चोरी,
लोकतंत्र की धार को कोस।
कहीं अयाशी कहीं ग़रीबी,
जी भर पालनहार को कोस।
नाव डुबो दी रामलाल ने,
नाविक की पतवार को कोस।
कंधे ढीले पहले से थे,
उम्मीदों के भार को कोस।
(2)
मन में बोझ लिये बैठा हूँ।
सारा ज़हर पिये बैठा हूँ।
थोड़ी-सी ही उमर बहुत है,
सदियाँ कई जिये बैठा हूँ।
पाप नहीं मिट पाये अब तक,
यूँ तो होम किये बैठा हूँ।
बची रहे मर्यादा तेरी,
अपने होंठ सिये बैठा हूँ।
ढूँढ़ रहा हूँ प्यार अभी तक,
चौवन इश्क़ किये बैठा हूँ।
नहीं हुई सुनवाई अब तक,
अर्ज़ी कई दिये बैठा हूँ।
अध्यक्ष - ‘अन्वेषी’
24/18, राधानगर, फतेहपुर (उ.प्र.) - 212601
वार्तासूत्र - 9839942005, 8574006355
पुस्तक समीक्षा
‘आर-पार’ यानी विद्रूपताओं पर करारा प्रहार
-चक्रधर शुक्ल
अन्वेषी संस्था के अध्यक्ष और अन्वेषी पत्रिका के संपादक डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ के संपादन में एक दर्जन कवियों की चुनिंदा कविताओं का संग्रह ‘आर-पार’ हमारे बीच आ चुका है। इन युवा कवियों को पढ़ना अपने आप में एक सुअवसर है जिनके ज़रिये कविता अपने शिल्प में पीड़ा, घुटन, आक्रोश, संत्रास, झूठ, फ़रेब के साथ अमर्यादित कामों की निंदा ही नहीं करती, बल्कि बहुत संजीदगी के साथ उसे सबके सामने लाकर सच को उद्घाटित करती है। सच्चाई को स्वीकारना सबके बस की बात नहीं। भीरु होता जा रहा जनमानस तमाम ऐसे कृत्यों को देखता रहता है, लेकिन विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाता। इसी साहस का काम कविता करती हैं कविता संग्रह ‘आर-पार’ की कविताएँ।
गुनहगार, मुखौटा लगाकर भीड़ में शामिल हो जाता है। उस मुखौटे को उतारने का काम आरसी चौहान अपनी कविता के माध्यम से करते हैं और बहुरूपिये को सामने लाते हैं। पेट की आग को मिटाने के लिए, वह जाने कितने रूप धरता है। कितनी बार पेट की क्षुधा, परिवार की परवरिश के लिए दंश झेलता है। मरता है- तालियाँ बजती हैं और उन्हीं तालियों के बीच एक अंतिम एपीसोड का होना, गहरे दर्द में डुबो देता है। कविता ध्वनित होती रहती है- कविता यहाँ ज़िन्दा है। उसे ज़रूरी नहीं छंद में बाँधा जाय, मुक्तक में ढाला जाय, गीत में उतारा जाय, ग़ज़ल में सँवारा जाय। कविता, कविता है जो निर्झरित होती है, होती रहेगी। अपनी भावना को बहुत गहरे, शब्दों के माध्यम से दिल में उतार देना कविता की ताकत को दर्शाता है।
‘‘....कविता सिर्फ एक कविता नहीं है
कविता है एक विचार.....।’’
विचारवान कवि कृष्ण कुमार यादव विचारों को गति देते हैं। वर्तमान समय में बाज़ारीकरण, उपभोक्तावाद का चित्रण करती कविता, विज्ञापनों के गोरखधंधों की ओर इंगित ही नहीं करती, सच्चाई बताती है। लुप्त होती जा रही हमारी संस्कृति के बीच गौरैया का जिक्र करती कविता कवि की अतिसंवेदनशीलता को दृष्टिगत करती है।
‘‘......आदमी/ ......आदमी के आर-पार
जमी होती है धूल.....।.’’
कवि डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ की इस कविता से ही इस संग्रह का शीर्षक लिया गया है। कवि बताता है कि- ‘‘हर इंसान/अपने बारे में/देता है/सदा ही/यह उलाहना/मुझे आजतक/नहीं समझ सका कोई.....!’’ यह व्यामोह, अहं का प्रदर्शन भी हो सकता है, जो व्यक्ति अपने घर में रहते हुए अपने घर रूपी देह को नहीं पहचान पाया, वो दूसरों को क्या पहचान पायेगा-अतिविचारणीय है। खुद को जानने का भ्रम उसे जीवित तो रखे हुए है, लेकिन सत्य से विमुख होकर आर-पार करना सहज नहीं। जो कर लेता है, निश्चय ही उसने ढाई आखर प्रेम के पढ़ लिये हैं। एक दूसरी कविता ‘रोड लाइट के बोझ तले’ में कवि डॉ. शैलेष ने बाल मज़दूरी का जितनी बेबाकी से बयाँ किया है, उतनी बाल मज़दूरी पर सेमिनारों, सभा-संगोष्ठियों, आदि में भी चर्चा नहीं होती-
‘‘महज एक/दस की नोट के लिए....
किंतु, कैसे उठा लेती है
होकर ज़लील प्रति रोज़
उम्र से भी दूने का बोझ!
क्या पेट की क्षुधा
रोड लाइट से भी भारी है।’’
राजस्थान के अक्षय गोजा की कविताएँ जीवटता, साहस, ख़ुशमिज़ाजी तथा ज़िंदादिली से भरपूर हैं। युवा हस्ताक्षर प्रवीण कुमार श्रीवास्तव की कविताएँ नयी ज़मीन, नयी संभावनाएँ तो तलाशती ही हैं, साथ ही नयी उम्मीद भी जगाती हैं-‘‘जाने, कब आयेगी वह घड़ी/जब ग्रहण लगेगा/इनके/इस अघोषित अधिकार पर/और/ये सरकारी गिद्ध होंगे/विलुप्तता के कगार पर।’’
मध्य प्रदेश के कवि देवेन्द्र कुमार मिश्र का यायावरी मन विभिन्न विषयों पर कविता लिखकर अपनी सार्थकता सिद्ध करता है-‘‘मैंने सहारा माँगा था/तुम कंधा देने लगे/मरा नहीं हूँ मैं/गलती कर दी हमने/तुमसे सहायता माँगकर.....।’’ इस सिलसिले में श्रवण कुमार पांडेय की कविता अपना विशेष प्रभाव छोड़ती है-‘‘मुझे जी लेने दिया जाता/तो मेरा ‘आज’/कुछ और ही होता/कुंती जैसा एहसास/मुझे जीना होगा आजीवन/ कर्ण यदि कुंती के पास होता/तो महाभारत का/कथानक कुछ और होता......।’’
कवि अरविंद कुमार वर्मा की पर्यावरण को शब्दांकित करती कविता ‘ठूँठ’ सामाजिक सरोकारों से जुड़कर वर्तमान समाज का जीता-जागता उदाहरण सामने रखती है। इसी की अगली कड़ी में युवा कवि डॉ. ज्ञानेंद्र गौरव की कविता ‘मील के पत्थर’ उन पत्थरों को भी चलने की प्रेरणा देती है जो हमें अपने अभीष्ट तक पहुँचाने में मदद करते हैं।
युवा कवि वसीम अकरम सिर्फ़ एक कवि नहीं, बल्कि एक शायर, एक लेखक, एक गायक और एक सुधी पत्रकार हैं। समाचार इनकी ज़िंदगी का हिस्सा हैं-उनकी कविता ‘ताज़ा ख़बर’ इसका प्रमाण तो है ही, साथ ही ‘लड़की, कंधा, मरहम, बदनाम गली, भिखारी, शहर-ए-ख़ामोश और बोझ आदि उनकी कविताएँ उनके युवा तेवर से परिचित कराती हैं और समय से साक्षात्कार कराते हुए हमारा ध्यान भी खींचती हैं। गणेश शंकर श्रीवास्तव ‘ऋषि’ ने घर को सजाने-सँवारने-बनाने में नये-नये प्रतीक गढ़े हैं, कारीगरी की है, शब्दों की पच्चीकारी की है-‘‘तभी तो हम तब्दील हो रहे हैं/एक नये कल्चर में......./कार्पोरेट मोहब्बत की ओर।’’
संपादक डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ के संपादन में दर्जन भर कवियों की दर्जनों कविताएँ निश्चय ही साहित्य जगत को प्रभावित करेंगी और अपना स्थान भी बनायेंगी। इस संग्रह का समर्पण व आवरण अत्यधिक प्रभावी है, इसका दिल खोलकर स्वागत होना चाहिए।
समीक्षक सम्पर्क-
सिंगल स्टोरी, एल. आई. जी.-1, बर्रा-6, कानपुर (उ. प्र.)-27
पुस्तक प्राप्त करने हेतु संपर्क सूत्र -
डॉ. शैलेष गुप्त‘वीर’
24/18 राधा नगर फतेहपुर उ0प्र0 212601
वार्तासूत्र-09839942005, 8574006355
email -doctor_shailesh@rediffmail.com
मासिक पत्रिका ‘प्रथम प्रवक्ता ’से साभार
पंखुरी सिन्हा (जन्म -18 जून 1975
)
जीवन की किसी भी गतिविधी में सौंदर्य की रचना तभी हो पाती है जब उसमें संतुलन हो। किसी भी तरह की क्षति सौंदर्य को नष्ट करती है । कविता में भी वही बात है। जिसने संतुलन को साध लिया वे ही अपना ऊंचा स्थान बनाने में सफल होते हैं। संतुलन को साधने में महारत हासिल करने वाली ऐसी ही एक युवा कवयित्री हैं जिन्होंने समकालीन रचनाकारों में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराई है । मैं बात कर रहा हूं दो संस्कृतियों का अनूठा संगम कराने वाली युवा कवयित्री पंखुरी सिन्हा की जिनकी कविताओं में बखूबी देखा जा सकता है।
इनकी रचनाएं अब तक हंस, वागर्थ, पहल, नया ज्ञानोदय, कथादेश, कथाक्रम, वसुधा, साक्षात्कार, अभिव्यक्ति, जनज्वार, अक्षरौटी, युग ज़माना, बेला, समयमान, अनुनाद, सिताब दियारा, पहली बार, पुरवाई, लोकतंत्र दर्पण, सृजनगाथा, विचार मीमांसा, रविवार, सादर ब्लोगस्ते, हस्तक्षेप,
दिव्य नर्मदा, शिक्षा व धरम संस्कृति, उत्तर केसरी,
इनफार्मेशन2 मीडिया, रंगकृति, हमज़बान, अपनी माटी, लिखो यहाँ वहां, बाबूजी का भारत मित्र आदि पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।
हिंदिनी, हाशिये पर, हहाकार, कलम की शान, समास, हिंदी चेतना, गुफ्तगू आदि ब्लौग्स व वेब पत्रिकाओं में, कवितायेँ तथा कहानियां, प्रतीक्षित ।
किताबें –
'कोई भी दिन' , कहानी संग्रह, ज्ञानपीठ, 2006
'क़िस्सा-ए-कोहिनूर', कहानी संग्रह, ज्ञानपीठ, 2008
कविता संग्रह 'ककहरा', शीघ्र प्रकाश्य,
पवन जैन द्वारा सम्पादित शीघ्र प्रकाश्य काव्य संग्रह ‘आगमन’ में कवितायेँ सम्मिलित
पुरस्कार-
-राजीव गाँधी एक्सीलेंस अवार्ड 2013, दिए जाने की घोषणा
-पहले कहानी संग्रह, 'कोई भी दिन' , को 2007 का चित्रा कुमार शैलेश मटियानी सम्मान
-'कोबरा: गॉड ऐट मर्सी', डाक्यूमेंट्री का स्क्रिप्ट लेखन, जिसे 1998-99 के यू जी सी, फिल्म महोत्सव में, सर्व श्रेष्ठ फिल्म का खिताब मिला
-'एक नया मौन, एक नया उद्घोष', कविता पर,1995 का गिरिजा कुमार माथुर स्मृति पुरस्कार,
-1993 में, CBSE बोर्ड, कक्षा बारहवीं में, हिंदी में सर्वोच्च अंक पाने के लिए, भारत गौरव सम्मान।
प्रस्तुत है इनकी कुछ कविताएं -
चुप्पी के अंतर
चुप्पी अधिकारी की,
पुलिस अफसर की,
फरक है जिस तरह,
किस तरह,
कितनी,
कितनी फरक,
उस लड़की से,
जो करते ही प्रवेश,
कामकाजी संसार में,
कला की सिद्ध दुनिया में,
अभिनय की प्रसिद्ध दुनिया में,
दफ्तरी जगह में, करते ही प्रवेश,
देखती है कि एक अजीब सा चुनाव है,
उनसे लगातार सवाल करते रहने का उसका,
और बढ़ते जा रहे हैं,
अधिकारों के दायरे उनके,
सिमटता जा रहा है उसके नितांत अपने का क्षेत्र,
कितनी फरक उसकी अचम्भित चुप्पी से,
उस पुलिस अफसर की,
जिसे वह लगातार फ़ोन कर रही थी,
कि पीछा तक कर रहा था,
कोई उसका।
ताना बाना
बनाते हैं हम दोस्त, जहाँ तक मुमकिन हो बनाना,
हर कही हुई बात को, देकर एक अच्छा सा मोड़,
करके उसका खूबसूरत सा इस्तेमाल,
कि फलां ने ये कहा, और लागू है हम सब पर,
कि झगड़ा हम यहीं ख़त्म करें,
खात्मा सारी रंजिश का,
नाराजगियों का सारी,
बंद करें हम ताने देना,
बोली ठोली,
अजीब सी एक आँख मिचौली,
कौन चोर, सिपाही कौन,
पर सवाल ये कि कहाँ हो संधि वार्ता,
वह मकाम क्या हो?
क्या हो वह मकाम?
किसका पलड़ा भारी,
किसका हल्का?
कौन बन्दर, कौन मदारी?
कौन ऊपर, कौन नीचे?
कौन आगे, कौन पीछे,
कौन दोस्त, कौन दुश्मन?
सुड़कने, चबाने के स्वर
काबू कर लेगी, आवाजों को उसकी वह,
इस नयी रूममेट की आवाजें,
रह लेगी साथ उनके,
ये बहुत तेज़ सुड़कने की,
रेघा कर चबाने की, जैसे फल,
ये इधर की आवाजें,
एक बूढ़े की लड़ाई की,
एक बूढ़े के साथ की लड़ाई की,
जब से शुरू हुआ भूख और भोजन का युद्ध,
जब से शुरू हुई किसके पास क्या की गिनती?
तभी से शुरू हुई,
कौन क्या कर सकता है
की भी गिनती
बेहद खतरनाक एक गिनती,
फलांगती ताक़त की नुमायिशों की हद।
संपर्क-39, मेरीवेल क्रेस्सेंट, कैलगरी, NE,
AB, कैनाडा, T2A2V5
ईमेल-sinhapankhuri412@yahoo.ca,
सेल फ़ोन-
403-921-3438