सोमवार, 21 नवंबर 2011

अनवर सुहैल की कविताएं-

  संक्षिप्त परिचय    

            मेरे आग्रह पर भाई महेश चंद्र पुनेठा ने अनवर सुहैल की कविताओं पर दो शब्द लिखने का  जो दुस्साहसिक कार्य किया है। इसके लिए आभारी हूं इनका। दुस्साहसिक क्यों कहूं अनवर सुहैल जी की कविताओं में चमरू शब्द जो आग की तरह उपस्थित है। चमरू जैसे पात्र .प्र. और छत्तीसगढ़ के कोयला  खादानों में ही नहीं दुनिया के विभिन्न हिस्सों में अपनी आग के साथ मौजूद हैं। इस आग से शोषक वर्ग कब तक बचा रह सकेगा। यहां चमरू को किसी जाति विशेष से जोड़कर हवा में लहराते हुए हाथ वाले मजदूर के तौर पर देखा जाए। इस आग की मशाल को उठाने का कार्य अनवर सुहैल जैसा कवि ही कर सकता है।वहीं इनकी दूसरी कविता भी  हमारे तन-मन पर हावी होते बाजार को बडे़ सिद्दत से उकेरती है।

       09 अक्टूबर 1964  को छत्तीसगढ़ के जांजगीर में जन्में अनवर सुहैल जी के अब तक दो उपन्यास , तीन कथा संग्रह और एक कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कोल इण्डिया लिमिटेड की एक भूमिगत खदान में पेशे से वरिष्ठ खान प्रबंधक हैं। संकेत नामक लघुपत्रिका का सम्पादन भी कर रहे हैं।

         बकौल महेश - अनवर सुहैल जी से मेरा पहला परिचयअसुविधापत्रिका के माध्यम से हुआ उसके बाद से यत्र-तत्र  मैं उनकी कविताएं पढ़ता ही रहा हूँ। उनकी कविताओं की सहज संप्रेषणीयता और नए जीवनानुभव मुझे आकर्षित करते रहे हैं। अब तक उनके तीन कविता संग्रह चुके हैं। उन्होंने अपनी कविताओं में  बदलते समय और समाज की हर छोटी-बड़ी दास्तान और जीवन के विविध पहलुओं को दर्ज किया है पर मुझे उनकी कविताओं का सबसे प्रिय स्वर वह लगा जिसमें वे खादान जीवन  से अनुस्यूत अपने अनुभवों को अपनी कविताओं की अंतर्वस्तु बनाते हैं।
              अनवर जी की इन कविताओं को पढ़ना कोयला खादानों से जुड़े अंचलों और उसके जन-जीवन से दो-चार होना है। कोयला खदानों में काम करने वाले मजदूरों का जीवन ,समाज , प्रकृति ,मानवीय संवेदनाएं और  उनके संघर्ष उनकी कविताओं में बहुत गहराई और व्यापकता से व्यक्त हुए हैं। ये कविताएं पाठक को एक नए अनुभव लोक में ले जाती और गहरे तक संवेदित करती हैं। मानसिक रूप से हम अपने-आप को उन अंचलों और वहाँ के निवासियों से जुड़ा महसूस करते हैं। फिर यह जुड़ना किसी स्थान विशेष या लोगों तक सीमित नहीं रह जाता है बल्कि समाज की तलछट में रह रहे श्रमरत मनुष्यों और उनकी पीड़ाओं से जुड़ना हो जाता है। इन कविताओं की स्थानीयता में वैश्विकता की अपील निहित है। खदानों के जीवन परिस्थितियों को लेकर इस तरह की बहुत कम कविताएं हिंदी  में पढ़ने को मिलती हैं। छोटी-छोटी और सामान्य सी प्रतीत होने वाली घटनाओं में बड़े आशयों का संधान करना इन कविताओं की विशेषता है। ये कविताएं पाठक से सीधा संवाद करती हैं , इस तरह कविता में अमूर्तीकरण का प्रतिकार करती हैं। कहीं-कहीं वे अपनी बात को कहने के लिए अधिक सपाट होने के खतरे भी उठाते हैं। नाटकीयता उनकी कविताओं की ताकत है।

          अनवर सुहैल कविता में  संप्रेषणीयता के आग्रही रहे हैं।इसका मतलब यह कतई नहीं कि वह कविता के नाम पर सपाट और शुष्क गद्य के समर्थक हों। उनका मानना है कि गद्य लेखकों की बिरादरी आज की कविता कोकवियों के बीच का कूट-संदेशसिद्ध करने पर तुली हुई है। यानी ये ऐसी कविताएं हैं जिन्हें कवि ही लिखते हैं और कवि ही उनके पाठक होते हैं।.....कवि और आलोचकों का एक अन्य तबका ऐसा है जो कविता को गूढ़ ,अबूझ , अपाठ्य ,असहज और अगेय बनाने की वकालत करता है। वह प्रश्न खड़ा करते हैं कि किसी साधारण सी बात को कहने के लिए शब्दों की इस बाजीगरी को ही कविता क्यों कहा जाए? इसलिए अपनी कविताओं में वह इस सबसे बचते हैं।

               लोकोन्मुखता उनकी कविता मूल स्वर है। लोकधर्मी कविता की उपेक्षा उनको हमेशा सालती रही है। इसी के चलते उन्होंनेसंकेतपत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया। इस पत्रिका के माध्यम से उनका प्रयास है साहित्य केंद्रों से बाहर  लिखी जा रही महत्वपूर्ण कविता को सामने लाया जाय जिसकी लगातार घोर उपेक्षा हुई है। कठिन और व्यस्तता भरी कार्य परिस्थितियों के बावजूद अनवर लिख भी रहे हैं ,पढ़ भी रहे हैं और साथ ही संपादन जैसा थका देने वाला  कार्य भी कर रहे हैं। यह सब कुछ वही व्यक्ति कर सकता है जिसके भीतर समाज के प्रति गहरे सरोकार समाए हुए हों। बहुत कम लोग हैं जो इतनी गंभीरता से लगे रहते हैं और दूरस्थ जनपदीय क्षेत्रों में रचनारत लोगों के साथ अपने जीवंत संबंध बनाए रखते हैं।

            पेशे से माइनिंग इंजीनियर  अनवर सुहैल केवल कविता में ही  नहीं बल्कि  कथा के क्षेत्र में भी समान रूप से सक्रिय रहे हैं। कुछ वर्ष पूर्व राजकमल प्रकाशन से उनकापहचाननाम से एक उपन्यास आया है। जो काफी चर्चित रहा है। इस उपन्यास के केंद्र में भी समाज के तलछट में रहने वाले लोगों का जीवन है जो जीवन भर अपनी पहचान पाने के लिए छटपटाते रहते हैं। विशेषकर उन लोगों का जो धार्मिक अल्पसंख्यक होने के चलते अपनी पहचान को छुपाते भी हैं और छुपा भी नहीं पाते हैं। यह कसमकस इस उपन्यास में सिद्दत से व्यक्त हुई है।

              अनवर जितने सहज-सरस साहित्यिक हैं उतने ही सहज-सरस इंसान भी। उनसे मिलने या बात करने वाला कोई भी व्यक्ति उनके मृदुल व्यवहार का कायल हुए बिना नहीं रह सकता है।
 प्रस्तुत है यहां उनकी दो कविताएं-



  







चमरू

बीस किलोमीटर दूर गांव से
आता है चमरू
उतरती है चैन साईकिल की
इस बीच कई बार
फुलपैंट का पांयचा
फंस कर चैन में
हो चुका चीथड़ा
चमरू की त्वचा की तरह
दूसरी पैंट भी तो
नहीं पास उसके!

बीस किलोमीटर दूर गांव से
आता है चमरू
मुंह अंधेरे छोड़ता घर-परिवार
रांधती है बीवी अलस्सुबह भात
अमरू की तीखी-खट्टी चटनी
या कभी खोंटनी साग
पोलीथीन में बांध कर खाना
भगाता साईकिल तेज़-तेज़ चमरू
प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क तक पहुंचने में
नाकने पड़ते नाले तीन
इन नालों के कारण
बारिश में करना पड़ता ड्यूटी नागा उसे
चमरू नहीं जानता
कि राजधानी में मेट्रो का बिछाया जा रहा जाल
कि चार दिन के खेल के लिए
फूंके जाते हैं हज़ारों करोड़ रूपए
ऐसे समय में जब अनाज भंडारन के लिए
नहीं है अभी भी गोदाम देश में...

बीस किलोमीटर दूर गांव से
आता है चमरू
जब खदान के मुहाड़े
मुंशी महराज हड़काता है
‘‘आज फिर लेट आया बे चमरू!’’
पतली दुबली काया में
सांस के उतार-चढ़ाव को सहेजे
दांत निकाल देता सफाई चमरू-
‘‘का करूं महराज.... अब से गल्ती होई!
भले से शाम देर तक ले लेना काम
लउटईहा मत महराज!’’
चमरू खदान में
करता हर तरह के काम
जानता खदान का चप्पा-चप्पा
मधुमक्खी के छत्ते की तरह
सुरंगें हैं कोयला खदान की
या कहें अंतड़ियों के जाल सी हैं सुरंगें खदान की
अपने संग मजूरों की जुट्टी बना
दौड़ता-निपटाता सारे काम चमरू
इसीलिए महराज मुंशी उसे
ज्यादा नहीं धमका पाता है.....

चमरू खदान का
सबसे पुराना ठीकेदारी-मजूर है
महराज मुंशी जानता है
यदि चमरू रूठा
तो लपक लेगा दूसरा ठीकेदार उसे
इसलिए प्यार से गरियाकर
लगा देता उसे ड्यूटी पर....

थोड़ी देर बाद चमरू
हेलमेट में केप-लैम्प बांधे
मजूरों की जुट्टी संग उतरता
कोयला खदान के अंतहीन गलियारों में
महराज मुंशी मजूरों को उतार
देता मोबाईल पर ठीकेदार को रिपोर्ट
और भाग जाता महराजिन के पास!

बीस किलोमीटर दूर गांव से
आता है चमरू काम पर
इसी तरह आते हैं
सैकड़ों चमरू कोयला खदानों में
अपनी-अपनी साईकिलों पर होके सवार
इस तरह
कि जी पाते हैं क़ायदे से
और मर ही पाते हैं सलीके से!

जितना ज्यादा

जितना ज़्यादा बिक रहे
गैर-ज़रूरी सामान
जितना ज्यादा आदमी
खरीद रहा शेयर और बीमा
जितना ज्यादा लिप्त इंसान
भोग-विलास में
उतना ज्यादा फैला रहा मीडिया
प्रलय, महाविनाश, आतंकी हमले
औरग्लोबल वार्मिकके डर!
ख़त्म होने से पहले दुनिया
इंसान चखना चाहता सारे स्वाद!

आदमी बड़ा हो या छोटा
अपने स्तर के अनुसार
कमा रहा अन्धाधुन्ध
पद, पैसा और पाप
कर रहा अपनों पर भी शक
जैसे-जैसे बढ़ती जा रही प्यास
जैसे-जैसे बढ़ती जा रही भूख
वैसे ही बढ़ता जा रहा डर

टीवी पर लगाए टकटकी
देखता किस तरह होते क़त्ल
देखता किस तरह लुटते संस्थान
देखता किस तरह बिकता ईमान

एक साथ उसके दिमाग में घुसते
वास्तुशास्त्र, तंत्र-मंत्र-जाप,
बाबा रामदेव का प्राणायाम
मधुमेह, रक्तचाप और कैंसर के इलाज
कामवर्धक, स्तम्भक, बाजीकारक दवाएं
बॉडी-बिल्डर, लिंगवर्धक यंत्र
मोटापा दूर करने के सामान
बुरी नज़र से बचने के यत्न
गंजेपन से मुक्ति के जतन

इसी कड़ी में बिकते जाते
करोड़ों के सौंदर्य प्रसाधन
अनचाहे बाल से निजात

अनचाहे गर्भधारण का समाधान
सुडौल स्तन
स्लिम बदन के साथ
चिरयुवा बने रहने के सामान
बेच रहा मीडिया...

बड़ी विडम्बना है जनाब
आज का इंसान
होना नहीं चाहता बूढ़ा
होना नहीं चाहता बीमार
और किसी भी क़ीमत में मरना नहीं चाहता...

सम्पर्क: टाईप 4/3, ऑफीसर्स कॉलोनी, बिजुरी
            जिला अनूपपुर .प्र.484440
                   फोन 09907978108

मंगलवार, 15 नवंबर 2011

बिजेन्द्र सिंह एवं मनवीर सिंह नेगी की कविताएं-


           बाल दिवस ( 14 नवंबर 2011 ) पर दो बच्चों बिजेन्द्र सिंह एवं मनवीर सिंह नेगी की कुछ  कविताएं       पोस्ट कर रहा हूं। आप सुधीजनों के विचारों की हमें प्रतीक्षा रहेगी।  -  संपादक

बिजेन्द्र सिंह

 2 अक्टूबर1995 को टिहरी गढ़वाल के खासपट्टी पौड़ीखाल के बाँसा की खुलेटी(गौमुख) नामक गांव में दलित परिवार में जन्में बिजेन्द्र सिंह ने राज्य स्तर पर खेल के अलावा विभिन्न क्षेत्रों में सराहनीय कार्य किया है।स्कूल में हमेशा पढ़ाई में प्रथम  आने पर सम्मानित भी हुए हैं। प्रवाह ,भाविसा और पुरवाई पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के बाद कहीं भी बेब पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली उनकी पहिलौठी कविताएं। वर्तमान में श्री गुरूराम राय पब्लिक स्कूल देहरादून में अध्ययनरत।



बिजेन्द्र सिंह की कविताएं-

1-दो भाई


दो थे भाई सोनो-मोनो
बहुत शरारती थे वह दोनों

बात-बात पर झगड़ा होता
झगड़ा अक्सर तगड़ा होता

उनकी माँ हमेशा  डाँटती
फिर भी नहीं वह उन्हें मारती

बच्चों से वह करती थी प्यार
मारने पर बच्चे रुठ जायेंगे यार

उनके पिता जी उन्हें डाँटते
फिर भी नहीं वह दोनों मानते

टीचर ने उन्हें खूब समझाया
अच्छे -बुरे का फल बतलाया

अब नहीं वह शैतानी करते
मन लगाकर दोनों पढ़ते।




















2-मन में आया

मन में आया चिडिया बनकर
आसमान में उड़ता जा़ऊँ

मन में आया शेर बनकर
जगह-जगह पर गुर्रा़ऊँ

मन में आया बिल्ली बनकर
म्याऊँ - म्याऊँ करता जाऊँ

मन में आया कबूतर बनकर
सबको शुभ संदेश पहुंचाऊँ

मन में आया बंदर बनकर
इधर-उधर उछल कूद मचाऊँ

मन में आया हाथी बनकर
मैं भी अपनी सूँड़ हिलाऊँ

कहां गये मेरे सपने सब
जब से हुआ बड़ा मैं अब।


संपर्क-    
        बिजेन्द्र सिंह
                ग्राम पोस्ट-बाँसा की खुलेटी, गौमुख
                खासपट्टी पौड़ीखाल , टिहरी गढ़वाल
                 उत्तराखण्ड, 249121
         मोबा0-09012811312




मनवीर सिंह नेगी की एक कविता











  





मेरा मिट्ठू

एक वृक्ष पर था तोता
किन्तु अभी वह बहुत था छोटा

मम्मी- पापा के संग रहता था
होते भोर ही जगता था

एक दिन उसको पकड़कर लाया
दूध-भात मैंने खूब खिलाया

मिट्ठू-मिट्ठू कहता था
,बी, सी ,डी पढ़ता था

सके मम्मी पापा टें-टें करते
क्योंकि वह नहीं लिखे-पढ़े थे।







 

संपर्क-
                 मनवीर सिंह नेगी
                 राजकीय इंटर कालेज गौमुख
                 टिहरी गढ़वाल ,उत्तराखण्ड, 249121